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गवाक्ष - 22

गवाक्ष

22==

उनका एकांत का समय पूरा हो चुका था, बाहर दर्शन की भीड़ जमा हो चुकी थी, द्वार पर धीमे-धीमे खटखटाहट शुरू हो चुकी थी। उन्होंने मेरी ओर याचना भरी दृष्टि सेदेखा, मेरी योजना वहाँ भी असफ़ल हो चुकी थी। मैंने उनकेदेश में उनके घर जाने का निर्णय लिया ।
" उनकी पत्नी को ले जाने का विचार आया अथवा उनके पुत्र को”निधी की एकाग्रता भंग हुई ।

"नहीं, किसीको नहीं, बस उस व्यक्ति के परिवार से मिलने का विचार आया जो अपने परिवार के प्रति न तो कृतज्ञ था, न ही ईमानदार !यहाँ नाटकबाज़ी कर रहा था । बहुत पीड़ा होती है ऐसे लोगों को देखकर जिनकी कथनी कुछ होती करनी कुछ और --!!"
"इसका नाम तो सत्यानाशी होना चाहिए था ---"कॉस्मॉस बुरा सा मुह बनाकर बोला | निधि उसका चेहरा देखकर हँस पड़ी |

"तो क्या गए ?"
" बिलकुल ! मेरे लिए उनके घर पहुँचने में कोई समस्या कहाँ थी ?"
इस दुनिया ने बहुत कुछ अच्छा सिखाया व दिखाया था। कितने अच्छे लोगों से मिलकर उनके विचार जानने, पृथ्वी को समझने में कॉस्मॉस ने अपनी दंड की पीड़ा भुला दी थी। व सोचता, क्या होगा अधिक से अधिक उसका दंड बढ़ता रहेगा । पृथ्वी के निवासियों केसाथ निकटता व अंतरंगता का भाव उसे उद्वेलित करता। संवेदनाएं उभरने लगतीं, पृथ्वी का जीवन छोटा सा है किन्तु अच्छा है, सुन्दर है, आनंदमय है, उसे प्रतीत होता। लेकिन उसके समक्ष जो कड़वी सच्चाईयाँ खुली थीं, उन्होंने उसे असहज भी बहुत किया था ।
“धर्म के इस ठेकेदार के परिवार का दृश्य तो और भी चौकाने वाला था। संत महाराज भक्तगणों में लीन ! पत्नी अपने सौंदर्य को निखारने और बेहिसाब पैसे उड़ाने मेंव्यस्त। मासूम, निरीह बच्चा बेचारा नौकरों के ऊपर निर्भर ! संत महोदय की पत्नी आभूषणों व सुन्दर वस्त्रोंसे सज्जित हो सुबह -सवेरे न जाने कहाँ निकल जातीं, दोपहर में आतीं, संध्या के समय ताश खेलने और मित्र-मंडली में गपशप करने में व्यस्त रहतीं। बच्चा आया के आँचल में पल रहा था। मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि कोई माँ अपने बच्चे के प्रति इतनी असंवेदनशील भी हो सकती है?सब अपने स्वार्थ में उलझे हुए, बच्चा बेचारा एकाकी आया के बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त रहता । प्रश्न यह था कि किसीको भी किसी के प्रति संवेदना क्यों नहीं थी?इसका उत्तर मुझे तो यही समझ में आया कि दुनिया केवल स्वार्थ से भरी हुई है । संत के रूप में धोखाधड़ी तथा व्यभिचार एवं पाप-पुण्य के नाम पर ईश्वर के भय का प्रसार ! जब कण -कण में भगवान की बात की जाती है तो ईश्वर दुनिया के समस्त प्राणियों में भी विद्यमान हुआ न ? फिर किससे और कौनसा भय ? यह केवल अपने अंतर का भय है जिससे मनुष्य भयभीत होता है | मनुष्य को मस्तिष्क प्रदान किया गया है, चिंतन करने की शक्तिप्रदान की गई है, वह उसका उपयोग क्यों नहीं करता?”
" माता-पिता यदि परिवार को सँभालकर नहीं रख सकते तो बच्चे को जन्म देने की क्या आवश्यकता है ?"

निधि ने उस कहानी को सुनकर एक लंबी श्वांस ली, अपना मंतव्य उगला। वह एक स्त्री थी, किसी शिशु को जन्म नहीं दे पाई थी किन्तु माँ का कोमल मन था उसके पास ! उसकी संवेदना को भली प्रकार समझ सकती थी ।
" मैंने भी यही सोचा था । "कॉस्मॉस ने पीड़ित स्वर में कहा।
"इस भौतिक संसार के प्राणी को अपनी मानसिक, शारीरिक सभी प्रकार की आवश्यकताओं का समाधान करना होता है। सहज जीवन के लिए प्राकृतिक संवेदनाओं से जुड़े रहना आवश्यक है। समाज व परिवार में हम केवल अपने लिए ही नहीं जीते। परिवार, समाज, देश के पश्चात विश्व की संवेदना से जुड़ना मानवता है। ये संवेदनाएं परिवार की इकाई से प्रारंभ होती हैं । प्रश्न है -- जब हम अपने परिवार को ही अपना स्नेह, प्रेम नहीं दे पाते, उसके प्रति उत्तरदायित्व नहीं समझ पाते तब विश्व के भक्तों के प्रति हमारा प्रेम, स्नेह व आस्था किस प्रकार हो सकती है? आश्चर्यजनक ! वे संत कहलाने वाले महानुभाव अपनी आवश्यकताएं मस्ती से पूर्ण करते, पत्नीअपने मन मुताबिक अपनी इच्छाएं, आवश्यकताएं पूर्णकरतीं लेकिन जिसे जन्म दिया था, वह बच्चा?- !?"
मनुष्य के मानसिक विकास के पश्चात समाज का संगठन हुआ, उसके पश्चात परिवार का अस्तित्व सामनेआया, संयुक्त परिवार बने। परिवार के सदस्य सम्मान के लिए एक-दूसरों पर जान छिड़कते । शनैः शनैः परिवारों का विघटन भी हुआ, वृद्धावस्था में माता-पिता बोझ बन गए, संतानों में उनका बंटवारा होने लगा।
परिवार केवल पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री तक ही सीमित रह गए। किन्तु जब संतान व माता-पिता, पति-पत्नी के संबंध भी केवल स्वार्थ तक सीमित रह गए तब परिवार की
परिभाषा?? प्रश्न यह भी प्रत्यक्ष हुआ --

समाज में परिवार की आवश्यकता क्यों, क्या दुनिया में सम्मान प्राप्त करने के लिए ?क्या इसलिए कि पत्नी व बच्चे के साथ किसी भी परिवार में प्रवेश लिया जा सके और किसी के भी साथ कुछ भी खेल खेला जा सके? इस दुनिया में विवाहित लोगों के वर्ग को अधिक महत्ता प्रदान की जाती है,
वैवाहिक कर्तव्य पूरे करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इसमें परिवार के सभी सदस्यों को स्वार्थ छोड़कर अन्य सदस्यों के लिए त्याग करना पड़ता है । अविवाहित
परिवार के कर्तव्यों से बेशक बचा रह सकता है किन्तु उसको यदा-कदा अनेक कारणों से शर्मिंदा भी होना पड़ सकता है । समाज विवाह का तमगा लगाना आवश्यक समझता है ! किन्तु यदि रिश्तों में इस प्रकार का छिपाव व असंयमितता हो तब पवित्र संस्था अर्थहीन हुई, इसका कोई महत्व ही नहीं रहा !

" मुझे पीड़ा हुई क्या केवल अपने स्वार्थ के लिए बच्चे को जन्म दिया गया था? दुनिया से जाने के पश्चात अपना कोई वज़ूद बनाए रखने, नाम लेने वाला चाहिए क्या इसलिए? मैंने उस परिवार को बहुत निकट से देखा और बहुत कुंठित हुआ । बच्चा बहुत प्यारा व योग्य था केवल उसे मार्ग-निर्देशन की आवश्यकता थी । वह बात करते समय बार बार 'बाई गॉड ' कहता और अपनी ग्रीवा के निचले भाग को छूता । मैं उससे पार्क में मिला था, मेरी उससे बहुत अच्छी मित्रता हो गई थी । उसीसे मैंने 'बाईगॉड ' कहना सीखा, हम खूब देर तक खेलते और बातें करते रहे और बहुत देर तक खिलखिलाकर हँसते रहे थे। मैंने महसूस किया न जाने वह कितने दिनों पश्चात इतना खुलकर हँसा होगा। "

क्रमश..

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