अलविदा Lalit Rathod द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अलविदा

बचपन से किसी घने मेले में घूम जाना चाहता था। कई बार हाथ छोड़कर भीड़ में शामिल होने का प्रयास भी किया लेकिन हर बार घूम के ठीक पहले पड़का गया। घूम जाने की वजह एक नया रास्ता खोज निकाले की थी, जो सीधा मुझे भीड़ से दूर कर दे और ऐसी जगह में पहुंचा जो बिलकुल नए जीवन के रास्ते में चलने जैसा हो। तभी से हर पल जीवन में बदलाव लाना आकर्षित करता है। इसलिए एक जीवन को कभी लंबे समय तक नहीं जी सका। अपने जीवन में हमेंशा जगह छोड़ते हुए चलता हूं। ताकि छुटी हुई जगह में एक नया जीवन फिर आ सके और वह समय पहले के तरह ना हो। 2 तारिख को तय कर चुका था आने वाले दो दिनों इस रूम को अलविदा कहना है। ऐसा क्यो कर रहा के जवाब में कई सवाल पैदा हो चुके थे। रूम के भीतर यह कहने से बचता रहा की यह रूम मुझे छोड़ना है। शायद अपने कमरे के दीवार और खिड़की और एकांत से यह बात कहने से डर रहा था। जो एक संबध के रूप में सालों से मेरे साथ थे। हमेंशा से अचानक भाग जाने का सच बताने से डरता आया हूंं। पहली बार जब इस रूम पहुंचा था तब यह इतना खूबसूरत नहीं था, जितना मैंने बना दिया था। रूम की अंतिम रात पीठ और सिर के निशानों से भीगी हुई दीवारें, और कुछ नाखूनों के खुरचने का दर्द ली हुई दीवारें को देखता रहा।

मैं शांत था अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ। एक साल से ज्यादा यहां लिखता रहा। सारा का सारा यहीं बना और यहीं बिगड़ा भी हैं। यह घर एक लौ की तरह मेरे साथ रहा है। मैं इसमें नहीं यह मुझमे था। ’था’ का प्रयोग करना थोड़ा कठिन है। पर यह ’था’ ही सही है अब। देर रात बिस्तर में लेट जाने के बाद मैंने दीवार में मुबंई शब्द को हाथ में दबा लिया। इस शब्द में उस समय के यात्रा की थकावट थी, जिसे एक फिर महसूस कर रहा था। हमारे संबंध में मुझे इसके, इस तरह के मूक संवादों की आदत सी है। यह टूटा नहीं शायद इसे बहुत पहले टूट जाना था, पर यह बना रहा, अपनी लौ के दायरे में मुझे समेटे हुए। यह जितने सच का साक्षी होकर चमक रहा है। उतने ही झूठ इसने अपनी दीवारों के कोनों के जालों में लटकाए हुए है। यहाँ-वहाँ कोनों में सिमटी हुई नमी भी है। जिसका एहसास सिर्फ हम दोनों को है। पता नहीं क्यों मैं अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया। और मेरे मूँह से माफ कर देना निकला। मैं रूम की दीवार में लिखे हुए निजी शब्दों से माफी मांगना चाह रहा था। कौन माफ करेगा मुझे? क्या माफी काफी है? तभी मुझे मेरे गद्दे के पास की दीवारों पर कुछ निशांन दिखे। यह सारे निशांन अपनी-अपनी कहानियाँ लिए हुए है। यह मिटा दूँ? कैसे मिटते हैं यह? यह असल में कहानी भी नहीं हैं। मैं वापिस अपनी कुर्सी पर बैठ गया। इसके बाद कुछ निजी संवाद हुए, जिसकी ’आह’ हम दोनों के मूँह से निकलती रही। कैसे छिन सकता है यह.... मुझसे? यह सवांद सुबह खुल ले आई। शाम को फिर लौटा अपनी जगह में इस बार बस रूम को विदा कहाँ.... नहीं विदा कह नहीं पाया। शायद मैं इसे कभी विदा कह भी नहीं पाऊगां। अलविदा मेरे खूबसूरत और जवान रूम