पके फलों का बाग़ - 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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पके फलों का बाग़ - 4

मुझे रशिया देखने का चाव भी बहुत बचपन से ही था।
इसका क्या कारण रहा होगा, ये तो मैं नहीं कह सकता पर मेरे मन में बर्फ़ से ढके उदास देश के रूप में एक छवि बनी ही हुई थी।
और अब, जब मुझे पता चला कि रशिया जाना है तो आप समझ सकते हैं कि मेरी सोच पर मेरा कितना वश रहा होगा। एक लंबा सिलसिला दिवास्वप्नों का शुरू हो गया।
इन्हीं दिनों जयपुर के अनुकृति प्रकाशन ने मेरी लघुकथाओं की एक किताब "दो तितलियां और चुप रहने वाला लड़का" प्रकाशित की थी।
लेखन और प्रकाशन तो अरसे से चल ही रहा था लेकिन लघुकथा की इस किताब का प्रकाशन ज़रा अलग कहानी लिए हुए था।
उन्नीस सौ पिच्चासी में छपी मेरी किताब "मेरी सौ लघुकथाएं" अब आउट ऑफ प्रिंट थी, और इसकी एक भी प्रति अब कहीं मिल नहीं रही थी। यहां तक कि प्रकाशक के पास भी अब ये नमूना प्रति के रूप तक में मौजूद नहीं थी।
मुझे बताया गया कि कभी दिल्ली स्थित इस प्रकाशन के गोदाम में बारिश के आक्रमण से बड़ा नुक़सान हुआ था और अन्य कई पुस्तकों के साथ - साथ "मेरी सौ लघुकथाएं" की सभी शेष बची प्रतियां भी इस नुक़सान की भेंट चढ़ गईं।
प्रकाशन ने लेखक की कई कहानियों पर भरोसा करके उन्हें छापा ही था, अतः मैंने भी प्रकाशक की कहानी पर ऐतबार किया।
बहरहाल, इस पुस्तक की एक भी प्रति का अब उपलब्ध न होना मेरे लिए नुक़सान देह साबित हुआ। एक दौर आया जब लघुकथा के सम्मिलित संकलनों की बाढ़ सी अाई। लोग थीम आधारित रचनाओं के संकलन निकालने लगे। ऐसे में मुझसे भी अलग - अलग विषयों पर पूर्व प्रकाशित रचनाएं मांगी जाती थीं पर कोई अभिलेख न होने के चलते मैं अपनी रचनाएं उपलब्ध नहीं करवा पाता था। दूसरे, ये वो दिन थे जब मैं लंबी बैंक सेवा छोड़ कर विश्वविद्यालय प्रशासन में गया था, इसलिए उन दिनों रचनाएं लिखना, भेजना, ढूंढ़ना तो दूर, मैं संपादकों के पत्राचार का जवाब तक नहीं दे पाता था। यदि मैं शिक्षण में गया होता तो शायद वहां भी लिखने से जुड़ा रह पाता पर मैं प्रशासन में था, जहां न रचनात्मकता बचती है और न सृजन का माहौल!
कुछ सालों के लिए मेरा नाम लघुकथा के इतिहास में मर गया। मैं उस अवधि की पत्रिकाओं और संकलनों को आज भी जब पलट कर देखता हूं तो अपने नाम को एक विराट शून्य के घेरे में पाता हूं।
आप यहां ये भी जान लीजिए कि एक समय मैं अपनी आरंभिक कविताओं की किताब का शीर्षक "विराट शून्य" ही रखना चाहता था। पर ये नहीं हो सका।
अब जब सोशल मीडिया से जुड़ कर मैंने अपना ब्लॉग लेखन शुरू किया तो मेरे पांच में से एक ब्लॉग लघुकथा पर ही आधारित था।
किन्तु कई देशों में लोकप्रिय इस ब्लॉग को लिखने के दौरान मैं दूसरे देशों की बहुत सी लघुकथाएं पढ़ता भी था। मैंने ये साफ़ देखा था कि हिंदी में लघुकथा को लेकर जो अधिकांश प्लेटफॉर्म तैयार हुए हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। होती ही हैं। हिंदी का केंद्र भारत है।
अतः मैं साफ़ देखता और महसूस करता था कि मेरी कुछ लघुकथाओं के सिर- पैर हिंदी लघुकथा की चादर से बाहर निकलते हैं। उन्हें परदेसी हवा लगी हुई है।
कोई इसे व्यापक सार्वभौमिक दृष्टिकोण कह लेे, चाहे कोई मुझे कच्चा लघुकथाकार मान ले, ये मैंने लघुकथा के लोगों पर ही छोड़ दिया, कभी इस बाबत अपनी ओर से कुछ कहा नहीं।
तो अब जब मुझे एक समारोह में बाबू खांडा मिले तो उनकी बात सुन कर मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा। उन्होंने क्या कहा, ये जानने से पहले शायद आप ये भी जानना चाहेंगे कि वो कौन हैं?
बाबू खांडा अनुकृति प्रकाशन के मालिक तो हैं ही, वो एक गंभीर, चिंतनशील लेखक भी हैं, जो अंग्रेज़ी और हिंदी में लिखते हैं और कभी राजस्थान सरकार में मंत्री भी रहे हैं। वो "अनुकृति प्रकाशन" की पत्रिका "अनुकृति" भी प्रकाशित करते हैं जिसकी संपादक डॉ जयश्री शर्मा हैं।
तो बाबू जी ने मुझसे कहा कि वो अपने प्रकाशन से मेरी लघुकथाओं की किताब छापना चाहते हैं। अब इसमें आश्चर्य की बात क्या थी?
बात ये थी कि उन्होंने ब्लॉग पर मेरी रचनाएं पढ़ी थीं और वो इस विवाद में बिल्कुल नहीं जाना चाहते थे कि इनमें कुछ रचनाएं हिन्दी लघुकथा के मानकों को पूरा करती हैं या नहीं, क्या उनमें बोधकथा, नीतिकथा, अंतरकथा आदि का घालमेल है या नहीं, और न ही वे किसी चयन में पड़ना चाहते थे। उनका कहना था कि वो तो "प्रबोध कुमार गोविल की लघुकथाएं" शीर्षक से ही इन्हें छापना चाहते हैं।
किन्तु इतनी ज़िम्मेदारी तो मेरी भी थी कि जब हिंदी में विधा के सर्वस्वीकृत मानकों को मैं भी समझता ही हूं, तो ऐसी बेपरवाही न करूं।
मैंने बीच का रास्ता निकाला। मैंने उनसे कहा कि मैं सभी रचनाएं आपको देता हूं तथा ये पाठकों और समीक्षकों पर ही छोड़ता हूं कि वो इन्हें क्या कहेंगे।
हां, मेरी लघुकथाएं शीर्षक न देकर मैंने इस किताब का शीर्षक दे दिया- "दो तितलियां और चुप रहने वाला लड़का"!
किताब छपी। इसी बीच मुझे मॉस्को में होने वाले पंद्रहवें अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में "सृजन सम्मान" छत्तीसगढ़ की ओर से "फ्योद्र दोस्तोयेवस्की सम्मान" देने की घोषणा हुई और मेरी इस पुस्तक का विमोचन वहीं, रशिया में संपन्न हुआ।
ये एक यादगार यात्रा रही। ऐसा लगा जैसे मुझे अपने कल्पना लोक में विचरने का मौक़ा मिला। मुझे यक़ीन हो गया कि जो कुछ किताबों में दर्ज़ है, जो इतिहास में दर्ज़ है, वो वास्तव में धरती पर है और उसे देखा जा सकता है।
मैंने आपसे कहा था कि मैं कभी अपनी कविताओं के संग्रह का नाम विराट शून्य रखना चाहता था, पर ये नहीं हो सका।
मुझे लगता है कि आपकी दिलचस्पी अब इन सब बातों में थोड़ी बहुत तो होगी ही कि फ़िर मैंने संग्रह का नाम क्या रखा, वो छपा या नहीं छपा ... और मैं कवि था ही कब, यदि बन गया तो कब तक कवि रहा। क्या अब नहीं हूं? तो मेरे तीन कविता संग्रह क्या हैं आदि - आदि...!
हर युवा लेखक की तरह कभी मैं भी कविताएं लिखा करता था। पर उन पर मैं कभी मुग्ध नहीं हुआ। मैं उनसे जुड़ता भी नहीं था।
पिछली सदी के आख़िरी दशक में मेरी एक लम्बी व्यंग्य कविता की किताब "रक्कासा सी नाचे दिल्ली" मुंबई के जीवन प्रभात प्रकाशन से छपी थी। फ़िर सदी के बीतते बीतते शेयर बाजार की गतिविधियों को निकट से देखने के दौरान लोगों की तत्काल अमीर हो जाने की होड़ को भी मैंने नज़दीक से देखा। इसी परिप्रेक्ष्य में मैंने एक लम्बी व्यंग्य कविता "शेयर खाता खोल सजनिया" भी लिख डाली जिसका प्रकाशन जबलपुर में हुआ।
लेकिन इसी बीच सचमुच डॉ धर्मवीर भारती की मुझसे एक साक्षात्कार में कही गई बात सच हो गई कि साठ साल की उम्र होने तक पाठक खुद ये तय कर देते हैं कि आपको किस विधा में लिखना है और किसमें नहीं।
तो इससे पहले कि पाठक कोई निर्णय दें मेरे कवि की हवा डर के मारे अपने आप निकल गई।
मैंने कविता लिखना, सुनाना दोनों बंद कर दिया। कई बार साहित्यिक समारोहों में मंच से मेरे नाम की आवाज़ लगती पर मैं छिप जाता।
कहीं कहा जाता कि अच्छा लघुकथा सुना दो, अच्छा छोटी कहानी ही, अच्छा नहीं तो कुछ बोल ही दो... मैं क्षमा मांग लेता और जब माफ़ी मिल जाती तो ख़ुश होकर मन ही मन किसी पुरानी फ़िल्म का कोई गीत मन ही मन गुनगुनाने लग जाता।
हां, कविता पढ़ना मैंने कभी बंद नहीं किया, आज भी पढ़ता हूं, सुनता हूं।
तो इस तरह कविता लिखने से दूर होते हुए भी मैं ये नहीं भूल पाता था कि मेरे पास लगभग तीस- चालीस ऐसी स्वरचित कविताएं ज़रूर हैं जो पत्र- पत्रिकाओं में तो छपी हैं किन्तु किसी किताब या संग्रह में नहीं।
इन्हीं दिनों मेरी वर्चुअल मुलाक़ात एक ऐसे किशोर लड़के से हुई जो एक तेज़ी से उभरता हुआ ब्लॉगर था और बहुत ही संभावनाशील रचनाकार दिखाई देता था। उसकी कविताएं अद्भुत होती थीं।
ये होनहार नवयुवक एक दिन मिलने भी चला आया। हम कुछ दिन साथ रहे।
उसकी तेईस और मेरी सत्ताईस कविताओं का एक संयुक्त संकलन इन दिनों प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था "उगती प्यास दिवंगत पानी"!
मुझसे लगभग चालीस साल छोटा वो लड़का इन दिनों बहुत ही अच्छी कविताएं लगातार लिख रहा है।
मुझे तो यही तसल्ली है कि मेरी ये भटकती - डोलती नावें अब किसी घाट तो लगी खड़ी हैं।
मुझे अपने जीवन में नकारात्मक बातें, शिकायतें करना कभी अच्छा नहीं लगा। यदि कभी ऐसा अवसर आता भी था तो मैं ये सोच लेता था कि शायद कुदरत ने ये मेरी किसी भूल का संज्ञान लेकर मुझे नुक़सान पहुंचाया है ताकि मुझे संकेत मिल जाए।
ग़लत की शिकायत न भी करूं लेकिन अपनी बात की मिसाल के तौर पर तो कोई किस्सा आपको सुना ही सकता हूं कि देखो, ये मेरे साथ कैसा हुआ? भला इसमें मेरी क्या ग़लती थी।
एक बार एक अत्यंत प्रतिष्ठित संस्कृति संस्थान ने अख़बार में इश्तहार दिया कि वो कुछ मौलिक नाटकों के प्रकाशन पर प्रकाशन अनुदान देगा। इसके लिए विचारार्थ पांडुलिपियां मांगी गईं।
मैंने भी अपना एक अप्रकाशित नाटक नियमानुसार भेज दिया।
मैं तो ऐसे प्रकरणों को अक्सर भेज कर भूल ही जाता था। मैंने हमेशा यही समझा कि लेखन काग़ज़ की एक नाव है जिसे बच्चों की तरह बरसाती पानी में तैरा दो, जहां तक माकूल परिस्थितियां मिलीं, पहुंच जाएगा।
लेकिन बिना किसी जांच पड़ताल किए कुछ दिन बाद मेरे पास संस्थान से फ़ोन आया कि आपकी कृति चयनित कृतियों में शामिल है, आप संपर्क करके आगे की औपचारिकताएं पूरी कर लें ताकि नाटक किसी प्रकाशन से छप कर आ सके।
मुझे इसके लिए कोई अवधि या समय सीमा नहीं बताई गई थी पर कुछ दिन बाद जब मैं वहां पहुंचा तो मुझे मालूम पड़ा कि मेरा नाम चयन की गई सूची में शामिल नहीं है।
मैं कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों से मिल कर लौट आया पर मुझे ये कभी पता नहीं चल सका कि वहां आगे की क्या औपचारिकताएं थीं जो मुझे पूरी करनी थीं। और वो औपचारिकताएं किसी अन्य ने कब और किस तरह पूरी कर लीं कि अनुदान उन्हें मिल गया।
ख़ैर, मेरा नाटक बाद में किसी अन्य जगह से छप गया।
नाटक था "बता मेरा मौतनामा"!
मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि जीवन भर बेहिसाब हुई यात्राओं के बावजूद सफ़र या यात्रा मेरे लिए तनाव का कारण रही है।
अपनी स्मृतियों को टटोलने पर मैं पाता हूं कि कुछ यात्राओं में घटी आकस्मिक घटनाओं ने मुझे भीतर तक हिला दिया था। इनका गहरा असर आज भी मेरे मानस पर बरकरार है।
मुझे याद है वो यात्रा जिसमें सामान की अधिकता ने रेल के डिब्बे को युद्ध भूमि में बदल दिया। एक के ऊपर एक चढ़ा कर रखे गए कई भारी अदद उस समय झनझना उठे जब उनमें से एक लोहे का बॉक्स नीचे सीट पर बैठी मेरी मौसी की बांह को ज़ख्मी करते हुए नीचे फिसल गया।
इस यात्रा के बाद मुझे गाड़ियों में बेतहाशा सामान लेकर सफ़र करने वाले लोगों से नफ़रत सी हो गई थी।
मुझे याद है दिल्ली की वो भीड़ भरी बस, जो मेरे छोटे भाई और बड़ी बहन को बैठा कर रवाना हो गई और मैं तथा एक बड़े भाई इस तरह नीचे दौड़ते हुए रह गए कि हमें एक ऑटो रिक्शा से बस का कई किलोमीटर तक पीछा करना पड़ा।
मुझे याद है अपनी वो रेल यात्रा जिसमें गाड़ी के लेट हो जाने से महीनों पहले लिया गया आरक्षण व्यर्थ चला गया और दस मिनट के विलंब के कारण ग्यारह घंटे दूसरी गाड़ी के इंतजार में काटने पड़े।
और अब ऐसा ही एक अनुभव विमान यात्रा का भी जुड़ गया जिसमें हमारे कुछ साथियों को एक फ़्लाइट लेट हो जाने के कारण दो दिन परेशान होते हुए विमानतल पर भारी आर्थिक संकट सहित काटने पड़े।
लेकिन ज़िन्दगी की एक परेशानी हमेशा की परेशानी नहीं होती, एक असफलता बार- बार की असफलता नहीं होती। यही सोच मुझे उम्र भर सफ़र में रखे रही।
वैसे भी उम्र के साथ हौसले कम होते ही हैं। इंसान सुरक्षित खेलना चाहता है ज़िन्दगी का गेम!
यद्यपि इंसान क्या चाहता है, ये सोचने का वक़्त कुदरत के पास होता कहां है!
सफ़र के कुछ न कुछ फ़ायदे भी होते ही होंगे? तभी तो लोग सफ़र करते हैं।
ये इंसान को अपनों से मिलाता है।
ये इंसान को दूसरों के सुख- दुःख से जुड़ना सिखाता है।
ये इंसान को मंज़िल पर पहुंचने का अभ्यास कराता है।
ये इंसान का हवा- पानी बदल देता है।
ये इंसान को घाट घाट का पानी पिलाता है।
इन्हीं दिनों मुझे अपने लोकप्रिय उपन्यास "जल तू जलाल तू" के अंग्रेज़ी और ओड़िया में भी छप कर प्रकाशित होने की सूचना मिली।
एक दिन मेरे पास दोपहर के समय एक महिला का फ़ोन आया। महिला पंजाबी में बात कर रही थी। कुछ ही पलों में मेरी हां हूं से उसने अनुमान लगा लिया कि मैं पंजाबी बोलना नहीं जानता हूं और वो हिंदी में बोलने लगी।
उसने बताया कि वो अमृतसर के पास किसी गांव में रहती है और हाल ही में अपने बेटे के पास कनाडा होकर लौटी है।
उसने कहा कि कनाडा में उसके बेटे ने उसे पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से पंजाबी भाषा में जल तू जलाल तू लाकर दिया। और वापस आते समय वो उपन्यास के दस पृष्ठ की फ़ोटो कॉपी अपने बेटे को देकर अाई है।
- जी, किसलिए? मैंने संजीदगी से पूछा।
वो बोली- मेरी और उसकी बहस हो गई थी, पर मैं अपनी बात उसे कह नहीं पाई। अब आपके लिखे वो सफ़े उसे कह देंगे, अगर उसने पढ़ लिए तो!
- ओह! वाह!