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धर्मपुर लॉज- प्रज्ञा रोहिणी

किसी बीत चुकी घटना पर जब तथ्यात्मक ढंग से कुछ लिखा जाता है तो उसके प्रभावी लेखन के लिए यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि पहले उस पर सही एवं संतुलित तरीके से प्रॉपर शोध किया जाए। दोस्तों...आज मैं बात करने जा रहा हूँ हमारे समय की एक सशक्त लेखिका सुश्री प्रज्ञा रोहिणी जी के दमदार उपन्यास "धर्मपुर लॉज" की। लॉज नाम से सीधा ज़हन में मुसाफिरों/यायावरों के रात बिरात ठहरने का ऐसा ठिकाना आता है जहाँ वे कुछ घँटे सुस्ताने के बाद नहा धो के फ्रैश हो सकें। लेकिन यहाँ इस उपन्यास को पढ़ने के बाद हम पाते हैं कि यहाँ.. धर्मपुर लॉज नाम की एक बिल्डिंग जो निस्संदेह किसी समय में लॉज के रूप में ही कार्य करती होगी मगर अब वही लॉज..वही सराय अपना चोला बदल कर गरीब गुरबों, मज़दूरों की हमदर्द एक राजनैतिक पार्टी का दफ्तर बन चुकी है।

इस उपन्यास में कहानी है पुरानी दिल्ली के सब्ज़ी मंडी इलाके और उसके आसपास बसी मज़दूर बस्तियों एवं संकरी गलियों में मकड़जाल की भांति फैले कटरों की। इसमें बात है दिल्ली के कपड़ा मिल मज़दूरों की...उनकी मजबूरियों..उनकी दिक्कतों..उनके सुख दुख की। इसके मूल में कहानी है आम मिल मज़दूर से 'गुरु राधा कृष्ण' के खास हो..उनका सर्वप्रिय नेता बन जाने की। इसमें बात है गरीब मज़दूरों की मदद को तन, मन से हरदम तैयार खड़े, 23 वर्षों से निर्विरोध चुने जा रहे उनके नेता और भूख..गरीबी और कर्ज़ में डूबे मज़दूर परिवारों तथा मिल मैनेजमेंट की चालाकियों एवं साजिशों की।

इसमें कहानी है प्रदूषण की मार झेल रही औद्योगिक दिल्ली को मास्टर प्लान के नाम पर उजाड़ने और ढंग से रिहायशी तौर पर बसाने के साथ आपदा में अवसर ढूँढने वाले शातिर उद्योगपतियों की। इसमें बात है विभिन्न कपड़ा मिल यूनियनों की एकता.. उनकी आपसी फूट और फंड..बोनस तथा भत्ते देने के नाम पर काम कर रहे 6000 कपड़ा मिल मज़दूरों को सरकारी आंकड़ों में महज 2700 बता...अवैध छँटनी करने के खेल की।

इसमें बात है भारत-पाकिस्तान के विभाजन की मार झेल चुके पीड़ित परिवारों के फिर से चौरासी और बाबरी मस्जिद के बाद हुए दंगों को झेलने और उनसे फिर उबरने की। इसमें बात है सिखों की हिम्मत एवं आपसी सोहाद्र तथा जातीय संघर्ष के राजनीति में पदार्पण के बीच अच्छे लोगों की हार की। इसमें बात है मोहल्ले के छुटभैये गैंगों द्वारा की जाने वाली हफ्तावसूली एवं उनकी आपसी गैंगवॉर की।

इसमें बात है छात्र राजनीति में बढ़ते राजनैतिक प्रभुत्व एवं कट्टरता के नाम पर छात्रों को बरगलाने.. समझाने एवं फुसलाने की। इसमें बात है कॉलेज से ही राजनीति की पनपती फसलों और उसमें उभरती दबंगई की।

इस उपन्यास में कहानी है तीन दोस्तों और उनके परिवारों तथा उनसे मिलने जुलने वाले लोगों की।
इसमें बात है लापरवाही भरे शरारती बचपन के ज़िम्मेदारी में बदल..परिपक्व हो जाने की। इसमें बात है एकतरफा प्रेम और फिर समझदारी भरे त्याग की। इसमें बात है जाति विरोध के तमाम भावनात्मक विरोध को धता बता..साफ बच निकले सफल गृहस्थ जीवन की। इसमें बात है अस्थिर मन और सुदृढ़ स्थिति वाले 'भाई जी' और उनके चेले चपाटों की। इसमें बात है किराए पर मकान ले उसे कब्जाने की। इसमें बात है दिन प्रतिदिन स्त्रियों की गौण होती स्थिति परिस्थिति की। इसमें बात है पंडित की लंपटता और उसके ज्ञान की। इसमें बात है भोली औरतों और ठगों के मायाजाल की।

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इतिहास में दर्ज होने से छूट चुकी अथवा उपेक्षित रह गयी बातों एवं चरित्रों के साथ कुछ काल्पनिक किरदारों का समावेश करते हुए यह उम्दा उपन्यास रचा है जो हमें मुसीबतों...दिक्कतों से लगातार जूझने..उनसे हारने के बावजूद ना झुकने की प्रेरणा देता है।

232 पृष्ठीय इस उपन्यास में संग्रहणीय पेपरबैक संस्करण को छापा है 'लोकभारती प्रकाशन' ने और इसका मूल्य रखा गया है केवल 200 रुपए जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

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