कहानी समीक्षा
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नागरिक तमाशेबाज है। मदारी, सँपेरे, नीम -हकीम और सड़क किनारे होने वाले करतब-तमाशे देखने का उसका चस्का बचपन से ही है। वह मिस्टर न्यूज़मैन है। किसी को भी अपने पास बिठाकर उसे अखबारी खबरें सुनाना उसका पसंदीदा शगल है, क्योंकि उसका मानना है कि "आदमी ही आदमी को खींचता है"। राह चलते कोई भी मजबूर आदमी दिख जाए तो उसकी मदद करना नागरिक अपनी जिम्मेदारी समझता है। लेकिन नागरिकता की इस जिम्मेदारी को निभाते हुए वह एक बार पुलिसिया चपेट में आ जाता है। और यहीं से शुरू होती है उसकी शारीरिक, मानसिक और नैतिक त्राशदियों की वह श्रृंखला जिसे लेखक अनिल यादव ने अपनी पत्रकारिता वाली लेखन शैली को साहित्यिक मिजाज में ढालकर "नागरिक" नामक कहानी सरपट-सपाट तरीके से व्यक्त किया है।
अनिल यादव आज के दौर के उन गिने-चुने कहानीकारों में से हैं, जो जमीनी सच्चाई को अपनी रचनाओं में बिना किसी लाग-लपेट के लिख रहे हैं और उन्हें गंभीर पाठकों द्वारा पढ़ा भी जा रहा है। विगत दिनों ही आई उनकी कहानी "गौसेवक" को हंस कथा सम्मान हासिल हुआ। पूर्वोत्तर के अनुभवों पर लिखे गये उनके यात्रा -संस्मरण "वह भी कोई देस है महराज" को काफी सराहना मिली। पेशे से पत्रकार होने के नाते रोजाना जिस यथार्थ से वे दो-चार होते हैं, उसी अखबारी विवरण को उन्होंने यहाँ कहानी फॉर्म में ढाला है।
बलभद्र दास माखीजा देश का एक आम नागरिक है, जो एक छोटी-सी दुकान के सहारे अपनी गृहस्थी चला रहा है। अपने काम से संतुष्ट, "बस जिंदगी कट रही है" वाली शैली में दुकान से घर और घर से दुकान के चक्कर लगाते हुए देश के करोड़ों लोगों की तरह वह बिलकुल मामूली आदमी है। जैसा कि मामूली आदमी की लतें और हरकतें भी मामूली होती हैं, बलभद्र की भी एक मामूली लत है, जिसकी वजह से वह पुलिस के चँगुल में फंस जाता है। वह मामूली लत या हरकत है जिम्मेदार नागरिकता बोध।
एक रात दुकान से घर लौटते हुए सुनसान रास्ते में पुलिस की उस करतूत को वह देख लेता है जिसे नियंत्रित करने की शपथ लेकर ही कोई पुलिस वाला बनता है। फिर उसे फुसलाने और अपने पक्ष में करने की तमाम असफल कोशिशों के बाद पुलिस उसके लिए एक जाल बुनती है। अब जो आरोप पुलिस पर लगने चाहिए थे, वे बलभद्र पर लगते हैं। और इसी सिरे को पकड़कर अनिल यादव कहानी को बुनना शुरू करते हैं। एक सीधी-सी कहानी बुनावट की रेशे को इस कदर उलझाती- सुलझाती और कतरब्यौत करती है कि कई जगह बड़ी पेचीदा-सी हो जाती है। इसलिए कथासूत्रों को सुलझाव के साथ पकड़े रहने की जरूरत है।अगर कहानी की क्रोनोलॉजी को समझने में थोड़ी भी चूक हुई तो पाठक के उलझ जाने की पूरी संभावना है।
बलभद्र और पुलिस के अलावा इस कहानी में जो भी बाकी पात्र हैं वो सभी महिलाएं हैं। अब यहाँ बड़ी सावधानी से एक-एक नारी पात्र को समझना जरूरी है। बलभद्र की माँ, जोकि अपने बेटे के बारे में सोच भी नहीं सकती कि वह कुकर्मी हो सकता है। बलभद्र की बेटी, जिसका बलभद्र पर कुकर्म का आरोप लगते ही क्षणमात्र में उसके प्रति नजरिया बदल जाता है। बलभद्र की पत्नी, जोकि उसके तिरेपन दिन बाद जेल से लौटने पर आरती उतारती है। इसके अतिरिक्त अहिल्या और बलात्कार-पीड़िता के चरित्र-चित्रण में लेखक ने जो सूक्ष्म शिल्प कला अपनायी है उससे नारी के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों रूप उपस्थित हो जाते हैं। अहिल्या जिस तरह कुछ रुपयों के लिए खुद को पुलिस, वकील और जज-पुत्र के हाथों का खिलौना बना देती है, वह बड़ा ही घृणास्पद है। दूसरी तरफ दारोगा के दुष्कर्म की शिकार लड़की मुश्किल हालातों में भी चुनौतियों से जिस भांति लड़ती है, वह कहानी को "सत्यमेव जयते" का संदेश देने वाली मोरल स्टोरी बना देती है।
कहानी का शुरुआती बारह आना बड़ा उलझाऊ और तीव्र गति का है, शेष चार आना उससे भी तेज गति का, समस्या को जासूसी उपन्यास की तरह सुलझाने वाला तथा अखबारी समाचार की तरह किसी क्राइम के फॉलो अप की तरह है। लेखक अनिल यादव ने इस कहानी के फ़िल्म बन जाने की सारी संभावनाएं खोल दिया है। कहानी के भीतर फ्लैश-बैक की कई छोटी-छोटी कहानियाँ इस कदर उलझी हैं कि उनपर और काम किया जाना चाहिए था। हालांकि इसे बिल्कुल एक सीध में कर देने पर कहानी के बजाय अखबारी खबर बन जाने का भी खतरा था। शायद इसीलिए लेखक ने कहानी में यह दाव-पेंच आजमाया हो। कहानी में घटनाओं की इस कदर सरपट बयानी है कि लेखक कहीं पर भी अपना विचार या कोई भाव डालने से रह गया है। एक के बाद एक घटनाएं कहानी को स्थूल बना देती हैं।
सब मिलाकर "नागरिक" एक सुखांत कहानी है, जो त्राशदी से होकर गुजरती है। अंत तक पहुँचते-पहुँचते "अंत भला तो सब भला" मुहावरा अनायास दिमाग में कौंधने लगता है। लेकिन मुड़कर एक बार फिर से देखने पर लगता है कि लेखक ने नदी में बाढ़ के पानी की तरह बहते तेज प्रवाह वाले कथानक के बीच "क्या वाकई लोगों ने गलत को टोकना बंद कर दिया है" जैसे छिट-पुट विचार-बिंदुओं को रखकर पाठकों से जैसे बड़ा मौजूं सवाल पूछ दिया है।
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© अमित कुमार सिंह
गोरखपुर (उ.प्र.)