अपने-अपने इन्द्रधनुष - 1 Neerja Hemendra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 1

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(1)

आज न जाने क्यों मुझे घर के अन्दर अच्छा नही लग रहा था। बार-बार मन में उठ रही व्याकुलता व अपने आस-पास फैली उदासी से निजात पाने के लिए मैं छत पर आ गई। खुली हवा में, विस्तृत आसमान के नीचे, प्रकृति के सानिंध्य में आ कर कदाचित् मेरे अशान्त हृदय को कुछ सुकून मिल सके। मेरा यह सोचना ठीक ही था। छत पर आ कर मुझे अच्छा लगा। खुली हवा में आ कर मैंने अपने चारों ओर दृष्टि घुमायी। वातावरण में मुझे खूबसूरत परिवर्तन का आभास हुआ। न जाने कब कठोर शीत ऋतु परिवर्तित हो कर वासंती, मनमोहक रूप ले चुकी थी। जीवन के आपाधापी में मुझे ज्ञात ही न हो सका कि यह ऋतु कब परिवर्तित हो गई ? मार्च का महीना प्रारम्भ हो चुका है। सर्दी की ऋतु जा रही है। हवा में अब भी हल्की-सी ठंड व्याप्त है। सूर्यास्त का समय है। सूर्य की स्वर्ण रश्मियों से क्षितिज सुनहरा हो रहा है। पक्षियों के झुण्ड चहचहाते हुए अपने नीड़ की तरफ उड़ते जा रहे हैं। उन्हंे भी सर्दी की गिरफ्त से मुक्त खुलते मौसम में उन्मुक्त हो कर उड़ने में अच्छा लग रहा है। ऋतुओं का यह परिवर्तित रूप मुझे भला लग रहा है। अपने हृदय की व्याकुलता को विस्मृत कर मैं मोहक मार्च माह के आकर्षक साँझ के सौन्दर्य में खो-सी गई। पर अधिक देर तक नही.............. कल रात पार्टी में घटी उस घटना की स्मृतियाँ मेरे मन मस्तिष्क में पुनः आने लगी हंै......... उस घटना को स्मरण कर मेरी व्याकुुलता पुनः बढ़ने लगी हैं ......

............. कल मैं भी आमंत्रित थी उस पार्टी में। अवसर था काॅलेज के प्रिंसपल के बेटे की सगाई का। झारखण्ड के इस छोटे से शहर के एक डिग्री काॅलेज में मैं शिक्षिका हूँ। उस सगाई पार्टी में काॅलेज के मेरे सहकर्मी व समस्त स्टाफ आमन्त्रित थे। बहुत सारे अपरिचित चेहरे भी थे। मैं मूलतः यहीं की रहने वाली हूँ, मेरे लिए यहाँ के लोग, यहाँ ही संस्कृति अपरिचित नही हैं, फिर भी अपने अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण पार्टी इत्यादि जैसी भीड़भाड़ वाली जगहों पर मैं स्वंय को समायोजित नही कर पाती। इस समय भी इस माहौल में मैं स्वंय को असहज पा रही थी। इस स्थिति से बचने के लिए मैं काॅलेज के परिचित सहकर्मियों की ओर बढ़ चली। सब आपस में कुछ औपचारिक तथा कुछ अनौपचारिक बातंे कर रहे थे। विक्रान्त भी वहीं था। वह भी काॅलेज में प्राध्यापक है। उन सभी से अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्चात् मैं वहीं रूक गयी। उस माहौल में घुलने-मिलने का प्रयत्न करने लगी।

अकस्मात् विक्रान्त मुझसे पूछ बैठा था, ’’ और बताइये नीलाक्षी जी! कैसी कट रही है लाईफ.......आफ्टर डाइवोर्स.....? सुना है आपका तलाक हो गया है? ’’

विक्रान्त द्वारा ऐसे प्रश्न पूछने की उम्मीद मुझे बिलकुल भी न थी। न ही इस निरर्थक प्रश्न का उत्तर देने के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार थी। यह प्रश्न सुनकर मैं आवाक थी, स्तब्ध थी। अतः कुछ बोल न सकी। मेरी ओर से कोई प्रत्युत्र न पाकर कुछ क्षण रूक कर वह पुनः पूछ बैठा, ’’ क्या यह सच है? ’’

उसकी बातें सुन कर मैं झेंप-सी गई। सकते में थी, उसके दुस्साहस पर।

किन्तु वहाँ पर कुछ भी बोलना उस शुभ अवसर पर मुझे उचित नही लग रहा था। मुझे यह भी आशंका थी कि यदि मैंने कुछ कहा, प्रत्युत्तर में विक्रान्त ने भी कुछ कहा तो बात बढ़ने लगेगी। पार्टी में सब के बीच वह चर्चा का केन्द्र बन जायेगी । यदि प्रिंसपल महोदय तक बात पहुँची तो उन्हें भी यह सोच कर कष्ट होगा कि उनके पारिवारिक उत्सव में उनकी प्रतिष्ठा उनके काॅलेज के सहयोगियों द्वारा धूमिल की गयी। यहाँ की बातें उन तक चाटुकारों द्वारा पहुँचेगी अवश्य। वह चुप रही, किन्तु व्याकुल थी यह सोचकर कि विक्रान्त ने किस अधिकार से उससे ऐसी बातें कहीं......।

विक्रान्त उसका परिचित अवश्य था और उस परिचय का कारण मात्र यह था कि वह उसके साथ उसके काॅलेज में प्रवक्ता है। किन्तु इतना घनिष्ठ परिचय भी नही था कि वह उसके व्यक्तिगत् जीवन के बारे में इस प्रकार के प्रश्न कर सके? वह अकस्मात् क्यों पूछ बैठा यह सब? क्या अधिकार है उसे ऐसे प्रश्न करने का? वह भी ऐसे सार्वजनिक स्थान पर? उसे कैसे ज्ञात हुईं मेरे जीवन की निजी बातें ? मैंने चार वर्ष पूर्व घटित हुई अपने जीवन की इस शर्मनाक घटना को सबसे गोपनीय रखा था। काॅलेज के सहकर्मियों से भी छुपा कर रखा था। किन्तु......... । अनेक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उठने लगे।

विक्रान्त की बातें सुनकर आस-पास के लोगांे की दृष्टि मेरी ओर उठ गई। सबकी आँखें में उत्सुकता थी मेरे व्यक्तिगत् जीवन में झाँक लेने की।

मुझे मि0 माथुर की फुसफुसाहट भरी ध्वनि स्पष्ट सुनाई दी, ’’ अच्छा! तो नीलाक्षी जी अकेले रहती हैं, किन्तु लगता तो नही है कि विवाहित भी हैं.....और तो और तलाक भी हो चुका है? ’’

’’लगेंगी क्या? परिवार-बच्चे वाली महिलाओं-सा कोई उत्तरदायित्व तो है नही? विद्रूप व व्यंग्यात्मक हँसी हँसते हुए चन्द्रभान ने बात पूरी की।

उन सबकी फूहड,़ अनर्गल बातें सुन कर मैं वहाँ अधिक देर तक न ठहर सकी तथा दूसरी ओर आ गई। वहाँ से तत्काल पार्टी छोड़ कर बाहर न आना मेरी विवशता थी। क्यों कि इस पार्टी में मैं काॅलेज के प्रिंसिपल द्वारा आमंत्रित थी, तथा उनके द्वारा मुझे पूरा सम्मान दिया जा रहा था। मैंने देखा कि माथुर, चन्द्रभान इत्यादि सभी पुनः बातों में व्यस्त थे। बातचीत के दरम्यान वे भद्दे ढंग से एक आँख दबा ले रहे थे। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे इन सबके बीच चर्चा का केन्द्र मैं ही हूँ। ऐसी असहज स्थिति बनने का कारण विक्रान्त था। विक्रान्त उसे कभी पसन्द नही था। आज तो उसने शिष्टाचार की सीमायें तोड़ दी थीं।

कुछ ही देर में विक्रान्त वहाँ से मेरे पास आ कर खड़ा हो गया।

’’ नीलाक्षी जी, आप यहाँ क्यों आ गयीं? ’’ उसने सामान्य होने का प्रयत्न करते हुए बातचीत प्रारम्भ कर दी। विक्रान्त को इस प्रकार सामान्य होने का प्रयत्न करते देख मुझे और भी बुरा लगा था। ऐसा लगा जैसे मेरा क्रोध फट कर अभी बाहर आ जाएगा। किन्तु स्वंय को संयत रखते हुए मैंने विक्रान्त से पूछ लिया- ’’दूसरों के व्यक्तिगत् जीवन की अच्छी जानकारियाँ रखते हैं आप? ’’ मेरे स्वर के तल्ख लहजे को भाँप गया था वह। उसे मुझसे ऐसी आशा न थी।

’’ आपको किसने अधिकार दिया है कि आप मुझसे इस प्रकार की बातें करें? ’’ मैंने पुनः उसी तल्ख़ लहजे में कहा था।

मेरी बातें सुन कर उसके चेहरे पर इस प्रकार के भाव आये जिसे देख कर मुझे अच्छा लगा। किन्तु जो अपमानजनक बातें विक्रान्त ने आज की हैं उसके लिए इतना पर्याप्त नही है। मेरी इच्छा हो रही थी उसे और भी कुछ कहँू किन्तु कहने-सुनने का न ही यह उचित स्थान था, न ही मेरा स्वभाव ऐसा था कि इससे अधिक किसी को कुछ कह सकूँ।

मैं सोच रहा थी कि मेरी बातें सुन कर विक्रान्त चला जायेगा, किन्तु वह वहीं खड़ा रहा। पार्टी में डिनर का कार्यक्रम समाप्ति की ओर था। मेरी भूख मर चुकी थी। मेरे मस्तिष्क में अभी तक विक्रान्त द्वारा कहे गये शब्द कौंध रहे थे- ’’ आफ्टर डाइवोर्स आप की लाईफ....?’’

खाने की इच्छा न होने पर भी विवशतावश मैं चुपचाप बेमन से कुछ चीजें प्लेट में डाल भोजन करने लगी थी। विक्रान्त भी मेरे पास खड़ा हो कर भोजन कर रहा था। वह मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था, किन्तु मैं निर्विकार, रही। उससे बोले बिना चुपचाप भोजन करती रही।

मैं निःशब्द अवश्य थी किन्तु मेरे मन-मस्तिष्क में विचारों का मन्थन प्रवाहमान था......मैं सोच रही थी जिस विक्रान्त ने मुझसे ऐसी बाते की हैं। मेरे व्यक्तिगत् जीवन पर कटाक्ष किया है, उसके विषय में लोग कैसी-कैसी बातें करते हैं। उसके परिवारिक व विवाहित जीवन को ले कर काॅलेज में कैसी निकृष्ट बातें की जाती हैं। उसने कभी भी उन बातों में रूचि नही ली है। न ही लेना चाहती है। किन्तु विक्रान्त कितना निम्नकोटि का इन्सान है। जो उससे इस प्रकार की बातें करने का दुस्साहस कर रहा है।

विक्रान्त विवाहित है। उसकी दो छोटी बेटियाँ हैं। उसने सुना है कि उसका विवाह उसके माता-पिता की पसन्द की युवती से हुआ है, जो कम पढ़ी-लिखी हैं। देखने साधरण तथा अत्यन्त घरेलू महिला है। किन्तु विक्रान्त को वह पसन्द नही है। उसे अपने माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए विवशता में उससे विवाह किया था और उसके साथ निर्वाह कर रहा है। और तो और उसके बाारें में लोग यह तक कहते हैं कि वह दो बेटियाँ पैदा करने के लिए अपनी पत्नी को दोषी मानता है तथा उसे प्रताड़ित करता है।

उसका मन कसैला-सा हो रहा था। यह सोच कर कि जो पुरूष अपने विवाहित जीवन को व्यवस्थित रूप से चला नही पा रहा है वो उसे किसी और के वैवाहिक जीवन में ताक-झाँक करने की क्या आवश्यकता है?

’’ आप घर कैसे जायेंगी.....? ’’ बातचीत आगे बढ़ाने के प्रयत्न में विक्रान्त ने मुझसे अनावश्यक प्रश्न पूछा।

मैं चुप रही। उसके साथ बातचीत के तारतम्य को मैं आगे बढ़ाना नही चाहती थी। कोई उत्तर न पा कर विक्रान्त ने मेरे चेहरे को ध्यापूर्वक देखते हुए अपने प्रश्न को दोहराया।

’’ चली जाऊँगी .........चाहे जैसे भी। ’’ मैंने बेरूखी-से जवाब दिया था।

’’ कहिए तो मैं छोड़ दूँ आपको घर तक? मैं आज फोर व्हीलर से हूँ।’’ विक्रान्त मेरी तरफ देखते हुए बोला।

उसके प्रश्नों का उत्तर देना मैं आवश्यक नही समझ रही थी। अतः चुप रही। वहाँ आस-पास काॅलेज के सहकर्मी भी खड़े थे। उनकी बातचीत वो सुन न लें कदाचित यही सोच कर मेरे निकट आ गया था तथा फुसफुसाहट भरे स्वर वही प्रश्न धीरे से पुनः पूछ बैठा।

मैं यहाँ आॅटो से आयी थी तथा सोच लिया था कि आॅटो से ही घर वापस जाऊँगी। विक्रान्त के प्रश्नों का कोई उत्तर दिए बिना कुछ ही देर में मैं घर जाने के लिए गेट की तरफ बढ़ गई थी। मैं शीघ्र ही वहाँ से निकल जाना चाहती थी। शीघ्र निकल जाने का कारण यह था कि यह स्थान शहर के बाहरी हिस्से में स्थित था। यहाँ रात्रि में आवागमन के साधन कम ही चलते हैं। यह क्षेत्र कृषि प्रधान है अतः चारों तरफ अधिकतर खेत हैं । मकानों की संख्या कम है। मार्ग में पड़ने वाले घने वृक्षों की अधिकता के कारण इस क्षेत्र में शाम भी शीघ्र गहराने लगती हैं। शहर की सड़कों की भाँति यहाँ की सड़कों पर पर्याप्त स्ट्रीट लाईटों का भी अभाव है। मार्ग में इक्का-दुक्का लाईटें ही हैं जो इस क्षेत्र के लिए अपर्याप्त हैं। अतः मैं शीघ्र यहाँ से निकल जाना चाहती थी।

गेट पर आ कर मैंने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। कोई आॅटो नही था। कुछ और आगे बढ़ी कि पीछे से विक्रान्त आ गया।

’’ आईये नीलाक्षी जी मैं आपको घर तक छोड़ दूँ। शाम गहराने लगी है। जैसे-जैसे साँझ गहराने लगेगी इधर आवागमन के साधन कम होते जायेंगे। ’’ विक्रान्त की बातें यद्यपि सत्य थीं। फिर भी उसकी बातों को अनसुना करते हुए मैं वहीं खड़ी रही। विक्रान्त भी खड़ा रहा। वह वहाँ से गया नही।

घर जाने के लिए साधन की तलाश में चारों तरफ दृष्टि दौड़ रही थी। कोई आॅटो खाली नही मिल रहा था। समय व्यतीत होता जा रहा था। साँझ ढलती जा रही थी। वृक्षों की सघनता अँधेरे को घना कर रही थी। अब मैं कुछ-कुछ चिन्तित होने लगी थी। मेरे चेहरे पर आ रहे चिन्ता के भावों को विक्रान्त ने कदाचित समझ लिया था। अतः वह अब भी वहीं गाड़ी में बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। यदि मुझे आभास होता कि यहाँ इस प्रकार अवागमन के साधनों की पर्याप्त सुविधा नही है तो मैं यहाँ कभी नही आती। प्रिंसिपल महोदय से न आने के लिए क्षमा याचना कर लेती। किन्तु अब क्या हो सकता है?

वाहन को तलाशते हुए सहसा मेरी दृष्टि विक्रान्त की दृष्टि से टकराई। उसने अनुरोध पूर्वक गाड़ी का दरवाजा खोला। मैं पीछे की सीट पर बैठ गई। विवशता थी, किन्तु उस समय विक्रान्त की गाड़ी से जाना मुझे बिलकुल भी अच्छा नही लगा था।

’’ मुझे क्षमा कर दीजिए नीलाक्षी जी। ’’ गाड़ी चलाते हुए सहसा विक्रान्त बोल पड़ा था। उसकी बात सुनकर मैं चैंक पड़ी। जहाँ तक विक्रान्त को मैं कालेज में जानती हूँ, वह अत्यन्त बातूनी व दूसरों की बातों में हस्तक्षेप कर बात-बात पर हँसने वाला इन्सान है।

इससे पहले उसने कभी भी मेरे साथ ऐसी धृष्टता नही की थी। बल्कि मुझसे सदा शिष्टाचार से ही बातंे की हैं। किन्तु आज उसे न जाने क्या हो गया था कि मुझ पर कटाक्ष कर बैठा? यद्यपि विक्रान्त मुझे कभी भी अच्छा व्यक्ति नही लगा।

’’ कोई बात नही विक्रान्त जी। किन्तु आप द्वारा सार्वजनिक स्थान पर मेरे व्यक्तिगत् जीवन पर टिप्पड़ी करना मुझे अच्छा नही लगा। ’’ उसके व्यवहार पर विरोध प्रकट करते हुए मैंने कहा।

’’ मैं क्षमा प्रार्थी हूँ नीलाक्षी जी। अपने इस व्यवहार से अत्यन्त शर्मिन्दा हूँ। ’’

उसकी बातों पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की। मैं चुप रही। वह भी। सड़क पर सन्नाटा बढ़ता जा रहा था। खाली-सी सड़क देख कर विक्रान्त ने गाड़ी की गति बढ़ा दी थी।

मैं गाड़ी के शीशे से बाहर देख रही थी। खाली चैड़ी सड़क, मार्ग के दोनों तरफ फैले घने वृक्षों की सघनता व खाली मैदानों में उगी बेतरतीब घास की झाड़ियाँ। संसाधनों के अभाव के बावजूद भी मुझे यहाँ का हरा-भरा, शान्त वातावरण अच्छा लग रहा था। शहर की भीड़, कोलाहल, सड़कों पर गाड़ियों की दिन-प्रतिदिन बढ़ती संख्या व उनके बजते हाॅर्न के शोर से दूर यह इलाका मुख्य शहर से आठ-दस किलोमीटर दूर है।

गाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी। मैं गाड़ी के शीशे से बाहर देखते हुए अपनी ही दुनिया में खोई थी। अभी-अभी पार्टी में घटित उस अनपेक्षित घटना को विस्मृत करने का प्रयास कर रही थी।

’’ नीलाक्षी जी, आपके वैवाहिक जीवन को ले कर कहे गए अपने शब्दों के लिए मैं पुनः आपसे क्षमा मांग रहा हूँ। आपने मुझे क्षमा कर दिया न? ’’विक्रान्त के स्वर सुन कर मेरी तन्द्रा भंग हो गई थी।

’’ आपको मेरे पारिवारिक......मेरे वैवाहिक जीवन के बारे में क्या पता है.....और आपको किसने अधिकार दिया है किसी के व्यक्तिगत् जीवन के बारे में आप टिप्पड़ी करें ? ’’ मैं पुनः क्रोध में बोल पड़ी। विक्रान्त मेरा मुँह देखता रह गया। उसे मुझसे इस प्रकार के तल्ख व्यवहार की आशा नही थी कदाचित्।

’’ नही नीलाक्षी जी, दरअसल मैं कुछ परेशान था। अतः ऐसा बोल पड़ा। ’’

अपनी व्यक्तिगत् समस्याओं से परेशान हो कर किसी अन्य पर तीखे कटाक्ष करना! विक्रान्त का यह तर्क मुझे कुछ समझ में नही आया।

कुछ ही देर में गाड़ी शहर में में आ गई थी। मैंने विक्रान्त से गाड़ी किनारे खड़ी करने के लिए कहा। गाड़ी के रूकते ही मैं उतरने का उपक्रम करने लगी।

’’ आपका घर तो कुछ दूरी पर आगे है। मैं आपको वहाँ तक छोड़ दूँगा। ’’ मुझे गाड़ी से उतरते देख विक्रान्त ने आग्रह पूर्वक कहा।

’’ नही, मैं यहाँ से चली जाऊँगी। ’’ कह कर मैं आगे बढ़ गयी। विक्रान्त से नाराज़गीवश उसे धन्यवाद कहना भी स्मरण नही रहा था। अपनी इस भूल का मुझे खेद था।

मैं आगे बढ़ चुकी थी। कुछ दूर आगे जाने पर मुझे विक्रान्त की गाड़ी दूसरी ओर जाती दिखाई दी। मैं शीघ्रता से अपने पग घर की तरफ बढ़ा रही थी। घर में सब चिन्तित हो रहे होंगे। यह सोच कर मैं भी थोड़ी-सी चिन्तित थी।

इस समय रात्रि के साढ़े दस बज गये थे। माँ- बाबूजी इस समय तक सो जाते हैं। माँ की अस्वस्थता, बाबूजी की डयबिटीज की समस्या के करण उन्हेें समय पर भोजन, दवा व नींद आवश्यक है। मैं जान रही थी कि मेरे कारण वे सब अभी तक सोये नही होंगे। पापा मुझे ड्रइंगरूम में बैठे प्रतीक्षारत मिले। छोटी बहन प्रज्ञा अपने कक्ष में जाग रही थी। कदाचित् वह अघ्ययनरत थी। वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही है अतः देर रात तक जग कर अघ्ययन करती है।

मेरे घर पहुँचते ही माँ-बाबूजी अपने कमरे में सोने चले गये। मैं थक गयी थी। शराीरिक रूप से कम, मानसिक रूप से अधिक। कुछ ही देर में माँ-बाबूजी के कक्ष की बत्ती बुझ गयी थी। कदावित् वे सो गए थे।

मैं भी अपने कमरे की बत्ती बन्द कर बिस्तर पर लेट चुकी थी। किन्तु नींद आँखों से कोसों दूर थी। जीवन में आई कुछ सुखद तो कुछ पीडा़दायक घटनाओं की परछाँईयाँ अँधेरे कक्ष में भी दृष्टिगोचर हो रही थीं। मैं सोने का प्रयत्न करती रही किन्तु न जाने कब तक मुझे नींद नही आयी। कदाचित् पूरी रात आँखों में कट गयी थी। भोर होने से पहले कुछ देर के लिए आँख लगी थी। आज काॅलेज से घर आ कर कमरे में मन नही लग रहा था। घुटन-सी हो रही थी। कल पार्टी में घटी ये सभी घटनायें मुझे पीड़ा दे रही थीं। इन्हंे विस्मृत करने के प्रयत्न में मैं छत पर आ गयी। किन्तु यहाँ भी स्मृतियाँ पीछा नही छोड़ रही हैं। साँझ गहारने लगी। मैं नीचे आ गयी। मैं जानती हूँ कि अधिक देर अकेले छत पर रहूँगी तो माँ मुझे आवाज लगा देंगी। वो मुझे अधिक देर तक अकेले नही रहने देतीं।