डॉर्क हॉर्स Amit Singh द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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डॉर्क हॉर्स

"नौजवानी के इंच-इंच जूझ की कहानी है डार्क हॉर्स"

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पूर्वी उत्तर प्रदेश और लगभग पूरा बिहार का क्षेत्र अपनी विविध प्रकार की समस्याओं के कारण अक्सर सुर्ख़ियों में रहता है| इन्हीं सुर्ख़ियों के बीच एक बीमारी जरतोड़ फोड़े की तरह इस क्षेत्र के युवाओं के दिल में अक्सर टभकते हुए देखी जाती है| उस बीमारी का कीड़ा है, समाज में अपना भौकाल टाइट करना| और यह भौकाल बनाने के लिए जब कोई आधारभूत औजार इन नई फसलों को नहीं मिलता, तो इनकी आँखों में वह सपना चमक उठता है, जो अगर पूरा हो गया तो सारा आकाश अपना होता है और न हुआ तो जमीन का दो गज टुकड़ा भी दुस्वार हो जाता है| यह महा-परिवर्तनकारी सपना है – सिविल सेवा की परीक्षा को पास कर सरकारी सेवा में ऊँचा ओहदा हासिल करने का घरफूँकू सपना|

यह ख्वाब जिस किसी के भी आँख में तैर जाता है वह सामान्यतः अपना झोरा-बोरा बाँधकर दिल्ली के मुखर्जी नगर पहुँचता है और फिर शुरू होती है पहाड़ से भी ऊँचे लोक सेवा आयोग की परीक्षा को उत्तीर्ण करने की अनवरत संघर्षपूर्ण कहानी| इसी कहानी को युवा रचनाकार नीलोत्पल मृणाल ने अपने बहुचर्चित उपन्यास “डार्क हॉर्स” में बड़े संजीदा तरीके से बयां किया है|

डार्क हॉर्स के लिए नीलोत्पल को साहित्य अकादमी का युवा रचनाकार सम्मान मिला है|लेकिन इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उपन्यास के लिए नीलोत्पल को संघर्षशील युवाओं के दिल में बड़ा स्थाई ठिकाना मिला है| इसकी वजह है उपन्यास की वह कहानी जो सीविल सेवा की तैयारी करने वाले सभी युवाओं के लिए बिल्कुल अपनी-सी लगती है|डार्क हॉर्स के पात्रों में हरेक संघर्षशील युवा अपने-आप को तलाश सकता है|

कई जगह तो नौकरी की जद्दोजहद का यह फलक इतना बड़ा हो गया है कि न केवल सीविल सेवा की तैयारी करने वाले प्रतियोगी बल्कि इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी करने वाले प्रतियोगियों को समेटते हुए कंडेक्टर से कलेक्टर तक की तैयारी करने वाले हरेक युवा इस उपन्यास के आईने में अपना अक्स तलाश सकते हैं|

इस रचना के पात्र बड़े जीवंत हैं| ऐसा लगता है जैसे लेखक ने स्वयं के यथार्थ अनुभवों को बड़े करीने से सजा दिया है| ऐसी रचना में स्वाभाविक रूप से सभी पात्र युवा ही हैं| इन प्रतियोगी किरदारों के घरवालों का कहीं-कहीं उल्लेख आना रचना में कभी हास्य उत्पन्न करता है तो कहीं हद स्तर तक भावुक कर जाता है|लेखक ने पात्रों के जिला सहित गाँव-मोहल्ले का भी उल्लेख कर रचना को किसी अखबारी समाचार जैसा छौंक लगा दिया है|

वो चाहें गाजीपुर के राय साहब हों, बलिया के विमलेन्दु, छपरा के जावेद, बिहार के संतोष या झारखण्ड के गुरूराज सिंह (जिसमें लेखक का अक्स काफी हद तक नजर आता है) सभी ऐसे प्रस्तुत हुए हैं जैसे फ़िल्मी पर्दे पर आकर अपना रोल अदा कर रहे हों| इन सबकी अपनी-अपनी एक राम कहानी है,लेकिन सभी के बीच जो बात बिल्कुल समान है वह है अपने आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए अपने माँ-बाप के उम्मीदों पर खरा उतरने की दिली चाहत|

कहानी का केंद्र है – दिल्ली में कोचिंग सेंटर्स का हब कहा जाने वाला मुखर्जी नगर| यहाँ के स्वयंभू कोचिंग केन्द्रों और सफलता की घुट्टी पिलाने वाले स्वनामधन्य शिक्षकों के फाँस में आकर नये-नवेले प्रतियोगी किसतरह अपना पैसा और समय बर्बाद कर पछताते हैं, इसे नीलोत्पल ने बड़े बारीकी से पेश किया है| मुखर्जी नगर अपने इंच-इंच के ख़ासियतों के साथ इसतरह इस रचना में पेश हुआ है कि यह नए तरह का आंचलिक उपन्यास जैसा लगता है|

रचना की शैली सहज हास्यबोध वाली है| लेखक ने कहीं-कहीं बड़े मजेदार कटाक्ष भी किये हैं; जैसे – “सीविल की तैयारी करने वाले लड़के को जब भी कोई पिता स्टेशन छोड़ने जाता तो मानिए वह पीएसएलवी छोड़ने गया हो|” इसीतरह अनेक जगहों पर ऐसी चुटकियाँ बिखरी पड़ी हैं – “उसकी खुद की धार्मिक साज-सज्जा देखकर ऐसा लग रहा था कि बस उसके कानों में अगरबत्ती खोंस दी जाती तो वो खुद चलता-फिरता जगन्नाथपुरी का रथ लगता|” वहीँ जावेद की कहानी बड़ी मार्मिक बन पड़ी है| सब कुछ गँवाकर जब वह बचे हुए तीन बीघे जमीन की ओर लौटने को होता है, उसी समय बिहार लोक सेवा आयोग में उसके चयनित होने की सूचना पाठकों में उम्मीद जगाती है|

उपन्यास में दर्शायी गई कैरियर की लड़ाई कई जगह ज़िन्दगी की जंग-सी बनती नज़र आती है| एक आत्महंता आशंका बार-बार कौंधती रहती है| रिजल्ट आने के बाद रायसाहब का निढाल हो जाना हो या प्री. की ही परीक्षा में बार-बार असफल हो जाने पर संतोष का गायब हो जाने का प्रकरण, ये सब पात्रों सहित पाठकों के मन में आत्महत्या की मनहूस आशंकाएं उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होते हैं| लेकिन नीलोत्पल ने बड़ी सावधानी से ऐसे नकारात्मक सन्देश देने से अपने-आप को बचा लिया है|

हिंदी साहित्य के क्षेत्र में “नई वाली हिंदी” का नारा लेकर आने वाली प्रकाशन संस्था हिन्दयुग्म ने इसे प्रकाशित किया है| जब नारा हिंदी के नयेपन का है तो नया भी थोड़ा-बहुत जरुर दिखता है, जैसे – भाषा के स्तर पर स्थापित साहित्य की तरह का गाम्भीर्य न होकर सर्वव्यापी चलताऊपन,चुटीले संवाद और धारदार व्यंग्य|लेखक ने कई स्तरों पर इस प्रकाशन के नयेपन की शेखी को खाद-पानी दिया है, लेकिन वह पुस्तक बिक्री के बजारू दबाव से बचकर विषय की कुछ और गहराई में गया होता तो रचना की सार्थकता काफी बढ़ गई होती| रचना में नारी पात्रों की सरासर उपेक्षा है| विदिशा,पायल और मनमोहिनी जैसी लड़कियों की लुका-छिपी हुई भी है तो सर्वथा विकृत स्वरूप में| किसी भी पुरुष पात्र के टक्कर की किसी महिला पात्र का रचना में विकास न हो पाना इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है|

इन सब के बावजूद इस उपन्यास के पसंदगी की अनेक वजहें हैं| कथा का प्रवाह पाठक को बिना किसी बैरियर के बहाए ले जाता है और पाठक भोजपुरी के बिदेशिया के गीतों और “खीर-सेवई संस्कृति” के अवधारणाओं से होते हुए अंत तक पहुँचकर काफी प्रफुल्लित महसूस करते हैं|

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द्वारा - अमित कुमार सिंह

सम्प्रति - पी.जी.टी. (हिंदी) केन्द्रीय विद्यालय (क्रमांक-१), वायुसेना स्थल, गोरखपुर (उ.प्र.)

पता – खलीलपुर, सँवरा , जिला- बलिया (उ.प्र.) २२१७०१

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