यारबाज़
विक्रम सिंह
(9)
हमारी कॉलोनी से थोड़ी दूर रास्ते के पास एक छोटा सा टेलीफोन बूथ था उस टेलीफोन बूथ को दरअसल एक बेरोजगार लड़के ने खोल रखा था और वह एक पैर से अपाहिज था और उसका एक पैर नकली था। जब बूथ में। बैठा होता था तो वह अपने नकली पैर को खोल कर रख देता था। ठीक वैसे ही जैसे हम जूते खोल कर रख देते है। आप सब सोचते होगे कि कॉलोनी की चाय दुकान का भी पैर पुलियो लगा हुआ था। टेलीफोन बूथ वाले का भी पैर नहीं है। अगर आप ऐसा सोच रहे है तो गलत भी कुछ नहीं। ध्यान को पोलियो ने मारा था। टेलीफोन बूथ वाले को किस्मत ने। टेलीफोन बूथ वाला का पैर ऐक्सिडेंट खराब हो गया था। डॉक्टर ने उसका पैर काट दिया था। फिर उसने नकली पैर का सहारा लिया। पर ध्यान की तरह इसकी बुद्धि खराब नहीं थी। पर ऐसा भी नहीं था कि यह कोई ब्रिलियंट स्टूडेंट था। वो बी. ए पास था और ध्यान से उम्र में करीब दस साल बड़ा था। मगर अफसोस कि पैर की वजह से उसका ब्याह नहीं हो पा रहा था।इस टेलीफोन बूथ से ज्यादातर लोग अपने गांव शहर और उन बच्चों को फोन करते थे जो पढ़ने के लिए बाहर गए हुए थे। इसी टेलीफोन बूथ पर कॉलोनी और कॉलोनी से दूर के भी लोग आते थे। टेलीफोन बूथ में छोटा सा केविन भी था। जिसमे प्रेमी प्रेम की बातें किया करते थे। मिथिलेश्वर चाचा अपनी साइकिल चलाते हुए या और उसी टेलीफोन बूथ के अंदर घुस गए। वह अक्सर इसी टेलीफोन बूथ से अपने घर अर्थात गांव बात किया करते थे । टेलीफोन बूथ में जाकर टेलीफोन बूथ वाले को एक पर्ची थमा दिया और कहा ,"नंबर लगा दिया हो।"और ऎसी ही अक्सर टेलीफोन बूथ में आकर पर्ची थमा दिया करते थे। टेलीफोन बूथ वाले ने नंबर डायल करके उन्हें रिसीवर थमा दिया। उन्होंने अपने कानों में फोन को लगा लिया। उधर भी दरअसल टेलीफोन बूथ ही था और वह टेलीफोन बूथ वाले के उठाते ही यह कहते हैं कि तनी कालीचरण के बुला दिया हो। और फिर दस मिनट के लिए अपना रिसीवर फिर रख दिया । और दस मिनट बाद एक बार दोबारा फिर बूथ वाले को कहा, वह तनी नंबर दोबारा लगा दिया हो। दोबारा नंबर लगने पर वहां उनके बुलाए हुए आदमी पहले से रहता और फिर उनसे वह बात करते। वह ऊंची ऊंची आवाज में बात करने लगे वह अक्सर ऎसे ही बात करते। यहां तक कि बूथ के अंदर बने केबिन के अंदर तक भी आवाज जाती। यहां तक कि अंदर केबिन में बात करने वाला शख्स भी मिथिलेश्वर चाचा पर चिढ़ने लगता । उसी वक्त 16 साल का लड़का अपनी प्रेमिका से केबिन में बात कर रहा था। वह भी उस वक़्त केबिन से निकल कर चला गया। और जब वह फोन पकड़ लेते थे तो गांव की पूरी खबर लेते थे जैसे कि खेत जुताई गया ,बुआ गया ,कटिया हो गइल इत्यादि। फलाना गांव की और भी कई सारी बातें। और यह हर बार फोन करने पर होता था। फिर उन्होंने कहा ,ठीक है बता देना रजिस्ट्री के समय आ जाऊंगा पक्का समय ले लेना।
जब वह पुरे गांव का इतिहास भूगोल ले लेने के बाद वह बूथ वाले से पूछते हैं कितना पैसा हुआ और बूथ वाले ने कहा,पचास रुपए । तो मिथिलेश्वर चाचा की भोय चढ़ गई और कहा,"बहुत बिल बना दिए ।" उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे बिल टेलीफोन बूथवाला ही बना रहा हो। "बहुत बिल बना दिया"
टेलीफोन बूथ वाले ने फिर अपनी राम कहानी सुना दी।"जानते हैं चाचा जी पहले यहां वी.सी.पी, वी.सी. आर का बिजनेस करते थे सलाह अचानक से डीवीडी सीडी आ गया हम इसका बिजनेस शुरू किया देखते देखते 5 -5 रूप किराए में सी. डी कैसेट मिलने लगा। सब घर घर में डी.वी.. डी खरीद लिए । सुनने में आया है कि फिलहाल जो मोबाइल अमीर जादो के हाथ में आया है अब यह भी कुछ समय बाद हाथ हाथ में आ जाएगा तो हमको मोबाइल का बिजनेस करने के लिए पैसा इकट्ठा करना पड़ेगा । और फिर आप लोग बात भी कर लेते हैं पैसा नहीं देना चाहते हैं....।
मिथिलेश्वर चाचा ने बीच में ही बात काट कर अच्छा बहुत बात हो गया । 50 रूपये निकाल कर देते हुए निकल गए।
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करीब दो महीने बीत गए थे और फिर से एक बार कॉलोनी में एक डर पैदा हो गया था ठीक उसी तरह जैसे दसवीं के मैथ के एग्जाम के टाइम पर पैदा हुआ था। दसवीं के रिजल्ट आने वाले थे। डेट की भी घोषणा हो गई। ठीक रिजल्ट निकालने के एक दिन पहले पूरी कॉलोनी में जब डर के मारे ईश्वर के चरणों पर गिरी हुई थी उन्हें मना रही थी कि ईश्वर किसी तरफ नैया पार लगा देना। उस दिन भी श्याम अपने क्रिकेट खेलने में लगा हुआ था। क्योंकि अभी श्याम को क्रिकेट खेलने की पूरी छूट थी । एक तो वजह यह है कि अभी रिजल्ट नहीं निकले थे दूसरी यह थी कि मिथिलेश्वर चाचा गांव निकल गए थे। जब दोनों तरफ से छूट हो तो आखिर उसका फायदा कौन नहीं उठाएगा फिर इस फायदे का कोई नुक्सान भी तो नहीं था। फायदा खासकर उसके शरीर को तो हो ही रहा था।
रिज़ल्ट निकलने के ठीक तीन दिन पहले मिथिलेश्वर चाचा ने एक रात सोते हुए अपनी पत्नी अर्थात चाची अनीता देवी से कहा, "भाई का फोन आया है। एक-दो दिन के अंदर गांव निकलना होगा। खेत बिक रहा है। "
"क्या करेंगे इतना खेत लिखवा कर।"
"जमीन तो अचल संपत्ति होती है जब भी जाएगी कुछ दे कर ही जाएगी तुम क्यों घबराती हो इतना।"
"दुनिया गांव छोड़कर शहर की तरफ जा रही है आप है कि गांव में खेत लिखवा कर उधर जाने की सोच रहे हैं।"
"चिंता मत करो एक वक्त ऐसा भी आएगा कि लोग शहर छोड़ छोड़ कर गांव की तरफ जायेगे।"
खैर यह कोई पहली बार नहीं था इसके पहले भी इसी तरह चले जाते थे और खेत लिखवा कर वापस आ जाते थे।
सही मायने में मिथिलेश्वर का चाचा का अपना एक गणित था और उसी गणित से वह चल रहे थे। जाते जाते मिथिलेश्वर चाचा श्याम से यह कह कर गए कि दो दिन बाद रिजल्ट आने वाला है फोन पर ही बता देना कि क्या हुआ है।
और फिर मिथिलेश्वर चाचा ने अपनी ट्रेन पकड़ ली। चाचा रिजर्वेशन भी नहीं करवाते थे। कंजूसी इस हद तक करते थे कि बिना रिजर्वेशन के ही जनरल डिब्बे में ठूसम ठूस में बैठकर भी चले जाते थे। सिर्फ कंजूसी यहीं तक नहीं करते थे वह और भी घर में कई सारी चीज़ों में कंजूसी करते थे जैसे क्रीम,पाउडर जैसी सिंगार के सामान के लिए चाची को रोक टोक करना । कपड़े और साड़ी जल्दी खरीदने नहीं देना इसके लिए हमेशा किच - किच करना। खेत लिखने के चक्कर में मिथिलेश्वर चाचा के रहन सहन में इतना बदलाव आ गया था कि मत पूछिए उनके कपड़े कई कई दिनों तक मैले ही रहते थे, लूंगी से लेकर बनियान तक से पसीने की गंध आती रहती थी तिस पर उन्हें एसिडिटी की बीमारी भी लग गई थी जहां कहीं भी बैठते थे हल्का चूतड़ उठा गैस छोड़ देते थे । यहां तक कि घर के तकिए में तेल और मैल से कीचड़ जम गए थे। बिस्तर की चादर तक भी मैंली -कुचेली हीं रहती दरअसल तेल, साबुन, शैंपू हर छोटी- छोटी चीजों में बचत करने लगे थे। क्योंकि ऊपरी कमाई के साथ-साथ तनख्वाह के भी कुछ पैसे खेत लिखवाने में लगा देते थे। बस दो चीजों का ध्यान रखते थे एक तो बच्चों की पढ़ाई और दूसरा उनके खानपान। बाकी सब कुछ उन्हें मोह माया ही लगता था।
इस वजह से वह हर दो महीने में छुट्टी लेकर गांव चले जाते थे कोलियरी में छुट्टी के लिए कोई अर्जी या दरख्वास्त नहीं देनी पड़ती थी बस हाजिरी बाबू को बोल दो और उसे हाजरी बनाने के सौ रूपये दे दो।
इस तरह के रवैया से कुछ चाची भी कॉलोनी में बदनाम हो गई थी कि यह साफ सुथरा घर को नहीं रखती है और ना ही चाचा के कपड़ों को साफ करती है ढंग से।
खैर वह इस बार भी जनरल डिब्बे में ठूसम ठूस में बैठकर गांव पहुंच गए थे।
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अजीब बिडंबना थी। कोई बेटे को विदेश भेजने के लिए खेत बेच रहा था। शहर के लोग गांव में खेत खरीद रहे थे और गांव के लोग खेत बेचकर शहर और विदेश को जा रहे थे। सच भी था जब मिथिलेश्वर चाचा ने खेत खरीदा था तो किसी न किसी किसान ने उसे किसी मजबूरी में ही बेचा था किसी ने अपनी बेटी की शादी के लिए बेच दिया, तो किसी ने अपने बेटे की पढ़ाई के लिए बेच दिया, किसी ने इलाज के लिए बेच दिया, किसी ने बेटे को विदेश भेजने के लिए बेच दिया।
जिस वक्त खेती की नपाई हो रही थी उसी वक्त एक लड़का भागा-भागा खेतों की तरफ आता है। और बड़े उत्साह से कहता है, श्यामलाल का फोन आया है खुशखबरी है श्यामलाल फर्स्ट डिवीजन पास हो गया है मगर साथ ही दुख खबरी है नंदलाल चौथी बार फेल हो गया है। मिथिलेश्वर चाचा खुश कम दुखी ज्यादा हो गए । ऐसा लगा जैसे किसी ने एकदम उनको कॉकटेल पिला दिया। मिथिलेश्वर चाचा का चेहरा देख सामने खड़े उनके भाई कालीचरण यह सोचने लगे मेरा बेटा भी गधा का गधा है या तो खुशखबरी देता या तो दुख खबरी। आप माहौल ऐसा बन गया कि खेतों में आसपास के लोग भी चाचा को ना बधाई दे पा रहे थे और ना ही उनके साथ दुख जता पा रहे थे आखिर सुख और दुख एक साथ आया था जिसके लिए उसे क्या कहते। दुख सुख के ऊपर हावी हो गया था। खैर जैसे मिथिलेश्वर चाचा ने भी मन ही मन सोच लिया की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती कोई ऊपर तो कोई नीचे।
सही मायने में उस दिन श्यामलाल भी अपने पिताजी को नंदलाल के बारे में नहीं बताना चाहता था। उस दिन सुबह हम सब स्कूल चले गए थे और स्कूल में लगे बड़े से बोर्ड में लिस्ट को देखने लगे थे सभी लोग बोर्ड में अपना अपना नाम खोज रहे थे और श्याम का नाम भी फर्स्ट डिवीजन में था और नंदलाल का फेल में । मैं भी सेकेंड डिवीजन में पास हो गया था। लिस्ट देखने के बाद श्यामलाल सबसे पहले पीसीओ से अपने पिताजी को अर्थात गांव में फोन लगाया। फोन पर कालीचरण का बेटा आया था। श्यामलाल ने बस अपने बारे में बताया था कि वह पास हो गया है पर कालीचरण के बेटे ने नंदलाल के भी बारे पूछ लिया तो उन्हें आखिरकार मजबूरी में उनके बारे में भी बताना पड़ा। सही मायने में श्याम नहीं चाहता था कि पिताजी को ऐसी खबर देकर गांव में दुख पहुंचाया जाए जिससे उनका मन खराब हो जाएगा।
खैर गांव तो गांव कॉलोनी में भी अनीता चाची को खबर मिली थी वह भी बड़े बेटे को लेकर ही निराश हो गई थी खुशी तो जैसे उनके भी चेहरे पर नहीं दिखी थी।
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उस दिन तो कॉलोनी में खूब तहलका मचा था जिस दिन सबके हाथों में मार्कशीट मिली थी। उस दिन कुछ लड़के खुशी-खुशी कॉलोनी में आए थे और कुछ-कुछ मुंह लटकाए हुए वापस आए थे। नंदलाल गणित विषय में कंपार्टमेंटल हो चुका था वही श्याम गणित में लेटर मार्क्स लेकर पास हुआ था। उस दिन नंदलाल की कोई भी चर्चा नहीं हुई थी लेकिन श्याम की चर्चा पूरी कॉलोनी में होने शुरू हो गई थी। उस दिन लोग बाग कॉलोनी में यह कहने लगे थे कि श्याम तो आगे चलकर आई.पी .एस या आई. ए .एस बनेगा। और भी कई तरह का ख्वाबी पुलाव पकाने लग गए थे। कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा था कि आखिर श्याम क्या करना चाहता है?
हुआ भी कुछ ऐसा ही उन दिनों ऐसा था कि फर्स्ट डिवीजन वालों को साइंस मिलता था और उससे नीचे वालों को कॉमर्स और उससे भी नीचे वालों को आर्ट्स पढ़ना पड़ता था। तो मैं तीसरे पायदान में था हां यह बात सच है कि मैं सेकंड डिवीजन था लेकिन मेरे साइंस सब्जेक्ट में उस तरह के नंबर नहीं थे कि मैं साइंस लेकर पढ़ता। उन दिनों हमारी कॉलोनी तो क्या हमारे पूरे शहर में जो साइंस लेकर पढ़ता था उसकी खूब इज्जत होती थी और लोग मानते थे कि बहुत होशियार है इसका मुख्य कारण यही था कि हमारे शहर में जितने भी डॉक्टर थे वह इतना पैसा कमाते थे कि लूटते थे मैं नहीं जानता उन्हें खासकर देखकर लोगों को लगता था कि साइंस विषय ही दुनिया का सबसे बड़ा विषय है बाकी सब गड़बड़ घोटाला है। इस तरह हम तीन भागों में बंट गए थे प्रथम द्वितीय और तृतीय। साइंस कॉमर्स आर्ट्स वाले लड़कों से फर्स्ट सेकंड और थर्ड डिवीजन का पता आराम से लगा लेते थे।
उन दिनों कॉलेज में एडमिशन के लिए फॉर्म मिल रहे हैं थे और लंबी-लंबी लाइनें लगी थी उसी लाइन में मैं श्याम भी लगा था। जब मैं फॉर्म लेकर निकला और मैं श्याम के पास आया और श्याम से यह कहा कि "मुझे तो आर्ट्स ही मिलेगा मैं तो सेकेंड डिवीजन ही पास हुआ हूं साइंस लायक तो मेरे नंबर है ही नहीं।"
"लेकिन मैं तो आर्ट्स लेकर पढ़ सकता हूं अगर तुम साइंस नहीं ले सकते।"
हां यह सच था कि फर्स्ट डिवीजन वाले को पूरी छूट थी कि आर्ट्स, साइंस कुछ भी लेकर पढ़ सकता था पर थर्ड ,सेकंड डिवीजन वाले को यह छूट नहीं थी।
मैं यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गया था और उस दिन वाकी मुझे लगा था कि श्याम मेरा लंगोटिया यार है।
"नहीं दोस्त तुम अपना कैरियर हम सब की वजह से खराब मत करो तुम आगे गणित में ऑनर्स करो तुम गणित के पंडित हो"
मैंने और भी उसे बहुत कुछ समझा कर साइंस लेने के लिए कह दिया था मैंने उसे खूब कहा एकदम भी आर्ट्स मत पढ़ना। पर क्या यह वाकई सच था कि आर्ट्स में कोई कैरियर नहीं था या हमारे शहर में ऐसी गलत अफवाह बहुत जोर से फैली हुई थी। जिसे हम सच मान बैठे थे।
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