सोलहवाँ साल (17) ramgopal bhavuk द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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सोलहवाँ साल (17)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग सत्रह

एक दिन मैं कमरे में पढ़ रही थी कि पापा ने आकर मुझ से पूछा-‘ सुना है तुम्हारे कॉलेज में छात्रसंघ के चुनाव आ गये हैं और तुमने चुनाव लड़ने का मन बना लिया है।’

‘ पापा आप से यह किसने भिड़ा दी? मैं और चुनाव! गाँव की बेटी हूँ और अपनी औकात जानती हूँ। वहाँ लड़के- लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं। लड़को से लड़कियाँ बहुत कम है। सारी लड़िकयों के बोट मिल भी जायें तो भी जीत नहीं पाउंगी।

‘ बेटी, जीत-हार की बात नहीं है। यदि चुनाव लड़ना ही है तो फार्म डाल दो। प्रचार के लिए परचे मैं छपवा दूंगा।

उनकी यह बात सुनकर मैं चौंकीं ,बात का कोई उत्तर न देकर मैं अपने कमरे मैं लौट गई। कॉलेज की सहेलियाँ मुझे चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित कर ही रहीं थीं। पापा की ओर से हरी झंड़ी मिल गई। यह सोचकर मैंने अध्यक्ष पद के लिए फार्म डाल दिया।

घर आकर पापा से कहा-‘ मैं अध्यक्ष पद के लिए फार्म डाल आई हूँ।’

यह सुनकर वे बोले-‘अरे! मैंने तो फार्म डालने की बात मजाक में कही थी।’

मैंने उत्तर दिया-‘ऐसी बात है तो मैं फार्म खींच लूंगी।’

‘अब फार्म डाल ही दिया है तो खींचना नहीं,परचे मैं छपवा दूंगा। चुनाव में खर्च अधिक करने के हम पक्ष में नहीं हैं। चुनाव का खेल एक खेल की तरह खेलो। ध्यान रहे किसी से लड़ाई-झगड़ा न हो।’

मैने उनकी बात गाँठ बाँध ली।

नेता बनने की पहली सीढ़ी है मतदाताओं के दिलो- दिमाग में अपनी बात उतारने की क्षमता अपने भाषण में पैदा करना। पापा परचे छपवा लाये। चुनाव के दो दिन शेष रह गये। मैं परचे लेकर कॉलेज गई। परचे बाँटने लगी और विश्राम के समय में भवभूति सभागार में पहुँच गई। वहाँ छात्र -छात्राओं की भीड़ देखकर मैं मंच पर जा पहुँची और एकत्रित भीड़ को सम्बोधित करने लगी-‘मेरे प्यारे भाइयो और बहिनो, आपके कॉलेज में चुनाव प्रचार के लिए बड़े-बड़े पोस्टर लगे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे यह छात्र संघ का चुनाव न होकर लोकसभा अथवा विधान सभा का चुनाव हो। मैं पूछती हूँ इन चुनावों में इतने खर्च की क्या आवश्यकता है? अधिक खर्च प्रत्यासियों को सन्देह के घेरे में खड़ा कर रहा है।

साथियो, मैं तो गाँव की बेटी हूँ। हमारा कॉलेज मेरे गाँव से तेरह किलोमीटर की दूरी पर है। आप देख रहे हैं मैं गाँव से बस से कॉलेज आ रही हूँ। मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं एक स्कूटी खरीद सकूँ।

अचानक सभागार में से आवाज सुन पड़ी-‘ अरे! स्कूटी हम ले देंगे। आप चुनाव से पीछे हट जायें।’

‘मित्रो,मैं यहाँ खड़े होकर स्कूटी नहीं मांग रही हूँ। मैं मांग रही हूँ आपका मत।’

भीड़ में से किसी की आवाज पुनः सुन पड़ी-‘मत तो आपका हमें चाहिए।’

‘आप मुझे खरीदना चाहते हैं। याद रखें, यहाँ के छात्र-छात्रायें गरीब अवश्य हैं किन्तु बिकाऊ नहीं हैं। आज देश में बिकाऊ संस्कृति पनप रही है। देश के अधिकांश नेता अपना घर भरने में लगे हैं। आप इस आन्दोलन में मेरा साथ देना चाहते हैं तो मैं हाथ उठाकर कहूँगी, आप भी दोहराइएः

-हम.....बिकेंगे... नहीं.....।’

सभागार में अनेक हाथ उठे और सुनाई पड़ा-‘हम.....बिकेंगे... नहीं.....।’

‘बस बस मुझे आप सब पर विश्वास हो गया है। मेरी जीत आप सब गरीब भाई -बहन की जीत होगी। मेरे पास ऐसी ही भावना के प्रचार के नाम पर थोड़े से परचे हैं। इन्हें मैं आप तक पहुँचाने का प्रयास करूँगी।

मैं अपनी बात समाप्त करने के पहले एक बार फिर कहना चाहती हूँ, आप अपना मत जिसे देंगे, बहुत सोच- समझकर देंगे। यदि आपने मुझे अपना विश्वास दिया तो मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ, आप सब की सेवा पूर्ण ईमानदारी से करूँगी। इसी विश्वास के साथ वन्दे मातरम्.....।’

सभागार में शब्द गूंजे-वन्दे मातरम्.....।

निश्चित तिथि को मतदान हुआ। मैं भारी मतों से विजयी हुई। जीत का उल्लास लिए मैं घर पहुँची। पापा जी दरवाजे पर खड़े मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मेरा खिला हुआ चेहरा देखकर वे परिणाम समझते हुए बोले-‘आश्चर्य तुम जीत कैसे गईं! किन्तु आपके कॉलेज के छात्र-छात्राओं ने उचित ही निर्णय लिया होगा। अब तो तुम्हारा दायित्व बढ़ गया है। बी.ए. की परीक्षा में तुम प्रथम श्रेणी लाकर ही रहोगी। मैं तो तभी तुम्हारी जीत को सार्थक मानूंगा।’

मुझे उनकी असमय उपदेशात्मक भाषा बहुत खली थी किन्तु छात्र जीवन की सार्थकता अच्छे परिणाम में ही है। यही सोचकर मैं सिर नीचा किये खड़ी रही।

हुआ दर असल ऐसा कि मैं अध्यक्ष चुनी गई तो मेरा पूरा पैनल ही चुना हुआ समझा गया। मेरे पैनल मैं सचिव पद के लिए विपुल का नाम प्रस्तावित किया गया था।

विपुल यानी कि मेरी दूर की मौसी का लड़का। इसीलिये मुझे उस पर विश्वास करना पड़ा। विपुल यानि कि वह भोला सा किशोर उम्र का लड़का जो खादी के वादामी रंग का कुरता एक घिसी सी जीन्स के साथ पहनता और अपने जैसे ही दो-चार फक्कड दोस्तों के साथ आत- जाते कोर्स की किताबों पर बहस किया करता था। विपुल पर मुझे पूरा विश्वास था और जब मैंने पापाजी की बात मानकर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाया तो विपुल को यह अधिकार सौप दिया कि वह मेरी तरफ से कॉलेज के सारे आयोजन सँभाले।

और मैं उड़ान में यहीं गच्चा खा गई। उस भोले से किशोर ने कॉलेज की खिलाड़ी टीमों के भेजने के खर्च से लेकर वार्षिक स्नेह सम्मेलन तक के खर्च में से चुपचाप गहरा हाथ मारा। मुझे तो केवल इतना याद रहा था कि मैंने ढेर सारे बिलों पर हस्ताक्षर किये और भूल गई लेकिन आठ दिन के भीतर महाविद्यालय के सभी छात्र थू थू कर रहे थे। कहा यह जा रहा था कि मैंने छात्र संध के बजट में से हजारो रुपये डकार लिये हैं और मैं अपनी गलतियों पर शर्मिन्दा सी होकर यहाँ वहाँ मुँह छिपाती हफतों पापा-मम्मी से कुछ भी बहाना बनाकर गाँव में ही बनी रही। जिससे मेरी पढ़ाई चौपट हो गई।

कॉलेज की राजनीति ने मेरा पूरा भविष्य ही बरबाद कर दिया। चुनाव के कारण मुझे पचपन प्रतिसत यानी द्वितीय श्रेणी में ही संतोष करना पड़ा।

पापा- मम्मी मुझे आगे पढ़ने के लिये प्रेरित कर ही रहे थे, किन्तु मेरे कम अंको के कारण मैंने कहीं एड़मीशन नहीं लिया। कॉलेज में प्रोफेसर बनने का सपना चूर चूर हो गया। मैं जीवन यापन के रास्ते खोजने लगी। गाँव के उसी प्रायवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली जिससे मैंने हाई स्कूल की परीक्षा उतीर्ण की थी। उड़ने का प्रयास ध्वस्त हो गया। मैंने इस सब के बावजूद हार नहीं मानी। प्रयवेट हिन्दी साहित्य में एम. ए. करने का निश्चय कर डाला।

मेरे घर बैठकर रहने से पापा-मम्मी को मेरे ब्याह की चिन्ता सताने लगी। विपुल ने पूर्व की तरह घर में आना-जाना बन्द नहीं किया। मैं उसे जब देखती, उसकी सारी करतूतें याद आ जातीं। अब की बार तो वह मेरे लिए अपने एक दोस्त के सम्बन्ध की चर्चा मम्मी से कर रहा था। उसके जाते ही मैंने मम्मी से कह दिया कि मुझे विपुल की बातों का विल्कुल विश्वास नहीं है। मैं उसके अनुसार व्याह नहीं करने बाली।’

इन्हीं दिनों पता चला, मामा जी के सहयोग से ग्वालियर से एक परिवार मुझे देखने के लिए आ रहा है। उनका लड़का सेना में है। उसे अवकाश मिलेगा उसी समय उनके घर के लोग ब्याह करना चाहते हैं।

शुरू-शुरू में सेना की नौकरी के कारण पापा-मम्मी ने उसका विरोध किया। मैंने मम्मी को संकोच त्यागकर समझाया-‘‘मैं, ऐसे ही किसी व्यक्तित्व के साथ जीवन व्यतीत करना चाहती हूँ जो देश की जी जान से सेवा कर रहा हो। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है।’

पपा बोले-‘सैनिक के जीवन का कोई स्थायित्व नहीं है। ’

मम्मी बोली-‘इन लोगों के जीवन का क्या भरोसा,मुझे यह रिस्त मन्जूर नहीं है।’

मैंने तो साफ- साफ कह दिया, विवाह करना ही तो मुझे यही रिस्ता मंजूर है।

दूसरे दिन एक सुन्दर लड़की की कल्पना संजोए उनके माता-पिता मुझे देखने आये। घर के लोग उनकी आवभगत में लग गये। उनकी लड़की रानी, उनके साथ थी। वह अनायास घर में घुसी चली आई। .....और बिना सजे-सम्भरे मुझे उनके सामने लिवा ले गई। मुझे उनके सामने पहुँच कर प्रणाम करना पड़ा। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ बोलना भी नहीं पड़ा। रानी ने घोषणा कर दी ‘‘मेरी भाभी होंगी तो ये ही।’’

यह सुनकर मेरी ओर देखते हुए उनकी मम्मी बोली -‘‘लो अब हमें इसे क्या देखना है ? हो गया फैसला। हमारे घर में तो रानी बेटी का ही फैसला चलता है। अब हम चाहते हैं, सुगंधा की गोद भर दें ।’’

मम्मी पापा ने लड़का देखा न था। मम्मी बोली ‘‘जब लड़का छुट्टी में आयेगा उसी समय हम गोद भरा लेंगे।’’

लड़के की माँ बोली-‘‘ सुगंधा की माँ हमें आपकी बात स्वीकार है। हमारी तरफ से तो बात पक्की समझी जावे।’’

उसी भाषा में मम्मी ने उत्तर दिया-‘‘.... और हमारी ओर से भी।’’

घर में दो बजे तक उनका खाना हुआ, उसके वे लोग लौट गये।

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