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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 11 - अंतिम भाग

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(11)

हरियाली से झूमती सृष्टि मुझे सदा आकर्षित करती रही है। जल भरे बादल न जाने कहाँ से आ कर अकस्मात् भूमि पर बरसने लगते हैं, और मन हर्षित हो उठता है।

सांयकाल का समय है। अभी-अभी बारिश थमी है। नभ में उगे इन्द्रधनुष को देखकर मन किसी शिशु की भाँति किलकारियाँ भरने लगा है। सूर्य की स्वर्णरश्मियों के प्रभाव से उगा अर्धवृत्ताकार इन्द्रधनुष आकाश के मध्य देर तक चमकता रहा। उसके विलुप्त होते ही अकस्मात् कई छोटे-छोटे इन्द्रधनुष नभ में उग आये। उप्फ्! कितनी मनमोहक छटा नभ में व्याप्त हो गयी। एक नभ में एक साथ कई इन्द्रधनुष! ऐसा दृश्य यदाकदा ही दिखाई देता है। मैं देर तक नभ और इन्द्रधनुष के सम्मोहन से सम्मोहित होती रही। कुछ ही देर में ये इन्द्रधनुष भी नभ से विलुप्त होने लगे। सामने रह गया सूना आसमान।

धीरे-धीरे साँझ गहराने लगी है। सावन के प्रातः की भाँति सावन की साँझ भी मन को मोह लेती है। छत से आने की इच्छा नही हो रही थी। मन हो रहा था यूँ ही छत पर बैठी रहूँ और साँझ के सौन्दर्य का अवलोकन करती रहूँ।

मेरा मन नीचे कमरे में जाने का नही हो रहा था। छत की खुली हवा की अपेक्षा कमरे में अब भी ग्रीष्म की उमस व्याप्त होगी यह सोच कर मैं देर तक छत पर बैठी रही । दिनचर्या के कार्य भी आवश्यक थे। देर तक मुझे छत पर बैठी देखकर माँ ने नीचे से आवाज लगा दी थी। मैं कुछ देर तक और छत पर बैठना चाह रही थी। माँ से ’’बस, थोड़ी देर में आ रही आ रही हूँ माँ ’’ कह कर मैं छत में बैठी रही। नीम अँधेरे में वृक्ष लम्बी काली परछाँइयों के रूप में परिवर्तित होने लगे थे।

सहसा वृक्ष रंगीन बिजली की झालरों से सजे प्रतीत होने लगे। काले साये की भाँति खड़े वृक्ष जुगनुओं से भर गये थे। ऊपर तारों से भरे आसमान के साथ नीचे झिलमिल करते वृक्ष साँझ के सौन्दर्य को द्विगुणित कर रहे थे। सचमुच यह ऋतु कितनी मनमोहक है। कितनी सुन्दर है यह जुगनुओं भरी साँझ।

मैंने सुना है कि हमारी भावनाओं या हृदय की वस्तुस्थिति का प्रतिबिम्ब ऋतुओं के सौन्दर्य पर पड़ता है। वर्षों पश्चात् ऋतुओं में सौन्दर्य की अनुभूति करना व उन्हें आत्मसात् करना क्या मेरे हृदय के कोने में छुपी प्रसन्नता या किसी सुखद अनुभूति का प्रतिबिम्ब है। हर्षित हृदय ही अपने आसपास बिखरे सौन्दर्य का अनुभव करता है। कई वर्षों के पश्चात् ऐसा क्या हुआ है मेरे जीवन में कि मुझे सब कुछ अच्छा लग रहा हैं......भला लग रहा है।

काॅलेज में सब कुछ पूर्ववत् है। विक्रान्त अब भी मुझसे यथावत् मिलता है। वह मिलता है....अभिवादन करता है और निःशब्द मेरी ओर देखने लगता है। कभी-कभी आकर बैठता भी है मेरे पास पूर्व की भाँति। न जाने क्यों उसे देख कर मेरे हृदय में सहानुभूति के भाव उत्पन्न होने लगते हैं। इधर कुछ दिनों से वह व्याकुल-सा दिखने लगा लगा है। स्वप्निल से बढ़ती मेरी नजदीकियों का उसे आभास तो नही है?

मैं स्वंय को स्वप्निल के समीप पा रही हूँ। प्रत्येक दृष्टि से स्वप्निल मुझे आकर्षक लगता है। गौर वर्ण, इकहरा शरीर, आँखों पर चढ़ा मोटा चश्मा कुल मिलाकर बुद्धिजीवी, विचारशील, गम्भीर व्यक्तित्व का स्वामी स्वप्निल प्रथम दिन से ही मुझे आकर्षित करने लगा था। उसके विचार भी मेरे विचारों से मिलते हैं। अध्ययन-अध्यापन में वह भी रूचि रखता है। साहित्य-कला की पुस्तकें पढ़नें वह भी रूचि रखता है। उसकी रूचियाँ भी मुझसे मिलती हैं। उससे बाते करना मुझे अच्छा लगता है।

स्वप्निल भी मुझसे घुलने-मिलने लगा है। खाली समय में वह देर तक मुझसे बातें करता है। अपने घर की ....परिवार की.....बच्चों की.....अपनी पत्नी बरखा की। अनेक बार बातें करते-करते बरखा की स्मृतियों में वह गुम हो जाता है। अपनी पत्नी बरखा से वह असीम प्रेम करता था। छः वर्षों के पश्चात् भी अभी तक उसे वह विस्मृत नही कर पाया है। उसकी स्मृतियों से उबर नही सका है। स्वप्निल की यही बातें उसे अच्छी लगती हैं। रिश्तों के प्रति सम्मान, सच्चाई और उन्हें तरजीह देना कोई स्वप्निल से सीख सकता है। काॅलेज में स्वप्निल अपना खाली समय मेरे पास बैठ कर व्यतीत करता है। फुर्सत के क्षणों में मेरी दृष्टि भी स्वप्निल को ढूँढती है। मैं भी उसके सानिंध्य में बैठना चाहती हूँ।

चन्द्रकान्ता अत्यन्त खुश है मेरे लिए। वह मुझसे कहती है कि अब मुझे स्वप्निल से अपने हृदय की बात कह देनी चाहिए। अपनी भावनाओं से उसे अवगत् करा देना चाहिए। उसके अनुसार ऐसा करने से स्वप्निल के साथ मेरे भावनात्मक लगाव को परिपक्वता मिलेगी। मैं संशय में हूँ कि इस बात की पहल मुझे करनी चाहिए अथवा नही।

एक-एक दिन इसी संशय में व्यतीत होते जा रहे हैं। आज चन्द्रकान्ता ने कह दिया कि, ’’ यदि तुम्हे कहने में संकोच हो रहा है तो कहो तो तुम्हारा संदेश उस तक पहुँचा दूँ, तुम्हारी अभिभावक बन कर। ’’ यद्यपि चन्द्रकान्ता ने यह बात हास्य में कही थी। किन्तु उसकी बात सुनकर मेरे शरीर में एक गर्म नदी-सी प्रवाहित होने लगी।

मुझे प्रथम बार यह अनुभव हुआ कि स्त्री के शरीर में प्रेम की उद्दात भावनायें एक गुनगुने जल से भरी नदी की भाँति बहती हैं। यह नदी बाहर आकर किसी को भिगोना चाहती हैं। उसको, जिसे वह प्रेम की अनछुई चाँदनी से भरे हृदय में छुपाकर रखती है।

मेरा शरीर गुनगुने जल से परिपूर्ण नदी की भाँति तप्त होने लगा। अपनी भावनाओं पर किसी प्रकार नियंत्रण कर मैंने चन्द्रकान्ता से कहा, ’’ नही.....नही ऐसा न करना। ’’

’’ मेरे विचार से इस विषय में स्वप्निल का पहल करना उचित रहेगा। ’’ कुछ क्षण रूक कर तत्काल मैंने अपनी बात पूरी की।

’’ तुम और स्वप्निल एक जैसे हो। एक-दूसरे से पहल करने की अपेक्षा कर रहे हो। प्रेम में ऐसा नही होता डार्लिगं। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता हँस पड़ी।

चन्द्रकान्ता द्वारा कही बातों को मैंने हास्य में लिया। उसके साथ मैं भी मुस्करा पड़ी।

काॅलेज में विक्रान्त जब भी मिलता मेरी ओर आशा भरी दृष्टि से देखता। हमारे मध्य औपचारिक बातें होतीं। मात्र कुशलक्षेम पूछने तक।

शीत ऋतु प्रारम्भ होने वाली है। शीत ऋतु हो और गुलाब के पुष्पों आकर्षण हृदय को प्रभावित न करे ऐसा कैसे हो सकता है? यूँ तो यह ऋतु पुष्पों की होती है। विशेषकर गुलाब के रंग-बिरंगे पुष्पों से क्यारियाँ भर जाती हैं। काॅलेज की क्यारियाँ लाल, पीले, गुलाबी, सफेद गुलाबों के पुष्पों से भर उठी हैं। गुलाब के लाल पुष्प मुझे आकर्षित करने लगे हैं। मैंने कहीं पढ़ा है कि लाल गुलाब प्रेम का प्रतीक होता है। तो क्या लाल गुलाब के पुष्पों के प्रति मेरे आकर्षण का यही कारण है?

इन पुष्पों को देख कर ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे मैं युवा अवस्था में पहुँच गयी हूँ। मेरे हाथों को पकड़े हुए स्वप्निल मुझे असंख्य गुलाब के रंग-बिरंगे पुष्पों के मध्य ले कर चला जा रहा है। न जाने किस अद्भुत लोक में। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है जैसे मैं किसी विरान-सुनसान स्थान पर चुपचाप अकली बैठी हूँ। अपने दोनों हाथों में ढेर सारे लाल गुलाब के पुष्पों को पकड़े हुए स्वप्निल मेरे पास चला आ रहा। उन पुष्पों से मेरी हथेलियों को भर कर मेरे सपीप बैठ जाता है। मेरी ओर खामोशी से देखती उसकी आँखें मानों मुझसे पूछ रही हो, ’’ अब तक तुम कहाँ थी नीलाक्षी? ’’ मैं उसके कंधे पर अपने सिर को लगाये बैठी हूँ। उस बियावान में मेरे चारों ओर असंख्य गुलाब के पुष्प खिल उठे हैं।

मन सिहर उठता है न जाने किस अनजाने भय की आशंका से। स्वप्निल मेरे समक्ष है फिर यह कैसा भय? कैसी आशंका? शनै-शनै गुलाब के पुष्पों वाली यह ऋतु व्यतीत हो गयी।

ऋतुयें आती-जाती रहीं। समय आगे बढ़ता रहा। समय के साथ-साथ स्वप्निल स्वप्निल भी मेरे जीवन में रचता-बसता जा रहा है। मेरे दिन स्वर्ण व रातें चाँदनी में भीगती जा रही हैं।

स्वप्निल ने अपनी भावनाओं से मुझे अवगत् नही कराया था। मैंने भी तो अपना प्रेम उससे छुपा कर रखा है। मैं उससे विक्रान्त की भाँति मुखर होने की अपेक्षा कर रही हूँ। प्रतीक्षा कर रही हूँ।

जैसे-जैसे दिन व्यतीत होते जा रहे हैं। माँ की अधीरता उनकी उम्र की भाँति बढ़ती जा रही है। उम्र तो सभी की बढ़ती जा रही है...... माँ की ही क्यों? मेरी, स्वप्निल, विक्रान्त, बाबूजी....सभी की। उम्र की दहलीजों पर सभी चढ़ते जा रहे हैं। अधीरता तो बाबूजी के चेहरे पर भी स्पष्ट होने लगी है। अधीर तो मैं भी हूँ। मेरे मन में भी स्वप्निल से कुछ पूछने व जानने की इच्छा प्रबल हो रही है। किन्तु.....

किन्तु जैसे शब्द के लिए मैं अब कुछ भी छोड़ना नही चाहती। अन्ततः चन्द्रकान्ता से मैंने अपने मन की बात कह दी।

छूटते ही उसने हँसते हुए कहा, ’’ मुझे ही अभिभावक बनाना था तो इतनी विलम्ब क्यों? उसी समय क्यों नही मेरी बात मानी तुमने? चलो कुछ ट्रीट की व्यवस्था कर लो। तुम्हारा काम हो जायेगा। ’’ किसी युवती की भाँति मचलते हुए चन्द्रकान्ता ने कहा।

शाम को काॅलेज से घर जाते समय चन्द्रकान्ता ने कहा, ’’ तुम्हारा संदेश पहुँचा दिया है मैंने। उस संदेश का उत्तर वह स्वंय देगा तुम्हे कल काॅलेज में। तुमसे बातें करने के लिए उसे किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नही है। ’’ चन्द्रकान्ता ने मुस्करा कर कटाक्ष करते हुए कहा मैंने उसके समर्थन में सिर हिला दिया।

’’ अब तो मुस्कराओ। ’’ चन्द्रकान्ता ने कहा। मैं बरबस मुस्करा पड़ी। मन ही मन उसके प्रति कृतज्ञ हुई।

रात्रि उहापोह की स्थिति में व्यतीत हुई। ठीक से नींद नही आयी। प्रातः घर की दिनचार्या समाप्त कर, समय से काॅलेज के लिए निकल पड़ी।

काॅलेज में प्रवेश करते समय पग लड़खड़ा रहे थे। हृदय की धड़कनंे प्रथम बार प्रेम में पड़ी किसी युवती के हृदय की धड़कनों-सी असंतुलित हो रही थीं। मन बार-बार व्याकुल हो रहा था। कैसे सामना करूंगी आज मैं स्वप्निल का।

स्टाफ रूम में कुछ देर रूकने के पश्चात् मैं क्लास में चली गई। आज मुझे ये क्या हो रहा है? समझ नही पा रही हूँ। कितनी कठिनाई से समय व्यतीत कर पा रही हूँ। स्वप्निल की प्रतीक्षा करते-करते मध्यान्ह का समय हो गया। वह अभी तक मुझे दिखाई नही दिया है। कहाँ है वह? क्या वह आज काॅलेज नही आयेगा? मन अधीर होने लगा है। उसके घर में सब ठीक तो है? फोन द्वारा उसका हाल पूछने की इच्छा हो रही है, किन्तु फोन नही कर पा रही हँू। उसके बारे में किसी और से पूछ भी तो नही सकती। डर है कहीं कोई मेरे मनोभावों से वाकिफ न हो जाये।

चन्द्रकान्ता आ गयी है। वह मेरे साथ ही बैठी है। उसे ज्ञात है कि स्वप्निल अभी तक काॅलेज नही आया है। हम दानों के बीच सन्नाटा पसरा है। बात-बात पर हँसने व चुहल करने वाली चन्द्रकान्ता चुप है। वह कुछ सोच रही है। न जाने क्या? मैं भी विचारमग्न हूँ। सहसा स्वप्निल स्टाफरूम में प्रवेश करता दिखाई दिया। उसे देखकर मेरा हृदय धक् से हो गया। कितना आकर्षक लग रहा है स्वप्निल। सबसे अभिवादन करते..... उत्तर-प्रत्युत्तर देते वह सीधा मेरे ओर चला आ रहा था। उसे देखकर मेरी दृष्टि झुक गयी। उसे देखकर दृष्टि का झुक जाना मेरे हृदय में उसके प्रति प्रेम की पराकाष्ठा की तो थी। अन्यथा अब से पूर्व ऐसा कभी भी नही हुआ। पलकंे इस प्रकार बोझिल कभी न हुई।

उसने मुस्कराते हुए मेरा अभिवादन किया । मेरे समीप कुर्सी खींची और बैठ गया। स्वप्निल को मेरे समीप आते देख चन्द्रकान्ता ने मेरे हाथों को हौले से स्पर्श किया था और वहाँ से क्लासरूम में जा चुकी थी। स्वप्निल कुछ देर तक मुझे देखता रहा।

’’ बाहर चल कर बैठते हैं......वहाँ उस वृक्ष के नीचे.....बेंच पर। ’’ उसने बाहर की ओर संकेत करते हुए कहा।

’’ जी ! ’’ मैंने कहा। और चुपचाप उसके साथ चल पड़ी। ’ जी ’ कहते समय मेरा स्वर धीमा था। जैसे आवाज़ गले में रूक गयी हो।

बेंच पर बैठते हुए मैंने स्वप्निल से कुछ दूरी बना रखी थी। वह मेरी ओर देखकर मुस्करा रहा था। आकर्षक लग रहा था।

कुछ देर चुप रहने के पश्चात् उसने कहा, ’’ चन्द्रकान्ता जी द्वारा कहलवाया आपका संदेश मिल गया। आपका अत्यन्त आभार जो मुझे आपने इस योग्य समझा। ’’ कहकर स्वप्निल चुप हो गया। मैं चुप थी, और सिर्फ स्वप्निल को सुनना चाह रही थी।

आप जैसी सुशिक्षित, शालीन, आकर्षक, गुणी जीवन साथी पाना किसके लिये सौभाग्य की बात न होगी। मैं अत्यन्त सौभाग्यशाली हूँ जो मुझे आपने अपने योग्य समझा। ’’ स्वप्निल की ठहरी हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ रही थी।

’’ दो वर्ष पूर्व जब प्रथम बार मैंने आपका देखा था, प्रथम दृष्टि में ही आप मुझे अच्छी लगी थीं। मैं भी आपकी ओर शनै शनै आकर्षित होने लगा। ’’ रूक-रूक कर स्वप्निल अपनी बात कहता जा रहा था।

मेरे हृदय में भी आपके लिए वही स्थान है जो आपके हृदय में मेरे लिए है। मैं निःशब्द स्वप्निल की बातें सुन रही थी। उसकी बातों के मध्य मेरे बोलने के लिए स्थान ही कहाँ था? अतः निःशब्दता ही मेरे लिए सही विकल्प था।

’’ आप मेरे विषय में सब कुछ जानती हैं। मैने बरखा को अकस्मात् खो दिया। मुझे अब भी यही प्रतीत होता है कि बरखा प्रत्येक क्षण मेरे साथ है। एकान्त के क्षणों में वह मेरे समक्ष आ जाती है। मैं उसे कैसे विस्मृत करूँ....... मुझे आप ही बताइये? ’’ स्वप्निल अपनी बात कहता जा रहा था।

स्वप्निल के चेहरे पर उदसी व विवशता के भाव स्पष्ट थे। मुझे प्रतीत हो रहा था कि वह विगत् दिनों की स्मृतियों से निकलना चाह रहा है किन्तु निकल नही पा रहा है।

’’ मैं उसे कैसे विस्मृत करूँ? आप ही बताइये नीलाक्षी जी? मेरी सहायता कीजिये बरखा को विस्मृत करने में......? ’’ रूक-रूक कर स्वप्निल कहता जा रहा था। उसके नेत्रों के कोर उसी प्रकार पुनः भीग रहे थे जिस प्रकार बरखा की बात चलनेे पर पहले भी भीग जाया करते थे। अश्रुओं को रोकने के प्रयास में उसने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। उसे समझाने या सान्तवना देने में मैं स्वंय को असमर्थ पा रही थी।

’’ मेरी माँ भी मुझसे सदैव यही कहती रहती हैं कि विगत् दिनों की स्मृतियों से बाहर निकल कर......उन्हें विस्मृत कर मुझे नया जीवन प्रारभ्भ करना चाहिए। मैं भी यही चाहता हूँ.......किन्तु क्या करूँ.....?......... मेरी माँ आपकी बहुत प्रशंसा करती हैं। गाहे-बगाहे आपकी चर्चा करती रहती हैं। आपसे प्रभावित हैं। स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो वे मेरे जीवन में बरखा का स्थान आपको देने के लिए प्रतिबद्ध है। ’’ अब तक स्वप्निल ने स्वंय को संयत कर लिया था......अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर लिया था।

अपने स्थान से वह मेरे समीप आ गया था। देखते ही देखते मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया था उसने।

प्रथम बार के नये स्पर्श का अनछुआ-सा स्पन्दन मेरी धमनियों में प्रवाहित होने लगा।

’’नीलाक्षी जी, मेरा वर्तमान प्रेम आप ही हैं। आपके प्रेम कर अनुभूतियों में ही मैं साँसें ले पा रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि आप ही मेरा वर्तमान हैं.......आपके प्रेम से सिक्त है मेरा हृदय। आप मेरा सत्य हैं.......किन्तु अतीत की परछाइयों से मैं मुक्त नही हो पा रहा हूँ। अतीत से मुक्त न होने की मेरी अदम्य लालसा ही मुझे अतीत से मुक्त नही होने दे रही है। बरखा को मैंने अपने अतीत से निकाल कर वर्तमान में स्थापित कर लिया है। कदाचित् उसे लेकर मैं भविष्य में भी......। ’’ कहते-कहते वह चुप हो गया।

मेरी हथेलियाँ स्वप्निल की हथेलियों में कसमसाने लगीं। मैं उन्हें वहाँ से हटा लेना चाह रही थी। किन्तु वे स्वप्निल के बलिष्ठ हाथों की पकड़ में थीं।

’’ नीलाक्षी जी, आप मेरी प्रतीक्षा कर सकंेगी? कदाचित् आपका प्रेम ही मुझे परिवर्तित कर सके? ’’ वह प्रत्युतर की आशा में मेरी ओर देख रहा था।

’’ मैंने समय की नदी में स्वंय को छोड़ दिया है। उसकी लहरें जहाँ चाहे मुझे बहा कर ले जायें। ’’ उसके चेहरे पर एक ऐसे धावक की थकान परिलक्षित हो रही थी, जिसकी दौड़ पूरी हो चुकी हो, और वह निढाल होकर परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा हो।

मैंने बिना एक क्षण गवांये उत्तर दिया ’’ मैं ऋतुओं के परिवर्तित होने की प्रतीक्षा करूँगी। ’’ प्रेम में सोच-विचार कैसा? यदि सोचा समझा गया तो वह प्रेम कैसा?

इस बीच अपना हाथ मैंने स्वप्निल की हथेलियों से मुक्त कर लिया था। उसके हाथों की गर्माहट की अनुभूति अभी तक मेरी हथेलियों में हो रही थी। मैं इस गर्माहट को...... इस अनुभूति को ऐसे ही रखना चाहती थी।

स्वप्निल और मैं यूँ ही बैठे रहे कुछ देर तक। मुझे स्वप्निल के समीप बैठना अच्छा लग रहा था। मेरे पास से जाने की शीघ्रता उसे भी न थी। कदाचित् उसे भी मेरे समीप बैठना अच्छा लग रहा था। देर तक हम यूँ ही बैठे रहें। इस बीच न तो मैंने कुछ बोला न उसने। बस..... एक दूसरे की भावनाओं का स्पर्श करते रहे हम दोनों।

अन्ततः हमें अपनी-अपनी कर्मभूमि की ओर प्रस्थान करना था। स्वप्निल ने स्वंय को संयत कर लिया था। मैंने भी अपनी भावनाओं को उसी प्रकार रोक कर रखा, जिस प्रकार अब तक रोक कर रखा था।

’’ पुनः मिलते हैं नीलाक्षी जी। ’’ वह ठहरी हुई दृष्टि से देर तक मुझे देखता रहा।

’’ जी हाँ, अवश्य। ’’ कह कर मैं स्वप्निल के साथ वहाँ से चल पड़ी। स्वप्निल अपनी क्लास की ओर मुड़ गया। मैं भी......।

मैं प्रतीक्षा करूँगी ऋतुओं के परिवर्तित होने का......स्वप्निल के परिवर्तित होने का.......। मेरा और स्वप्निल का प्रेम एक जैसा ही तो है। जिस प्रकार स्वप्निल बरखा से अपना अटूट प्रेम विस्मृत नही कर पा रहा है, उसी प्रकार में भी तो स्वप्निल से अपना प्रेम विस्मृत नही कर पाऊँगी। स्वप्निल ने मुझे आश्वासन दिया है कि मैं उसकी प्रतीक्षा कर सकती हूँ तो मैं अवश्य करूँगी। मैं भी तो उसी की भाँति विवश हूँ.......जैसे वह बरखा का स्थान किसी और को देने में असमर्थ है। उसी प्रकार उसका स्थान मैं किसी और को नही दे सकती.....कदापि नही।

विक्रान्त अब मुझसे बातें करने में संकोच करता। मैं जानती हूँ कि उसका कारण मैं हूँ। मेरे हृदय में उसके लिए कोमल स्थान नही है अतः मैंने उसे दृढ़ता से मना कर दिया है। आज अकस्मात उसका फोन आया। एक-दूसरे का अभिवादन करने के पश्चात् हम दोनों के मध्य सन्नाटा पसरा रहा।

’’ नीलाक्षी जी ! क्या मैं आपकी प्रतीक्षा कर सकता हूँ? ’’ विक्रान्त के स्वर में कुछ कँपकपाहट थी। ’’

’’ मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगा......आपके परिवर्तित होने तक। मुझे आप सदा प्रतीक्षारत् पायेंगी। ’’ विक्रान्त का स्वर अनुनय भरा व संयत था।

’’ नही विक्रान्त जी, मेरे लिए आप अपने जीवन के अमूल्य क्षण व्यर्थ मत कीजिये। मेरे जीवन में सब कुछ ठहरा हुआ है। परिवर्तन के चिन्ह दूर-दूर तक दृष्टिगोचर नही हो रहे हैं। ’’ क्षमा याचना कर मैंने फोन रख दिया था।

मैंने सोच लिया है कि मैं प्रतीक्षा करूँगी ऋतुओं के परिवर्तित होने का.....स्वप्निल के परिवर्तित होने का। यदि परिवर्तन प्रकृति का शश्वत् नियम है, तो इस परिवर्तन की प्रतीक्षा करने का अधिकार विक्रान्त को भी है। किन्तु मैं यह अधिकार उसे नही दूँगी। यह अधिकार मैंने स्वप्निल को दे दिया है। परिवर्तन के प्श्चात् ऋतुयें वसंत की आयें या पतझर की। उनका स्वागत् मैं सहर्ष करूँगी।......

.....मैं प्रतीक्षा करूँगी अपने असमान में एक छोटे-से इन्द्रधनुष के उगने की। ऋतुयें अवश्य परिवर्तित होंगी।

उपन्यास-- अपने-अपने इन्द्रधनुष

लेखिका- नीरजा हेमेन्द्र

दूरभाष- 9450362276

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