#चार्ली_के_टिली_हमसब
#क्योंकि_हम_सुपरमैन_नहीं_हो_सकते
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कवि केदारनाथ सिंह ने कहा है कि “जाना” हिंदी की सबसे खतरनाक क्रिया है | लेकिन लोग जा रहे हैं | लोग ठीक वैसे ही जा रहे हैं, जैसे वे कुछ हप्तों, महीनों या सालों पहले आये थे | ट्रेनों में ठूसकर | सामान्य दर्जे के डिब्बों में या कभी-कभार स्लीपर वाले कम्पार्टमेंट में |
सीट रिज़र्व होने के बावजूद उस पर कई-कई लदकर और उसके नीचे फर्श पर गठरी-मोटरी की तरह लोटते-पोटते | आने-जाने वाली सवारियों के पैरों से टकराते या कुचले जाने पर भी कुछ न बोलने या थोड़ा-सा बुदबुदाकर चुप हो जाने के अपने अभ्यस्त अंदाज में | जैसे सालों-साल से किसी न किसी मामले में यही दशा उनकी नियति रही हो |
आज वो लौट कर जा रहे हैं, अपने घर, अपने गाँव | जिसे तब छोड़ दिया था जब नौजवानी की निशानी होठ के कोरों पर हल्की-हल्की चुह्चुहानी शुरू ही हुई थी | जब रोटी का वजन गाँव-जवार के पलड़े में हल्का और दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों के पलड़े में ज्यादा वजनदार लगा था |
रिश्तों के पासंग को जोड़ने पर भी जब तराजू का शहरी पलड़ा भारी पड़ा, तो शहर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा | शहर ने वह सबकुछ दिया, जो गाँव नहीं दे पाया था या नहीं दे सकता था | उसने खाने, पहनने और जीने का जरिया दिया क्योंकि मेहनती भुजाएं उसे बड़ी पसंद थीं |
अब गाँव जब भी याद आता तो एक बूढ़े बैल का बिम्ब आँखों में खिंच जाता | रहे होंगे कभी मरद और बरध (बैल) कृषि जीवन के केंद्र बिन्दु | आज तो दोनों ही गाँव-जवार से नदारद हैं | मरद यानी नौजवान ट्रेन के पहियों की तरह गोल-गोल रोटी के पीछे भागते हुए शहर पहुँच गया और बरध का तो पूछिये ही मत | वे सडकों के किनारे टहलते या किसी के खेत में मुँह मारते बेहद ही गैर-जरुरी मवेशी बनकर रह गया |
कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर समय रहते गाँव से नहीं निकल सका होता तो क्या वही नहीं बनकर रह जाता- गैर-जरुरी मवेशी-सा |
मवेशी और इंसान का फर्क करने की बात आती है तो यह रटी-रटाई पंक्ति अपने आप जुबान पर आ जाती है कि मानव एक सामाजिक पशु है | अब जो खुद के सामाजिक होने के गुंजाइश की पड़ताल करता हूँ तो जैसे लगता है कि किसी ठठेरे के दुकान से कोई पुराना खोखला बर्तन ठन-ठनाते हुए नीचे गिर पड़ा हो और स्थिर होने से पहले ऐसी आवाज कर रहा हो जैसे भात खाते हुए दाँतों के बीच अचानक कोई कंकड़ दब जाए और पूरा मन उसकी किन-किनाहट से भर गया हो |
अब कहाँ रह गए हैं सामाजिक ! कितने रह गए हैं सामाजिक ! समाज तो पीछे छूट गया है गाँव में | वहीँ जहाँ हर एक आदमी रिश्ते का एक नाम था | उम्र के लिहाज से कोई भाई तो कोई भौजाई, कोई चाचा तो कोई चाची..... सब के साथ एक अपनापन वाला रिश्ता | इस शहर में लोग तो हैं लेकिन इन्हें अपना समाज कैसे कह दूँ |
हर कोई गैर है | कोई किसी को देखकर थोड़ा हँसता भी नहीं | झूठा नहीं तो खोखला वाला ही सही | यह तो रोजी-रोटी के वास्ते बनाया गया नकली समाज लगता है | रोटी की ही तरह गोल-मोल सा, जिसका न कोई ओर है, न कोई छोर | अपना समाज तो लिट्टी-चोखा वाला समाज है | लिट्टी की तरह ही ठोस, मजबूत और बिलकुल सोंधे स्वाद वाला |
तब क्या मैं खुद की परिभाषा से "सामाजिक" होने के जरुरी शब्द को गैर-जरुरी मवेशी की तरह नदारद कर दूँ | यानी मानव एक पशु है, बस | मान लूँ कि "मैन इज अ एनिमल" परिभाषा मुकम्मल है, अपने बारे में | माने क्या हम फिर से आदिम दशा में आ गए हैं ! पैदल जाते लोगों से खचाखच भरी सड़कों को देखता हूँ तो इस बारे में कोई वहम नहीं रह जाता |
हर कोई अपनी ज़िंदगी बचाने के जद्दोजहद में जिसतरह भागा जा रहा है, वो यही तो साबित करता है कि अपनी नज़र में विकास का जो महल हमने खड़ा किया था, वो बस भुरभुरे रेत की चमचमाती अटारी थी | जिस कुदरत को सीधी गौ की तरह जमकर निचोड़ डाला था, वह एक बार अपनी सींग क्या दिखाई, हमसब औकात में आ गए | अपनी आदिम इच्छा- बस जीने मात्र की कामना करने लगे |
कवि विष्णु खरे एक जगह कहते हैं कि अपने जीवन के अधिकांश हिस्सों में हम चार्ली के टिली ही होते हैं ...........अपने चरमतम शूरवीर क्षणों में हम क्लैब्य और पलायन के शिकार हो सकते हैं |” इस पलायन ने हमें चार्ली चैप्लिन के किरदारों जैसा हास्यास्पद ही बना दिया है |
देहातों में रोजी-रोजगार के शून्य होने पर सबका शहरों की ओर रूख करना खुद को चार्ली बनाना ही तो था | ठीक उसीतरह जैसे वह अपनी हरकतों से बार-बार खुद को मुश्किलों में डाल लेता है, फिर हँसी का पात्र बन जाता है |
गाँव के गाँव उजाड़ बन गये और शहरों में मुठ्ठीभर नोट कमाकर हम अपने-आप में शूरवीर बन गये | लेकिन जब एक महामारी आई तो सब गाँवों की ओर औंधे मुँह भागे | सैकड़ों और हजारों किलोमीटर की दूरी का बिना परवाह किये पैदल ही चल देना ये साबित करने के लिए बहुत है कि शहर के लिए हमने तो बहुत कुछ किया लेकिन जब मुश्किल आई तो शहर हमारे लिए कुछ नहीं कर सका |
इस महामारी में जब सामने वाला हरेक व्यक्ति संदेह का पात्र है तब गाँव को भी हमपर उतना ही संदेह है, जितना शहर को | पैदल रेंगते हुए जब किसी शहर से गुजरते हैं, तो वह हमपर ऐसे ही हँसता है, जैसे दर्शक चार्ली के उन किरदारों पर, जिसने खुद को मुश्किलों के मकड़जाल में बेतरह उलझा लिया हो |
पाँव थक चुके हैं | एक कदम भी उठाना मुश्किल है | भूख-प्यास से हाल बेजार है | कब तक चल पायेंगे कोई ठीक नहीं | ज़िंदगी का कोई ठिकाना नहीं | फिर भी चले जा रहे हैं | एक-एक शहरों को पीछे की ओर धकियाते हुए आगे अपने गाँव की ओर क्योंकि “हमसब चार्ली हैं, क्योंकि हम सुपरमैन नहीं हो सकते |”
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© अमित सिंह