आप संज्ञा शून्य से हो जाते हैं, जब कोई अपना बहुत दूर चला जाता है, अनंत की यात्रा पर,जहाँ से वो इस रूप में कभी वापस नहीं आएगा.
आप उससे कभी मिल नहीं पायेंगे, उसे देख नहीं पायेंगे, उसे छू नहीं पाएंगे, उसे सुन नहीं पाएंगे .....सब कुछ होगा बस वो नहीं होगा.....एक ऐसी बेचैनी .....जो आप की जान ले रही होती है और आप ज़िन्दा होने का अभिनय कर रहे होते हैं ...... जब किसी निकटस्थ का ये अंतिम प्रयाण चल रहा होता है तब अनेक विधियाँ संपन्न होती हैं. आप यांत्रिक भाव से उन्हें करते जाते हैं. कब, क्यों, कैसे, कितना, वैज्ञानिक, अवैज्ञानिक, परंपरा.....कुछ सोचते नहीं....जो आस -पास के लोग कहते जाते हैं...वो आपका शरीर करता जाता है.
हम सब जीवन में एकाधिक बार इस कठिन घड़ी को पार करते हैं.
वो 28 दिसम्बर 2017 की हाड़ कंपाती ठंढ वाली सुबह थी, कोहरा इतना घना कि अपने हाथ को दूसरा हाथ भी दिखायी न दे. हमें कहा गया था कि सुबह 8.00 बजे से पहले शमशान के उस चबूतरे पर पहुँच जाना है, जहाँ कल हमारे पिता जी का दाह संस्कार हुआ था तभी हमें उनकी अस्थियाँ मिल सकेंगी. सुनसान सड़क पर मैं और मोहन (मेरा छोटा भाई, मामा जी का बेटा) एक खाली मटकी और पूजा का सामान लेकर शमशान की ओर चल दिए. अजब सी बात थी, ठंढ बहुत थी पर हमें शायद लग नहीं रही थी, कुछ दिख भी नहीं रहा था, पर हम जा रहे थे.
वो 17 वें क्रमांक का चबूतरा था. पंडित जी हमें देखते ही पहुँच गए. किसी लेटे हुए व्यक्ति के आकार का और लगभग उतना ही ऊंचा राख का एक ढेर. जीवन यही है....शेष राख....ये सोचने का या दार्शनिक होने का समय नहीं मिला. पंडित जी ने मुझे पूजा के लिए बैठा दिया. छोटी प्रक्रिया थी. फिर राख में दूध के छीटें डलवाए और अपना हाथ राख के उस गर्म ढेर में डाल दिया....
अगले क्षण चेहरे पर अत्यंत उत्साह और प्रसन्नता के साथ एक अस्थि सा कुछ जो संगमरमर की तरह श्वेत था, मुझे देते हुए बोले, अरे...आपके तो आत्माराम मिल गए. मेरे लिए इसका न कोई अर्थ था न महत्व. मेरा और मोहन दोनों का चेहरा भावशून्य सा ही था, लेकिन उनका उत्साह कम नहीं हुआ.....अरे, आप लोग बहुत भाग्यवान हो....जानते हो हज़ारों चिताएं जलती हैं तब कहीं एक में आत्माराम मिलते हैं....इसमें हमारा भी यश होता है....लोग जीवन भर दाह संस्कार कराते हैं लेकिन आत्माराम के दर्शन नहीं होते......आप इसे अलग पकड़िये.......फिर उन्होंने उस अस्थि का दूध से अभिषेक कराया...कुछ पूजा करायी और जो खली मटकी हम लेकर गए थे उसमें नीचे फूल बिछाकर उसे स्थापित कराया.........वो मटकी से हमारे पिता जी का अस्थिकलश हो गयी थी.
कुछ और अस्थियाँ पंडित जी ने उसमें रखीं, कुछ और विधियाँ की........दक्षिणा के प्रति भी पंडित जी उदासीन ही थे, वो आत्माराम के मिल जाने से बहुत प्रसन्न थे. .....और फिर मैं और मोहन अस्थि कलश लेकर घर की तरफ चल दिए....अगले दिन सुबह अस्थि विसर्जन के लिए प्रयाग जाना था.....
लौटने हुए रास्ते में यूँ ही....कुछ आत्माराम शब्द और कुछ पंडित जी का उत्साह....बार बार याद आ रहा था ....शायद ये कुछ खास था...मैंने दिमाग पर जोर डालकर मोहन से कहा, "मोहन,वो अस्थि, पहले तो कशेरुका सी लगी, लेकिन वो कशेरुका नहीं थी........वो एक ऐसी छोटी श्वेत मूर्ति सी थी...जैसे कोई योगी ध्यान मुद्रा में बैठा हो.....जैसे ..गौतम बुद्ध ....ऐसी तो कोई अस्थि नहीं होती मनुष्य के शरीर में .....क्या होगा फिर ये"..... ......हम दोनों अब अतामाराम को जानने को व्याकुल हो रहे थे .......ऐसा क्या है जो कई हज़ार चिताओं में कभी मिलता है.....अस्थि होगी तो सभी चिताओं में होगी......यह एक नया अध्याय सा था ...जिसके विषय में हमने कभी कुछ नहीं सुना था............पंडित जी के चेहरे का उत्साह हमें आत्माराम को जानने के लिए प्रेरित कर रहा था.
गूगल करता हूँ दीदी.....और फिर पता चला ....गूगल को भी लगभग उतना ही पता था और वो ही सवाल थे, जो हमारे मन में थे...
“आत्माराम” जो एक अस्थि मानी जाती है, कई हज़ार चितायें जलने पर किसी एक में निकलती है और कहते हैं ये वो शरीर होते हैं, जिनकी आत्माएं पवित्र से भी पवित्र और ईश्वर के एकदम निकट होती हैं .................इस प्रश्न का उत्तर केवल भारतीय आध्यामिक परम्परा ही दे सकती है क्योंकि-
अगर वो अस्थि होती तो हर शरीर में होती. लेकिन मानव शरीर में इस आकार प्रकार की कोई अस्थि नहीं होती.
अगर वो अस्थि होती तो दूसरी अस्थियों की तरह जली हुयी होती - लेकिन....वो तो एक निष्काम योगी की संगमरमर प्रतिमा सी थी ...
सवाल तो रहेंगे ...लेकिन मेरे पिता जी सच में पवित्र से भी पवित्र ..ईश्वर के समीप थे.. ये विश्वास और दृढ़ हो गया ....
मैं और मोहन.......अब भी आत्माराम की बात करते रहते हैं......पता नहीं शायद हम ये रहस्य कभी सुलझा भी लें......