बाग़ के फल अब पकने लगे थे।
लेकिन माली भी बूढ़ा होने लगा। माली तो अब भी मज़े में था, क्योंकि बूढ़ा होने की घटना कोई एक अकेले उसी के साथ नहीं घटी थी।
जो उसके सामने पैदा हुए वो भी बूढ़े होने लगे थे।
फ़िर भी बुढ़ापे से बचने का एक रास्ता था।
उसने सोचा कि वो फ़िर से जन्म ले लेगा। वो एक बार पुनः पैदा होगा।
उसे पुनर्जन्म जैसी बातों में कभी विश्वास नहीं रहा था। पर ये पुनर्जन्म था भी कहां? वो अभी मरा ही कहां था। अभी तो उसका जीवन था ही।
तो उसने इसी जीवन में दोबारा पैदा होने की ठान ली।
ये ठीक था। मज़ेदार।
एक सुबह उठा तो उसे ऐसा लगा जैसे वो अपने बिस्तर पर नहीं, बल्कि किसी पेड़ की डाल पर है।
इससे आगे की कहानी आप को सुनाने से पहले एक और बात जो मेरे दिमाग़ में आ रही है, वो भी कह डालता हूं।
ये "माली- माली" क्या करना?
मैं ऐसे ही बात करता रहूंगा तो आपको भी लगेगा कि मैं किसी माली को देख रहा हूं और उसकी कहानी कह रहा हूं। ऐसे में अगर कभी मुझे नींद की झपकी आ गई तो उसकी कोई बात मुझसे छूट जाएगी।
फ़िर आप कहेंगे- "अधूरी कहानी!"
तो ऐसा करते हैं कि आगे से माली को छुट्टी दे देते हैं।
इसे मैं एक ऐसे व्यक्ति की कहानी बना लेता हूं जिसे आप भी अच्छी तरह जानते हैं। ताकि अगर कुछ छूट भी गया तो आप कह सकेंगे कि ज़रूर ऐसा रहा होगा...इसे तो हम जानते हैं।
या ऐसा तो हो ही नहीं सकता...इसे तो हम अच्छी तरह जानते हैं।
अब ऐसा व्यक्ति कौन हो?
लोग कहते हैं कि आदमी को जीवन में अपने भीतर के "मैं" से छुटकारा पा लेना चाहिए।
किन्तु आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने जीवन भर वो ही नहीं किया जो होना चाहिए। बल्कि वो किया जो मेरे मन में आया। तो मैं एक बार फ़िर वैसा ही करता हूं।
मैं फ़िर अपनी ही कहता हूं। वो व्यक्ति मैं ही बन जाता हूं। हम दूसरों की बात करने में वक़्त क्यों जाया करें?
मैं हूं ना। मेरी भी तो कहानी है। तो इसी को सुनिए-
...तो सुबह - सुबह बिस्तर की जगह पेड़ पर मैं था!
मैं उगा था। पेड़ पर शाखों और पत्तियों के दरमियान कभी एक फूल लगा था, उसी में एक हल्की सी फल की झलक की तरह मैं ही दिख रहा था। सुबह- सुबह की धूप मुझ पर पड़ रही थी।
जब आंख अच्छी तरह खुल गई और मेरे हाथ में चाय का कप व अख़बार आ गया तो मैंने देखा कि देश में नई सरकार के गठन की खबर है।
वैसे तो ये "बेड टी" ही थी और मुझे अख़बार को जल्दी से उलट- पलट कर वाशरूम जाने के लिए उठ जाना था, फ़िर भी मेरी उड़ती सी नज़र एक खबर पर पड़ ही गई।
खबर दिलचस्प थी।
मैं इसे पढ़ना चाहता था लेकिन कई और लोगों की तरह मेरी आदत अख़बार को वाशरूम में ले जाने और वहां सीट पर बैठे- बैठे पढ़ने की बिल्कुल नहीं थी।
मैं इस आदत का समर्थक कभी नहीं रहा। क्योंकि ऐसा करने वाले ये नहीं सोच पाते कि दोपहर को इसी अख़बार को घर का कोई सदस्य खाना खाते हुए भी पढ़ सकता है। हो सकता है कि घर की गृहणी कल उसी अख़बार को आपकी रोटी के डिब्बे में भी जमा दे।
ऐसे में यदि आपको अख़बार पर कोई लाल- पीला धब्बा दिख जाए तो आप ये नहीं तय कर पाते कि ये दाग़ सब्ज़ी- हल्दी - मिर्च का है या इसकी केमिस्ट्री कुछ अलग ही है।
ऐसे में दाग़ कितने भी अच्छे हों, आपके दिमाग़ की बत्ती एकबारगी तो जल ही जाती है।
दूसरे, वहां अख़बार पढ़ते समय आप देश की हलचल से तो परिचित हो जाते हैं पर अपनी आंतों और उदर के शोरशराबे पर ध्यान नहीं दे पाते। जबकि आपके काम तो वही शोरशराबा आता है। देश का शोर तो सरकार या विपक्ष थाम ही लेते हैं। मिलकर नहीं, भिड़ कर।
तो अख़बार की वो खबर इस तरह थी कि - "देश के एक बड़े नेता ने कहा है कि जो सांसद पहली बार लोकसभा में चुनकर अाए हैं, उन्हें कुछ दिन समाज के बुद्धिजीवी वर्ग, यथा प्रोफ़ेसर, पत्रकार, साहित्यकार, प्रशासक आदि से सहयोग लेना चाहिए ताकि वो देश की वास्तविक समस्याओं को समझ कर भविष्य का अपना "लाइन ऑफ एक्शन" तय कर सकें।
इस खबर को पढ़कर मेरे दिमाग़ के सभी दीये जल गए।
पहली बार महसूस हुआ कि हम जैसे लोगों में उन सांसदों को भी रास्ता दिखाने की सलाहियत है जो लाखों लोगों के वोट से जीत कर देश चलाने की ज़िम्मेदारी लिए दिल्ली आते हैं।
इससे मेरे उस तन- मन में भी विटामिन, प्रोटीन और एनर्जी के कई आंतरिक झरने बहने लगे जिसे अब थका- चुका कह कर सरकार पिछले दिनों रिटायर कर चुकी थी।
मैंने अपना परिचयवृत्त अपनी कुछ किताबों सहित राज्य के कुछ युवा सांसदों को भेज दिया।
जल्दी ही मुझे दो संसद सदस्यों की ओर से मिलने का बुलावा भी आ गया।
एक तो बहुत ही सक्रिय थे और मीडिया में आए दिन छाए ही रहते थे। वे राज्य से केंद्रीय मंत्री मंडल के भी दावेदार माने जा रहे थे।
किन्तु उनका गृहराज्य राजधानी से काफ़ी दूर था।
दूसरे भी अच्छी छवि के शालीन व्यक्तित्व के स्वामी थे और उनका आवास व कार्यालय उनके निर्वाचन के नगर के साथ - साथ यहां राजधानी में भी अवस्थित था।
दोनों ही ने मुझे शीघ्र समय लेकर साक्षात्कार हेतु मिलने का निर्देश दिया था।
मैं दूसरे वाले सांसद महोदय से पहले मिला।
उनके आवास पर बेहद सद्भावना पूर्ण वातावरण में काफ़ी देर तक बात हुई। हमने चाय भी साथ में पी।
मुझे ये देख - जान कर गहरा आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मेरे बारे में मीडिया की खबरों, आलेखों आदि से तो बहुत कुछ जानकारी प्राप्त कर ही रखी थी मेरी एक किताब भी पढ़ ली थी। यही नहीं, उनकी शिक्षित धर्मपत्नी अब भी मेरी एक और किताब आधी पढ़ कर हाथ में लिए हुए थीं।
मुझे पता चला कि उनके चुनाव अभियान का काफ़ी काम उनकी पत्नी ने ही पर्याप्त कुशलता से देखा था। वो पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए थे।
मुझे दूसरे सांसद महोदय से मिलने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
जल्दी ही मुझे इस साक्षात्कार के आधार पर उनका नियुक्ति पत्र विधिवत रूप से मिल गया।
अब मैं फ़िर एक व्यस्त और ज़िम्मेदार अधिकारी था।
इस बात का उल्लेख मैं विशेष रूप से करना चाहूंगा कि जब भी सांसद महोदय को किसी भी विषय पर मुझसे प्रत्यक्ष परामर्श की ज़रूरत होती थी वो मुझे कभी अपने कक्ष में बुलवाते नहीं थे, बल्कि स्वयं उठ कर मेरे उस सुसज्जित कक्ष में आते थे, जो उन्होंने ही मुझे दिया था।
मैंने कभी ऐसे दिनों की कल्पना तक न की थी कि देश की सत्ताधारी पार्टी के महत्वपूर्ण सांसद महोदय इस तरह विचार विमर्श के लिए मेरे पास आया करेंगे।
मैं उनके कक्ष में केवल तभी जाता था जब कोई अन्य वीआईपी वहां आए हुए हों तथा कोई ज़रूरी मुद्दा विचार विमर्श के लिए हो और हम सब को बात करते हुए चाय साथ पीनी हो।
उनके अधीन क्षेत्रों के विधायक गण अक्सर ही वहां आते थे और उनकी अनुपस्थिति में मुझसे भी मिलते थे।
आरंभ के कुछ दिनों तक कभी - कभी उनकी धर्मपत्नी भी थोड़ी देर के लिए कार्यालय में आ जाया करती थीं किन्तु बाद में उन्होंने आना छोड़ दिया था।
वे कहा भी करती थीं कि मेरे आने के बाद वो इस कार्यालय के संचालन से पूरी तरह संतुष्ट होकर विमुख हो गई हैं।
मेरे लिए ये एक तमगा जैसा ही था जिसे मैं किसी को दिखा तो नहीं सकता था लेकिन कार्यालय के अन्य सहयोगी इससे मेरे प्रति अभिभूत से रहते थे।
उस दफ़्तर के ख़ाली समय में मेरी किताबें मनोयोग से पढ़ी जाती थीं।
कभी - कभी मुझे ऐसा लगता था कि शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए तो किताबें शायद विवशता जैसी हैं किन्तु ऐसे लोग, जिनके किताबों के दिन अब लद गए हों, इनके प्रति लालायित नज़रों से देखते देखे जाते थे।
ख़ाली वक़्त में मैं अपने कक्ष में बैठा हुआ सरकार के उन मैनुअल्स को पढ़ा करता था जिनमें एक सांसद द्वारा अपनी सांसद निधि से अपने क्षेत्र के लोगों की आर्थिक मदद करने तथा जनोपयोगी कार्य करवाने के लिए दिशा निर्देश होते थे और मैं उनके आधार पर प्रस्ताव तैयार करके उन्हें अपनी टिप्पणी के साथ दिया करता था।
क्षेत्र में लोगों से आए हुए प्रस्ताव भी हम देखते थे और उनमें से उचित जांच के बाद क्रियान्वयन हेतु छांटा करते थे।
राज्य की एक बड़ी नदी के पानी के वितरण से संबंधित परियोजना पर भी हमने काम किया।
राज्य के एक सुप्रसिद्ध पक्षी विहार, एक शेर परियोजना और डॉल्फिंस के संग्रहालय के साथ- साथ ये मीठा जल प्रदेश के एक पिछड़े ज़िले के आदिवासियों तक भी कैसे पहुंचे ये हमारा सरोकार था। क्षेत्र की बेहतर कनेक्टिविटी पर भी हमने ध्यान दिया।
प्रदेश के सभी ज़िलों में घूम लेने के साथ- साथ कलेक्टर कार्यालय से बेहतर संपर्क भी अच्छे तालमेल के लिए हमारे काम आया।
यद्यपि मेरी ये नियुक्ति सीमित समय के लिए ही थी किन्तु सांसद महोदय मेरे स्वभाव की तारीफ़ करते हुए इसे आगे भी जारी रखना चाहते थे।
पर मुझे नियमित अंतराल पर अमेरिका भी जाना होता था अतः इस बार जब मुझे जाना पड़ा तो सांसद कार्यालय से अलग होने का फ़ैसला भी मैंने किया। क्योंकि इस बार मेरा ट्रिप अपेक्षाकृत कुछ लंबा था।
मेरी आयु को देखते हुए मैं तकनीकी तत्परता के लिए अपने को सक्षम नहीं पाता था।
एक युवा और संभावनाशील सांसद ने अपने सलाहकार के रूप में मुझे पर्याप्त सम्मान दिया और आगामी चुनावों के समय मुझे फ़िर से उनके लिए समय निकालने की इच्छा जाहिर की।
फ़िर मैं लंबे समय के लिए अमेरिका चला गया। इस बार मेरी अमेरिका के भी छह राज्यों की यात्राएं हुईं।
वहां से पांच- छह विश्वविद्यालय भी इस बार मैंने देखे।
अमेरिका में रहते हुए ही भारत के मशहूर संगीतकार ए आर रहमान का जीवंत कार्यक्रम भी देखने का अवसर मिला।
वहां के ग्रामीण जीवन की झलक देखना इस बार विशेष आकर्षण का विषय रहा। पृथ्वी के सुदूर दूसरे भाग में जाकर कुछ दिन रहने के इस अनुभव ने मेरे यायावरी तजुर्बे को और समृद्ध किया।
इन दिनों एक मज़ेदार बात मेरे मन में अक्सर बैठे बैठे आती थी। मैं सोचता था कि मैं अब तक जी हुई ज़िन्दगी को बिल्कुल भूल कर मन से निकाल ही देता हूं।
ये मान लेता हूं कि मैं फ़िर से दुनिया में आया हूं और एक नए उग रहे पेड़ या एक नए पल रहे बच्चे की तरह व्यवहार करने लगता।
इसमें मुझे कोई विशेष कठिनाई भी नहीं होती थी क्योंकि अब मैं अपने घर में बिल्कुल अकेला था।
अगर कभी मैं अपने परिजनों या बच्चों के पास जाता तो वो भी कभी कभी हैरान होकर मुझसे पूछने लगते थे- अरे, आप तो दही नहीं पसंद करते थे? अब अच्छा लगने लगा?
- अरे, आप तो जूते पहनना पसंद नहीं करते थे, अब पहनने लगे?
- अरे, आपको तो चाय भी बनाना नहीं आता था, अब आप चाय के साथ पकौड़े भी ख़ुद बना लेने लगे?
- अरे, आपको तो सफ़र में कभी ज़्यादा सामान साथ में लेे जाना पसंद ही नहीं था, ये क्या - क्या उठा लाए?
- अरे, आपको तो टीवी देखना अच्छा ही नहीं लगता था, अब सुबह से इसी के सामने बैठे हो?
- अरे, आपको तो ई मेल भी करना नहीं आता था, अब अपना उपन्यास ख़ुद टाइप...!
और तब मुझे लगता कि जैसे ये सब मेरे पिछले जन्म के लोग हैं और मुझे पूर्वजन्म की बातें याद दिला रहे हैं।
मैं चुपचाप बैठा हंसता रहता और इससे वो सब और भी शंकित निगाहों से मुझे देखने लगते।
मैं ख़ुश होने लगता।
मुझे लगता कि सचमुच ये मेरा दूसरा ही जन्म है।
मैं किसी बड़े होते बच्चे की तरह व्यवहार करने लगता और मेरे दोस्त, हमउम्र रिश्तेदार मेरी ओर से उदासीन होने लग जाते। उनके बच्चे, उनके नाती पोते मेरे ज़्यादा क़रीब हो जाते। कुछ मुझसे सीखते, कुछ मुझे सिखाते।
उन्हें लगता, हां मैं उनके ज़माने का हूं।
इन सब बातों का असर केवल मेरे सोच और व्यवहार पर ही नहीं, बल्कि मेरे पहनावे पर भी होता।
कभी खादी का कुर्ता- पाजामा पहनने वाला मैं अब टी शर्ट, डिजाइनर कमीज़, जींस पहनता देखा जाता।
मेरे तन पर हाथ की सिली चड्डियों की जगह अब डिजाइनर ब्रीफ और ब्रांडेड कंपनियों के गारमेंट्स दिखते। मैं रंग- बिरंगी बनियान पहनता।
सब सोचते कि आख़िर मैंने भी ज़माने की रफ़्तार पहचान ली।
और मैं सोचता कि अब नील लगाकर कौन रगड़ रगड़ कर मेरे सफ़ेद झक्क कपड़े चमकाएगा, रंगीन कपड़ों पर मैल आसानी से दिखता नहीं।
और रात को सोते- सोते मेरा तकिया भीग जाता। सुबह उठ कर चाय पीते - पीते मैं ये याद करने की कोशिश करता कि मैं रात को किस बात पे रोया होऊंगा?
रात जाती बात जाती। मेरे पास दिन रात की कोई कमी थोड़े ही थी। फ़िर नए आते।