अपने-अपने इन्द्रधनुष - 2 Neerja Hemendra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 2

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(2)

शनै-शनै काॅलेज की दिनचर्या में मैं व्यस्त होने लगी। मन को नियत्रित करना व तनाव भरी घटनाओं को विस्मृृत करना मै सीख गयी हूँ । ये तो छोटी-सी घटना है। मैं अत्यन्त पीड़ादायक घटनाओं से उबर चुकी हूँ।

प्रतिदिन की भाँति आज भी मैं काॅलेज जाने के लिए समय पर घर से निकली थी। सड़क पर हाथ दे कर आॅटो रोका। चन्द्रकान्ता उसी आॅटो में पहले से बैठी थी जिसे मैंने रूकने के लिए हाथ दिया था। आॅटो में चन्द्रकान्ता को पहले से बैठा देख मुझे अच्छा लगा। चन्द्रकान्ता मेरी मित्र है। वह और मैं एक ही काॅलेज में अध्यापन कार्य करते हैं। मार्ग में भी हमारी गााहे-बगाहे इसी प्रकार मुलाकात हो जाती है। बातें करते-करते यदाकदा वह मुझसे अनौपचारिक भी हो जाती है। मेरी घनिष्ठ मित्र जो है। कभी घर की तो कभी अपने मन की दुख-सुख की बातें मुझसे बताती है। मैं भी अपने मन की बातें खुलकर चन्द्रकान्ता से कह सकती हूँ। वह गम्भीर व सुलझे दृष्टिकोण वाली स्त्री है।

आज चन्द्रकान्ता प्रतिदिन की अपेक्षा अधिक प्रफुल्लित लग रही थी। जब कि कल पार्टी की घटना से मेरा मन-मस्तिष्क अब भी बोझिल हो रहा था। मैंने चन्द्रकान्ता से उसका हाल पूछा।

’’ अच्छा है....सब कुछ अच्छा है। तुम बताओ क्या हो रहा है? कल शाम की पार्टी कैसी रही? ’’ पूछते हुए रहस्मयी ढंग से वह मुस्करा पड़ी।

मैं उसकी इस मुस्कराहट का अर्थ नही समझ सकी। अनमने ढं्रग से बोल पड़ी-’’ ठीक थी। ’’

’’ विक्रान्त, सरस जी.....सब गये थे न? ’’ उसने एक और प्रश्न मेरी ओर बढ़ा दिया।

’’ हाँ, तुम क्यों नही आयी थी ? ’’ मैंने पूछा।

’’ हसबैंड आ गए थे । कभी-कभी उनकी बात भी मान लेनी चाहिए। ’’ चन्द्रकान्ता ने मुस्कराते हुए कहा। उसकी बात सुनकर मैं चुप रही।

’’ तुम्हारा अच्छा है। कोई रोकने-टोकने वाला नही है। ’’ मुझे चुप देख चन्द्रकान्ता ने हँसते हुए सरलता से अपनी बात पूरी की तथा मुँह घुमा कर सड़क पर दूसरी ओर आने-जाने वाली भीड़ को देखने लगी।

चन्द्रकान्ता ने कितनी सरलता से अपनी बात कह कर मुँह दूसरी ओर घुमा लिया। उसने यह भी नही देखा कि उसकी बातों से कोई आहत भी हुआ है। चन्द्रकान्ता की बातों में मुझे स्पष्ट रूप से व्यंग्य का आभास हुआ। मेरे और चन्द्रकान्ता में क्या अन्तर है? कौन अच्छा है और कौन बुरा है? ’’ मैं सोचती रही । काॅलेज आ गया था। हम साथ ही आगे बढ़ गये। इस बात को फिर कभी पूछूँगी उससे। यह सोच कर मैं उसके साथ ही स्टाफरूम की ओर बढ़ गयी।

स्टाफ रूम में पहुँच कर मैं चन्द्रकान्ता की बातों का अर्थ ढूँढने लगी। क्या सही है......क्या ग़लत......? मैं सही हूँ या वो? कुछ भी कहना, समझना कठिन है। यहाँ स्टाफ में सभी अध्यापक चन्द्रकान्ता व इसी काॅलेज के हिन्दी शिक्षक सरस के बारे में तरह-तरह की बातंे करते हैं। सभी को चन्द्रकान्ता व सरस की प्रगाढ़ मित्रता के बारे में ज्ञात है। यह चर्चा आम हैं कि प्रगाढ़ मित्रता से बढ़ कर है उन दोनों का सम्बन्ध। चन्द्रकान्ता को स्वंय के बारे में फैली इन बातों की जानकारी है कि नही यह मैं नही जानती। न ही इस विषय में मैंने उससे कभी पूछा है। इन सबके उपरान्त भी चन्द्रकान्ता बेफिक्र व प्रसन्न रहती है। उस पर इन बातों का जैसे कोई प्रभाव ही न हो।

चन्द्रकान्ता विवाहित है। उम्र यही कोई चालीस वर्ष के आस-पास। घर में सास-श्वसुर, एक बेटा अर्थात सभी कुछ भरा-पूरा है। वह हमेशा प्रसन्न रहती है। पति के पास में होने न होने या उसके कहीं भी रहने से उस पर कोई फ़र्क नही पड़ता।

यहाँ हिन्दी प्राध्यापक सरस जी के साथ उसकी प्रगाढ़ मित्रता के चर्चे सुनाई देते रहते हंै। वह खाली समय में स्टाफ रूम में अधिकांशतः सरस के पास ही बैठ जाती है। किसी की भी परवाह किये बिना। बेहिचक...... साफगोई के साथ।

अपने पहनावे, बनाव ऋंगार व सबसे बढ़ कर अपनी ख़ुशमिजाजी से वह अपनी उम्र को दस वर्ष पीछे छोड़ती हुई महज तीस वर्ष की प्रतीत होती है। अभी-अभी चन्द्रकान्ता ने मुझसे कहा है कि मुझे रोकने-टोकने वाला कोई नही है। चन्द्रकान्ता से भी मुझे यह जानना है कि मुझे कोई रोकने-टोकने वाला भले ही कोई न हो उसे तो है? उसे व सरस को ले कर जो बातें काॅलेज के कैम्पस में फैली हैं उसे वह क्यों नही रोक लेती? चन्द्रकान्ता से बातें करने की अभी मेरी इच्छा हो रही थी। किन्तु अभी मेरी कक्षायें थी। कदाचित् चन्द्रकान्ता की भी अपनी कक्षा में जाना था अतः वह भी अपनी क्लाास की ओर बढ़ गयी। दिन में खाली समय में मैं आज उसके पास जा कर बैठ गयी।

कुछ देर तक तो हमारे बीच इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर बातें घर परिवार की होने लगीं। मैं अवसर देखकर चन्द्रकान्ता से आज अवश्य पूछूँगी कि उसे रोकने-टोकने वाला कौन है?

’’ तुम्हारा बेटा कितना बडा़ हो गया है चन्द्रकान्ता। ’’मैंने पूछा।

’’ ग्यारहवें वर्ष में चल रहा है। ’’चन्द्रकान्ता ने सरलता से जवाब दिया।

’’ एक ही बेटा है मेरा। मेरे पति व उनके माता-पिता की इच्छा थी कि मेरे और भी बच्चे हों। किन्तु ईश्वर ने मेरे भाग्य में एक ही पुत्र लिखा था। इस बात के लिए मेरे पति व उनके घर वाले मुझे ही कुसूरवार ठहराते हैं। ’’ चन्द्रकान्ता के चेहरे पर अपने पति व सास-श्वसुर के प्रति घृणा के भाव स्पष्ट थे।

कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् चन्द्रकान्ता ने पुनः कहा ’’ जानती हो नीलाक्षी, मेरा बेटा बहुत ही प्यारा व समझदार है। मेरे पति नौकरी के सिलसिले में अधिकांशतः बाहर रहते हैं। मुझे लगता है कि एक से अधिक बच्चों की इच्छा उन्हें अपने एकमात्र प्यारे-से बेटे के प्रति भी उनके वत्सल्य को कम करती है। या इसकी वजह कुछ और है। मैं नही समझ पायी आज तक। वो मुझ से असंतुष्ट रहते हैं.....संदेह करते हैं......कुछ-कुछ नफरत भी...... मुझे लगता है कि इसी कारण वो बहुत कम यहाँ आते हैं। यहाँ तक कि उनके अधिकांश अवकाश भी वहीं व्यतीत हो जाते हैं। अभी कई माह पश्चात् वो मात्र दो दिन के लिए यहाँ आये थे। किन्तु अपने पुत्र का मोह भी उन्हें मेरे पास नही लाता। ’’

चन्द्रकान्ता से मैं बहुत कुछ पूछना चाहती थी। किन्तु चन्द्रकान्ता की बातें सुन कर मै समझ गयी कि उसके बारे में मेरी सोच सही नही थी। उसकी पीड़ा.......विवशता व मकड़जाल में फँसी स्त्री की भावनायें अब मुझे समझ में आने लगी थीं। तन के बन्धन और उन्मुक्त मन के बन्धन में फर्क भी। मैंने अपने मन में उठ रहे निरर्थक प्रश्न को उससे न पूछना ही उचित समझा।

छोटे कस्बे से शहरों में परिवर्तित होती जगहों पर लोगों में प्रगतिशीलता व आधुनिकता मात्र दिखावे की वस्तु होती है। ये मैं इस छोटे से शहर में रह कर भलिभाँति जानती हूँ। उनकी सोच वही पुरानी होती है। विशेषकर बेटियों व स्त्रियों के अधिकारों के प्रति। वे स्त्रियों पर अपना एक मात्र अधिकार व उस पर शासन करने की प्रवृति से अब भी मुक्त नही हो सके हैं। यह जगह कभी एक छोटा-सा कस्बा रहा होगा। किन्तु अब शहर के रूप में विस्तृत होता जा रहा है। स्कूल-कालेज, माॅल, सड़कें आवागमन के साधन, गाड़ियाँ, आधुनिकता की ओर भागती आबादी... सब कुछ विस्तृत होता जा रहा है। किन्तु यहाँ रहने वाले लोगों की सोच संकुचित ही रही। मेरे वैवाहिक जीवन में आये संकट को कितने लोगों ने समझा? पास-पड़ोस के कम पढ़े लोगों के साथ विक्रान्त जैसे उच्च शिक्षित लोगों ने भी मेरे लिए पर व्यंग्यात्मक शब्द कहे। वैवाहिक जीवन को बचाने का उत्तरदायित्व मात्र मेरा था मेरे पति का नही? लोगों की सोच यह है कि मुझे छोड़ने के उपरान्त मेरा पति सरलता से दूसरा विवाह भी कर सकता है। उस पर विवाह टूटने की इस घटना से कोई फर्क नही पड़ेगा। अपितु मेरा जीवन तहस-नहस हो जायेगा। परित्यक्ता को कोई नही अपनायेगा। कारण यह कि सभी पुरूष चाहे जिस उम्र के हों, या दो-चार पत्नियों को छोड़ कर उनके जीवन के साथ खेल चुके हांे, उन्हें पुनर्विवाह के लिए कुवाँरी लड़की मिल जायेगी। आज भी इस समाज की यही सोच है । विकसित होते इस शहर के लागों की सोच......मानसिकता में विकास के चिन्ह नही मिलते। मात्र वेशभूषा....रहन-सहन, व वाह्नय साज-सज्जा ही परिवर्तित होते दिख रहे हैं।

स्त्रियों के प्रति पुरूषों की मानसिकता में कोई बदलाव नही दिखाई देता। इस छोटे से शहर में भी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें बढ़ रही हैं। उनका शोषण हो रहा है। बड़े शहरो की तो बात ही अलग। वहाँ तो पारिवरिक रिश्ते-नाते भी जैसे विलुप्त होने की कगार पर हों। किन्तु छोटे शहरों में अब भी पड़ोसी की बेटी हमारी बेटी, पास-पड़ोस की स्त्रियाँ चाची, काकी, बुआ, मौसी आदि रिश्तों के विद्यमान हैं। अब ये सब कुछ विकास की दौड़ में पीछे छूटता जा रहा है। ऐसे ही लोगों से यह शहर पटता जा रहा है। इसी प्रकार की मानसिकता वाले पुरूष ही स्त्री-पुरूष के भावनात्मक सम्बन्धों के प्रति घृणित दृष्टिकोण रखते हैं। जब कि सत्य यह है कि उसे इस प्रकार के भावनात्मक संबल लेने के लिए पुरूष ही विवश करते हैं।

तो क्या चन्द्रकान्ता व सरस के विषय में लोग जो बातें करते हैं वो मात्र अफवाहों के अतिरिक्त कुछ भी नही है। यदि उसमें किंचित मात्र सच्चाई भी है तो चन्द्रकान्ता अत्यन्त परिपक्वता व समझदारी से अपना परिवारिक जीवन सम्हाल रही है। वह ग़लत कहाँ पर है? परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व का सफलतापूर्वक निर्वहन करना भी तो उसकी सफलता है। अनेक विडम्बनाओं के पश्चात् भी वह प्रसन्न रहती है। सरस व उसके सम्बन्धों की तुलना बलात्कारी पुरूषों की घृणित मनासिकता व अपराध से कदापि नही की जा सकती। उनके हृदय की भावनायें झरने से गिरते स्वच्छ जल से निर्मित फेनिल झाग की भाँति हैं।

’’ तुम्हारे व सरस के बारे में लोग कितनी बातें करते हैं। क्या तुम्हें बुरा नही लगता? ’’ मेरे द्वारा आकस्मिक रूप से पूछे गए इस प्रश्न को सुनकर चन्द्रकान्ता मुस्करा पड़ी।

उसे मुझसे इस प्रकार के अनौपचारिक प्रश्न की आशा नही थी। वह मेरा स्वभाव जानती है कि मैं किसी के व्यक्तिगत् जीवन में हस्तक्षेप नही करती। किन्तु इस प्रकार की बातों की पहल चन्द्रकान्ता ने की थी। अतः मैं भी अपने प्रश्नो के उत्तर उससे जानना चाहती थी। वह आसमान में कुछ ढूँढने का प्रयत्न करते कुछ देर तक सोचती रही तत्पश्चात् बोली-

’’ मैं सरस को विवाह के पूर्व से जानती थी। मात्र जानती थी। उससे मेरी मित्रता या किसी प्रकार का प्रगाढ़ सम्बन्ध नही था। ’’ बोलते-बोलते चन्द्रकान्ता खड़ी हो गयी तथा मेरा हाथ पकड़ कर स्टाफ रूम के बाहर आ गई। मैं भी यन्त्रवत् उसके साथ चल पड़ी।

स्टाफ रूम से बाहर आने का कारण कदाचित् यही रहा होगा कि उसकी व्यक्तिगत बातें किसी और द्वारा न सुनी जा सकंे। सामने काॅलेज के विस्तृत हरे मैदान में इस समय धूप पसर चुकी थी। एक वृक्ष की छाँव में रखे पत्थर की बेंच पर मेरे साथ बैठते हुए वह मुझसे अपने परिवारिक व व्यक्तिगत् जीवन की बातें कर अपने हृदय का बोझ हल्का करना चाहती थी। चन्द्रकान्ता मेरी अभिन्न मित्र भी है। वह जानती है कि उसकी व्यक्तिगत् बातें मुझ तक ही रहेंगी। यहाँ कार्य करते हुए मुझे सात वर्ष हो गये हैं। मित्रता के साथ-साथ हम एक दूसरे के गम्भीर स्वभाव से परिचित हैं। ूुझसे बातें कर यदि चन्द्रकान्ता के मन का बोझ हल्का होता है तो मैं भी चन्द्रकान्ता के मन की बात सुनने को तत्पर थी। बातों का तारतम्य आगे बढ़ाते हुए चन्द्रकान्ता ने कहा-

’’ विवाह के समय भी मैं नौकरी में थी। जब कि मेरे पति को उस समय नौकरी नही मिली थी। उफ्फ! कितनी कठिनाई ये व्यतीत किये थे मैंने वे दिन। उन दिनों की पीड़ा मैं ही जानती हूँ। आर्थिक अभाव उतनी पीड़ा नही देते जितनी विषम परिस्थितियों में अपनों द्वारा दिए जा रहे ताने व अवहेलना। ’’ कहते-कहते चन्द्रकान्ता के नेत्र छलक आये।

भावनाओं के आवेग को रोकते-रोकते चन्द्रकान्ता कहती जा रही थी- ’’ उन दिनों मेरा पति प्रत्येक उस व्यक्ति के साथ मेरा नाम जोड़कर मेरे चरित्र पर संदेह करता था जो मेरे आस-पास थे। बिना किसी कारण के उसका मुझसे झगड़ना व मुझे मारने की वजह तलाश लेना उसका स्वभाव बनता जा रहा था। उन दिनों मेरे सास-श्वसुर का मूक दर्शक बने रहना मुझे अब तक विचलित करता है। मैं कभी विस्मृत नही का पाऊँगी वे दिन। ’’ चन्द्रकान्ता कहती जा रही थी। मैं निःशब्द सुनती जा रही थी। उसके साथ घटी घटनायें मेरे जीवन की परिस्थितियों से कितनी मिलजुल रहीं थी।

’’ मैं भावनात्मक व शारीरिक रूप से टूटती जा रही थी। कभी-कभी इच्छा होती कि अपने पति से तलाक ले कर माँ-पिता के घर चली जाऊँ। मेरा बेटा होने वाला था। और यह सब इतना सरल नही था। ’’ कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् चन्द्रकान्ता ने पुनः कहना प्रारम्भ किया।

’’ मेरे पैरों में अनेक बेड़ियाँ पड़ी थीं। विवाह के पश्चात् लड़की की ससुराल ही उसका घर है, मान्यता की इस दुष्कर बेड़ी को न तोड़ पाने के कारण अनेेक लड़कियाँ ससुराल में शारीरिक व मानसिक शोषण का शिकार हो कर मर जाती हैं या मार दी जाती हैं। यह समस्या अनपढ़ या निर्धन तबके अथवा गाँवों में ही नही, अपितु पढ़े-लिखे घरों व शहरों में भी है। पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी इन परिस्थितियों का विरोध नही कर पातीं। मैं भी इसी प्रकार की बेड़ी में जकड़ दी गयी थी। मैं जानती थी कि पुत्री को बोझ समझ कर किसी प्रकार उसका विवाह कर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाने वाले मेरे माता-पिता अपनी परित्यक्ता पुत्री को स्वीकार नही करेंगे। अनेक प्रताड़नाओं से गुज़रते हुए इस जीवन को अपना भाग्य समझ स्वीकार चुकी थी मैं। ’’ चन्द्रकान्ता कहती जा रही थी। बातें करते-करते अनेक बार उसकी आँखें भर आतीं।

’’ सरस मेरी पीड़ा समझता था या नही ये तो मैं नही कह सकती। किन्तु मेरे जीवन में विस्तृत होते जा रहे एकाकीपन को वह भरने लगा था। उसका सरल, हँसमुख स्वभाव तथा हाल पूछने का अपनत्व भरा ढंग मुझे अच्छा लगता था। देखने में वह जितना आकर्षक है, हृदय से भी उतना ही भला है। वो विवाहित है और मैं भी। ये हम जानते हैं। काॅलेज में तो वह मेरे समक्ष होता ही है। अवकाश के दिनोें में भी मैं उससे मिलती हूँ। उससे मिल कर मेरे जीवन में फैला एकाकीपन भरने लगता है। वह परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझता है तथा अपनी पत्नी बच्चों से प्रेम भी करता है। मैं भी अपने बेटे के प्रति अपने उत्तरदायित्व को कभी विस्मृत नही करती। ’’

’’ घर में मेंरे सास-ससुर मुझसे ठीक से बात नही करते हैं। मेरा पति घर आना नही चाहता है। प्रारम्भिक झगड़ों व अविश्वास ने मेरे व उसके बीच इतनी दूरियाँ बढ़ा दी हैं कि वो अब भी कम होती नही दिखतीं। अतः वह घर आना नही चाहता। अब मैं भी उसकी प्रतीक्षा नही करती। पति के बुरे व्यवहार से आहत हो मैं न जाने कब सरस की तरफ आकर्षित होती चली गई। ’’ चन्द्रकान्ता कहती जा रही थी। उसके साथ उसकी पीड़ा का अनुभव करते हुए मैं अपने विचारों में डूबती-उतराती रही।

’’ ऐसा नही है नीलाक्षी कि सरस मेरा आदर्श पुरूष है या मेरी सोच के धरातल पर बिलकुल सही है। फिर भी मुझे लगता है कि वह मेरी समस्याओं को समझते हुए मेरी भावनाओं का आदर करता है। उसने कभी भी मेरी भावनाओं को आहत नही किया है। मेरी इच्छा के बिना उसने मुझे स्पर्श नही किया है। मैं जानती हूँ कि उसका पारिवारिक जीवन है। उसके परिवार से मैं मिल चुकी हूँ। वह मेरा कुछ भी न होते हुए भी कुछ तो है। दुनियावी रिश्तों से पृथक एक रिश्ता हृदय का, भावनाओं का स्थापित हो गया है उसके साथ। मेरे जीवन में प्रसन्नता के कुछ पलों का सृजनकत्र्ता है वह। ’’ चन्द्रकान्ता की बातें सुन कर मेरा हृदय सूखे पत्ते की भाँति काँप रहा था। उस सूखे पत्ते के टूटने की ध्वनि मेरे मस्तिष्क में कोलाहल उत्पन्न कर रही थी।

चन्द्रकान्ता की कक्षाओं का समय हो गया था, अतः उसे जाना था। जाना तो मुझे भी था। चन्द्रकान्ता ने बातों को विराम दिया। मैं चन्द्रकान्ता के साथ चल रही थी तथा सोचती जा रही थी कैसी विषमताओं भरा है मेरा व चन्द्रकान्ता का जीवन। वह पति के साथ रह कर भी परित्यक्ता की भाँति रहते हुये परपुरूष में खुशियाँ ढूँढने को विवश है। मैं हूँ परित्यक्ता......पूर्णरूपेण परित्यक्ता। न कोई इच्छा न कोई सपने।