इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(8)
वह ललक कर उस दुकान पर गई थी और उसने दो मीटर कपड़ा कटवा लिया था। दुकानदार ने कहा भी था - मैडम, यह गादी भरने के काम आता है। और उसने कहा था – ‘पैसा दिया न आपको। अब मेरा हुआ ये। ज्य़ादा टेंशन नहीं लेने का’।
उसने उस कपड़े से मेगा स्लीव का चौकोर गले का टॉप सिलवाया था और उसे अलग अलग मौकों पर काले, लाल और सफेद चूड़ीदार के साथ पहना था और उसके ऊपर ढाई मीटर की लहराती चुन्नी। भला चुन्नी के बिना भी सलवार कुरता शोभा देता है?
वह तब चुन्नी के बिना न तो सलवार कुरता पहनती थी और आज जब वह जींस, टॉप या लंबे स्कर्ट पहनती है तो स्टोल, स्कार्फ़नुमा दुपट्टे मिलने लगे हैं, उन्हें एक साइड में कंधे पर डालती है या फिर गले में डाल लेती है। इन पोशाकों के लिये भी उसे साइड दुपट्टे तो चाहिये ही।
एक बार पसंद आने पर उसने दो-एक गरम ऊनी मफलर खरीद लिये थे। वे इस्तेमाल तो क्या ही होने थे। वह याद करती है कि ट्रेन के कन्सेशन पास की तारीख अक्सर भूल जाया करती थी। जब पिताजी पूछते –
‘पास कब खतम है रऔ है....बतइयो’। तब घबराकर पास निकलकर देखती...बाप रे....गत एक महीने से बिना पास के आ जा रही थी। वो तो अच्छा था कि कभी भी स्टेशन पर बैठे टिकट चेकर ने कभी पास दिखाने के लिये नहीं कहते थे।
एक बार वह टिकट लेना भूल गई थी और जोगेश्वरी पर टिकट चेकर ने टिकट पूछ ली थी...उसके चेहरे पर आई घबराहट को देखते ही वह समझ गया था और बोला था – ‘जाओ बेबी....अगली बार ध्यान रखना’।
उनका स्कूल मालाड में था, इसलिये जोगेश्वरी से सुबह मालाड जाने के लिए बोरिवली की ट्रेन में भीड़ नहीं होती थी। छात्राएं आराम से बैठकर जाती थीं। सुबह की उस ट्रेन में पेंसिल, रबड़ बेचने के लिये एक औरत आती थी। कई बार उसकी बेटी भी होती थी।
बच्ची स्कूल की यूनिफॉर्म में होती थी और उसका स्कूल बैग साथ होता था। वह ट्रेन में अपना होमवर्क करती थी और उसकी मां स्टेशनरी का सामान बेचती थी। इसी प्रकार शाम को भी छात्राएं चार बजे चर्चगेट वाली ट्रेन से वापिस आती थीं, तब भी ट्रेन खाली होती थी। उन दिनों स्कूल जाना इतना मुश्किल नहीं था।
एक दिन उसने सामान बेचने वाली उस औरत से पूछा - बाई, आपकी बेटी कौन सी क्लास में पढ़ती है? इस पर उसने बड़े गर्व से कहा था - अभी सातवीं में है। पढ़ने में बहुत अच्छी है। मालूम है, इसका नाम है मेधा।
....बोलती है कि बड़ी होकर टीचर बनेगी। देखना बेबी, मैं तब तक ट्रेन में सामान बेचेगी, जब तक ये टीचर नहीं बन जायेगी। मालूम है, मेरी बेटी बोलती है कि वो अच्छे स्कूल में नौकरी करेगी तब उसको काम नहीं करना पड़ेगा।
यह सुनकर उसे बहुत अच्छा लगा था। कामना ने स्कूल जाने के लिये इस ट्रेन से चार साल यात्रा की थी और देखा कि अब मेधा सुबह मां के साथ नहीं आती थी। जब उसकी अम्मां से पूछा, तो उसने बताया था –
‘....अब वो बड़ी हो गई है। घर में अकेली रह सकती है। उसका एक बजे का स्कूल होता है। घर में पढ़ती है। अभी बोर्ड का एग्जाम है, तो मेहनत तो करना पड़ेंगा न’। यह सुनकर सभी छात्राओं को अच्छा लगा था।
जब मेधा ने दसवीं पास कर ली थी तो अपनी मां के साथ उसी ट्रेन में आई थी और उस समय लेडीज डिब्बे की सभी महिलाओं और छात्राओं को पेड़े खिलाये थे। मेधा की मां पहली बार ट्रेन में सबके सामने पहली बार नाची थी।
बहुत खुश थी वह। मेधा ने सब से कहा था – ‘जब तक कॉलेज में एडमिशन नहीं हो जाता, मैं अपनी मां की सामान बेचने में मदद करूंगी’। उसके बाद पता नहीं, मेधा का सपना पूरा हुआ या नहीं।
इन्हीं दिनों पिताजी के संपर्क में एक बैंक मैनेजर आये। उन्होंने सुझाव दिया – ‘आप कब तक यह छोटी सी नौकरी करते रहेंगे? आप चाहें तो कॉल मनी का काम शुरू कर कर सकते हैं’। उनके लिये यह नई शब्दावली थी। इस पर मैनेजर ने समझाया था –
‘बैंकिंग में ये अक्सर होता है कि किसी बैंक के पास ज्य़ादा पैसा आ गया और दूसरे के पास कमी हो गयी तो इसी कमीबेशी को पूरा करने वे जरूरत पड़ने पर आपस में एक दूसरे को कर्ज़ लेते देते हैं। अब बैंक अधिकारियों के पास तो इतना वक्त नहीं होता वे यह काम करें। यदि वे इस काम में पड़ेंगे तो बैंक के बाकी जरूरी काम कौन देखेगा’?
मैनेजर बता रहे थे ‘आप के ज़िम्मे यही देखना होगा कि आज किस बैंक के पास पैसा ज्य़ादा और किसके पास बैलेंस पूरा करने के लिए कमी पड़ रही है। एक तरह से आप दोनों तरफ के बैंकों के लिये एजेंट के रूप में कार्य करेंगे और दोनों बैंक आपको कमीशन देंगे।
….अब आप सोच लीजिये। आपकी ज़िंदगी और दिन दोनों बदल जायेंगे। जब आप यहां बसने का मूड बना ही चुके हैं, तो रिस्क उठाना होगा। आप जानते ही हैं ये संघर्षों व संभावनाओं का शहर है। किस्मत साथ दे तो सोने पर सुहागा’।
मैनेजर की बातों का पिताजी पर असर हुआ था और नौकरी छोड़ने से पहले उन्होंने कॉल मनी के काम पर अपना हाथ और किस्मत आज़माने की सोची। उस भले बैंक मैनेजर ने पिताजी का परिचय विभिन्न बैंक के मैनेजरों से कराया।
बैंक के अधिकारियों ने पिताजी के ऑफिस से उनकी ईमानदारी और अच्छी बुरी आदतों के बारे में जानकारी ली। उन्हें यही पता चला था कि उन सा खांटी आदमी मिलना मुश्किल है।बस, यहीं से पिताजी के दिन बदलने का समय आया। यहां से अच्छे दिन शुरू होने वाले थे।
पिताजी ने कई बरस पुरानी नौकरी छोड़ दी थी। अब वे ज़रूरत से ज्य़ादा व्यस्त हो गये थे। अपने हिसाब में वे अव्वल थे। इसमें उनका कोई सानी नहीं था। वे लाखों का लेनदेन करते और सब उन्हें मुंह जबानी याद रहता।
काम में इतने मुस्तैद कि जब तक दोनों तरफ के बैंकों का काम न सध जाये वे चैन से नहीं बैठते थे। सुबह नौ बजे घर के निकले देर सांझ ही लौट पाते थे। वे समय के इतने पाबंद थे कि सामने वाला उनके आने-जाने के समय को देखकर अपनी घड़ी का समय ठीक कर सकता था।
जब पैसा आने लगा था तो उनके घर का आर्थिक ग्राफ ऊपर उठने लगा था। अब घर में केले के अलावा अंगूर, अनार, अमरूद और पपीता जैसे फल आने लगे थे। यह कामना की ज़िम्मेदारी थी कि वह उन फलों को पांच बराबर भागों में बांटे।
वह अंगूरों को गिनकर, अनार को छीलकर उसके दाने चम्मच के हिसाब से और बाकी फलों को टुकड़े गिनकर उनको अलग अलग प्लेट में लगा देती थी। पिताजी केले के अलावा कोई फल नहीं खाते थे।
वे केले, ककड़ी, अमरूद, टमाटर की सलाद बनाकर, उसमें नमक, काली मिर्च और हल्का सा नींबू डालकर रात के खाने के साथ खाते थे। उनका मानना था कि फल बच्चों के खाने की चीज़ थी।
कॉल मनी का काम आगे बढ़ता जा रहा था। साथ ही ज़रूरी हो गया था कि बैंक मैनेजरों को होली-दीवाली पर कुछ उपहार दिये जायें। उपहारों का आशय ही यह होता है कि संबंध ठीक बने रहें और काम मिलता रहे। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चलाने के लिए ये सब करना ही होता।
बाज़ार से कितनी मिठाई खरीदी जायें? कोई दो-चार लोग तो थे नहीं कि सिर्फ़ उनको दे कर काम चल जाता। यहां तो बैंक मैनेजरों, उनसे ऊंचे स्तर के अधिकारियों और बड़े व्यावसायिकों की लंबी कतार होती। सबको मन पसंद गिफ्ट देना उनके बस में नहीं होता था।
उन्होंने धीमे से अम्मां से कहा – ‘अगर तुम थोड़ी सी मेहनत करौ तौ थोड़ौ पैसा बचाय सकेंगे और जा घर सैं निकरकें दूसरौ घर लै सकेंगे’। अम्मां पिताजी का इशारा समझ गई थीं। वे मिठाइयां और अचार बहुत अच्छे और तरह तरह के बनाती थीं और उनके हाथ के अचार सालों साल टिकते थे।
आज भी उसके पास उनके हाथ का बनाया तीस साल पुराना नींबू का अचार है, जो चूरन का काम करता है। वे मिठाइयों में विशेष रूप से बेसन की बर्फी, संतरे की बर्फी, गुझिया बनातीं और आम का मुरब्बा, सेब का मुरब्बा और आंवले का मुरब्बा खूब अच्छी तरह डालती थीं।
पिताजी मिठाइयों के खाली डिब्बे और अचार के लिये प्लास्टिक की शीशियां लाकर देते थे और वे उन डिब्बों में मिठाइयां भरकर तथा शीशियों को मुरब्बे से भरकर तैयार कर दिया करती थीं।
उनके इस व्यवहार से सभी बैंक मैनेजर और अन्य लोग बहुत खुश होते थे। घर की बनी चीज़ें खाना भला किसे अच्छा नहीं लगता?
अभी तक सब चाल में ही रह रहे थे। चाल के सामने एक पहाड़ी थी। बीच में चलने का रास्ता था। तभी पाकिस्तान से लड़ाई शुरू हो गयी थी। रात के वक्त़ ब्लैक आउट होता। ब्लैक आउट यानी घर में लालटेन तो क्या...मोमबत्ती तक नहीं जला सकते थे लोग।
ज़रा सी लाइट दिखी नहीं कि पुलिस कमरे के दरवाज़े पर डंडा मारकर कहती थीं...बंद करो लालटेन......। रात को तो वह पढ़ नहीं सकती थी। इधर हिंदुस्तान और पाकिस्तान का वार होनेवाला है और तुमको एग्जाम का पड़ा है...फेल हो जाने का...क्या फरक पड़ता है...देश का हिफ़ाजत पहले है। रात को हवलदार भोंपू लेकर लाइट बंद करने की चेतावनी देते थे।
एक रात को अचानक आकाश में सायरन बजने की आवाजें गूंजने लगीं थीं। शायद उस समय रात के दो बजे थे। सभी लोग अपने अपने कमरों से निकल आये थे। सब कयास भिड़ा रहे थे कि हवाई हमला हो गया है। अब क्या होगा।
इतने में रात की शिफ्ट से एक पड़ोसी वापिस आया था...उसे कुछ पता नहीं था। सो उसने अपने कमरे के आगे सिगड़ी जला दी थी और सिगड़ी में से जलते कोयले की लाल चिंगारी दिखने लगीं थी।
लोगों ने उसे जल्दी से सिगड़ी बुझाने के लिये कहा, तो उसने बड़े मासूम अंदाज में पूछा, ‘का करी? सिगड़ी ना लहकाई? खाना न बनाई? खाना न खाई?’ उसकी इस मासूमियत पर सब न चाहते हुए भी हंस दिये थे।
पड़ोस की तिवराइन ने कहा था - हम दरवा-भतवा दे देई...तैयार बा। सिगड़ी जिन लहका। तब पूरा मुंबई जैसे सन्नाटे में था। रमेश और नरेश विलेपार्ले के एक सहशिक्षा स्कूल में पढ़ते थे। वे दोनों अलग अलग कक्षाओं में थे।
रमेश कभी कभी घर आकर बताता था – ‘मेरे टीचर मिस्टर सिंह मुझे बहुत चाहते हैं। उनकी हिदायत है कि जब वे कक्षा में आयें तो मैं बेंच पर खड़ा हो जाऊं।‘ इस पर वह हंसकर कहती थी – ‘वे तुम्हें इतना चाहते हैं कि नीचे से ऊपर तक देखना चाहते हैं?’
वह हंसकर कहता था – ‘मैं न तो क्लास में बोलता था और न उनके किसी सवाल का उत्तर देता था। कुहनी पर सिर टिकाकर सो जाता था।‘ भाई के पास हमेशा मार खाने के ही किस्से होते। वह बताता....
एक सरोज वल्ली मैडम हैं। वे गुस्से में आकर बच्चों को लकड़ी की छोटी और टूटी हुई फुट पट्टी से मारती थीं और वह फुट्टी टूट जाती थी। सारे बच्चे हंस पड़ते थे। वे गुस्सा होतीं - कल स्टाफ रूम से नई फुटपट्टी लाऊंगी, तब तुमको देखती हूं।‘
नरेश रमेश से बड़ा होने के कारण स्कूल में अपने छोटे भाई के प्रति बहुत प्रोटेक्टिव रहता था। स्कूल में एक बार गणित के सर ने रमेश से घर से बिल बनाकर लाने के लिये कहा था। जब वह बिल बनाकर ले गया तो टीचर को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने नरेश को बुलवा भेजा था।
नरेश अपने एक मित्र के साथ आराम से आया और सर ने कहा – ‘नरेश, तुम बड़े हो, इसलिये बुलाया है। रमेश को मैंने यह गृह कार्य दिया था। बिल ऐसे बनाया जाता है क्या?’ नरेश ने बिल को देखा और उसे कुछ ग़लत लगा पर बोला....
‘वह ऐसे ही बिल बनाता है। वह सारे काम ऐसे ही करता है। आगे से उसे सोचकर काम दें। बिल बनाना उसके वश का नहीं है’। यह कहकर वह हंसता हुआ चला गया था। सक्सेना सर भुनभुनाकर बोले थे – ‘छोटे नवाब तो छोटे नवाब...बड़े नवाब सुभान अल्लाह। तुम दोनों पास हो ही नहीं सकते।‘
रमेश फिर पीछे की सीट पर कुहनी टिकाकर सो गया था। उसका कहना था कि सर एक ही बात इतनी बार रिपीट करते थे कि नींद आ जाती थी। यह सुनकर वह बहुत हंसती थी। नरेश शुरू से ही बिंदास था।
वह जिस स्कूल में पढ़ता था, वहां की वर्दी सफेद शर्ट, घुटनों तक खाकी नेकर, सफेद मोजे और चमड़े के काले जूते थे और जूते चमकते हुए होने चाहिये। सप्ताह में एक दिन स्काउट एण्ड गाइड का हुआ करता था। छात्र नेकर में आरएसएस के नुमाइंदे लगते थे।
लड़कियों की वर्दी सफेद कुरता सलवार और हरा दुपट्टा था, जिसे वी शेप में लेते हुए सीने का ढकना ज़रूरी था और उसके लिये दुपट्टे में पिन लगाना ज़रूरी था। वह सीना ढककर चलने का ज़माना था, न कि सीना उघाड़कर और तानकर चलने का। सफेद मोजे और एक से लेडीज शूज।
नरेश के अपने जलवे थे। वह रमेश की गलती पर किसी के सामने कुछ नहीं कहता था लेकिन घर आकर उसकी अच्छी झाड़-पोंछ करता था। कामना को भी नहीं अच्छा लगता था कि उसका कोई मित्र उसे किसी के सामने कुछ कहे।
कामना और गायत्री के स्कूल के बस्ते भी बदल गये थे। गायत्री अल्यूमीनियम की पेटी लेकर जाती थी और कामना के पास छोटी सी अटैची थी, जो स्कूल के लिये विशेष रूप से बनाई जाती थीं।
इस स्कूल में मारवाड़ी छात्राओं का वर्चस्व था। और स्कूल उनके घर से पास था...वे ट्रेन की यात्रा करने से बच जाती थीं। स्कूल में अनुशासन का ये हाल था कि छात्राओं को गेट से बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी।
खोमचेवाले गेट के ग्रिल से ही हाथ डालकर पैसे लेते थे और सेव पूरी, भेलपूरी की पुड़िया पकड़ा देते थे। गायत्री की दोस्ती मारवाड़ी और पंजाबी लड़कियों से ज्य़ादा थी और वे पढ़ने में बिल्कुल तेज़ नहीं थीं। शादी के इंतज़ार में पढ़ रही थीं।
वे खूब सुपारी खातीं थीं। उनसे ही सुपारियों के नाम पता चले थे....चिकनी सुपारी, कलकत्ता टुकड़ा सुपारी, कतरी सुपारी, केसर सुपारी आदि। उसे मैनपुरी की कतरी सुपारी याद आ गई थी, जिसमें तंबाकू मिली होती थी। दो एक बार आगरा में खाई थी। उसके बाद कभी नहीं।
मारवाड़ी और पंजाबी लड़कियां टिफिन में तरह तरह के अचार और मसाला परांठे लाती थीं। वे स्कूल में मस्ती मारने आती थीं। उनके सर्कल में रहने का असर गायत्री की पढ़ाई पर भी पड़ा था और पढ़ाई लिखाई में फिसड्डी होती जा रही थी। संगत का असर।
कामना की एक सहेली रीमा एक प्रतिष्ठित हलवाई की बेटी थी। दूसरी सहेली पुष्पा थी...उसके पिता प्रसिद्ध वकील थे...उनकी प्रैक्टिस खूब चलती थी। ख़ासे अमीर थे।
दोनों ही पैसे वाले घरों की थीं और पढ़ने में ठीक ठाक थीं। कामना हिंदी में शुरू से ही बहुत तेज़ थी....छायावाद काल के कवियों में उसे सुमित्रानंदन पंत बहुत पसंद थे। वह उनकी कविताओं में छिपे प्रतीक व अर्थ इतनी तन्मयता से निकालती थी कि प्राध्यापिकाएं भी हैरान होकर रह जाती थीं।
कामना शुरू से ही पढ़ने में बहुत अच्छी थी और घर छोटा था। इसलिये वह छुट्टी के दिन पुष्पा के यहां सुबह दस बजे चली जाती थी। पुष्पा का घर बंगले के रूप में था। खिडकियों पर शीशे के थे और कपाट गोदरेज के बिना शीशे वाले थे।
उन दिनों तो गोल शीशा होता था, जो मुंह देखने, बिंदी लगाने और अम्मां देखने के और मांग में इंगुर भरने के काम आता था।
पुष्पा के बंगले में नीचे हापुस आम और जामुन के पेड़ थे। उसकी मां आम काट-काटकर खाने के लिये देती थीं, पहले उसकी प्लेट में और फिर अपनी बेटी की प्लेट में देती थीं। आम के पापड़ बनाती थीं। उनका बेटा कामना को दीदी कहता था।