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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 28

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग-28
कल्पना और यथार्थ
बात सच थी और चिंतनीय भी। उसने अब तक अपनी कथा से ही इन्हें एक सीमा तक बांधे रखा था। कथा का यूं समाप्त होना तो ऐसे था मानो भूखे शेरों का अचानक उठ खड़े होना। अब इन्हे कैसे नियंत्रित किया जाये? इस बात से अधिक अभी उसे इस बात की चिंता थी कि इनके चंगुल से निकलकर भागा कैसे जाये?
“उसने अपना वचन तोड़ा था। और यह न भूलो कि मुझे छोड़कर वह गई थी, मैं उसे छोड़कर नहीं गया था।” व्यापारी को अपने स्पष्टीकरण में इतना ही सूझा। उसका यह स्पष्टिकरण कारगर भी हुआ, लेकिन व्यापारी की चिंता का विषय कुछ और भी था...
इनके साथ तय की गई एक माह की समय सीमा खत्म हो रही है, और शेरु से कोई आशा नहीं है। इन डाकुओं से भी दया की आशा तो व्यर्थ ही है। अब किसी तरह इनसे छुपकर यहाँ से भागना ही उचित रहेगा। लेकिन उसे रास्ता कोई दिखाई नहीं दे रहा था।
भागने के लिये उसने स्थान का अवलोकन किया। यह रेतीला समुद्र तट तीन ओर से भयानक ऊंचे और हरे भरे वनो से अच्छादित पहाड़ों से घिरा है। सामने की ओर असीम विस्तार और गहरे हरे रंग का सागर है; जिसकी सतह पर उभरा हुआ एक काला बिंदु बढ़ता हुआ एक धब्बा सा दिखाई देने लगा है।
‘अरे! यह तो कोई जलयान है, जो इसी दिशा में बढ़ा आता है। किंतु यह तो कोई बंदरगाह नहीं है। यानि इस स्थान के दायें अथवा बायें कहीं समीप में ही कोई बंदरगाह होना चाहिये, जहाँ यह जलयान जा रहा हो।
‘क्या यह मुझे मेरी मुक्ति की कोई राह का कोई संकेत है।’
“अरे! वह तो कोई जलयान है।” वे डाकू आपस में बात करने लगे।
“वह बड़ा और स्पष्ट होता जा रहा है; लगता है, इस ओर ही आ रहा है।”
“कितना विशाल है?”
“इस ओर क्यों आयेगा? यहाँ कोई बंदरगाह तो है नहीं।”
“हो सकता है, समुद्री लुटेरे हों...”
धीरे-धीरे आता हुआ वह जहाज़ उस तट की दाईं ओर वाले पहाड़ की ओर बढ़ता हुआ, तट से दूर एक जगह ठहर गया। लंगर डल गये और उनकी बेचैनी बढ़ गई। लगा ज़रूर समुद्री लुटेरे वाली बात सही होने जा रही है। वे तीनो बेचैन से इधर उधर देखते हुये, छिपने की कोई जगह ढूंढने लगे।
अचानक शेरू बेचैन हो उठा वह उसी दिशा में देखकर भौंकने और उछलने कूदने लगा। वे समझ गये, अब इस कुत्ते के कारण ही सब मारे जायेंगे।
व्यापारी ने दौड़कर शेरू को उठाने की कोशिश की लेकिन वह उसके हाथों से छूटकर सागर की लहरों की ओर भागा। दोनो डाकू भी उसे पकड़ने दौड़ पड़े लेकिन वह किसी के हाथ नहीं आया। वह लगातार सागर की उफनती लहरों की ओर भागता जा रहा था। वे शेरू को पकड़ने के लिये दौड़े लेकिन जिस ओर देखता हुआ शेरू बेचैन हो रहा था, उस दिशा से द्रुत गति से तैरते हुये तट की ओर आते एक जीव को देख वे चौंक उठे।
“इतनी तीव्र गति से कौनसा जीव तैर सकता है?”
“वह डॉल्फिन अथवा व्हेल मछली हो सकती है।” व्यापारी ने कहा, “किंतु व्हेल तो इससे कई गुना विशाल होती हैं... हो सकता है डॉल्फिन हो...” व्यापारी ने कहा।
वे समझ गये कि शेरू उसी जीव को देखकर बेचैन हो रहा है।
अचानक ही वह जीव पानी के लहरों के साथ ऊपर उछला और दूसरे ही क्षण वह तट की रेत पर था। यह देख उनकी आंखें फटी की फटी रह गई कि वह एक मत्स्यमानव था...
वे तीनो जड़ रह गये। शेरू तेजी से दौड़ता हुआ उस मत्स्यमानव तक पहुंच गया और काऊँ काऊँ करता उसके आगे पीछे मंडराने लगा। वे तीनो सोंच रहे थे कि शेरू उसे मछली समझकर अभी नोचने लगा तो उस मत्स्यमानव की लम्बी मज़बूत बाहें अभी उसे चीर फाड़कर रख देंगी। लेकिन जैसे ही शेरू उस विशाल जीव के ऊपर कूदा उसने शेरू को अपनी मज़बूत बाहों में उठा लिया। अब शेरू उसपर भौंकने की बजाय उसके लम्बे बाल और लम्बी घनी दाढ़ी से अच्छादित चेहरे को चूमने लगा। इस चमत्कार से वे भौंचक रह गये। इतनी ही देर में वह मत्स्यमानव शेरू को सीने से चिपटाये हुये उठ खड़ा हुआ।
उसके लम्बे चौड़े चट्टान जैसे विशालकाय शरीर, चौड़े कंधे, किसी पेड़ की शाखों जैसी भुजायें और लम्बे बाल और लम्बी घनी दाढ़ी के कारण वह बिल्कुल राक्षस लग रहा था। उसका शरीर सीने से ऊपर इंसान जैसा और उसके नीचे मछली जैसा था। लेकिन वह अचानक झुका और अपनी पूंछ को हाथ से एक झटके में ऊपर खींच लिया जिसके नीचे से उसकी दो नंगी टांगे घुटने तक दिखाई देने लगी। सचमुच वह पूछ जैसी दिखाई देने वाली चीज़ उसकी पोशाक ही थी।
दोनो डाकू मान गये कि व्यापारी की कथा बिल्कुल सच थी।
लेकिन व्यापारी भौंचक था।
‘क्या ऐसा भी सम्भव है?’ वह सोंचने लगा।
मैंने तो सिर्फ कल्पना की थी... कल्पना का यथार्थ होना तो सुना था लेकिन...
उसके मस्तिष्क ने जैसे काम करना ही बंद कर दिया था।
शेरू को गोद में उठाये उठाये वह मत्स्यमानव हाथी जैसी चाल से इन तीनो की ओर चला आने लगा था कि पीछे से एक चिंघाड़ती हुई लहर उट्ठी और उसकी पीठ से टकराकर यूं चूर चूर हो गई मानो वह किसी चट्टान से टकराई हो। अभी वे कुछ समझ ही पाते कि वह उन तक पहुंचकर कथा सुनाने वाले व्यापारी के पैरों पर गिर पड़ा और उससे लिपटकर रोने लगा।
व्यापारी भयंकर दुविधा की स्थिति में था। वह ऐसे किसी जीव को जानता नहीं था। दोनो डाकुओं पर इसका बहुत ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा था। वे इस बात के अनुमान में अपने मस्तिष्क के घोड़े दौड़ा रहे थे कि इन दोनो के बीच क्या सम्बंध हो सकता है कि तभी व्यापारी ने अचकचाकर पूछा, “कौन हो तुम?”
उसने उत्तर देने की बजाय, व्यापारी को और कसके भींच लिया।
“कौन हो तुम? कौन हो? मुझे छोड़ो!!” वह घबरा कर चीख उठा।
“ऐसा न कहें आप मेरे भगवान समान हैं। आप मुझसे मुख न मोड़ें। मैं आपकी ही सर्जना हूँ। आपका पुत्र!” वह बोला। उसकी आवाज़ में सागर जैसी गर्जना थी और सागर जैसी गहराई।
दोनो डाकू आश्चर्य में डूब गये। अपनी कथा में पुत्र की तो कोई चर्चा नहीं की थी इसने। फिर यह पुत्र कहाँ से आगया। ज़रूर इसने कोई बात छुपाई है। लेकिन चलो इतनी बात तो तय है कि इसने झूठी कथा नहीं सुनाई थी, जैसा कि वे अबतक समझते आ रहे थे।
“सर्जना तक तो ठीक है, किंतु मैं तुम्हारा पिता नहीं हूँ।” व्यापारी घबराकर बोल उठा।
“ऐसा न कहें पिताश्री मैं सारी दुनिया में आपको ढूंढता फिरता रहा। सभी कहते थे कि आप नहीं मिलेंगे लेकिन मुझे विश्वास था कि मैं एक न एक दिन आपको ढूंढ ही लूंगा।”
“शायद तुम किसी और को ढूंढ रहे हो। मैं तुम्हारा पिता नहीं हो सकता।”
“क्यों? क्या आप मत्स्यद्वीप नहीं आये थे? क्या आपने वहाँ की सबसे सुंदर कन्या से विवाह नहीं किया था?...” उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
व्यापारी ने दोनो डाकुओं की ओर देखा। उनके चेहरे बहुत से प्रश्न लिये उसकी ओर देख रहे थे। शायद वे उस मत्स्यमानव के प्रश्नो के उत्तर की प्रतीक्षा में थे।
वह चिंतित हो गया। इन यमदूतों के सामने कैसे कह दूँ कि यह सब झूठ है। उसके बाद यह तो चला जायेगा, और उसके बाद रह जायेंगे वे और मैं। और उसके बाद...
“ठीक है, किया था। लेकिन उससे मुझे कोई संतान नहीं थी।” यह एक झूठ की स्वीकारोक्ति थी।
“हाँ, यह सही है कि आपको पता नहीं चला और माँ को भी तभी पता चला जब वह अपने पिता के घर लौट आई। किंतु वह आपको बताती कैसे? आप तो उससे कितनी दूर थे, जबकि उसे आपकी आवश्यकता थी...”
व्यापारी कथाकार चुपचाप सिर झुकाये उसकी बातें सुनता रहा। एक अपराधी की तरह। जबकि उसे पता था यह सब झूठ है; तब भी पता नहीं उसे ऐसे लग रहा था जैसे यह सब सच हो।
“आप माँ से इस कारण से घृणा करने लगे हैं कि वह नियत तिथि पर वहाँ पहुंची नहीं। लेकिन उसमें मेरी माँ का क्या दोष? वह अवश्य वहाँ पहुंचती, यदि जीवित होती तो...”
“क्या? तुम क्या कह रहे हो?”
“हाँ, वह मुझे जन्म देते ही चल बसी।”
“नहीं!!” वह लगभग चीख पड़ा। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
वह एक ऐसे जाल में फंस चुका था जिसमें लगभग हर कथाकार कभी न कभी फंस जाता है... अपने ही बुने जाल में। वह भूल गया कि यह कल्पना लोक उसी का निर्मित किया हुआ है...
“मैं सारा जीवन माता-पिता दोनो के बिना गुज़ारा है। जब से होश सम्हाला दुनिया की खाक छानता रहा केवल एक बार आपको देखने के लिये। यह अनुभव करने के लिये कि पिता कैसा होता है। मैं एक बार आपका स्नेह भरा आलिंगन चाहता था, बस...”
व्यापारी ने भावना के अतिरेक में आकर, उस दानव सदृश्य पुत्र का विशाल सिर अपने सीने से कसके चिपका लिया और दोनो रोने लगे। यह दृश्य देख दोनो डाकुओं के भी आंसू निकल आये।
आकाश पर बादल घुमड़ आये और बरसात होने लगी। लेकिन शायद बरसात की शायद किसी को पता ही नहीं चला। वे चारों अपनी अपनी पूर्व स्थिति में जैसे जम गये थे। वे चारों रो रहे थे...
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जारी है...
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग29
मत्स्यमानव की गिरफ्त में
मिर्ज़ा हफीज़ बेग कृत

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