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आसमान में डायनासौर - 6

आसमान में डायनासौर 6

बाल उपन्यास

राजनारायण बोहरे

जब वे जागे तब फिर रंग विरंगी गेंदे आसपास तैरती दिख रही थी। अबकी बार उन सबने अपना लक्ष्य हरे हरे ग्रह को बनाया था। दूर से हरे रंग की झिनमिलाहट छोड़ता यह ग्रह आंखो को बड़ा अच्छा लग रहा था। लाल ग्रह की याद करके कभी-कभी उन्हें इस ग्रह के बारे में कुशंकाये हो जाती थी कि कहीं यहां भी पृथ्वी की तरह यहां भी विकास का क्रम न चल रहा हो और खतरनाक जानवरों से सामना न हो बैठे।

कुछ देर बाद हरे ग्रह की हरियाली से आकर्षित होकर उन्होंने गगन यान को उस हरे ग्रह की कक्षा में प्रविष्ट करा दिया।

यान ने हवाई जहाज का रूप फिर से प्राप्त कर लिया था, उसमें दोनों तरफ से पंखे और नीचे से पहिये निकलने लगे थे और यान धीरे-2 जमीन की और बैठते हुये उतरने लगा था।

तब वे केवल पांच किलोमीटर ऊपर रह गये थे कि उन्होंने एक गुब्बारा हरे ग्रह के वायुमंडल की जांच करने के लिये छोड़ा। यहां के वातावरण में ऑॅक्सीजन पर्याप्त मात्रा में थी और बिना ऑक्सीजन टंकी के सांस ली जा सकती थी। इसका मतलब है कि यहां मनुष्यों की आबादी हो सकती हैं। यह विचार आते ही वे प्रफुल्लित हो उठे।

ग्रह की सारी धरती खूब बड़े-बड़े पेड़ों ढकी हुई थी। खूब ऊँची घास के बीच कहीं-कहीं तो ताड़ और खजूर जैसे पेड़ भी दिखते थे। गगन ने ज़मीन से पांच सौ मीटर उपर रहकर दाये तरफ बढ़ना शुरू किया।

वे नीचे भी देखते जा रहे थें और एक दृश्य देखकर जल्द ही उनकी आशंका विश्वास में बदल गई थी कि यहां भी खतरनाक जानवरों से सामना हो सकता है।

ऊँचे पेड़ो के नीचे फैली जमीन पर भारी आवाज करते हुये दो ऐसे जानवर घूमते दिखे थे जिनका आकार तीन मंजिल मकान के बराबर था।

प्रो. दयाल ने पहचान लिया कि यह दोनों भी डाइनासौर प्राणी है इनकी सूरत और आकार प्रकार देखकर उनको बड़ी प्रसन्नता हुई ,उन्होंने अजय अभय को समझाया कि पृथ्वी पर ऐसे जानवर 17 करोड़ साल पहले ही खत्म हो गये और आज के आदमी को डाईनासौर अदृश्य या नश्ट हो चुके प्राणी हैं।

दयाल सर ने समझाया कि इन्हे स्टेगोसौरस कहते हैं, देखो इनकी बनावट चौपाये जानवरो के शरीर जैसी थी।

स्टेगोसौरस नाम की बनावट को बहुत बारीकी से देखने पर अजय को लगा जैसे कि किसी नेवले को एक लाख गुना बड़ा कर यहां छोड़ दिय है, यह ऐसा ही लगता था। इसकी कठोर चमड़ी में जगह जगह सलवटे पड़ रही थी। गर्दन से लेकर उसकी पूरी पीठ पर नौकदार चौड़ी पट्टियां दो दो की संख्या में एक बराबर से लगी थी , जिनका सिलसिला पूंछ तक चला गया था। उस प्राणी को देखकर तो अजय अभय रोमांचित हो उठे। क्योंकि यह बड़ा चटोरा जानवर लग रहा था , उसका मुंह चलता ही रहता था और वह हर पल हमेशा खाता-पीता हुआ दिखता था। उसका शरीर भी उसी हिसाब का खूब हृश्ट पुश्ट दिख रहा था।

अजय और अभय को लाल ग्रह का एडाफोसौरस याद आ गया जिसकी पीठ पर लगी लाल कलगियंा सूरज की रोशनी से गर्मी लेकर उसे सुरक्षित रखने के काम आती थीं।

अभय ने कहा कि सर स्टेगोसौरस की पीठ पर लगी पत्तियां भी शायद उसकी सुरक्षा के काम में आती होगी और ये क्या इसकी पूँछ पर भी चार-पांच मजबूत कांटे दिख रहे हैं।

तीनों ने देखा कि स्टेगोसौरस की पूंछ पर मगर मच्छ की तरह मजबूत कांटे उगे हुये थे।

स्टेगोसौरस चारो और देखता हुआ एक झुरमुट में चला गया तो इन तीनों का ध्यान खूब बडे़ पेट वाले दूसरे जंतु की ओर गया।

दयाल सर ने बताया कि विशाल पेट और शरीर वाला यह जंतु डिप्लोडॉक्स कहता है, यह हमेशा कीचड़ में चलता है ।

अजय बोला-सर यह क्या इसकी कई मीटर लंबी गर्दन और सांप जैसे आकार का मुंह देखकर तो बड़ा भय सा लगता है।

वे लोग बड़े गौर से उसे देखते हुये सोचने लगे कि यदि यह डिप्लोडोक्स हमारे देश में नई दिल्ली की किसी चौड़ी सड़क पर प्रकट हो जाये तो पूरी रोड ही घेर लेगा और सड़क पर टहलते समय यह चलते चलते आराम से आसपास के मकाने की खिड़कीयों से झांकता भी रहेगा।

वे लोग अपने यान में से ही इस ग्रह के जंतुओं का अवलोकन कररहे थे।

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