आसमान में डायनासौर - 2 राज बोहरे द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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आसमान में डायनासौर - 2

आसमान में डायनासौर 2

बाल उपन्यास

राजनारायण बोहरे

और एक दिन बहुत सुबह की घटना है यह

जब सारी दुनिया अपने काम से धंधो में व्यस्त थी, तब बिना किसी प्रचार-प्रसार के प्रोफेसर दयाल अपने यान में सवार हो रहे थे। वह दिन भी अन्य दिनों की तरह सामान्य था। मौसम साफ था और प्रोफेसर दयाल और अजय व अभय अपने यान में बैठ चुके थे।

खाने का सामान रखने वाली अलमारी में खट्टे-मीठे चटपटे सभी व्यंजनांे की ट्युबों का ढ़ेर रखा था। पानी की ट्युब एक अलमारी में रखी थी। और यान के पिछले हिस्से में सांस लेने के लिये ऑक्सीजन गैस की कई टंकिया रखी थी। ऑक्सीजन बनाने वाली मशीन भी एक कोने में फिट थी। प्रो0दयाल ने अंतरिक्ष की पोशाक “स्पेश शुट” पहनी हुई थी और पांच स्पेस शुट उन्होंने एक अलमारी में सुरक्षित रख छोड़े थे। एक कोने में भारतीय गीत-संगीत टेपरिकार्ड के सेट तथा उसी के पास एक रेडियो सेट रखा था। भारतीय फिल्में और सभी खेलों की वीडियो कैसेट भी ढ़ेर सारी सजी हुई थी।

सूरज की रोशनी को बिजली में बदलकर काम करने वाली सभी मशीनें चालू हालात में थी।

प्रो. दयाल ने यान से लगे रेडियो-फोन को चालू कर अपने साथियों से संपर्क स्थापित किया और ओ.के. की रिपोर्ट के साथ ही ““गगनरथ”” के प्रस्थान की तैयारी शुरू हो गई । उल्टी गिनती आरंभ हुई।

ठीक समय पर “गगनरथ” ने धरती छोड़ी और नारंगी लपटां में लिपटा हुआ आसमान की यात्रा पर चल पड़ा। प्रो. दयाल को पता था कि ज्योहीं धरती का आदमी रॉकेट में बैठकर धरती से अंतरिक्ष की ओर जाता है तो उसके शरीर में खून के दौड़ने की गति में बहुत तेजी आकर बड़ा भारी बदलाव आ जाता है। कभी-कभी चेहरे पर सूजन और कभी कभी सारा शरीर सुन्न भी पड़ जाता है। अन्तरिक्ष में जाने पर वहां के वातावरण को आदमी के शरीर पर जो फर्क आता से उससे बचने के लिए काफी पहले भारत के अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने अंतरिक्ष में प्रयोग अपनी हजारों साल पुरानी कसरत और योग की पद्धति से प्राणायाम साधना करके यह जानकारी प्राप्त कर ली थी कि यदि अन्तरिक्ष के रास्ते में या अंतरिक्ष में पहुंच कर योगा की अनुलाम विलाम प्राणायाम करली जाये तो अंतरिक्ष के अचानक आने वाले बहुंत परिवर्तन शरीर पर असर नही डालते।

गगन रथ यानि रॉकेट में से जुड़े हुए अन्तरिक्ष यान में अपनी कुर्सी पर लेटे प्रो. दयाल व अजय-अभय प्राणायाम करके अपनी सांस रोके हुए थे । उनकी आंखे बंद थी और गगनरथ अपने मार्ग पर तरपट भागा जा रहा था गगनरथ के माथे पर बैठा यान ““गगन”” अपने बेंगनी रंग और चारों ओर फैली दर्जनों बांहो को चमकाते-घुमाते-फिराते हुये बड़ी तेजी से आसमान की ओर बढ़ रहा था।

एक घंटे बाद यान शून्य में पहुंच गया तो प्रो. दयाल ने अपनी आंखे खोल कर सांस छोड़ी और अजय अभय को वैसा करने का संकेत दिया फिर सामने लगे बोर्ड पर एक अंगुली रख दी। उनके यान को एक झटका लगा और उसके नीचे जुड़ा गगनरथ उससे छिटक कर दूर चला गया। यान एकदम हल्का होकर तैरने लगा था। प्रो. दयाल को यहां अचानक ऐसा लगने लगा था। कि उनका वजन कुछ कम हो गया है और यान की हर चीज तैरने सी लगी है।

चारों ओर एक अजीज सा चमकीला वातावरण बना हुआ था। दूर-दूर तक छोटे-बड़े कई अलग-अलग साईजों के तारे और ग्रह तैर रहे थे। प्रो. दयाल ने अपनी केवल पर बना नक्शा देखा और ग्रहों को पहचानने लगे।

दरअसल चंद्रमा और मंगल ग्रह पर तो पहले ही पृथ्वी के यानों ने जाकर पता लगा लिया था कि वहां न तो वायू मंडल है न ही मानव जीवन के कोई लक्षण यहां मिलते हैं इसलिये प्रो. दयाल ने अपने यान का रूख शुक्र ग्रह की और किया था।

उन्होंने गगन में फिट की गई उस मोटर को चालू किया जो सूरज की धूप से गर्मी प्राप्त करके चलती हैं।

मोटर चालू हुई और प्रो. दयाल ने उसका हैंडल पकड़ा फिर अपने यान की रफतार बढ़ा दी। धनुश से छोड़े गये तीर की तरह भागता हुआ “गगन” एकतरफ निकल चला। प्रो. दयाल ने वक्त गुजारने के लिये पं. रविशंकर के सितार वादन का कैसेट लगाकर टेप चालू कर दिया था, जिससे मधुर और मीठी ध्वनि यान में गूंजने लगी थी। यान बढ़ा जा रहा था प्रकाश से भी ज्यादा तेजी से।

सामने सर्किल पर अभरते आकाश के चित्र में चमकदार ग्रह जो कि शुक्र था। कि अपना लक्ष्य बनाकर प्रो. दयाल बढ़ रहे थे।

रास्तें में जाने कितने ग्रह आये और पुंछल तारे भी तजी से आते दिखे लेकिन कुशल मोटर चालक की तरह दयाल सर हरेक से बचेते हुए आगे बढ़ रहे थे।

यह तो ज्ञात नही कि कितना समय गुजरा और कितनी बार वे कितने ग्रहों के पास से होकर गुजरे लेकिन हां कई दफा गगन पर सूर्य की सीधी किरणें पड़ी जबकि कई दफा वे अंधेरे में भी चलते रहे। अंतरिक्ष में हजारों छोटी-बड़ी गैंदें तैर रहीं थी इन्ही गेंदों को सितारे और ग्रह कहलाते है।

जब गगन किसी ग्रह के नीचे से गुजरता था और सूर्य की किरणें से ओझल होता था तब उसकी मोटर उस बैटरी से चलने लगती थी जिसमें सरज की धूप से बनाई गई बिजली को इकट्ठा किया जाता है जबकि जब भी यान सूरज की धूप में होता था तब सीधा ही धूप को तत्काल बिजली बनाकर उससे आगे बढ़ता था।

ग्रह के आकार बढ़ता जा रहा था और उसकी चमक अधिक से अधिक होती जा रही थी।