खनकती चूड़ियाँ निशा शर्मा द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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खनकती चूड़ियाँ

अपने कपड़े उतारकर बिस्तर पर लेट जाओ और हाँ अपनी ये चूड़ियाँ उतार दो। बगल के कमरे में मेरी पत्नी सोयी है उसे बस पैरालाइसिस हुआ है,अभी मरी नहीं है ।

जी बाबू जी अभी उतार देती हूँ ये चूड़ियाँ और चूड़ियाँ उतारते उतारते अनायास ही काकुली का मन चार साल पीछे अपने विवाह की पहली रात में मोहन द्वारा कही गयी बात को याद करके सुबक उठता है , अरी ये चूड़ियाँ उतार दे , बाहर खाट पर बाबा सोया है , नहीं जी ये तो सुहाग की निशानी है, अम्मा बोलीं थी बिटिया इनको कभी न उतारना, अरी पगली इधर आ तेरे सुहाग की निशानी तो मैं रहा यहाँ और काकुली को पता ही नहीं चला कब वो मोहन के मोहपाश में अपनी चूड़ियों समेत अपनी लाज शर्म सबकुछ उतारकर उसकी और सिर्फ उसकी हो बैठी ।

काकुली जैसी सुंदर, सरल और समझदार पत्नी पाकर मोहन की तो मानो मुँह मांगी मुराद पूरी हो गयी थी । काकुली हमेशा हंसती रहती थी, मोहन की सीमित आय में भी बड़ी खुश रहती थी मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था , न जाने किसने मोहन को दूर दिल्ली के सुनहरे सपने दिखा दिये थे और मोहन ने जिद पकड़ ली दिल्ली जाने की और काकुली का रो रो कर बुरा हाल हो रहा था तब बाबा ने बोला बेटा मेरा अब क्या भरोसा मैं आज हूँ तो कल नहीं, तू मेरी मत सोच बहू को अपने साथ ही ले जा,मैं तेरे किशन चाचा के पास उन्नाव चला जाऊँगा बड़े दिन से बुला रहा है और फिर हमारा क्या बेटा हम तो सूखे पत्ते हैं पता नहीं कब झड़ जायें ,तू बस बहू को देख, ये कहकर बाबा एक लम्बी सांस खींचते हुए बाहर निकल गए ।

दिल्ली की चकाचौंध पति पत्नी दोनों को ही बहुत रास आ रही थी। जहाँ मोहन मण्डी से लाकर कभी आलू , कभी टमाटर का ठेला लगाता तो वहीं काकुली नें भी दो चार घर पकड़ लिये थे जहां वो खाना बनाने का काम करती थी, इसी बीच काकुली के पांव भारी हो गए, मोहन की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं रहा ।

अब मोहन ने काकुली का काम भी छुड़वा दिया और खुद का काम बढ़ा लिया, अब वो जगह जगह रात के समय साप्ताहिक बाजारों में भी अपना सब्जी का ठेला लगाने लगा ।

काकुली ने एक सुंदर और स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया और भला हो काकुली के पड़ोस में ही रहने वाली रामकली का जो सरकारी अस्पताल की आया थी, उसनें काकुली की इस प्रसव काल में बहुत मदद की। अब काकुली और मोहन की जिंदगी पटरी पर आने लगी थी , तीन साल का भोला भी अब बगल के प्ले स्कूल में जाने लगा था मगर कहते हैं न कि किस्मत को करवट लेते समय कहां लगता है ।

आज पूरे तीन दिन हो गये थे मोहन को बुखार आते और काकुली भी काम पर नहीं जा पायी थी बस दिन रात मोहन की ही देखभाल मे लगी रहती थी , उसनें फोन करके अपनी मालकिन से चार दिन की छुट्टी भी ले ली थी ।

जरा टीवी चला तो काकू जरा देखूँ का हो रहा है देश में ,
हाँ तुम तो बड़े प्रधानमंत्री बने हो न क्या हो रहा है देश में, आराम करो आंखें दुखेंगी फिर जो बुखार में भी आंखें फोड़ोगे इस ढोलक मे,अरी पगली तेरी ये टीवी को ढोलक कहनें की आदत कब जायेगी, अब तू शहरी बोली बोला कर दिल्ली वाली मेम है तू अब दिल्ली वाली।

अच्छा! मेम , इतना कहकर शर्माते हुए खिलखिलाकर हंस पड़ी काकुली और तभी तीन साल का भोला भी दौड़कर आया और अपनी माँ के आंचल से लिपट गया और मोहन ये देखकर जोर से हंस पड़ा और बोला कि देख बच्चा भी कितना खुश है तेरे मेम बनने से, देख ले काकुली मेम और चारों तरफ बस उन सबके ठहाके गूंजने लगे ।

तभी पड़ोस में रहने वाला शम्भू जो मोहन के ही गाँव का था , भागकर आया और जोर जोर से चीखने लगा मोहन जल्दी टीवी खोल, देख कोई बीमारी फैली है यहाँ ,कल प्रधानमंत्री का भाषण भी आया था, अरे मेरी बिटिया का जन्मदिन था तो मैं तो आज कहीं गया नहीं और मेरा टीवी भी खराब है तो मुझे इतना पता नहीं है मगर मनोज,माधव और गणेश सभी भागमभाग मचाये हैं, अरे खोल जल्दी खोल, हां हां रुको शम्भू भईया अभी खोलती हूँ कहकर काकुली ने टीवी खोला।

टीवी पर लॉकडाउन का समाचार और कोरोना की खबरें चल रहीं थी , तभी पड़ोस की सुमन भाभी भी दौड़ती हुई आ गयीं, अरे लली बड़ी खतरनाक बीमारी फैली है, महामारी है महामारी, लली हम तो कल सुबह ही गांव जा रहे हैं । मेरी मान तो तू भी सामान बांध ले । अच्छा अब मैं तो चलती हूँ, सामान बांधना है ,ये कहकर सुमन भाभी दौड़ती हुई घर के बाहर निकल गयी ।

सभी लोगों के साथ अगले ही दिन काकुली और मोहन भी निकल पड़े । काकुली जानती थी कि ये फैसला सही नहीं है एक तो सभी ट्रेन और अन्य यातायात सरकार ने बन्द कर रखे थे, जगह जगह पुलिस लगी थी और उसपर मोहन का बुखार जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था।

दिल्ली से सफीपुर (उत्तर प्रदेश) का सफर पैदल तय करना कोई आसान बात नहीं थी। काकुली का मन बहुत विचलित था मगर मोहन की ऐसी स्थिति देखकर वो कुछ कह भी नहीं पा रही थी।
कभी वो अपने तीन साल के भोला का मुंह देखती तो कभी मोहन के माथे पर हाथ रख रखकर उसका ताप।

चलते चलते शाम हो गयी , अब काकुली की हिम्मत जवाब देने लगी थी उससे मोहन की हालत देखी नहीं जा रही थी तभी अचानक मोहन चक्कर खाकर गिर पड़ा। काकुली घबरा गयी ,उसनें वहीं फुटपाथ पर बैठकर अपने मोहन का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसके मुंह पर पानी के छींटे मारने लगी।

मोहन की आंखें कुछ खुलीं तो काकुली को तसल्ली पड़ी।उसनें अपने आस पास देखा तो पाया कि उसके सभी साथी उससे बहुत आगे निकल चुके थे। भोला का भूंख से रो रो कर बुरा हाल था । काकुली ने उसे प्यार से चुप कराया और अपनी पोटली मे से एक बिस्किट का पैकेट निकालकर भोला को दिया।

भोला को गोद में लिटाकर थपकियाँ देते हुए कब काकुली की आंँख लग गयी ,उसे पता ही नहीं चला। जब काकुली की आंख खुली तो उसने जल्दी से मोहन का ताप देखने के लिए उसके माथे पर हाथ रखा मगर वहाँ तो ताप का नामोनिशान भी नहीं था । बर्फ सा ठण्डा मोहन काकुली को बहुत भीतर तक कंपकंपा गया । काकुली की दुनिया उजड़ चुकी थी, वो जड़ हो गयी, न रोना निकल सका उसका और न हीं चीख।

बिटिया रात होने वाली है, यहाँ सड़क पर क्यों बैठी हो ,वैसे भी आना जाना मना है अभी, देखो पुलिस आये उससे पहले यहाँ से निकल जाओ और देख जरा तेरा बच्चा भी कैसे चीख चीख कर रो रहा है ।कोई जवाब न मिलने पर बूढ़े बाबा ने काकुली को जोर से हिलाया। बाबा के हिलाने पर काकुली चीख पड़ी और दहाड़े मार मारकर रोने लगी ।
अब काकुली बाबा के साथ शमशान की ओर चल दी जो कुछ ही दूरी पर था और इत्तेफाक से बाबा वहां का गार्ड था ।

आज दो दिन हो गये काकुली को बाबा के साथ उसके घर में रहते हुए । बाबा के बहुत कहने पर वो वहां रुक गयी थी और वैसे भी चाहती भी तो अकेले जाती कहाँ वो ऐंसी विषम परिस्थितियों के चलते , लग रहा था मानो उसके लिए किस्मत ने सारे रास्ते बन्द कर दिये थे ।

रात गहरा गयी ,दस बज गए मगर बाबा नहीं आये। काकुली को कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करे, कहां जाये, किससे पूछे,वो पूरी रात बाबा का इन्तजार करती रही, मगर बाबा नहीं आये, तब काकुली ने फैसला किया शमशान घाट जाने का ,अब यही एक रास्ता था बाबा का पता लगाने का।

काकुली ने भोला को गोद में उठाया और शमशान घाट पहुंच गयी , मगर वहाँ भी बाबा को न पाकर काकुली बहुत चिंतित हो गयी। वो बस वहां से लौट ही रही थी कि तभी उसे बाबा की कुर्सी पर बैठा एक आदमी दिखायी दिया, उसनें उससे पूछा भईया वो बाबा....

बाबा! अच्छा वो हरीराम, अरे उसका तो कल यहाँ पंगा हो गया ।
अरे भईया जरा साफ साफ बताओ न क्या हुआ।

अरे बहिन जी हुआ ये कि कल यहाँ शमशान पर कोई अन्तिम संस्कार खातिर आया रहा तो लाकडाउन के चलते भीड़ भाड़ तो मना की है सरकार, बस यही बाबा ने कहि दिया और हुईगा बवाल ,खुपड़िया मा डण्डा मारिके हरीराम की खुपड़िया खोल दी सालन ने, बूढ़े थे बेचारे सह न पाये, अस्पताल ले जाते बखत प्रांण छोड़ दिये बिचारन ने, कोई लगते थे का तुम्हारे ?
अरे सुनो सुनो बहिन जी कहाँ भागी जा रही हो, अरे सुनो तो...

आज लॉकडाउन का ग्यारहवां दिन था और बाबा के घर में राशन भी खत्म हो चुका था। सुबह से भोला का रो रो कर बुरा हाल था।
काकुली को समझ नहीं आ रहा था, करे तो क्या करे , कहां जाये किससे मदद मांगे, तभी उसे वो शमशान वाला भईया याद आता है और वो भोला को गोद में उठाये एक बार फिर चल पड़ती है शमशान की ओर, वहां पहुंचकर वो भईया से पूछती है, भईया कोई मेरे लायक काम हो तो बता दो भईया, मुझे बहुत जरूरत है।
मेरा बच्चा भूंखा है और घर में राशन भी खत्म हो गया है।

काम.... बहिन तुम्हरे लायक इहाँ का काम और हमरे पास इतना कुछ है भी नाहीं कि तुम्हार कुछ मदद कर सकी ।

काकुली आंखों में आंसू लेकर लौटने लगती है तभी पीछे से एक आवाज आती है,अरे सुनो बहिन, शमशान के पीछे से पीछे वाली गली मा एक बहुत बड़े बाबूजी राहत हैं और सुना है उनकी महरिया भी बीमार राहती है, उहैं पता करो शायद तुमका वहां कुछ काम मिल जावे, एक मिनट, ईह लो बाबू जी का फोन नम्बर ,आजकल लाकडाउन है न फोन करके , पूछ के तबहीं न जाना।
बहुत बहुत धन्यवाद भईया, बहुत धन्यवाद ।

बाबूजी- हैलो,
काकुली- जी नमस्ते बाबूजी।
बाबूजी- नमस्ते, कौन ?
काकुली- जी बाबू जी हमें वो शमशान वाले भईया ने आपका नम्बर दिया है, बाबू जी हमें काम की बहुत जरूरत है, हमें कुछ काम दे दो , कुछ भी बाबूजी कुछ भी, हम सबकुछ कर लेंगे, सब आता है हमें ।

बाबूजी - हम्म.....सबकुछ आता है तुम्हें, अच्छा! दिल बहलाना आता है तुम्हें ।
काकुली- बाबूजी ये आप क्या कह रहे हैं।
बाबूजी- अरे पागल है क्या, एक बार में समझ नहीं आता क्या ,मेरा बिस्तर गरम करना है बोल करेगी क्या ।

काकुली के हाथ से फोन धड़ाम से जमीन पर गिर जाता है।
रात गहरा चुकी थी , भोला रोते रोते सो गया था। काकुली आज जिंदगी के उस दोराहे पर खड़ी थी जहाँ उसे अपनी नहीं , अपनी जान की जान दिखाई दे रही थी।

काकुली ने भोला के सिर पर ममतामयी हाथ फेरा और बाहर से दरवाजे की कुंडी लगाकर, अपने कंधों पर अपने स्वाभिमान, अपनी ईमानदारी, सच्चाई, अपनी इज्जत और चरित्र की लाश का बोझ उठाकर चल दी बाबू जी के घर की ओर क्योंकि आज उसके खुद के सामने उसकी ममता, उसकी जिम्मेदारी का पलड़ा भारी था ।

चल अब उठ कि बस लेटी ही रहेगी, पहली बार लेटी है न मखमल के गद्दे पर ?
जी बाबू जी ।
चल ले अपने पांच सौ रुपये और चलती बन ,इससे पहले की सब जाग जायें, निकल ले , वैसे भी सुबह होने वाली है और हां फिर जब भी जरूरत हो आ जाना, ऐंसे बुरे वक्त में हम काम नहीं आयेंगे तुम जैसों के तो और कौन आयेगा ।
जी बाबू जी ।

पाँच सौ का नोट न जाने कब काकुली की आंखों की अविरल नदी में बह गया, उसे खुद भी पता नहीं चला ।

निशा शर्मा...