लो, इधर तो मैं फ़िर से अपने गुज़रे हुए बचपन में लौट रहा था, उधर मेरे इस यज्ञ में घर के लोग भी आहूति देने लगे।
मुझे मेरी बेटी ने मेरे पचास साल पहले अपने स्कूल में बनाए गए कुछ चित्र ये कह कर भेंट किए कि पापा, मम्मी की एक पुरानी फ़ाइल में आपके ये चित्र रखे हुए मिले।
मैंने चित्रों को हाथ में लेकर देखा।
सचमुच, जब मैं नवीं कक्षा पास करके दसवीं में आया था तब छुट्टियों में बनाए गए ये चित्र थे।
कुछ इक्यावन साल पहले की बात !
मुझे याद आया कि जब मैंने नवीं कक्षा प्रथम श्रेणी से अपने स्कूल में सर्वाधिक अंक लेकर पास कर ली थी तब घर पर मेरा भाई और कुछ मित्र मुझे कटाक्ष करते हुए ये कहते थे कि अब तक तो घर की खेती थी, टॉप कर लिया, पर अबकी बार बोर्ड का इम्तहान होगा, ये सब दंद- फंद छोड़ने पड़ेंगे, पास होने के लिए।
मैं जानता था कि दंद- फंद से उनका आशय यही था कि मैं चित्र बनाता था, निबंध और भाषण प्रतियोगिता में भाग लेता था, कई प्रतियोगिताओं में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार पा चुका था और इसी कारण स्कूल में लोकप्रिय हो गया था। उनका इशारा इसी ओर होता।
ये चित्र मैंने उन्हीं बातों का मौन प्रतिकार करने के लिए छुट्टियों में बनाए थे।
मेरे नाती ने अपनी मम्मी के हाथ से मेरा बनाया हुआ चित्र लेते हुए कहा- दिखाना- दिखाना, नानू की पेंटिंग!
जब सबके जाने के बाद मैं फ़िर से अकेला हुआ तो एकाएक मेरे मन में ख्याल आया कि शायद मेरी बेटी ने मुझे अपना पुराना शौक़ फ़िर याद दिलाने के लिए ही ये चित्र मुझे दिए हैं ताकि मैं फ़िर से इस शौक़ को अपना समय गुजारने का माध्यम बना लूं।
हम सोचते हैं कि बच्चे हमसे दूर गए तो अब सब भूल गए होंगे पर शायद उन्हें भी तो कभी- कभी ये याद आता ही होगा कि मैं अकेला किस तरह रहता होऊंगा।
मैं अपनी इक्यावन साल पहले की ज़िन्दगी के इन अक्सों को गौर से देखने लगा-
एक चित्र में एक महल की आकृति थी जो शाम के धुंधलके में अकेला अपने ही अतीत के सायों को देखता हुआ खड़ा था।
दूसरे चित्र में एक फूल के पौधे पर तितली की तरह एक लड़की बैठी हुई थी।
तीसरे चित्र में दुष्कर्म के बाद निर्वस्त्र लेटी हुई एक मृत नारी देह पर कुछ वीभत्स पंजों के निशान थे।
चौथे चित्र में एक फूल के बोझ से दब कर युद्ध के मैदान में खड़ा टैंक ज़मीन से धंस गया था।
और पांचवे चित्र में जापानी शैली में बना एक घुड़सवार हवा से बातें करता हुआ दौड़ा जा रहा था।
क्या कहते थे ये आधी सदी पहले बनाए गए मेरे चित्र?
पहले चित्र का ये वीरान महल न जाने कैसे मेरे खयालों में आया होगा किन्तु अब मुझे ये सोच कर अचंभा था कि ये महल जीवन पर्यन्त मेरे साथ रहा। अपनी आयु के पंद्रहवें साल में मैंने इसे चित्र में बनाया, चालीस साल का हो जाने पर मैंने इसे जेहन में रख कर अपना उपन्यास "आखेट महल" लिखा और पचपन साल की उम्र में मैंने अपनी लम्बी कहानी "वक़्त महल" लिखी।
दूसरे चित्र में तितली की तरह बैठी लड़की ने मुझे ज़िन्दगी भर नगर- नगर किसी तितली की तरह ही भटकते हुए घुमाया और पैंसठ साल की उम्र में आई मेरी किताब "दो तितलियां और चुप रहने वाला लड़का"।
तीसरे चित्र ने मुझे याद दिलाया कि आधी सदी में कुछ भी नहीं बदला। स्त्री देह पहले भी पुरुष के लिए एक भोज्य पदार्थ ही रही और अब भी।
हां, ये बात ज़रूर थी कि पंद्रह साल की उम्र में बनाए गए इस चित्र में निर्वस्त्र लड़की को देख कर मेरे तब के सारे दोस्त किसी कौतूहल में घिर गए थे, अब वैसा कुछ नहीं था। स्त्री और देह सभी की अच्छी तरह देखी - भाली थी। कौतूहल जैसा कहीं कुछ नहीं था।
चौथे चित्र ने मेरा जो विचार उस समय दर्शाया था, उस पर मैं अब भी कायम था और ज़िन्दगी भर रहा। हिंसा कभी भी विजेता नहीं हो सकती।
और पांचवे चित्र को देख कर तो मुझे ये अहसास हो रहा था मानो मुझे ज़िन्दगी भर हवा के घोड़े पर सवार रहने के अभिशाप का संकेत तो बचपन में ही मिल गया था।
अपने अकेलेपन के बीच कभी - कभी ये ख्याल मेरे मन में आया कि क्या मैं फ़िर से रंग और कैनवस को अपना दोस्त बनालूं?
पर मेरे मन ने हामी नहीं भरी। ये मुझसे कहता रहा कि अब दूसरे जन्म में तो कुछ दूसरा करो।
मैंने अपने चित्रों को फ़िर किसी दस्तावेज की तरह रख दिया।
मेरे पास अब तक सनद, डिग्री, प्रमाण पत्र, प्रशस्ति पत्र, अभिनन्दन पत्र आदि का विपुल ज़ख़ीरा सा तैयार हो गया था। इसे देख कर मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती थी।
एक ढेर पुरस्कारों, ट्रॉफियों, प्रतीक चिन्हों का भी लग गया था। इसकी कोई उपयोगिता मुझे समझ में नहीं आती थी। समय- समय पर इनकी साज - संभाल और डस्टिंग भी एक सिरदर्द ही था।
कभी- कभी एक व्यावहारिक शैतानी से भरा एक ख़्याल मेरे मन में आता था कि कहीं ये लिख कर छोड़ दूं - "मेरी चिता में ज़रूरत से ज़्यादा लकड़ियों को न बर्बाद किया जाए। इन दस्तावेजों, प्रमाण पत्रों, प्रशस्ति पत्रों, ट्रॉफियों, शील्डों आदि की मदद आग भड़काने में लेे ली जाए। ताकि घी की भी ज़्यादा ज़रूरत न रहे।"
आप डरिएगा मत, मैं एक और बात आपको बता देता हूं।
मैं ऐसी बातों पर तो कतई यक़ीन नहीं करता कि किसी को भूत दिख गया, या फ़िर चुड़ैल मिल गई, या ऊपरी हवा लग गई या किसी देवी - देवता का असर हो गया। किन्तु कोई भी नई रचना शुरू होने से पहले मुझ पर भी कोई दौरा ज़रूर पड़ता है।
दौरा कैसा है, कितनी देर तक रहा, किस कारण रहा, इसी सब पर ये निर्भर करता है कि उसके बाद लिखी जाने वाली रचना क्या थी। कैसी थी।
ये केवल उन्हीं रचनाओं के सिलसिले में होता है जो मैं बिना किसी तैयारी के सहज फिक्शन के रूप में लिखता था। इनमें मुझे ये भी नहीं पता होता था कि अंततः क्या लिखा जाएगा।
ये दौरे कैसे होते थे, ये भी जानिए!
कभी मैं इस तरह बैठ जाता था कि जैसे विधाता ने मुझे मिट्टी से अभी- अभी बना कर रखा है, अभी प्राण डालना बाक़ी है।
कभी - कभी मुझे ऐसा लगता था कि जैसे मेरी उम्र कई वर्ष कम हो गई है, मैं गा सकता हूं, नाच सकता हूं।
और कभी - कभी मैं किसी नरभक्षी जैसा भी हो जाता था। मैं अकेला होता, किन्तु मुझे कल्पना में, सोच में,या दूर खिड़की से जाते हुए भी कोई दिखाई देता और मैं बदहवास सा होकर जैसे उस पर टूट पड़ता था। उसे झिंझोड़ डालता। उससे लिपट जाता, उसे खा डालने की कोशिश करता। कई बार तो मेरे दबाव से उसकी हड्डियों के चटखने की आवाज़ तक मुझे सुनाई देने लगती, मैं हांफ जाता। और निढाल हो जाता।
थैंक गॉड! ये सब केवल कुछ क्षण के लिए होता और मैं लिखने बैठ जाता।
प्रायः मेरे उपन्यास इसी तरह शुरू हुए हैं।
जब कई महीनों या दिनों बाद मेरी रचना समाप्त हो जाती तो मैं एक हरारत में डूब जाता।
जैसे- जैसे दिन गुज़रते जाते, मुझे अपना ये व्यवहार कुछ कुछ समझ में आने लगा, और मुझे ये आभास भी होने लगा कि फ़िर कोई काम होने को है।
शायद इसीलिए मैंने इन दौरों को न कभी गंभीरता से लिया, न इनका किसी से ज़िक्र किया और न ही कभी इनका कोई उपचार करवाने की बात सोची।
एक दिन दोपहर के समय मैं अपने कमरे में अकेला बैठा था कि एक सज्जन मेरे पास मेरे घर आए।
सामान्य औपचारिक दुआ- सलाम के बाद उन्होंने मुझे बताया कि वो एक कला शिविर आयोजित करने जा रहे हैं, और मैं उसमें शिरक़त करूं।
उनका ये भी कहना था कि ऐसे शिविर वो हर साल में दो बार आयोजित करते हैं अतः मैं उनकी आयोजन संस्था से सलाहकार के रूप में जुड़ जाऊं।
एक क्षण के लिए तो मेरे दिमाग़ में ये बात कौंधी कि जो कार्य पहले से हो रहा है उसमें एक सलाहकार के रूप में अजनबी लोगों को मैं क्या कहूंगा! किन्तु तभी मेरी प्रतिउत्पन्नमति ने मुझे ये चेतना दी कि चाहें मेरे लिए आने वाले ये सज्जन अजनबी हों किन्तु मैं इनके लिए अपरिचित नहीं रहा होऊंगा, तभी तो ये अाए हैं।
किसी अनजान आदमी के पास कोई ये कहने क्यों आयेगा कि हमें सलाह दो? हां, अमूमन तो लोग सलाह देने आते हैं।
मैं एक विशिष्ट मेहमान के तौर पर उनके शिविर में गया।
वहां जाकर मुझे मालूम हुआ कि शहर के अत्यंत प्रतिष्ठित और लोकप्रिय मेरे कुछ अभिन्न मित्र साहित्यकार और नामचीन चित्रकार मित्र भी वहां मौजूद हैं।
मुझे अच्छा लगा।
शहर के कई कला विद्यार्थी, युवा स्वतंत्र कलाकार और बच्चे वहां शिविरार्थी के रूप में उपस्थित थे। उन्होंने पिछले पांच दिनों में वहां रह कर चित्र बनाए थे जो वहां प्रदर्शित थे। वरिष्ठ कलाकारों का एक समूह उन चित्रों का मूल्यांकन भी कर चुका था और कुछ चुनिंदा कलाकृतियों को इस समारोह में पुरस्कृत भी किया जाना था।
समारोह शालीनता व गरिमा के साथ संपन्न हुआ।
मुझे बताया गया कि ये एक इंडो जापान संयुक्त उपक्रम है जिसका एक स्थाई कार्यालय है। इस उपक्रम के अपने कुछ आर्ट गैलरी, ऑडिटोरियम और एक संग्रहालय भी हैं।
मुझे इस संस्थान का मुख्य कोऑर्डिनेटर बना दिया गया और मेरा सुबह ग्यारह बजे से शाम छह बजे तक का पूर्णकालिक ऑफिस अगले सप्ताह से ही आरंभ हो गया।
मेरे वो परिजन जो अब मुझे सेवानिवृत हो जाने के बाद लंच, डिनर, पिकनिक, ताश, फ़िल्म देखने आदि के लिए बुलाने के लिए मेरे अमेरिका से लौटने का इंतजार कर रहे थे, फ़िर उदासीन हो गए।
मुझे नहीं मालूम कि वो इससे ख़ुश हुए, दुःखी हुए, हतप्रभ हुए या अचंभित, किन्तु मैं फ़िर से व्यस्त हो गया।
मेरी एक भाभी ने तो ये कहा कि तुम हमें तो कभी कहीं दिखते नहीं हो, लोगों को कैसे और कहां दिख जाते हो कि एक के बाद एक ज़िम्मेदारियां पैराशूट की तरह आसमान से तुम्हारे सिर पर उतरती रहती हैं।
ये शायद उनकी शुभकामनाएं ही रही हों।
ये एक बात मैं शायद पहले अपनी किसी रचना में भी कह चुका हूं, अब दोहराता हूं। मुझे कभी- कभी ऐसा लगता है कि कुछ लोगों की फितरत अपनी जड़ों से लिपटे रहने की होती है और कुछ लोगों की नई दुनिया, नए लोग देखने की। ये बहस बेमानी है कि इनमें कौन ठीक है कौन ग़लत। मुझे तो लगता है कि कुछ लोगों की फितरत परजीवी होती है, जैसे दीमक। वो जहां रहते हैं, जिनके साथ रहते हैं वहां अपना प्राण तत्व सतह से खींचते हैं। इसीलिए उनके लिए परिचित सतह ही सुविधा जनक होती है।
इसके उलट कुछ लोग ऐसे होते है जो स्वाभाविक रूप से उगा अपना जीवन तत्व बांटने या छोड़ते जाने के अभ्यस्त होते हैं। ऐसे लोगों के लिए ये कतई महत्वपूर्ण नहीं होता कि वो किस सतह पर हैं। क्योंकि उन्हें तो देना है। छलकाना है। समेटना नहीं है, बटोरना नहीं है। कहीं भी हों।
ये बात न पैसे की है, न अधिकार की, ये केवल जीवन तत्व की है। उसके बंटवारे की है।
तो कुछ लोग पेड़ की जड़ में दीमक की तरह लगते हैं, वहां से रस खींचते हैं और कुछ लोग पेड़ में खाद की तरह लगते हैं। अपना सत्व उसे दे देते हैं।
ये दूसरी तरह के लोग कहीं आने - जाने से डरते नहीं, नए परिवेश में झिझकते नहीं, क्योंकि वो जानते हैं कि यदि हवा ने उन्हें दर- बदर भी किया तो माली ख़ुद समेट कर उन्हें बटोरेगा। फ़िर जड़ों में डालेगा। और यदि ऐसा न भी हो पाया तो वो जहां हैं, वहीं से टपकेंगे और नया बिरवा उगा लेंगे। वो खाद हैं, दीमक नहीं।
लेकिन ऐसी बातें कभी किसी को कहनी नहीं चाहिए। ये विश्लेषण जाहिर करने के नहीं होते।
अगर चिड़िया बरसात के बीच बंदर से कहेगी कि देख तू मेरी तरह घोंसला नहीं बनाता, इसलिए अब भीग रहा है, तो बंदर घोंसला बनाने थोड़े ही लगेगा! वो तो चिड़िया का घोंसला भी तोड़ेगा।
- ले, ये लेे, और लेे, तेरा भी गया!
यही व्यावहारिकता है। यही दुनियादारी है।
ये बातें अब मुझे कोई बताता नहीं था। मेरा अपना जीवन ही मुझे बताता था। और अब तो बता चुका था, कब तक पट्टियां पढ़ाता रहता।
मैं उस इंडो - जापान फ़ोरम का कार्यकारी सलाहकार बन गया, जिसने मुझे समन्वयक का पद भी दे दिया और नौकरी भी।
इस फ़ोरम की एक भव्य आलीशान इमारत जयपुर में ही बन रही थी, जिसके पूरे हो जाने के बाद सभी गतिविधियों को केंद्रीकृत करके यहीं लेे आने की योजना थी।
मेरा मिलना अब कला जगत की कई नामचीन हस्तियों से होता। उनसे विचार- विमर्श भी होते। भविष्य की योजना पर चर्चा होती। कई काल्पनिक ढांचे बनते- बिगड़ते।
उभरते हुए युवा कलाकारों और कला के विद्यार्थियों से निरंतर निकट संपर्क भी रहता।
वे भी मुझे अपनेपन से अपने बीच आने के निमंत्रण - न्यौते देते। मैं भी उनमें सुखद भविष्य की आशाओं का संचार करता।
अच्छा लगता।
जल्दी ही मैंने शहर की तमाम आर्ट गैलरी देख डालीं। विभिन्न कला आयोजनों से भी मैं जुड़ा। स्कूल कॉलेज और विश्वविद्यालयों के कला विभागों से मेरा संपर्क हुआ।
कलाकारों के निजी स्टूडियो और कार्यस्थल भी मैंने देखे।
अख़बारों और पत्रिकाओं में भी उन पर लिखा।
मैं कला अकादमी से भी निकट संपर्क में आया।
शहर के बड़े होटलों के माध्यम से मैंने कला जगत की व्यावसायिक गतिविधियों पर भी नज़र डाली।
सत्ता, प्रशासन, रियासत और रईस वर्ग के कला व सौंदर्य सरोकार भी मेरे समक्ष अाए।
हैरिटेज होटलों में निरंतर उठती संभावनाएं भी मेरी लक्ष्य-सीमा में आईं।
मैं चमकती आंखें लिए फ़िरा।
मैंने लकीरों के तराने गुनगुनाते हुए जवानियों को देखा। मैंने रंगों के खेल देखे, रंगीले खिलाड़ी देखे, मैंने पत्थरों का धड़कना देखा! मैंने कुंठित कला की संकीर्ण गुमटियां भी देखीं।
वाह, कितना कुछ देखा। मैंने देखा कि लचकती हुई शाखों पर शाम कैसे उतरती है... रात की गुफाओं में जुगनू कैसे दमकते हैं!