इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(9)
आज वह डॉक्टर है और उसका अपना बड़ा अस्पताल है। उसने मराठी लड़की से शादी की है। सगाई बहुत पहले हो गई थी। प्यारी सी लड़की थी। एक बार मन हुआ तो कामना ने अपने डॉक्टर भाई का नंबर खोज ही लिया और फिर पुष्पा का नंबर लेकर उससे बात की थी।
वहां से परिपक्व और भीगी सी आवाज़ और ठेकेदार आवाज़ आई थी – ‘मैं बढि़या हूं। आ कभी और जब मैं मुंबई में आऊंगी, तुझसे मिलूंगी.... तू आये, मैं आऊँ, एक ही बात है।‘ कामना की अपनी सहेलियों और मित्रों से कभी तेरा-मेरी नहीं हुई थी।
जब हुई तो तीसरे...हम-हमा-हम करनेवालों की वजह से हुई वरना तो वह मित्रों के साथ ‘हम’ ही थी। वह हमेशा अतीत और वर्तमान के बीच फंस जाती है और फिर सबकी सुनती है और सुनाते हैं सब जी भरकर और वह सुनती है....कामना जो है....कहकर भूल जाती है...क्या कहा था।
पुष्पा के पिताजी हंस कर कहते थे – ‘तुम दोनों पढ़ाई करना। बातें मत करना। तुम्हारे कमरे से कभी ज़ोर से हंसने की तो फुसफुसाकर हंसने की आवाज़ आती है।‘
वह हंस कर जवाब देती – ‘बिल्कुल बात नहीं करेंगे अंकल और यदि आपने ऐसा सुना तो अगली बार घर मत आने देना। मैं स्ट्रीट लाइट के नीचे रात को बैठकर पढ़ लूंगी। मेरा घर सड़क के पास है’ और वे हंस कर कहते थे – ‘चल पागल कहीं की, पकौड़ी खाओ और पढ़ने बैठो’ और भीतर आवाज़ देते थे –
‘सुनती हो पुष्पा की अम्मां, तनिक ज्यादा सेंकना पकौड़े। बच्चन के बहाने हमहूं खईबे करी।‘ आंटी साड़ी के पल्ले से हाथ पोंछती आतीं और कहतीं – ‘तनिक धीर रखिये। बनाती हूं’ और दस मिनट बाद वे एक प्लेट पकौड़ी पुष्पा के कमरे में और दूसरी प्लेट पति के कमरे में ले जाती थीं।
वे दोनों पढ़ने बैठतीं और पुष्पा को जो नहीं आता था, वह उसकी कॉपी में लिखती थी और अपनी कॉपी में बिल्कुल अलग लिखती थी। पुष्पा हंसकर कहती – ‘बहुत चालू है तू। अपना अच्छा लिखती है।‘
इस पर वह हंस देती थी और कहती थी ‘कॉपी टू कॉपी नहीं लगना चाहिये।‘ इस तरह पढ़ते पढ़ते दोपहर का एक बज जाता था और नीचे से पुष्पा की मां की आवाज़ आती – ‘चलो बिटवा, खाना खा लो। कामना, तेरे लिये मेथी बनाई है। तुझे पसंद है न? बिटिया बताये रही और हां, लहसुन प्याज नहीं डाला है।‘
उसे वहां कभी बेगा़नापन नहीं लगा था और शाम को चार बजे वह वापिस अपने घर जोगेश्वरी की ओर चल देती थी। ट्रेन का पास था और पुष्पा के घर से स्टेशन बीस मिनट दूर था। इतना तो पैदल आराम से चला जा सकता था। पांच बजे तक अपने घर आ जाती थी। उन दिनों एक रुपया जेब खर्च मिलता था और स्टेशन पर एक पानी पूरी वाला खड़ा होता था और चार आने की छ: पानी पूरी मिलती थीं उन दिनों, वह ज़माना देखा है....छेद वाली पाई भी होती थी।
हलवाई की बेटी मीना पढ़ने में अच्छी नहीं थी। उसका घर मालाड में था। कामना उसके घर भी उसके बुलाने पर जाती थी। अमीर थे वे लोग। अमीरों के यहां बिना बुलाये जाओ तो इज्ज़त नहीं होती। यह उसने अपने अभावों के दिनों में जाना था। वहां भी वह सुबह जाती थी।
अच्छे नंबर लाने के लिये सात घंटे पढ़ना बहुत ज़रूरी था। मीना का पढ़ने का बहुत बड़ा कमरा था। बड़ी सी टेबल और राजा महाराजाओं जैसी लाल मख़मल से सजी कुर्सियां थीं। खिड़कियों पर भारी भारी पर्दे, जिससे ट्यूब लाइट जलाना पड़ता था।
मीना कुर्सी पर पालथी मारकर पढ़ती और कामना ज़मीन पर बिछे कालीन पर पेट के बल लेटकर और दोनों पैरों को हिलाते हुए पढ़ती थी। जब वह सोच रही होती थी तो उस समय पेंसिल दांतों के बीच दबी होती थी और एक हाथ से अपने उड़ते घुंघराले बालों को संवारती थी।
उनका बड़ा सा डाइनिंग हॉल था जहां पन्द्रह लोग एक साथ बैठकर खा सकते थे और खाना बनाने के लिये महाराज था जो उन दोनों को गरम गरम रोटियां देता था। खाने में दो तीन सब्जियां होती थीं और वह बड़े मनुहार से खिलाता था और उसे नींद आने लगती थी।
मीना घंटों पेंसिल ठुड्डी पर रखकर सोचती रहती थी, तब तक कामना दो प्रश्नों के उत्तर फुलस्केप पेपर पर लिख लेती थी। मीना के चेहरे पर टेंशन साफ दिखाई देता था... माथे पर तीन लकीरें दिखती थीं।
एक दिन मीना के भाई ने कहा – ‘तुम लोग इतना क्यों पढ़ते हो और इतनी चिंता क्यों करते हो? मैं प्रश्नपत्र खरीदकर दे दूंगा। वह परीक्षा में पक्का आयेगा।‘ उन दिनों गणित के अलावा बाकी प्रश्नपत्र पचास रुपये में मिल जाते थे और गणित का पेपर सौ रुपये में मिलता था।
यह सुनकर मीना निश्चिंत हो गई थी। लेकिन वह बोली थी – ‘मीनू, हम उस पर निर्भर नहीं रह सकते। यदि वह नहीं आया तो? मैं दस साल के प्रश्नपत्र हल करने वाली हूं, दुकान में पेमेंट कर आई हूं। कल मिल जायेगी कॉपी।‘
इस पर उसने कहा था – ‘तुझे जो करना है कर। मुझे कौन सी नौकरी करना है। शादी के लिये पिताजी लड़का खोज रहे हैं और मिल भी गया है। बड़ा बिजनेसमैन है और उनका भी मिठाइयों का ही बिजनेस है। दसवीं की परीक्षा होते ही सगाई और दो दिन बाद शादी हो जायेगी।‘
पुष्पा और मीना के लक्ष्य तय थे। पुष्पा गई सुलतानपुर के जमींदारों के घर और मीना गई अमीर हलवाई के घर। दोनों कमर में चाभी का चांदी का गुच्छा लटकाये छमछम घूमती होंगी। वह चांदी के गुच्छों का ज़माना था और ये उपहार महंगे माने जाते थे।
मीना पूड़ी सब्जी खाते खाते मुटा गई होगी। कामना के पास तो आज भी सादा सा चांदी का चाभी का गुच्छा है, जिसमें घर की चाभी रहती है, बस।
जब वह और गायत्री ग्यारहवीं में थे तो उन दिनों दसवीं कक्षा की छात्राओं द्वारा अपनी सीनियर्स को विदाई समारोह देने का चलन था। उन दिनों परंपरा थी कि उस दिन दसवीं की छात्राएं स्कूल में खाना बनाती थीं।
तरह तरह के कार्यक्रम होते थे। नृत्य और गाना बजाना होता था। उसके बाद सीनियर छात्राएं भी कार्यक्रम देती थीं।...मसलन, गाना गाती थीं और सविता पूरे कपडों में कैबरे करती थी। वह हेलेन की प्रशंसक थी और हू-ब-हू वैसे ही नाचती थी। विदाई पार्टी में छात्राएं कैजुअल पहन सकती थीं और उन दिनों सलवार कुर्ते का चलन था।
उसके बाद सीनियर्स को फिश पोंड्स दिये जाते थे। उसे दो फिश पोंड्स मिले थे....ये सिर्फ़ एक लाइन की शायरी थी जो दो पंक्तियों में विभक्त कर दी गई थी। एक ...आप हंसती हैं तो फूल खिलते हैं। और दो ..आप ज़हर का प्याला दें, तो भी जी लेती हैं हम....आप खूब प्यार करती हैं हमें।
ये फिश पोंड रंगीन कार्डबोर्ड के काग़ज़ काटकर बनाये जाते थे अलग अलग आकार में और उन पर अलग अलग रंग के स्केच पैन से लिखा जाता था और कलर पेंसिलों से बेल-बूटों के बार्डर बनाये जाते थे। उस समय स्कूल में पीटी पीरियड में लेजिम और डंबेज सिखाये जाते थे।
उस समय स्कूल का बैंड बजता था और उस धुन पर ड्रिल करवाई जाती थी। वह खड़ी खो-खो और बैठी खो खो खेलती थी। उसे इंडोर गेम बहुत पसंद थे, जिनमें रस्सी कूदना, गुट्टे खेलना, लूडो खेलना, सांप सीढ़ी खेलना और कैरम खेलना शामिल था।
पिताजी ने अपने बच्चों को मीडियम साइज़ का कैरम लाकर दिया था। वे चादर के अंदर ही पैर पसारते थे और बजट देखकर काम करते थे। उसे गोटी खेलना बहुत पसंद था। हर फेलियर खिलाड़ी भी दो गोटियों को आपस में टकराते हुए एक आंख बंद करके तीरंदाज़ की तरह बड़े गोटे को मारता था।
गोटी अपना सयानापन दिखाते हुए गोटे को छुए बिना बगल में से निकल जाती थी और वह हारे हुए खिलाड़ी की तरह सिर नीचे करके एक ओर बैठ जाता था, गोया यदि वह जीत जाता तो बहुत बड़ा कमाल हो जाता।
एक बार उसने अपनी सात-आठ सहेलियों के ग्रुप से खेलों के बारे में पूछा था तो सबने कंचों से लेकर कैरम और ताश के खेल याद आये थे। सुशीला को कबड्डी, कैरम, पिट्ठू खेल याद आये। निधि को कंचे खेलना नहीं आता था।
वह अपने भाइयों के कंचे गिना करती थी एक किनारे बैठकर। आशा ने तो कविता ही लिख दी थी....आपणे चौबारे ते मैं खेड्डा गीटियां/मारदा ग्वांडियां दा मुंडा सीटियां। लक्ष्मी को घर-घर खेल याद आया और पतंग उड़ाना याद आया था। वह खुद ताश और गिल्ली डंडा अच्छा खेलती थी।
एक बार एक लड़का अपनी गिल्ली मारते मारते आगे ले जा रहा था और गिल्ली उछलकर किनारे पर खड़ी कामना की दायीं आंख की भौंह पर जा लगी थी और वहां से चमड़ी फट गई थी और खून बहने लगा था। वह घबराकर अम्मां को बुला लाया था और बोला था –
‘मैंने जान-बूझकर नहीं मारा। और अम्मां ने सहज रूप से कहा था – ‘हमें पता है। बच्चे हो, गिल्ली लग गई होगी’ और वे उसे थोड़ी दूर के क्लिनिक में ले गई थीं, जहां उसे दो टांके लगे थे और वह निशानी आज भी उसकी भौंह पर है।
कालबादेवी की छत पर वह और गायत्री पतंग उड़ाती थीं और पतंग के कटने पर ‘काई पोचे’ कहना ज़रूरी था। इसके साथ ही गायत्री चरखी पर मांजे को तेज़ी से लपेटने लगती थी और वह स्पीड देखने लायक होती थी।
छोटे शहरों में मुर्गे लड़ाना तथा कई शहरों में भैंसे की लड़ाई लोग बड़े शौक से देखते हैं। ये हिंसक खेल ही इंसान को क्रूर बनाते हैं। मांसाहारी और शाकाहारी ...अंतर नज़र आ जायेगा। मांसाहारी लोग अक्स़र क्रूर प्रवृत्ति के होते हैं, गुस्सैल होते हैं और सेक्सी प्रवृत्ति के होते हैं।
वे बात बात पर भड़कते रहते हैं। जबकि शाकाहारी लोग अपेक्षाकृत और सहनशील होते हैं और गुस्सा पी जाते हैं, लेकिन जब गुस्सा होते हैं तो कई दिनों का आक्रोश एक साथ बाहर निकलता है। कामना का गुस्सा इसी प्रकार का है। कामना भी बस...कामना ही है।
बात पतंग की हो रही थी और वो कहां पहुंच गई। उसी दिन उसने घर में रखी बीस पतंगें ग़रीब बच्चों को दी थीं और उन्होंने बिना अहसान जताये हंसते हुए कहा था - आंटी, आप इस उमर में क्या पतंग उड़ायेंगी? गिर जायेंगी। बस, हमारा काम हो गया...थैंक यू...।‘
वे खुश होकर लटपटाते हुए चले गये थे। वह हंसकर रह गई थी...ये बच्चे भी बस....हद करते हैं। मुंबई में कोई धन्यवाद भी कह दे तो बहुत बड़ी बात है। यह औपचारिक होकर भी अनौपचारिक शहर है।
मिस सुब्रमनियन कहा करती थीं - behave like a lady. Do not try to be a man. Man is man and woman is woman. इस तरह वह कदम-कदम पर वह अनुभव ग्रहण करती थी और खुद को समृद्ध करती थी और दिन-ब-दिन मज़बूत बनती जा रही थी। वह डरी तो किसी से नहीं थी। उसे क़लह से बहुत डर लगता था और अपनी ग़लती न होते हुए भी भाइयों की ग़लती अपने सिर पर ले लेती थी।
पिताजी ने उसे कभी नहीं मारा था। बच्चों को फूलों की तरह रखा था और संस्कार दिये थे जो एक अच्छे जीवन को जीने के लिये बहुत ज़रूरी होते हैं। खुद कलह करते थे। पिताजी को क़लह करने के बीज अपनी मां से मिले थे।
अम्मां दो दो दिन तक खाना नहीं खाती थीं, पर बच्चों को बनाकर खिलाती थीं। कामना उनको रसोईघर से उठा देती थी। वे अपनी मां और पिताजी को याद करके रोती थीं। वह उन्हें और पिताजी को साथ साथ थाली परोसकर देती थी।
साथ ही गरम गरम रोटियां सेक कर देती थी। अम्मां की आंखों से टपटप आंसू गिरते रहते थे और खाती जाती थीं। ऐसे समय में गायत्री स्टैंड लेती थी और अम्मां के साथ खड़ी होती थी और कहती थी –
‘ख़बरदार पापा, अम्मां को आधी बात भी कही तो अच्छा नहीं होगा। हम भाई बहन अम्मां को लेकर घर छोड़ देंगे।‘ जवान होती गायत्री के मुंह से यह सुनकर पिताजी डरने लगे थे। इसके परिणामस्वरूप घर में अपेक्षाकृत कम क़लह होने लगे थे और पिताजी भी ठंडे पड़ते गये थे।
इन सब हालात को देखकर कामना के लिये पढ़ाई और भी ज़रूरी हो गई थी। एक लड़की के लिये स्वाभिमान से जीने के लिये आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत ज़रूरी है। उसे पता था कि उसे क्या करना था और किसी भी प्रकार से अपने पिताजी का सपना पूरा करना था।
अम्मां और पिताजी ने तय किया कि जब पैसा आ ही रहा है तो क्यों न इज्जतदार घर खरीदा जाये। उन्होंने एजेंट से बात की। प्रॉपर्टी एजेंट तो इस ताक़ में ही रहते हैं कि कब ग्राहक आये और वे कब अपना कमीशन वसूलें।
एजेन्ट ने कांदिवली के पास पारस नगर में बिल्डिंग दिखाई थी। वहां पिताजी को एक फ्लैट बहुत पसंद आया था। दो बेडरूम का फ्लैट था। ड्रांइगरूम में बाल्कनी थी। एक अच्छे घर का सपना पूरा होने जा रहा था। यह निर्माणाधीन बिल्डिंग थी, जिसे पूरा होने में एक साल लगना था।
मुंबई में अपना घर हो, भले ही छोटा हो, पर अपना हो...एक ठीक ठाक नौकरी हो...दो वक्त़ की रोटी के जुगाड़ के लिये...बाकी ज़रूरतें तो पूरी होती रहती हैं। उनके पास यह सब होने जा रहा था, स्थाई रूप से।
सपने यथार्थ का रूप लेते जा रहे थे। अम्मां के चेहरे की खुशी - दुख भरे दिन बीते रे भइया, अब सुख आयो रे...रंग जीवन में नया लायो रे.... । सभी खुश थे। पिताजी भी चाल से निकलने के लिये अपनी जुगत भिड़ाने लगे थे।
लेकिन अपने फ्लैट में जाने से पहले कहीं और इंतज़ाम करना था। गायत्री अपने स्कूल की आरएसपी की कैप्टन थी। स्कूल के ट्रस्टी उसे जानते भी थे और मानते भी थे। मारवाड़ियों का मालाड में एक सेनिटोरियम था, आज भी है।
उनके पास कुछ अतिरिक्त कमरे थे जो वे मामूली किराये पर देते थे। बस शर्त एक ही थी कि वहां एक महीने के लिये कमरा मिलता था और ज़रूरत के हिसाब से हर महीने एक्सेटेंशन करवाना पड़ता था।
हर एक्सटेंशन पर किराया बढ़ जाता था। पिताजी का मन था कि यदि गायत्री उनसे मिलकर अपनी बात कहे तो रहने का इंतज़ाम हो सकता था। गायत्री ने इस बात के लिये हामी भर ली थी – ‘हां, पापा, तुम चिंता मत करो। मैं बात कर लूंगी...इंतज़ाम हो जायेगा।‘
कामना और गायत्री में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान तो शुरू से ही कूट-कूटकर भरा था... भूखी रह लेंगी, पर किसी को उनके चेहरों से पता नहीं चल सकता था। कुछ ही दिनों के बाद गायत्री ने स्कूल के ट्रस्टी से बात की थी।
वे सहज रूप से तैयार हो गये थे, साथ ही आश्वासन दिया कि जब चाहें, वे अपने हस्ताक्षर का पत्र दे देंगे। ज़रूरत पड़ने पर एक्सटेंशन भी दे देंगे...बस भाड़ा हर महीने बढ़ेगा। कुछ सोचकर उन्होंने उसी समय लैटरहेड पर बिना तारीख का सिफारिशी पत्र भी लिखकर और साइन करके दे दिया था।
साथ ही कहा था – ‘मैं बिजनेस की वजह से अक्सर मुंबई से बाहर रहता हूं। सेनिटोरियम के केयरटेकर तारीख डाल देंगे।‘ इमेज अच्छी थी तो लोग भी काम कर देते थे, वरना मुंबई में कोई किसी को घास नहीं डालता।
यह समस्या भी सुलझ गई थी। काम बनने होते हैं तो रास्ते भी खुलते जाते हैं। बस, कामना तो हमेशा यही मानती थी कि जो अपनी मदद खुद करते हैं, ईश्वर भी उनका साथ देता है और यह सिद्ध होता जा रहा था।
एक बार फिर सामान पैक होने लगा था। जब तक एक जगह रहते हैं, लोग बात करते हैं और संपर्क भी रखते हैं। एक बार जगह छूट जाये तो लोग भी छूट जाते हैं। यही सब तो हो रहा था उनके परिवार के साथ।