ये कैसी विडम्बना है ! जो सबके लिए अनाज उगाता है।दुनिया भर की क्षुधा मिटाता है। अक्सर रातों को वो ही भूंखा सो जाता है। कहने को तो वो अन्नदाता कहलाता है मगर इसी अन्न के अभाव के चलते वो कभी इतना भी मजबूर हो जाता है कि समाज के धनलोलुप और स्वार्थी तत्वों से खुद को बचाने की खातिर आत्महत्या तक कर जाता है।
कुत्तों के भौंकने की भयंकर आवाजों और रात के सघन सन्नाटे को चीरती हुई सुक्खी बड़े ही बोझिल कदमों से आगे बढ़ती चली जा रही थी। सुक्खी को अचानक अतीत की न जाने कितनी स्मृतियों ने एक साथ आकर घेरे लिया। यूं लगा जैसे अभी कल की ही तो बात थी जब उसकी माँ ने उसे वो सोने की बालियां ये कहकर दीं थी कि देख सुखिया अभी थोड़े दिनों में तेरा ब्याह होने वाला है और इसीलिए मैं तेरे लिए ये सोने की बालियां लेकर आयी हूँ। जरा पहनकर तो दिखाना बिटिया, कैसी लगती हैं?
इतनी सुंदर! अभी पहनकर दिखाती हूँ माँ! माँ बाबा कहाँ गये हैं?
बिटिया वो तेरा रिश्ता तय करने दूसरे गाँव गये हैं!
कैसी शरमाई थी वो इस बात पर उसे आज भी याद है तभी सुक्खी के पैर में एक काँच का टुकड़ा गड़ जाता है।
आह्ह!! दर्द से कराहती सुक्खी वहीं एक पेड़ के सहारे से टिककर बैठ जाती है और काँच के टुकड़े को निकालने का प्रयास करने लगती है तभी अनायास ही उसे याद आता है कि उसनें अपनी माँ की चप्पल पहन रखी है जो इतनी जगह से टूटी है कि शायद उसे कोई मोची भी नहीं जोड़ पायेगा। एक बार पुनः सुक्खी पर अतीत की स्मृतियाँ प्रहार कर देती हैं।
कितनी सूजन आ गयी थी माँ के पैरों में! चप्पल पहनना तो दूर बल्कि उन्हें तो अपने पाँव के बिछिये तक निकालने पड़े थे, जिसे निकालना वो घोर पाप समझती थी। कैसे फूटफूटकर रोयी थी माँ उस दिन जब उँगलियों की सूजन के चलते
डॉक्टर साहब के कहने पर उसके बिछिये काटकर निकाले गए थे।
कोई कहता था कि उसे मेरे ब्याह की चिंता खा गयी तो कोई कहता कि माता के मंदिर की फेरी पूरी न कर पाने का ही अभिशाप था।
उस दिन जब मेरा रिश्ता तय होने की बात बाबा ने माँ को बतायी तो कितनी खुश हुई थी माँ और सच कहूँ तो खुशी से ज्यादा तो रोयी थी माँ जैसे कि तुरंत ही मेरी बिदाई करनी हो।
सुक्खी एक बार फिर चल पड़ी थी मगर उसका ऐंसा कोई कदम नहीं था जहाँ पर कि उसके अतीत की स्मृतियाँ उसके साथ न हों।
सुक्खी के ब्याह की सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं और इस बार सुक्खी के भाग्य से बारिश भी इतनी बढ़ियां रही कि फसल की पैदावार भी भरपूर हुई थी। साहूकार का सारा कर्जा चुकाने के बाद भी सुखिया के ब्याह की तैयारियों में पैसों की कोई कमी नहीं हुई।
ब्याह के तीन दिन पहले ही माँ को अचानक से बेहोश होने पर जब अस्पताल में भर्ती कराने पर पता चला कि उसके दोनों गुर्दे खराब हो रहे हैं मगर इलाज से वो ठीक हो जायेगी तो बाबा ने माँ का इलाज कराने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और जब लड़के वालों को पता चला कि ब्याह का पैसा माँ के इलाज में खर्च हो रहा है तो उन लोगों ने ब्याह करने से मना कर दिया। बाबा ने कहा भी कि वो धीरे धीरे सब इंतजाम कर लेंगे और जो कमी होगी, उसे अगले साल तक तो जरूर पूरा कर देंगे मगर उन लोगों ने बाबा की एक भी नहीं सुनी और रिश्ता तोड़ दिया।
वैसे मुझे भी तब तक ब्याह नहीं करना था, जब तक कि माँ पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती है और फिर माँ की हालत में धीरे धीरे सुधार होने लगा। बस हफ्ते में दो दिन अस्पताल जाकर माँ के शरीर में से पानी निकलवाना पड़ता था।
धीरे धीरे आठ महीने बीत गए और एक दिन रात में माँ अचानक ही मुझे और बाबा को अकेला छोड़कर चली गयी। बाबा पूरी तरह से टूट गये और पैसे के नाम पर भी घर में बस मेरे कानों में पड़ी वो सोने की बालियां हीं बची थीं।
माँ के अंतिम संस्कार और तेरहवीं करने तक के लिए बाबा को जोगी साहूकार से पैसे उधार लेने पड़े थे। शुरू शुरू में तो साहूकार ने चार टका ब्याज पर ही पैसा देना मंजूर किया था मगर धीरे धीरे उधार के पैसे के साथ ही साथ उस लालची जोगी के ब्याज की दर भी बढ़ती गयी पर इसमें भी गलती शायद मेरी ही थी या फिर मेरी इस दुश्मन जवानी की!! ये सोचकर सुक्खी फफक फफककर रोने लगी, अब तक वो अपने घर की गली में पहुँच चुकी थी और सुबह भी होने ही वाली थी।
सुक्खी को याद आया कि एक बार जब ऐंसे ही बहुत परेशान होकर सुक्खी रो रही थी तब बाबा ने सुक्खी को कितने प्यार से अपने गले से लगाकर समझाया था कि बिटिया ये सुख दुख और अमीरी गरीबी तो धूप और छाँव की तरह होते हैं जो हमेशा एक समान न रहकर आते जाते रहते हैं और फिर तुझे पता है एक बार जब मैं बहुत छोटा था तब भी हमारे गाँव में ऐंसा ही सूखा पड़ा था! मगर तेरी दादी और बाबा बिल्कुल भी नहीं टूटे इन सबमें! अरे बिटिया, हम किसानों के जीवन में तो ये उतार चढ़ाव हमारी उम्र के साथ ही साथ चलते हैं। एक किसान के जीवन की तो सबसे बड़ी निर्णायक ये बारिश ही होती है!
बिटिया, यही तो तय करती है कि हम किस बरस झूमके नाचेंगे और किस बरस रोकर पस्त होकर गिर पड़ेंगे,ये कहते कहते बाबा की आँखें नम हो गयीं थीं मगर उन्होंने मुझपर ये बिल्कुल भी जाहिर नहीं होने दिया।
वैसे भी बाबा कब कुछ जाहिर होने देते हैं मुझपर? जबसे माँ नहीं रही तभी से बाबा बीमार रहने लग गये हैं मगर बताते नहीं !कभी कभी तो पूरी रात खाँसते खाँसते ही निकल जाती है।
बाबा कितना करते हैं मेरे लिए और बड़ी से बड़ी तकलीफ भी मुस्कुरा कर अकेले ही झेल जाते हैं तो मुझे भी कुछ करना था अब अपने बाबा के लिए और फिर बारिश का क्या भरोसा? अगर बारिश हो भी गयी तो भी सूखे के चलते जो कर्जा उस साहूकार ने हमपर अभी तक चढ़ाया है वो भी पूरा नहीं चुका पायेंगे, बस यही सोचकर कल रात मैंने उस पापी जोगी की बात मान ली और आज मेरे बाबा उस दुष्ट के कर्जे से मुक्त हैं।
तभी काले काले घुमड़ते हुए बादलों के साथ जोर की बारिश आ गयी और भागती हुई सुक्खी अपने घर के अंदर चली गयी। बारिश की तेज आवाज और बादलों की गड़गड़ाहट से अब बाबा भी जाग चुके थे।
देखा बिटिया! मैंने कहा था न कि कभी भी हताश नहीं होना चाहिए । ले देख ले!
हो गयी न बारिश!!
देखना बिटिया ऊपर वाले नें चाहा तो अब हम साहूकार का कर्जा भी उतार देंगे और तेरा ब्याह भी हो जायेगा, ये कहकर बहुत खुश होते हुए बारिश में भीगी हुई सुक्खी को बाबा ने अपने गले से लगा लिया।
सुक्खी को समझ नहीं आ रहा था कि वो इस झमाझम बारिश की खुशी मनाये या रात को उसकी रौंदी गयी मासूमियत का गम?
उसके बाबा का कर्जा उसके द्वारा चुक्ता किये जाने पर गर्व करे या शर्म से अपना मुँह छुपाये या फिर ये सबकुछ भुलाकर अपने भावी जीवन के नवीन सपनें संजोये ?
निशा शर्मा...