उजाले की ओर - 4 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 4

उजाले की ओर--4

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आ. स्नेही व प्रिय मित्रों

नमस्कार

हम मनुष्य हैं ,एक समाज में रहने वाले वे चिन्तनशील प्राणी जिनको ईश्वर ने न जाने कितने-कितने शुभाशीषों से नवाज़ा है ! इस विशाल विश्व में न जाने कितने समाज हैं जिनकी अपनी-अपनी परंपराएँ,रीति-रिवाज़,बोलियाँ,वे श-भूषा हैं किन्तु फिर भी एक चीज़ ऎसी है जिससे सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं और वह है संवेदना ! कभी-कभी हम न एक-दूसरे से परिचित होते हैं ,न ही हमने एक–दूसरे को कभी देखा होता है किन्तु ऐसा लगता है कि हम एक-दूसरे से वर्षों से परिचित हैं|यही संवेदनशीलता हमें मनुष्य बनाती है |

वर्षों पुरानी घटना है ----मैं अपने बच्चों को लेकर रेल में सफ़र कर रही थी |मेरे बच्चे क्रमश: ढाई वर्ष व छह माह के थे |दिल्ली से मुज़फ्फरनगर जाने के लिए बीच में मुरादाबाद स्टेशन आता है |वहाँ रेल कुछ धीमी हुई तो मैंने सामने वाली बर्थ पर बैठी माँ जी को अपनी बच्ची का ध्यान रखने की प्रार्थना की |वे माला जप रही थीं और बातों ही बातों में उन्होंने मुझे यह बता दिया था कि वे मेरे परिवार के सभी सदस्यों को जानती हैं क्योंकि वे भी मुज़फ्फरनगर की ही थीं |

मैं ‘वॉशरूम’ जाना चाहती थी अत: दोनों बच्चों को उनकी निगरानी में छोड़कर मैं ‘वॉशरूम’चली गई |अभी मैं वापिस आ नहीं पाई थी कि रेल धीमी होकर पटरियाँ बदलने लगी |मैं परेशान हो उठी किन्तु शीघ्रता करने पर भी मुझे कुछ देरी हो ही गई थी,रेल पटरी

बदल चुकी थी |मैं घबराहट में भर उठी और लगभग भागती हुई बच्चों के पास पहुंची |देखा, एक अजनबी की गोदी में मेरी बच्ची थी जिसने उसे अपनी बाहों में कसकर समेट रखा था| वह एक लंबा-चौड़ा व्यक्तित्व था जो मुझे देखकर सहम गया था |उसने साड़ी पहन रखी थी, सामने वाली माँ जी उसे खा जाने वाली नज़रों से देख रही थीं |मेरे पहुँचते ही वे बडबडाने लगीं;

’पता नहीं किस जात का है?किस बिरादरी का है ? बच्ची को उठा लिया’

वे बड़बड़ कर रही थीं और मैं यह सोचकर उद्विग्न थी कि उन्होंने मेरी बच्ची को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया ?उस अजनबी मैंने पहले डिब्बे में नहीं देखा था,कहाँ से आ गया था?मेरे लिए तो वह ईश्वर बन गया था ,वह यदि बच्ची को अपनी गोदी में न समेटता तो न जाने मेरी बच्ची को कहाँ चोट लग जाती !

बच्ची को ज्यों ही मैंने लेने के लिए हाथ बढाया ,उसने सहमते हुए पूछा;

“क्या थोड़ी देर मैं इसे अपने पास रखूँ ?”

मेरे हामी भरने के बाद उसके मुख पर एक सलोनी मुस्कुराहट पसर गई और माँ जी का मुझे घूरना शुरू हुआ |मैं अपने बेटे को सहलाने लगी जो रेल के पटरी बदलने से घबरा गया था |वह अजनबी वास्तव में एक किन्नर था जो रेल के धीमे होने पर डिब्बे में चढ़ा था|

वह बच्ची को लेकर खिड़की के पास खड़ा हो गया था और अपनी व्यथा-कथा मुझे सुनाने लगा था | माँ जी मुझे लगातार घूरती हुई अपने हाथ की माला फेरते हुए राम-राम करती जा रही थीं | मुझसे बात करते हुए वह रो पड़ा था ,मेरी बच्ची उसकी गोदी में न जाने कौनसा अपनापन पा रही थी कि हाथ-पैर मारते हुए मुस्कुरा रही थी ,किलकारियाँ भर रही थी और वह उस गोल-मटोल किलकारी भरती बच्ची पर निहाल हो रहा था |आखिर दूसरा स्टेशन आ गया और गाड़ी धीमी हो गई |बच्ची को एक बार प्यार करके उसने मेरी गोदी में दे दिया और यह कहते हुए चलती रेल से उतर पड़ा ;

“आप ज़रा खिड़की पर ही रहना”

मैं कुछ समझ न पाई किन्तु खिड़की पर खड़ी हो गई,मेरा बेटा मेरा पल्लू पकड़े मेरे साथ ही खड़ा था |मैं उसे देख पा रही थी,वह भागता हुआ जाकर एक चाय के ठेले के पास रूक गया था |पल भर बाद वह मुड़ा और हमारी ओर भागता आया |रेल तब तक सीटी दे चुकी थी और रेंगने लगी थी |उसने खिड़की के पास आकर कहा ;

”मुन्ना !हाथ दे ” वह कुछ नहीं समझा तो खिड़की में से हाथ लंबा करके मेरे बेटे के हाथ में ‘पार्ले ग्लूकोज़’ बिस्किट का पैकेट पकड़ा दिया |उन दिनों खिड़की खुली हुई होती थीं |मैं व मेरा बेटा उसे देखते ही रह गए |गाड़ी तेज़ चलने लगी थी और अजनबी की आँखों से आँसुओं की धार बह रही थी |

इस घटना को लगभग पैंतालीस साल हो गए हैं|मैं आज तक न उसे , न ही उन माँ जी को भुला नहीं पाई हूँ| कोई इतना अपना और कोई इतना बेख़बर कैसे हो जाता है?

किसी का साथ निभाना बहुत ज़रूरी है ,

किसीके काम आ जाना बहुत ज़रूरी है |

प्रभु तो बसे हैं मन में ही आपके ,

किसीका दर्द समझना बहुत ज़रूरी है ||

आप सबकी मित्र

प्रणव भारती