जय हिन्द की सेना - 5 Mahendra Bhishma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जय हिन्द की सेना - 5

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

पाँच

जब अटल की बेहोशी टूटी तब सूरज सिर पर चढ़ आया था। उसने अपने घायल शरीर को टटोला, उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह जिन्दा है। आज की मनहूस सुबह का सारा घटनाक्रम उसके मन—मस्तिष्क में फिल्म—सा

घूम गया। उसके मुँह से दर्द—पीड़ा की समवेत चीखें कराह बन निकल पड़ीं।

उस समय जब उसके पूरे परिवार का कत्लेआम हो रहा था, तब वह वहाँ से भाग आया था। वह मर क्यों नहीं गया उन्हीं के साथ। अटल फूट—फूट कर रो पड़ा। उसकी बाईं बाँह में गोली लगी थी। उपद्रवियों ने उसे मरा समझ लिया था।

उस वक्त अटल दर्द की टीस दाँतों पर दबाए रहा और मौका पाते ही बेतहासा भाग खड़ा हुआ था। रास्ते में भागते—भागते कब वह बेहोश होकर गिर पड़ा था, उसे कुछ पता नहीं। इस समय उसे खुलना शहर की इमारतें दिख रही थीं। ‘खुलना जहाँ दो सौ हिन्दू परिवार मार दिये गये थे, ऐसे धर्मान्ध

शहर में उसे पनाह मिलेगी? कदापि नहीं!' अटल ने स्वयं से प्रश्नोत्तर किया।

तभी उसे तौसीफ़ का ख़्याल आया। तौसीफ़ उसका सहपाठी उसका परम मित्र। जान छिड़कते थे दोनों एक दूसरे पर। इस समय अटल की बाँह से गोली निकालना बहुत ज़रूरी थी। अन्यथा गोली का ज़हर फैल जाने और जान जाने का ख़्ातरा था। उसके मस्तिष्क में पुनः विचार कौंधा। तौसीफ़ जैसा इंसान यदि उसके साथ विश्वासघात भी करे, तो भी यह जान उस पर क़ुर्बान, परन्तु तौसीफ़ और विश्वासघात—दोस्ती का निर्लज्जता से अपमान करना है

...... सोचा अटल ने........ फिर रहमान चाचा भी तो मुसलमान हैं.. जिन्होंने

उसके पूरे परिवार की रक्षा में अपने लड़के तक की जान क़ुर्बान कर दी।

अगले पल अटल के लड़खड़ाते कदम खुलना शहर की ओर थे। वह

शीघ्रातिशीघ्र खुलना पहुँच जाना चाहता था। थकान से उसका घायल शरीर चूर—चूर हो चुका था। चाहते हुए भी वह दौड़ नहीं सकता था।

अटल को दो—तीन किलोमीटर का रास्ता भारी पड़ रहा था । उसे रह—रहकर अब एक ही ख्याल आ रहा था, ममता का।

खुलना महाव़िद्यालय के महिला छात्रावास में रहती थी उसकी ममता। तौसीफ़ के अलावा अब उसका इस संसार में दूसरा कोई आत्मीय बचा था तो वह थी ममता, ‘ममता चटर्जी'। अटल की ममता से पहली मुलाक़ात तौसीफ़ के द्वारा ही हुई थी। ममता भी पास के गाँव की थी जो उच्च शिक्षा के लिए खुलना शहर में पढ़ने आयी थी। वह तौसीफ़ की छोटी बहन शमा की सहपाठिनी थी। पहली बार जब उसने ममता को देखा था, तो वह उसे देखता ही रह गया था।

फिर किस तरह प्रेम की पेग बढ़ते—बढ़ते यहाँ तक पहुँच गई कि दोनों

एक—दूसरे को जीवन—साथी का दर्ज़ा दे बैठे। दोनों को इसका कुछ पता नहीं चला था। अभी पिछले पखवारे ही तो वह ममता से मिला था। तब इतनी स्थिति नहीं बिगड़ी थी। चंद दिनों के अंदर क्या से क्या हो गया? हैरान था अटल। ख़्ाूनी दाग़ कपड़ों में लगाये वह खुलना शहर में कैसे जायेगा? तौसीफ़ के घर तक कैसे पहुँचेगा? क्या धर्मांन्ध उपद्रवी और पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक शहर के बीचोबीच स्थित तौसीफ़ के मकान तक उसे पहुँचने देंगे?

....... नहीं, कतई नहीं। वह मार दिया जायेगा उन क्रूर धर्मान्धों द्वारा जिन्होंने उसके पूरे परिवार को नष्ट कर दिया। चीखा अटल, पर दूर—दूर तक उसकी चीख सुनने वाला कोई नहीं था।

खुलना शहर दूर से वीरान नज़र आ रहा था। अटल की हालत पागलों जैसी हो गयी थी। वह चूड़ीदार पाज़ामा और कुर्ता पहने था, सदरी जो खून से लथपथ थी उसने उतार फेंकी। बाईं बाँह पर लगी गोली के स्थान पर हाथ रखे वह लड़खड़ा कर चला जा रहा था। खुलना में उसको इंसान नाम की कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही थी। चारों तरफ मौत का सा सन्नाटा छाया था। कहाँ गये सभी ? अटल को प्यास महसूस हुई। घरों के दरवाज़े व खिड़कियाँ बंद थीं। उसने एक सार्वजनिक नल में पानी पीना चाहा, पर तभी उसे ट्रकों

के आने की आवाज़ सुनाई दी। वह पानी की टंकी की आड़ में हो गया। एक, दो, तीन, चार ....... पूरे आठ खुले ट्रक गुज़र गये उसके सामने से। प्रत्येक ट्रक में बीसियों सैनिक थे। तब क्या शासन ने उपद्रवियों पर काबू पा लिया। अटल ने चैन की साँस ली। ज़रूर शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया होगा। अटल ने सोचा। सच, दो सौ हिन्दू परिवार कम नहीं होते। लगभग चार—पाँच हज़ार की संख्या रही होगी। संसार का सर्वाधिक संख्या में यह एक और विकराल नर—संहार नहीं तो और क्या था? सशस्त्र ट्रकों का काफिला गुजर जाने के बाद अटल ने अपनी प्यास बुझाई और छिपते—छिपाते तौसीफ के घर की ओर बढ़ चला।

कुछ दूर चलने के बाद उसके सामने तौसीफ का मकान था। मकान के मुख्य द्वार पर बड़ा—सा ताला लटक रहा था। हताश, थका अटल वहीं बैठ गया। उम्मीद की किरण बुझती हुई नजर आई। उसकी आँखों के सामने अंधेरा—सा छाने लगा, पर तभी उसे लगा जैसे कोई उसे कोई पुकार रहा है। डूबते को तिनके का सहारा। अंधे को रोशनी की झलक। अटल ने चारों ओर बोझिल निगाहों से देखा। ‘अटल' बड़ी धीमी किन्तु स्पष्ट आवाज तौसीफ़ के

घर से आ रही थी। अटल ने सदर दरवाजे के ऊपर छज्जे की खिड़की की

ओर देखा। अंदर एक झाँकती हुई आकृति स्पष्ट हुई। ये तौसीफ़ के अब्बा थे। अब वह समझ पा रहा था डॉक्टर इकबाल खॉ के संकेत। वे उसे मकान के पीछे से आने का इशारा कर रहे थे। अटल के चेहरे पर दर्द मिश्रित मुस्कान फैल गयी। वह लड़खड़ाते हुए पिछवाड़े के दरवाज़े के सामने पहुँचा। दरवाज़ा खुला था। उसके अंदर डॉक्टर इकबाल दरवाजे पर खड़े थे, उनके पीछे तौसीफ़ की अम्मी, अम्मी के बगल में शमा। तौसीफ़, अटल को कहीं नहीं दिखा फिर अधिक देर अटल खड़ा न रह सका। उसकी आँखों पर पुनः अंधेरा छाने लगा था। इसके पहले कि वह लड़खड़ा कर गिर जाता, डॉक्टर खान ने उसे अपनी बाँहों में थाम लिया।

अटल ने जब अपनी आँखें खोलीं उसने पाया डॉक्टर चाचा, अम्मी व

शमा उसके पलंग के चारों ओर बैठे चिंतित उसी की ओर देख रहे थे। अटल के आँखें खोलते ही सभी के चेहरे खुशी से खिल उठे।

‘‘अब कैसी तबियत है, अटल बेटे !'' डॉक्टर खॉ ने अटल के मस्तक पर हाथ रखते हुए पूछा।

अटल के मुँंंंह से बोल नहीं निकल रहे थे, बस नेत्रों से अश्रुधार बह निकली। गोली लगे घाव पर पट्‌टी बंधी थी, स्टूल पर छर्रे रखे थे। हालात को समझते हुए डॉक्टर खान ने उसके गाल थपथपाते हुए कहा—‘‘धैर्य रखो बेटे सब ठीक हो जायेगा, सब ठीक..'' कहते हुए उनके नेत्र सजल हो गये।

डॉक्टर खान अटल का चेकअप करने लगे। तौसीफ़ की अम्मी ने दवा बना कर उसे पिलायी। अटल ने पाया सभी उसकी हालत पर दुःखी थे। अभी तक अटल ने तौसीफ़ को नहीं देखा था।

‘‘तौसीफ़...... नहीं दिख रहा चा .....चा।'' अटल ने कराहते हुए पूछा।

‘‘तौसीफ़'' एक गहरी सांस खींची डॉक्टर खान ने। शमा चीख कर दूसरे कमरे में चली गयी। कुछ आशंका से अटल चीख कर लगभग—लगभग पलंग पर बैठ गया।

‘‘क्या हुआ तौसीफ़ को चाचा...... क्या हुआ चच्ची मेरे तौसीफ को.....''

कहते—कहते अटल रो दिया ।

‘‘कुछ भी तो नहीं हुआ तौसीफ़ को....... अरे क्या हो गया तुम्हें अटल? तौसीफ़ को कुछ नहीं होगा, जब तक मौला उसके ऊपर रहम करेंगे, तब तक भला क्या हो सकता है उसको ?''

डॉक्टर खान बिना किसी हिचकिचाहट के कह रहे थे, ‘‘अटल बेटे!

तौसीफ़ बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का सदस्य बन गया है। पिछले जुमे से वह

घर नहीं आया है और न ही उसकी कोई सूचना ही मिली है ... घबड़ाने की कोई बात नहीं है .. वह जहाँ भी होगा ख़्ाुदा की रहमत से भला चंगा होगा।'' कहते—कहते डॉक्टर खान की निगाहें ऊपर की ओर और हाथ प्रार्थना की मुद्रा में बंध गए।

‘मुक्ति वाहिनी' अटल बड़बड़ाया। पिछले पखवाड़े जब वह तौसीफ से उसके इसी मकान में मिला था, तब तौसीफ ने ही उसे मुक्ति वाहिनी के बारे में बताया था और कहा था कि शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी भारी बहुमत से चुनाव जीती है फलस्वरूप पश्चिमी पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह को उनकी यह जीत गले नहीं उतर रही है कि पूर्वी पाकिस्तान के किसी जनाधार वाले नेता को सत्ता प्राप्त हो। तौसीफ़ ने ही बताया था कि पश्चिमी पाकिस्तान के

शासक अपनी महत्वाकांक्षा के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी करवा सकते हैं। उसने तर्क दिया था कि पूर्वी पाकिस्तान प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से सम्पन्न है। हमारी बोली, संस्कृति और रहन—सहन पश्चिमी पाकिस्तान के शासक वर्ग को कतई नहीं भाता। हमारे साथ सौतेला व्यवहार हरदम उनके द्वारा किया जाता है। अलग—अलग राष्ट्रीयताओं को मज़हब के आधार पर बाँधे नहीं रखा जा सकता। पाकिस्तान का निर्माण अलग—अलग राष्ट्रीयताओं की सम्प्रभुता की अक्षुण्णता के आधार पर हुआ था, जिस पर वह असफल रहा है। हमारी जूट की मिलें, चाय के कारखाने, कृषि, उद्योग—धन्धों से होने वाली कुल आय का जितना हिस्सा हम लोग कमाते हैं, उससे बहुत कम भाग पश्चिमी पाकिस्तानी शासक हमें देते हैं। यहाँ पर कोई विकास का कार्य नहीं कराया जाता, ऊपर से ज़बरदस्ती वे अपनी संस्कृति हमारे ऊपर लादना चाहते हैं .... बंगाली भाषा की जगह उर्दू भाषा को लाने की योजना है। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान को इन आतताइयों, शोषणकर्ताओं के जाल से मुक्त कर स्वतंत्र बांग्लादेश की स्थापना करना अब हमारा लक्ष्य है। ‘आमार सोनार बांग्ला' .. वह बोला था, जहाँ मातृभाषा बंगाली होगी, बांग्ला संस्कृति होगी। धर्म—निरपेक्ष, प्रजातंत्रात्मक शासन—तंत्र होगा..पश्चिमी पाकिस्तान के शासक वर्ग के सत्ता मद ने हम बंगालियों को आर—पार की लड़ाई लड़ने पर मजबूर कर दिया है। ....... और न जाने क्या—क्या तौसीफ़, उस दिन उससे कहता रहा था।

आगे डॉक्टर खान से अटल को ज्ञात हुआ कि पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों ने ही कुछ धर्मान्धाें की सहायता से अनेक हिन्दुओं को तथा मुक्ति वाहिनी के कार्यकर्ताओं को गोलियों से भून दिया था। डॉक्टर खान चाचा ने ही उसे रूंधे गले से यह सब बताया था कि वह सत्रह नवम्बर की काली भयावह रात थी जब हिन्दुओं को सोते से जगाया गया था। उन्हें एक मैदान में ले जाकर मुक्ति वाहिनी के कार्यकर्ताओं का नाम देकर गोलियों से भून दिया गया था।

‘‘चाचा! हमारे यहाँ अफवाह हुई थी कि उपद्रवियों ने यानी धर्मान्ध

मुसलमानों ने हिन्दुओं का क़त्ल किया था।'' अटल ने बीच में टोक दिया।

‘‘हाँ अटल बेटे। वे धर्मान्ध मुसलमान तो थे, पर वे बंगाली मुसलमान नहीं बल्कि पश्चिमी पाकिस्तानी शासक के वर्दीधारी मुसलमान थे, जिन्हें मुसलमान कहना मुस्लिम कौम को कलंकित करना है। कुछेेक बंगाली मुसलमानों ने आपसी फूट, स्वार्थ, ईर्ष्यावश शह देकर इतना बड़ा क़त्लेआम करवा दिया।........ एक भी हिन्दू परिवार नहीं बचा है, इस खुलना शहर में, उनमें अनेक भाग गये ....... अनेक मार दिये गये.....‘‘ अचानक डॉक्टर खान अटल की ओर मुडे़—‘‘तुम्हारे घर गाँव में..... तुम्हें गोली कैसे लगी...... बेटा.....

.. अटल क्या हुआ, कहीं वहाँ भी?

‘‘अटल के सब्र का बांध फूट पड़ा। तौसीफ की अम्मी ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। शमा ने पानी पीने को दिया। अटल सिरहाने टिककर बैठते—बैठते बोला—‘‘चाचा सब कुछ समाप्त हो गया सब कुछ ...... घर में, मुझ अभागे के सिवा कोई नहीं बचा। मुझे ऐसा इंजेक्शन दे दें, जिससे मैं चिर—निद्रा में सो जाऊँ ....... मुझे नहीं रहना इस अत्याचारी संसार में, मुझे नहीं जीना...... नहीं जीना.....'' अटल पहली बार फूट—फूट कर रो पड़ा।

‘‘धैर्य रक्खो अटल बेटे! धैर्य रखो...... अत्याचार को मिटाने के लिए तुम्हें अपना जीवन जीना ही होगा ....... सब ठीक हो जायेगा सब ...... ठीक हो ..

......जायेगा'' डॉक्टर खान ने अटल के बालों पर हाथ फेरते हुए सांत्वना दी।

अटल का घाव ठीक हो चला था अब वह स्वस्थ होने की ओर था। यहाँ आये उसे आज पाँचवाँ दिन है। शहर में कर्फ्यू लगे आठवाँ दिन। आकाशवाणी, न्यायालय, कोतवाली आदि प्रशासनिक स्थानों पर पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों का पूर्ण नियंत्रण हो चुका था।

छज्जे की खिड़की से दूर दिखते चौराहे पर कई बार अटल फौजी टुकड़ियों को गश्त लगाते देख चुका था। रेडियो पर तानाशाह सरकार के समर्थन में ही सब कुछ आ रहा था। समाचार, सूचनाएँ सब बेबुनियाद, गलत तथा भ्रामक प्रचारित हो रहे थे। ऐसी स्थिति कब तक रहेगी? सब कुछ अनिश्चित था। वक्त कैसे कट रहा था, सभी जानते थे। बिना अपराध के पूरा

शहर कैद था। ताजी सब्जी, दूध आदि लुप्त था, जो कुछ घर में हो, वही खाओ, नहीं तो भूखों मरो, जैसी स्थिति पहुँचने वाली थी। सभी कई—कई बार सोच चुके थे कि जिनके घर में कुछ न बचा होगा वे क्या करते होंगे? वे सोच रहे थे, जिनके घर में नौनिहाल बच्चे होंगे, उन्हें दूध कैसे मिलता होगा? जो बीमार होगा, उसे दवा कैसे पहुँचती होगी?

अपनी जान की परवाह न करते हुए डॉक्टर खान पिछले दिनों मुहल्ले के आसपास के मरीजाें को देखने गये थे। अटल सोच रहा था, कहीं उसे तौसीफ के घर का आश्रय न मिला होता तो...... उसके आगे की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था, उसेे अब केवल दो लोगों की चिंता थी, एक तौसीफ़ और दूसरी ममता की। वह बार—बार आशंकित था, उन दोनों को लेकर, वे संसार में हैं या अब वे दोनों संसार में नहीं हैं...... यह कल्पना मात्र उसे भयभीत व व्याकुल कर देती थी। उसकी हालत विक्षिप्त—सी हो जाती थी जब वह यह सब सोचता। इसके अलावा वह कुछ भी नहीं सोच रहा था। बुरे सपने उसे और व्यथित कर देते। ज़ेहन की आशंकाएँ उसे प्रतिपल विचलित किए थीं। ममता के बारे में वह शमा से दो—तीन बार कुरेद—कुरेद कर पूछ चुका था पर जवाब एक ही मिलता ‘‘कुछ नहीं मालूम''

प्रारम्भ में उसे लगा था कि शमा उसे बुरी खबर बताने से हिचकिचा रही है, पर ऐसा नहीं था। उसका कहना था कि ममता कर्फ्यू लगने के दो दिन पहले घर आयी थी और गाँव जाने की चर्चा कर रही थी। शमा की बातों का स्वयं चच्ची समर्थन करती थीं।

‘काश! ममता गाँव चली गयी हो। पर क्या वह गाँव में भी सुरक्षित होगी? कहीं उसके परिवार की तरह ममता के परिवार के ऊपर धर्मान्धों ने आक्रमण न कर दिया हो।'

अब हर बात सम्भव—सी नज़र आ रही थी, क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तानियों की हिन्दू विरोधी लहर सब जगह फैल गयी थी।

रात्रि देर तक पता नहीं क्या—क्या सोचता रहता अटल। सारी रात आँखों में, सपनों में या क्षणिक नींद में कट रही थी। ऐसी ही दशा अटल की आज रात भी थी।

दूर रात्रि के अंधकार में भयावह सन्नाटे को और भयानक बनाती कुत्तों के रोने की समवेत आवाजें आ रही थीं।

रात्रि में जब—तब ब्लैक आउट कर दिया जाता, तो कहीं नागरिकों को लाउड स्पीकर द्वारा चेतावनी दी जाती, तो कहीं धमाके या गोली की आवाज़ वातावरण को और भयावह बना देती।

अटल अपने अंदर घुटन महसूस करने लगा, उसने अपने पलंग के बगल में दूसरे, तीसरे और चौथे पलंग की ओर लेटे क्रमशः चाचा, शमा व चच्ची को सोते हुए देखा। इस आतंक के वातावरण में सभी दूसरी मंजिल के इस हॉलनुमा कमरे में एक साथ लेटे थे। बिजली की सप्लाई बंद थी। मेज़ पर रखा लैम्प मंद—मंद रोशनी पूरे हॉल में दे रहा था। अटल अपने बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया। उसने हॉल के चारों ओर निगाह घुमायी, दरवाज़े खिड़कियाँ सभी अंदर से अच्छी तरह बंद थे। दीवार घड़ी रात्रि के एक बजा रही थी। उसने अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा समय सही था। पर्याप्त ठण्ड थी, बंद कमरा अच्छी गर्माहट दे रहा था। अटल ने अपने शरीर पर शॉल लपेट लिया। मेज़ के पास आकर लैम्प की बत्ती ऊपर को बढ़ायी। अब हॉल में पर्याप्त प्रकाश हो गया।

अटल ने सामने की आलमारी से एक पुस्तक निकाल कर पढ़नी चाही। पुस्तक का पहला पृठ खोलते ही उसकी दृष्टि तौसीफ़ द्वारा लिखी इन पंक्तियाें पर अटक गयी, ‘जब मैं कमज़ोर हूँ, मैं आपसे स्वतंत्रता की प्रार्थना करता हूँ क्योंकि यह आपका सिद्धान्त है, लेकिन जब मैं मज़बूत हूँ, मैं आपसे स्वतंत्रता छीन लेता हूँ क्याेंकि यह मेरा सिद्धान्त नहीं है'— लेनिन।

अटल कभी सामने टंगी तौसीफ़ की तस्वीर को देखता तो कभी पुस्तक पर लिखी गयी पंक्तियों को दोहराता... वह देख रहा था — कल के सैद्धान्तिक तौसीफ़ को जो आज व्यवहारिक रूप में अपने आपको प्रस्तुत कर चुका था।

अटल इसी मुद्रा में विचारशील था कि उसने हल्के से थाप की आवाज़ महसूस की जैसे किसी ने दरवाज़े पर हाथ से थाप मारी हो। अटल का विचार क्रम टूटा, वह ध्यान से आवाज सुनने की चेष्टा करने लगा। पुनः उसे महसूस हुआ किसी ने सदर दरवाज़े पर थाप दी है। अटल हौले से अपने स्थान से उठा। हॉल का दरवाज़ा खोल वह बाहर छज्जे पर आ गया। छज्जे पर ठण्डी हवा के कारण उसने अपने शरीर पर पड़ा शॉल कस लिया। अटल ने नीचे सदर दरवाज़े की ओर शंकित दृष्टि से झाँका। गहन अंधकार में भी उसे एक स्याहपोश नज़र आया। वह कौन था? अटल इसी उधेड़बुन में था कि उसने देखा स्याह साया कुछ देर वहीं खड़ा रहा फिर बगल वाली गली की ओर बढ़कर मुड़ गया।

अटल भी छज्जे की रेलिंग पकड़े—पकड़े गली के ऊपर के छज्जे तक आ गया। तौसीफ़ के मकान के सामने व अगल—बगल रास्ता होने से छज्ज़ा मकान के तीनों ओर बना था। स्याहपोश अब मकान के पीछे आकर ओझल हो गया।

अटल कुछ समझने की कोशिश करते हुए निगाह तेज़ कर अभी उसी स्थान पर देख ही रहा था कि उसने पाया कि वह स्याहपोश पीछे की दीवार पर चढ़कर नीचे उतर रहा है। अब वह स्याहपोश आँगन में खड़ा हो गया। अटल जल्दी से कुछ निर्णय ले पाता कि वह स्याहपोश ऊपरी मंज़िल की ओर पहुँचने वाली सीढ़ियों पर पुनः लुप्त हो गया। अटल उस स्थान पर खड़ा हो गया जहाँ से छुपकर वह ऊपर सीढ़ियों से आने वाले पर सरलता से वार कर सकता था।

पर इसका उसे कुछ लाभ नहीं हुआ। अगले पल उसने महसूस किया कि कोई उसके पीछे है। अटल ने जैसे ही पीछे देखा उसके होश उड़ गये। उसके ठीक पीछे वही स्याहपोश खड़ा था, जिसकी उसे प्रतीक्षा थी। अटल कुछ सोच भी पाता, इसके पहले उस स्याहपोश ने उससे कड़क आवाज़ में पूछा,‘‘कौन हो तुम ?''

‘‘मैं ..... मैं ......'' की आवाज़ निकली अटल के मुँह से एकाएक वह खुशी के साथ आगे बोला, ‘‘तौसीफ़ तुम......... मैं अटल हूँ, अटल बनर्जी।''

‘‘अटल तुम या अल्लाह ! मैं तो घबड़ा ही गया था।'' तौसीफ़ और अटल अब गले मिल रहे थे..... ‘‘मैं समझा, पता नहीं ये कौन साया है जो छज्जे पर घूम रहा है।'' तौसीफ़ ने अटल को लगभग ऊपर उठाते हुए कहा।

‘‘साया! यही तो मैं तुम्हें देखकर समझा था...... मैंने समझा पता नहीं

कौन इस तरह अंदर आ रहा है.....'' अटल अचानक रुका फिर बोला—‘‘......पर

यार गजब हो गया होता अगर कहीं तुम सीढ़ियाँ चढ़कर आते...... मैं तो तुम्हें चोर....... दंगाई...... या पाकिस्तानी सैनिक समझ हमला कर देता।''

‘‘इसीलिए तो मैं दूसरे रास्ते से आया हूँ। मैं भी तुम्हारा इरादा भाँप चुका था......'' तौसीफ अटल के कान में फुसफुसाया।

‘‘कहाँ से सीख लिया ये सब......'' अटल ने भी धीमे से पूछा।

‘‘बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी'' तौसीफ की आवाज में रौब था।

‘‘कौन है अटल बेटा! तुम्हारे साथ, कौन है? डॉक्टर खान उन दोनों के पास आते धीरे से बोले।

‘‘चाचाजी अपना तौसीफ़ आया है...... तौसीफ़!'', अटल बोला।

तौसीफ़ बेटे! डॉक्टर खान ने तौसीफ को गले से लगाते हुए कहा।

उनकी आवाज़ में नरमी थी।

‘‘आइये अंदर चलें।'' तौसीफ़ ने अपने अब्बा को सहारा देते हुए कहा।

अन्दर सभी जाग चुके थे, अम्मी रुआँसी हो आयीं, बहुत दिन ओझल जो रहा था उनका बेटा और शमा के चेहरे पर भाई के प्रति ढेर सारे उलाहने थे, साथ ही आँखों में खुशी की अद्‌भुत चमक। अन्दर आते ही अम्मी तौसीफ़ से लिपट कर रोने लगीं। अम्मी को रोते देख शमा का धीरज भी टूट गया। वह भी हिचकियाँ लेने लगी। डॉक्टर खान ढांढस बँधाने लगे। अटल ने दरवाज़ा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया। उस ने यहाँ ग़ौर किया कि

रुलाई और ढांढस के शब्द—स्वर कितने दबे हुए हैं, इस भयावह आतंक की

रात में। जब व्यक्ति के आँसू बह जाते हैं तब उसका मन काफ़ी कुछ हल्का हो जाता है, यही अम्मी व शमा के साथ हुआ।

अब वे दोनों सुबक रही थीं। तौसीफ़ ने अपने शरीर से ओवरकोट उतार कर दीवार पर लगी खूँटी पर टाँग दिया। ओवरकोट के अंदर तौसीफ़ पाकिस्तानी फौजी कीे डे्रस में था। कमर में कारतूस की पेटी, छोेटी म्यान में चाकू, टार्च बंधी थी। मारे डर के शमा उसके सीने से चिपक गई। उसकी इस हालत को समझते हुए तौसीफ़ ने अपने कोट की जेब से एक रिवाल्वर और कुछ कारतूस निकालकर शमा के पास रख दिये और एक धीमी हँसी का

ठहाका लगाया—‘‘पगली ...... डरती है।''

इसके पहले की अटल वगैरह उससे कुछ पूछते तौसीफ़ स्वयं बोल पड़ा— ‘‘अम्मी इस रिवाल्वर से आज दो खून किये हैं मैंने.....

‘‘दो ख़्ाून ! या अल्लाह, तू क़ातिल हो गया है तौसीफ़'' अम्मी ने बीच में लगभग चीखते हुए कहा।

‘‘हाँ अम्मी ! मैं क़ातिल बन गया हूँ'' तौसीफ बोलता गया। अब उसके चेहरे पर गम्भीरता के साथ कठोरता उभर आयी थी, ‘‘आज मैं यहाँ घर आ रहा था आप लोगों की ख़्ौरियत जानने, तब मेरे पास यह रिवाल्वर और कुछ कारतूस ही थे। रास्ते में मुझे दो पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों ने पीछे से पता नहीं कब आकर अपने क़ाबू में कर लिया जबकि मैं अपने आप को बेहद चौकन्ना समझ रहा था। कुछ दूर वे दोनों मुझे .. मेरी पीठ पर स्टेनगन लगाये, मेरे दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए ले चले।'' सबकी ओर एक नज़र देखते हुए तौसीफ़ आगे बोला, ‘‘उस समय अंधेरा तो था परन्तु इतना नहीं कि कुछ भी देखा न जा सके। मैं मौके की तलाश में था क्योंकि जानता था, यदि मैंने ज्यादा विलम्ब किया तो पता नहीं ये मुझे कब कहाँ ले जाकर किसी भी समय ख़्ात्म कर दें।''

शमा जो अब चाय बनाने जा रही थी पुनः बैठ चुकी थी अपनी अम्मी के पास। अटल सहित सभी तौसीफ़ के आस—पास लिहाफ़ ओढ़े बैठ गये। तौसीफ ने आगे कहा—‘‘ख़्ाुदा की मेहरबानी से उनमें एक को कोई ठोकर लगी और वह ज़मीन पर गिर पड़ा। मैंने तत्काल अवसर का लाभ उठाया और ध्यान बँट चुके दूसरे सैनिक के सीने पर लात मार दी। वह भी भूमि पर गिर गया। मैंने अपने को आड़ में करते हुए अंदाज़ से ठोकर खाये सैनिक पर फ़ायर कर दिया। क्योंकि मेरे ख़्याल से वह अब तक सम्भल चुका था जबकि मेरी लात की ठोकर खाने वाला कम से कम बेहोश हो चुका होना चाहिए था..... हाँ तो अब्बा हुज़़ूर...... गोली निशाने पर लगी और एक तेज़ चीख़्ा के साथ वह पहला सैनिक एक ओर लुढ़क गया......। कुछ देर मैं वैसे ही सुरक्षित पोजीशन लिए खड़ा रहा। मेरी गोली की आवाज़ से आस—पास दूर तक सन्नाटा भंग हो गया। बाज़ारू कुत्ते भौंकने व रोने लगे। मैं यह समझना चाहता था कि वह दूसरा सैनिक जिसको मैंने लात मारी थी उसका क्या हुआ? तभी मेरी नज़र सड़क पर दूर पड़ी स्टेनगन पर पड़ी; जिससे कुछ फ़ासले पर वह सैनिक पड़ा था। अब मैं निश्चिन्त था...... मैं तेजी के साथ स्टेनगन उठाकर अपने स्थान पर वापस आ गया और कुछ पल नवीन हालात जानने के लिये रुक गया।.

.... अब सब जगह शांति सी छा गयी थी। जब थोड़ा और समय बीता तब मैंने उस बेहोश फौजी को अपने पास घसीट लिया और उसको हिलाडुलाकर देखा वह वास्तव में मेरे एक ही वार से बेहोश हो गया था। कहीं वह नाटक तो नहीं कर रहा है, इस सन्देह से मैंने उसके सिर पर रिवाल्वर के बट की एक तेज चोट पुनः मारी फिर आगे सुरक्षा के लिए उसकी वर्दी उतार कर अपने कपड़ाें के ऊपर ही पहन ली.....। अब मेरा ध्यान उस मारे गये फौजी की ओर गया। मैं निश्चिन्त था कि वह तो मुझे मरा हुआ मिलेगा ही। मुझे तो उसके कारतूस व स्टेनगन चाहिए थे। पर मैंने जब उस स्थान पर उसे न पाया तो .....अब्बा हुजूर मैं तो भौंचक्का रह गया। मेरे पैरों के नीचे जैसे ज़मीन खिसक गई ..

....और सोचने लगा पता नहीं कब और किस ओर से स्टेनगन की गोलियाँ मेरे

शरीर पर धँस जायें। क्योंकि मुझे पूरा अंदेशा था कि वह ज़रूर यहीं आस—पास छुपा मुझे निशाने में लिए होगा.....। इतना कह तौसीफ चुप लगा गया।

तौसीफ के चुप होते ही सभी एक स्वर में विस्मय से बोले......‘‘फिर क्या हुआ?''

‘‘फिर क्या हुआ अब नहीं बताऊँगा .. पहले शमा तुम चाय लेकर आओ फिर बताऊँगा।'' इतना कह तौसीफ़ ने पलंग से नीचे आकर अपनी वर्दी उतारी, हाँथ—मुँह धोकर पानी पिया, अंगड़ाई ली फिर पुनः पलंग पर आकर बैठ गया।

तौसीफ़ के इतने कार्यक्रम को सभी रोमांचित हो देख रहे थे। तौसीफ़

के साथ जो घटा था। वह घटना—क्रम रोमांचित करने वाला था।

शमा जो अभी भी न उठी थी पुनः तौसीफ के बैठ जाने पर उठ गयी और स्टोव जलाने लगी। अभी तक सभी शांत थे।

चाय आ जाने के बाद तौसीफ़ ने अटल की निगाहों को भांपते हुए आगे

कहना शुरू किया—‘‘हाँ तो ......जब मैंने अपने आप को ख़्ातरे में महसूस किया तो एक पल के लिए निश्चित सा मुझे लगने लगा कि गोली अब आयी तब आयी। तभी मैंने एक ओर से आहट सुनी। कोई मेरे ऊपर छलांग लगा चुका था। मैं बिजली की तरह अपने स्थान से पलट गया। वह छलाँग लगाने वाला और कोई नहीं मेरी गोली का शिकार पाकिस्तानी फौजी ही था जो सड़क पर गिर चुका था। उसके गिरते ही मैं उसके ऊपर चढ़ गया और एक ही बार में चाकू का पूरा फल मैंने उसके गले में घुसेड़ दिया। यह कहते हुए तौसीफ़ ने मेज़ पर रखी चाकू की ओर इशारा किया।'' अब सभी को म्यान पर हल्के खून के धब्बे दिख रहे थे। तौसीफ़ ने पुनः बोलना प्रारम्भ किया— ‘‘वह मर चुका था

...... मैंने उसके कारतूस ले लिए पर बहुत ढूँढ़ने के बाद भी मुझे उसकी

स्टेनगन न मिल सकी। ख़्ौर फिर मैं किसी तरह घर आ गया। तो ये जनाब

(अटल की ओर देख) छज्जे पर दिखायी दिये, मैं समझ नहीं सका कि इतनी रात यह कौन हो सकता है क्योंकि अब्बा हुजूर कद में छोटे हैं। ये लम्बू कौन है ? ......कहीं यहाँ भी सैनिक न आ पहुँचे हों, वग़ैरह—वग़ैरह ......इन ख़्यालों सेे मैं काँप उठा फिर छुपकर अंदर आने की कोशिश की और जब देखा तो मंज़र दूसरा था।'' कहते—कहते तौसीफ़ ने चाय का अंतिम घूँट सुड़क कर कप शमा को थमा दिया।

दीवार घड़ी में रात्रि के दो बजकर बीस मिनट का समय हो रहा था, फिर आगे की बाकी रात सभी जागते रहे...... विभिन्न बातों के क्रमों से नयी—नयी बातें एक—दूसरे से जानते रहे। कभी कोई गंभीर मुद्रा धारण करता तो कभी कोई उदास हो जाता, तो अन्य सब उसे ढांढस बँधा रहे होते। सुबह होने के पहले तक जहाँ तौसीफ़ अटल के बारे में सभी कुछ जान चुका था, वहीं अटल ‘मुक्ति वाहिनी' के कार्य व पश्चिमी पाकिस्तान की फौज के कारनामों (कुकृत्यों) को जान चुका था।

अभी तक अटल को तौसीफ़ से ममता के बारे में पूछने का मौका नहीं मिला था। प्रातः दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर जब सभी अपने—अपने कायोर्ं में व्यस्त हुए, तब कहीं जाकर अटल को तौसीफ़ से कुछ जानने का एकांत समय मिला। अटल ने तौसीफ़ के हाथों मे काग़ज़ का टुकड़ा थमा दिया, जिसमें वह रात में ही बाताें के दौरान सभी की नज़र बचाकर लिख चुका था

पर तौसीफ़ को दे नहीं सका था। वह नहीं चाहता था कि ममता के बारे में कोई कुछ जान पाए।

‘ममता' केवल एक शब्द लिखा था, उस काग़ज़ के टुकड़े मेंं। उसे पढ़ा तौसीफ़ ने और अटल की ओर देखा, जो उसकी ओर प्रश्नसूचक नेत्रों से देख रहा था।

‘‘कुछ..... कुछ भी मालूम है.....'' अटल शब्दों को चबाते हुए बोला।

‘‘मुझे ममता के बारे में कुछ भी पता नहीं है पर.....''

‘‘पर...... पर क्या, तुम रुक क्यों गये तौसीफ़.....? बोलो'' तौसीफ़ के रुक जाने पर अटल उसके कंधों को हिलाते हुए बोला।

‘‘पर का मतलब यह कि ममता के बारे में हम यही सोच सकते हैं कि

यदि वह अपने घर नहीं गयी है तो उसके बारे में जो परिणाम है वह निःसंदेह बुरा होगा और यदि वह घर गयी है तो संभवतः सुरक्षित हो।'' तौसीफ़ खिड़की के बाहर ऊपर दूर आकाश की ओर देखते हुए बोला।

‘‘क़ाश! तुम्हारा आख़्िारी वाक्य सत्य हो।'' अटल सिर थाम कर पलंग पर बैठ गया।

‘‘अटल मैं तुम्हारी परेशानियाँ समझता हूँ, फिर भी तुम्हें धैर्य रखना चाहिए।'' तौसीफ़ अटल के बगल में बैठ उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोला।

‘‘मेरा कुछ नहीं बचा तौसीफ़...... मेरा कुछ नहीं बचा।'' कहते—कहते अटल तौसीफ के सीने सेे लगकर फूट—फूटकर रो पड़ा।

‘‘अटल मैं तेरे साथ हूँ ...... तुम अपने आप को सम्भालो। हम दोनों मिलकर अब और बरबादी होने से रोकेंगे?। एक—एक से उनके किये कुकृत्यों का बदला लेंगे। हमारे साथ बहुत लोग हैं, बहुत लोग।'' तौसीफ़ बोले जा रहा था, ''मुझे विश्वास है कि भारतीय सेना हमारा साथ अवश्य देगी और हम पश्चिमी पाकिस्तान की बेड़ियों को काटकर रख देंगे...... तब फिर सब ठीक हो जायेगा...... सब कुछ।''

‘‘क्या खाक ठीक हो जायेगा।'' अटल तेज स्वर में पहली बार बोला,

‘‘मेरी और उन सभी की, जो इस हिंसा के शिकार हुए, उन सबकी जिम्मेदारी तुम जैसे क्रांतिकारी विचारवालों और संगठनों के ऊपर है। अपनी बात मनवाने का क्या यही एक तरीका है। सरकार पलटना ही है तो संवैधानिक तरीकों का प्रयोग करो ..।''

‘‘संवैधानिक तरीके .....पर संवैधानिक तरीकों द्वारा उसी देश को स्वतंत्रता मिल सकती है जिसकी सरकार संवैधानिक हो ......क्या पश्चिमी पाकिस्तान की सैन्य सरकार संवैधानिक है......? क्या हमने पहले संवैधानिक साधनों को नहीं चुना था और क्या शेख मुजीबुर्रहमान असंवैधानिक साधनों से चुने गये थे....? नहीं।'' तौसीफ़ भी वक्ता की तरह बोले जा रहा था, ‘‘फिर उन्हें सत्ता सीन नहीं होने दिया गया क्यों? पहले जिस जनता ने उन्हें चुना था, उसके द्वारा प्रतिरोध स्वरूप जनान्दोलन किए जाने पर पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों के पैरों तले आन्दोलनकर्ताओं को क्यों कुचला जाने लगा?

‘‘क्या तुम्हें नहीं मालूम अटल ? ढाका और उसके आसपास के इलाकों में पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा ‘ऑपरेशन सर्चलाइट' के दौरान दो लाख से भी अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनके परिवार के पुरुषों को देश का गद्‌दार कहकर गोली से भून दिया गया या फिर कैद कर अमानुषिक यातनाएँ दी गर्इं और आज भी उन्हें जेल में निरुद्ध कर दी जा रही हैं।''

‘‘मालूम हैं तौसीफ़ और यह भी मालूम है कि उन दो लाख बदकिस्मत स्त्रियों में ज्यादातर हिन्दू स्त्रियाँ थीं।'' अटल बोला।

‘‘बात हिन्दू—मुस्लिम की नहीं है अटल! वे सबकी सब बंगाली थीं। वे सब इसी मिट्‌टी की बेटियाँ थीं, जिनमें से हजारों ने तो आत्महत्या कर ली। बलात्कार के बाद कैद में रखी गई स्त्रियों ने जब इन पापियों से पीने के लिए पानी माँगा तो उनके मुँह में पेशाब कर दिया गया।'' तौसीफ़ गुस्से से आक्रोशित होते बोला।

अब जो रास्ता हम अपना रहे हैं, वह कहाँ तक ग़लत है और कहाँ तक सही यह तो आने वाला कल ही बतायेगा। बिना संघर्ष स्वतंत्रता मिल जायेगी, कोरी कल्पना है...... इस समय सिर्फ संगठन और एकता की मज़बूती की

आवश्यकता है जो संघर्षरत रहने के लिए नितान्त आवश्यक है। आज का संघर्ष कल की सुखद स्वतंत्रता है। हम बंगाली एक थे, एक हैं और एक रहेंगे। सन्‌ १९५२ के भाषा आन्दोलन में जब मुहम्मद अली जिन्ना के इस सिद्धान्त का मुखर विरोध किया गया कि ‘उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा होगी' तब हम केवल बंगाली थे, न हिन्दू थे, न मुसलमान सिर्फ और सिर्फ बंगाली थे, जो राष्ट्र भाषा बांग्ला को बनाना चाहते थे। इसी तरह चाहे वह सन्‌ १९५४ का संयुक्त फ्रण्ट निर्वाचन, सन्‌ १९६२ का शिक्षा आन्दोलन, सन्‌ १९६४ का फौजी

शासन विरोधी आन्दोलन, १९६६ का छठा दफा आन्दोलन, १९६८ का अगरतल्ला

षड्‌यन्त्र विरोधी आन्दोलन, १९६९ में जन उत्थान आन्दोलन हो या फिर हाल ही में सम्पन्न हुए आम चुनाव यह स्पष्ट करते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त पूर्णतया त्रुटिपूर्ण था। हम बंगाली अखण्ड भारत के विभाजन के बाद से ही पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारों को झेलते रहे हैं। इन्ही अत्याचारों की चरम परिणति स्वरूप मुक्ति वाहिनी द्वारा भारत की मदद से मुक्ति—युद्ध किया जा रहा है। पश्चिमी पकिस्तान से सदा के लिए मुक्ति, सम्पूर्ण आजादी, स्वतन्त्र ‘बांग्ला देश' की स्थापना हमारा परम एवं अंतिम लक्ष्य हैं।

इस मुक्ति—युद्ध से हम बंगाली सिद्ध कर देंगे कि हम बंगाली हैं न मुसलमान न हिन्दू सिर्फ़ और सिर्फ़ बंगाली, यहाँ के मुसलमानों का पश्चिमी पाकिस्तान के मुसलमानों से कोई वास्ता नहीं हैं और न ही यहाँ के हिन्दुओं का कोई सरोकार भारत के हिन्दुओं से है। द्विजातीय की खोखली धारणा के विरुद्ध सारे बंगाली एक है।ं'' तौसीफ़ बोला।

‘‘पहले हमें अखण्ड भारत से अलग किया गया। अब पाकिस्तान से अलग होने की मुहिम शुरू है। कल फिर कुछ होगा। इस सबका परिणाम हिंसा, हिंसा और हिंसा ही है .. सन्‌ १९४७ में कत्लेआम हुआ। अब सन्‌ १९७१ में कत्लेआम हो रहा है, आगे किस सन्‌ में पुनः पुनरावृत्ति हो जाये कुछ निश्चित पता नहीं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि आखिर ये नेता क्या चाहते हैं? क्यों नहीं सुख—चैन से जीने देते हैं हम लोगों को ?'' अटल अपने स्थान से उठकर खिड़की के बाहर देखते हुए बोला।

‘‘यह सब बहुत बड़े दर्शन की बातें हैं, मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि

जो कुछ अभी हो रहा है यदि इसका परिणाम हमारे पक्ष में होगा तो निःसन्देह आगे भविष्य में कोई कत्ले—आम नहीं होगा। तब केवल एक राष्ट्र होगा अपना बंगालियों का, एक बांग्ला जाति, धर्मनिरपेक्षता, गणतन्त्र और समाजवाद पर आधारित होगा.... आमार.... सोनार...... बांग्लादेश।'' तौसीफ़ ने अन्तिम तीन

शब्द रुक—रुक कर उच्चारित किए।

‘‘तुम और तुम्हारा संगठन कैसे आशा करता है कि इतनी बड़ी प्रशिक्षित पश्चिमी पाकिस्तानी फौज को परास्त कर अपना लक्ष्य पा लेंगे, जबकि मेरी समझ में तुम्हारे संगठन के वालंटियर अप्रशिक्षित व अनुभवहीन हैं।'' अटल ने तौसीफ़ की ओर मुड़ते हुए कहा, ‘‘और भारतीय सेना क्यों मदद करने लगी?''

‘‘मैं और हमारी मुक्ति वाहिनी के प्रत्येक वालंटियर का मनोबल बहुत ऊँचा है ......अटल! दूसरी बात भारतीय सेना हमारी मदद अवश्य करेगी, क्योंकि उसकी सीमा के अंदर हज़ारों—लाखों शरणार्थी प्रतिदिन प्रवेश कर रहे हैं। वह पूरे विश्व में इस बात का प्रचार कर रहा है, जिसका मतलब है, युद्ध के पूर्व की स्थिति और भारतीय सेना ने अपनी सीमाओं पर गहन चौकसी प्रारम्भ कर दी है। शरणार्थियों के लिए सीमाएँ खोल दी हैं, उनके लिए अस्थाई कैम्प लगवाए हैं।''

“क्या तुम समझते हो कि भारतीय सेना पश्चिमी पाकिस्तानी सेना को मार भगाएगी और बंगालियों को अलग देश बनाने देगी ...? क्या वह केवल इतने के लिए करोड़ों रुपयों और अपने सैनिकों को युद्ध की विभीषिका में झोंक देगी ? क्या यह सम्भव नहीं कि भारत पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनने से पहले ही अपने में मिला ले?'' अटल ने कहा।

‘‘मेरी तो वास्तव में एक इच्छा यह भी है कि यदि अखण्ड भारत बनता है तो बहुत ही अच्छा है।'' तौसीफ़ कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘अपने जन्म से ही पाकिस्तान ने शान्ति नहीं जानी है, सो अपनी दिवालिया सोच के कारण, नवजात देश को स्थायित्व देने के काम में जुट जाने के बजाय उसे भारत से लड़ाई करना ज़्यादा ज़रूरी लगता है......तभी से भारत के खिलाफ विष वमन करना पाकिस्तानी सरकारों का स्वभाव—सा बन गया है.. और दूसरी ओर हम देखते और सुनते आये हैं कि भारत में कितना अमन चैन है, विकास कार्य हो रहे हैं। दिनोदिन तरक्क़ी हो रही है, वहाँ अभी तक एक बार भी सैनिक शासन लागू नहीं हुआ है। कितनी अच्छी प्रजातांत्रिक व्यवस्था क़ायम है, भारत में सभी धर्म एक समान हैं और कोई वाद—प्रतिवाद, छुआछूत, विषमता नहीं है। क़ाश! हमारे बुजुर्गों की गलती को समझा जाये। काश! हम पुनः एक हो जायें।'' तौसीफ़ माथे पर हाथ रख कुहनी मेज पर टिका कर बोला।

‘‘हाँ और एक महिला शासन कर रही है। भारत में नारी को सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। अब तक वहाँ दो मुस्लिम राष्ट्रपति हो चुके हैं।'' अटल तौसीफ़ की बातों का समर्थन करते हुए आगे बोला, ‘‘युद्ध अच्छे नहीं होते, युद्ध कभी सराहे नहीं गए। युद्ध से शान्ति भंग होती है। धन—जन—सम्पत्ति का विनाश, नारी की अस्मिता का अपमान व मानवाधिकारों का सर्वाधिक उल्लंघन होता है पर युद्ध शान्ति, व्यवस्था, न्याय, धर्म व स्वतंत्रता की पुनर्स्थापना के लिए आवश्यक भी हो जाते हैं तथापि युद्धों को टाला जाना चाहिए तथा मनुष्य मात्र को आपस में मिलजुलकर सह अस्तित्व के साथ जीना चाहिए। विश्व—एकता की आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।''

‘‘भाइयों! मीटिंग खत्म हो गयी हो तो भोजन...... यहीं ले आऊँ या आप लोग नीचे चल रहे हैं।'' शमा कमरे में प्रवेश करते बोली।

अटल, तौसीफ़ कुछ देर शांत रहे, फिर एक दूसरे की ओर संकेत से सहमति दे अपने—अपने स्थान से उठकर नीचे चल दिये।

उनके पीछे चल रही शमा दोनों के अचानक इस परिर्वतन से खिलखिला कर हँस पड़ी थी, पर जल्दी ही उसने दुपट्‌टा अपने मुँह में ठूँस लिया जिससे बाकी की हँसी अन्दर ही घुट कर रह गयी।

पूरा दिन घर के अंदर ही बीत गया। रात्रि का यह प्रथम प्रहर था। दिन भर की बातचीत के बाद दोनों मित्रों ने निर्णय लिया कि वे ममता का पता लगाने, गर्ल्स हॉस्टल जाएँगे।

तौसीफ़ ने अपने माता—पिता को बताया कि वह हम्माद के घर उसके व उसके परिवार की कुशलक्षेम पूछने जा रहा है। अटल भी तौसीफ के साथ हो लिया।

अपने लायक पुत्र की कुशल तर्क क्षमता व सुझावों के प्रतिउत्तर में माता—पिता के पास सिवाय अनुमति या सहमति के कोई चारा नहीं रह जाता है।

यही स्थिति यहाँ पर इस वक्त तौसीफ़ के अब्बा व अम्मी के साथ थी, वे लाख चाहते रहे कि तौसीफ अब उनकी आँखों से ओझल न हो पर अन्ततः उन्हें उसे जाने की आज्ञा देने के लिये राजी होना ही पड़ा।

तौसीफ़ व अटल अंधेरी गलियों में चौकन्ने बढ़ रहे थे अपनी मंजिल की ओर जो लगभग तीन किलोमीटर दक्षिण में थी। मंजिल यानी गर्ल्स हॉस्टल।

गर्ल्स हॉस्टल जो इस समय पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों का हरम बना हुआ था। कई उभरती प्रतिभाएँ, कई मासूम कलियाँ जो इस समय पुरुष की कुत्सित काम पिपासा का शिकार हो रही थीं। जब—जब सामाजिक व्यवस्था अव्यवस्थित हुई है तब—तब पुरुष के इस रूप का शिकार स्त्री को भोग्या बनकर उठाना पड़ा है।

अव्यवस्थित समाज में कोई नियम नहीं होता, चहुँ ओर जिसकी लाठी उसकी भैंस की कथा ऐसे अवसरों पर चरितार्थ होती है। ऐसी ही स्थिति आजकल पूर्वी पाकिस्तान के कई शहरों में हो रही थी। इनमें खुलना भी एक है।

रात्रि की नीरवता में आज खुलना शहर के अंदर दो प्राणी ऐसे भी थे जो इस व्यवस्था को भंग करने वाले समूह के कुछ सदस्यों को दण्ड देने पहुँच रहे थे।

दोनों ने सोच रखा था, यदि अपने कार्य को अंजाम देते हुए मृत्यु को प्राप्त होना पड़ेगा, तो भी वे तैयार हैं। तौसीफ़ पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी के भेष में था, जबकि अटल एक ओवर कोट अपने ऊपर डाले हुए था। दोनों के दाहिने हाथ में भरे हुए रिवाल्वर थे जो ज़रा भीे आहट होने पर आहट की दिशा की ओर यंत्रवत जम जाते थे। उंगली लिबलिबी से चिपक जाती थी।

अभी तक उन्हें सिवाय चौकन्ने रहने के कुछ नहीं करना पड़ा था।

‘‘मेरी समझ में हम लोग आधा रास्ता तय कर चुके हैं।'' अटल तौसीफ

के पास आकर फुसफुसाया।

‘‘हाँ!'' तौसीफ भी फुसफुसाया।

पुनः वे दोनों मौन अंधेरे रास्ते पर चलते रहे।

यह खुलना का मेन मार्केट था जहाँ रात्रि आठ बजे खूब चहल—पहल रहती थी पर आज आठ बजे से ही चारों ओर सन्नाटा था। चौड़ी सड़क के किनारे से सटकर दो साये चले जा रहे हैं। चौराहे से निकलते दोनों दूसरे रास्ते पर आ गये थे। यहीं पर एक घुटी चीख़्ा ने उन दोनों को हैरत में डाल दिया।

‘‘अटल तुमने कुछ सुना।'' तौसीफ़ अटल को दीवार की ओर सटाकर बोला।

‘‘हाँ सुना तो है किसी लड़की की चीख लगती है..... जरूर कहीं कुछ

गड़बड़ है।'' अटल बोला। थोड़ी देर वे दोनों शांत खड़े रहे।

दूसरी चीख का इंतजार उन्हें ज़्यादा देर नहीं करना पड़ा। तौसीफ ने

एक तीनमंज़िली इमारत की ऊपरी मंज़िल की ओर इशारा किया और उस ओर बढ़ लिया। अटल ने कोई सफेद वस्तु ऊपरी मंजिल से नीचे गिरते देखी। अटल ने तौसीफ़ को संकेत किया और उस गिरती वस्तु की ओर सांस साधकर देखने लगा। वह वस्तु सड़क पर गिर चुकी थी। वे दोनों उस वस्तु के निकट पहुँचे। यह ‘तकिया' था, जो ऊपर खिड़की से नीचे फेंका गया था। स्थान का अंदाज़ अब उन दोनों की समझ में पूरी तरह आ चुका था परन्तु सबसे बड़ी समस्या थी ऊपर पहुँचने की। तीन मंज़िल की इस इमारत के सबसे ऊपर पहुँचने के लिए जीने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था। जीने के दोनों ओर दुकाने थीं, सभी पर ताले लगे थे, जीने का चैनल गेट अंदर से बंद था।

चैनल गेट बाहर से खोल पाना या तोड़ पाना फिलहाल इस समय

नितांत असंभव था।

तौसीफ़ के दिमाग़ में शीघ्र आइडिया आया, अटल को अपने पीछे आने का संकेत कर वह बिल्डिंग के पीछे की ओर बढ़ लिया।

अटल ने तौसीफ के आइडिया का अनुमान लगा लिया और उसके पीछे हो गया।

लगभग दो फर्लांग घूमकर वे उस इमारत के पीछे आये। इमारत की

ऊपरी मंज़िल तक पाइप लाइन देख दोनों की आँखें चमक उठीं।

अगले पल वे पाइप से ऊपर की ओर चढ़ने की कोशिश कर रहे थे।

नीचे अंधेरा था ऊपर आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे।

तीसरी मंज़िल की खिड़की से आ रही मद्धिम रोशनी के साथ तेज प्रकाश जब कभी पड़ जाता था। यह तेज प्रकाश टॉर्च का होगा दोनों ने अनुमान लगाया।

टार्च की रोशनी व हल्की आहट के अलावा सब कुछ शांत था।

चीख़्ा भी केवल उन दोनों ने दो बार ही सुनी थी।

अच्छी खासी ठण्ड के बाद भी तौसीफ़ व अटल पूरी तरह पसीने से लथपथ हो उठे।

दोनों की भुजाएँ छत पर आने तक भर चुकी थीं। अटल की बाईं भुजा के भर चुके घाव से खून रिसने लगा। उसने दर्द को आत्मसात कर लिया और तौसीफ़ को इस बात का आभास नहीं होने दिया।

दोनों क्षण भर के लिए सुस्ताए और अपने—अपने रिवाल्वर को हाथ में लिये, बिना कोई पदचाप किये नीचे सीढ़ियों पर उतरने लगे।

यह तीसरी मंज़िल की बालकनी थी।

तौसीफ़ ने खुली खिड़की से अंदर झांका ही था कि उसे अटल की हल्की चीख़्ा व अन्दर के दृश्य ने एक साथ दहला दिया।

अन्दर देखते—देखते उसने पीछे की ओर देखा। उसके पीछे दो पाकिस्तानी फौजी अटल को पकड़े हुए थे। एक पल के लिए तौसीफ़ को काठ सा मार गया, पर अगले पल उसे अपनी वर्दी का ध्यान आया। वह कुछ कहता कि टार्च के तेज प्रकाश में नहा गया।

‘‘तुम .. लोग यहाँ .. क्या कर रहे हो।'' एक फौजी बोला।

‘‘हम बगल की मंज़िल में थे उस्ताद।'' तौसीफ़ बोला जो अब अपने आप

को संयत कर चुका था।

‘‘ये कौन है..... तुम्हारे साथ?''

‘‘ये अहमद है उस्ताद।''

‘‘बिना वर्दी ... किस नम्बर की बैरक में हो?'' फौजी ने अटल को छोड़ते हुए लापरवाही से कहा।

‘‘बैरक ..” कुछ पल रुका तौसीफ ।

‘‘छोड़ो यह बताओ तुम्हारा माल कैसा है?'' वही फौजी दोबारा बोला।

‘‘एकदम एवन'' तौसीफ़ होशियारी से बोला।

‘‘तो फिर वहीं चलते हैं, यहाँ तो साला मजा ही किरकिरा हो गया।'' दूसरा फौजी लड़खड़ाती ज़ुबान में बोला, ‘‘चल कादिर हाँ .. क्या कहा बगल में, हाँ चलो बगल में ...

शराब के नशे में धुत फौजी कुछ और कहता कि तौसीफ़ का इशारा पा अटल ने उसे अपने रिवाल्वर के साथ कवर कर लिया जो उसकी खोपड़ी से सट गया था।

‘‘क्या मज़ाक करते हो यार... दूर हटो।'' दूसरा फौजी झुँझला कर बोला।

‘‘मज़ाक नहीं है हरामज़ादों दोनों हाथ ऊपर करो नहीं तो तुम दोनों की

खोपड़ी में सुराख होने में कतई देर नहीं लगेगी।''

दोनों पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों ने स्थिति को भाँपते हुए हाथ ऊपर उठा दिये। तौसीफ ने उन दोनों के हथियार फुर्ती के साथ अपने कब्ज़े में कर लिये।

‘‘अब तुम उस्ताद अपने कपड़े उतारो।''

‘‘कपड़े?''

‘‘हाँ मैं तुम्हारे साथ बलात्कार नहीं करूँगा, सिर्फ कपड़े उतारने को कह रहा हूँ।'' तौसीफ ने कनपटी पर पिस्तौल गड़ाते हुये कहा।

‘‘या अल्लाह! क्या मज़ाक कर रहे हैं भाई।''

‘‘भाई....! साले फिर मज़ाक, उतार नहीं तो।'' तौसीफ़ धीमे, किंतु धमकी

भरे स्वर में बोला और वहाँ उस फौजी ने जल्दी—जल्दी अपने कपड़े उतारने

शुरू कर दिये।

तौसीफ़ के कथित उस्ताद के साथ ही बिना कहे दूसरे फौजी ने भी अपने कपड़े उतार दिये।

दोनों अधेड़ सैनिक अब वस्त्रहीन थे।

टॉर्च की रोशनी उन दोनों पर जैसे ही रेंगती दोनों की हथेलियाँ जाँघों के बीच आ जातीं।

‘‘चलो, सालो उस कमरे में।''

वे दोनों पाकिस्तानी सैनिक, जिनका नशा हिरन हो चुका था अब पालतू कुत्तों की तरह तौसीफ़ की आज्ञा का पालन कर रहे थे।

अन्दर कमरे में पलंग के पास दो लाशें पड़ी थीं, पलंग के ऊपर अटल व तौसीफ ने देखते ही अपनी निगाह नीचे कर ली पलंग पर निर्वस्त्र लड़की की बेजान देह पड़ी थी।

अचानक तौसीफ़ को पता नहीं क्या हुआ।

‘‘हरामज़ादों, दरिंदों मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगा..... कहते—कहते तौसीफ ने

एक के बाद दूसरे की गर्दन पर अपनी लम्बी चाकू का फल घुमा दिया।

वे दोनों इंसानी दरिंदे फ़र्श पर तत्क्षण लोटने लगे।

अटल ने तौसीफ को संभाला।

तौसीफ अटल के कंधे पर सिर रख रो पड़ा।

दुःख अटल को भी था कि वे किसी को बचा नहीं पाये।

अटल ने पास पड़ी चादर से मृत लड़की की देह को ढाँप दिया।

वे दोनों सोच रहे थे कि दूसरी चीख जो उन्होंने सुनी थी वह मृत लड़की की शायद आखिरी चीख थी।

दोनों मित्र कुछ देर कमरे में पड़ी तीन निर्दोष लाशों की ओर देखते रहे।

बूढ़े माँ—बाप अपनी जवान लड़की को मरते दम तक बचाते रहे थे।

कमरे की अस्त—व्यस्त स्थिति इस बात की गवाही दे रही थी कि कुछ

देर पहले यहाँ अन्याय के विरुद्ध जम कर संघर्ष हुआ था।

वे दोनों अब सीढ़ियों से दूसरी मंज़िल पर आ गये। यहाँ अंधेरा था दरवाज़े पर दस्तक देने पर कोई प्रति उत्तर या आहट नहीं मिली।

यही स्थिति प्रथम तल पर रही।

सभी अपनी—अपनी जान बचाने की कोशिश में थे, किसी को कुछ

मतलब नहीं कि उनके बराबर वाले फ़्लैट में क्या हो रहा है?

‘‘चूहे!'' तौसीफ़ गुर्राया था।

चैनल गेट खोल वे दोनों बाहर सड़क पर आ गये।

कुछ दूर चलकर एक दुकान के बाहर पड़े तख्त पर लेटकर दोनों सुस्ताने लगे।

कुछ देर पहले घटित घटना उनके मस्तिष्क में बार बार घुमड़ रही थी।

दोनों ने दूर से उस अभागिन इमारत की ओर घूरा....अंधेरे में वीरान इमारत अब उन्हें भयावह दिख रही थी।

दूर कुत्तों के एक साथ रोने की आवाज़ें उन दोनों के कानों में पड़ी।

तौसीफ़ ने अपनी कलाई घड़ी को टॉर्च के प्रकाश में देखा, रात्रि के दस बज रहे थे।

‘‘अटल यहाँ से कोई पाँच—छः फर्लांग पर ही हम्माद का घर पड़ता है

......मैं चाहता हूँ कि उसकी कुशलक्षेम लेते हुए हम दोनों गर्ल्स हॉस्टल चलें तब तक और रात हो जायेगी जिससे हमें फायदा ही रहेगा।'' तौसीफ़ ने तख्त पर उठकर बैठते हुए कहा।

कुछ देर अटल ने सोचने की मुद्रा बनायी फिर एक तेज साँस खींचकर वह बोला, ‘‘ठीक है जैसा तुम उचित समझो।''

‘‘आओ चलें।' तौसीफ़ ने खड़े होते हुए अंगड़ाई ली। उसने चारों ओर देखा ‘सन्नाटा' पसरा पड़ा था।

वे दोनों हम्माद के घर की ओर बढ़ने लगे।

‘‘हम्माद के घर में कौन—कौन है?'' अटल ने पूछा।

‘‘हम्माद के अम्मी अब्बा के अलावा उसके एक भाई व दो बहनें हैं।

सबसे बड़ी बहन ढाका में है बहनोई सचिवालय में है। वहीं पर उसके बड़े थे।

कुछ पल वे दोनों किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में खड़े रहे। थोड़ी देर बाद भाईजान सिंचाई विभाग में इंजीनियर हैं। हम्माद से छोटी एक बहन है, उसने इसी वर्ष कॉलेज में प्रवेश लिया है पर बातचीत में उसकी दीदी लगती है,

‘‘रुख़्ासाना'' अन्तिम शब्द के साथ एक तेज साँस ली थी तौसीफ ने।

‘‘रुख़्ासाना'' कुछ सोचते हुए अटल ने यह शब्द दोहराया फिर अगले पल उसे कुछ याद—सा आ गया। वह खुशी से लगभग चीखा—‘‘रुखसाना! वही तो नहीं...... जिसकी तुम चर्चा करते रहते थे तुम्हारी हूँ...... हूँ!‘‘ आखिर के शब्द वह धीमे—धीमे बोला था, क्योंकि तौसीफ़ ने उसे धीमे बोलने का संकेत किया था।

‘‘हाँ वही है रुख़्ासाना जिसकी मैं चर्चा किया करता था।'' तौसीफ बोला, ‘‘पर अभी इंगेजमेंट नहीं हुआ है इसी बकरीद में होना था पर उसके मामू का देहान्त हो गया और डेट बढ़ गयी, अब यह स्थिति हो गयी है। आगे देखो कब क्या होता है..... पर देखो वहाँ चलकर ज्यादा भांजना मत, कहीं ऐसा न हो जाये कि तुम्हें..... अपनी होने वाली भाभी से मात खानी पड़ जाये।''

अटल अचानक ममता की याद आ जाने से उसकी याद मे खो गया।

यहीं खुलना में सितम्बर के महीने में दोनों नवदुर्गा पर माँ काली के मन्दिर गये

थे जहाँ एक दूसरे ने साथ जीने—मरने की शपथ दोहरायी थी।

‘‘हैलो डियर क्या सोचने लगे‘‘ तौसीफ ने अपनी बात का जवाब न सुनकर कहा।

‘‘कुछ नहीं .. कुछ नहीं।''

‘‘वो रही हम्माद की कोठी'' तौसीफ़ ने एक आलीशान कोठी की ओर इशारा किया। चार जूट मिलों के मालिक उस्मान खाँ की यह आलीशान कोठी थी जो चारों ओर से कंकरीट की दीवार से घिरी थी। मेन गेट पर लगे फाटक पर बाहर से ताला लटक रहा था।

‘‘कभी यहाँ गोरखा खड़ा होता था।'' तौसीफ़ बुदबुदाया उसके हाथ फाटक पर लगे ताले को स्पर्श कर रहे थे। दोनों इस समय पश्चिमी पाकिस्तान की सैनिक वर्दी पहने हुए पूरे पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी लग रहे

तौसीफ ने अटल का हाथ दबा दिया और उसे अपने पीछे आने को कहा और स्वयं फाटक फांद कर अंदर कूद गया। अटल ने तौसीफ़ का अनुसरण किया। अटल के फाटक से नीचे कूदने की आवाज के साथ कोठी के अंदर से एक तेज टॉर्च की रोशनी उन दोनों के ऊपर से गुजर कर लुप्त हो गयी।

तौसीफ़ कुछ समझता कुछ बोलता इसके पहले ही एक टॉर्च की रोशनी पुनः हुई जो अटल के ऊपर कुछ क्षण के लिये स्थिर रही और अगले पल... धाँय की आवाज आई।

एक तेज़ चीख के साथ अटल फाटक से टकरा कर जमीन पर लुढ़क गया। गोली उसके शरीर में कहीं सुराख बना गई थी। अब बारी तौसीफ़ की थी। टॉर्च की रोशनी अब उसे ढूँढ़ रही थी। इसके पहले की दूसरा धमाका होता तौसीफ जी—जान से चीख उठा था, ‘‘हम्माद'' कुछ पल के लिये उसकी चीख गूँज गई। ‘ये क्या कर दिया।' कहते हुए अटल की ओर झुककर उसके

शरीर को टटोलने लगा। तौसीफ़ का चेहरा टॉर्च की रोशनी के सामने था।

ऐसा वह जानबूझकर कर रहा था ताकि टॉर्च की रोशनी फेंकने वाला उसे पहचान सके।

‘‘तौसीफ़ तुम!'' चिल्लाते हुए टॉर्च सहित कोई साया कोठी के बाहर बने बरामदे से तेजी से फाटक की ओर भागा। ये हम्माद था। जिसके पीछे हम्माद के अब्बा उस्मान खाँ थे।

‘‘अरे बेटे तुम पश्चिम पाकिस्तान की फौजी डे्रस में'' हम्माद के अब्बा

घबड़ाते स्वर में बोल रहे थे, ‘या ख़्ाुदा यह क्या हो गया?'

‘‘अब्बा हुज़ूर गोली तौसीफ़ को नहीं उसके साथी को लगी है।'' कहते हुये हम्माद ने अपनी बाँहों में अटल को उठा लिया। टॉर्च व अटल की स्टेनगन तौसीफ़ ने ले ली। अटल को लादे हम्माद के साथ तौसीफ़ व हम्माद के अब्बा कोठी के अंदर प्रविष्ट हुए। अंदर हॉल में एक लैम्प जल रहा था। हम्माद ने अटल को पलंग पर लिटा दिया। अटल पहली बार कराह उठा था।

ईश्वर का शुक्र है कि अटल को गोली नाज़ुक जगह पर न लग उसकी

बाईं बाँह में वहीं पर लगी जहाँ कुछ दिन पहले गोली लगी थी।

कुछ पल के लिए आयी बेहोशी से अटल दूर हो चुका था। उसकी बाईं बाँह तेजी से दर्द उत्पन्न कर उसके मुँह से कराह की तीखी वेदना निकाल रही थी।

हम्माद स्वयं को कोस रहा था।

गलती उसकी नहीं थी, क्योंकि उसने फाटक से किसी के कूदने की आहट को खतरे का पूर्वाभास समझा था। जिसकी पुष्टि पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों की डे्रस ने कर दी जिसे अटल व तौसीफ़ पहने हुए थे। फलस्वरूप उसने गोली चला दी। पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की डे्रस पहनकर इस तरह अंदर आने की क्या ज़रूरत थी और फिर ऐसे समय जबकि चारों तरफ ख़तरा ही खतरा है। ऐसा हम्माद के अब्बा उस्मान खाँ बड़बड़ा रहे थे। उनकी बड़बड़ाहट का उत्तर उन दोनों के पास था, पर उसे इस समय बताने का समय नहीं था।

‘‘चाचीजी आग में गरम करके एक चाकू ले आइये।'' तौसीफ़ ने हम्माद की अम्मी से कहा जो अपनी पुत्री रुख़्ासाना के साथ खड़ी इस हादसे को गम्भीरता से देख सुन रही थीं।

तौसीफ़ से निगाहें मिलते ही रुख़्ासाना अपनी अम्मी के पीछे—पीछे शरमा कर चली गयी।

ऐसे क्षणों में भी तौसीफ़ के चेहरे पर हल्की सी चमक दौड़ गयी जिसे कराहते हुए अटल भाँप गया था।

ऐसा तौसीफ़ ने भी समझा। थोड़ी देर के लिये दोनों की आँंखें मधुर मुस्कान लिए चार हुईं।

स्थिति को बदलने के लिए तौसीफ़ ने पहल की।

‘‘चचा जान ये मेरे साथी अटल बनर्जी है'', फिर धीरे—धीरे घटना के साथ पूरा वृत्तांत हम्माद व चचा जान को बतला दिया।

यह सुन चचा जान तो धम्म से सोफा पर बैठ गये, जबकि हम्माद के चेहरे पर स्वयं के लिए क्रोध के भाव उभर आए।

आगे कुछ और तारतम्य जारी रहता परन्तु अम्मी के आ जाने से तौसीफ़ शांत हो गया और उनसे चाकू ले वह अटल को संभालते हुए उसकी बांँह से गोली बाहर निकालने का उपक्रम करने लगा, इस कार्य में हम्माद ने उसकी पूरी मदद की, जबकि अम्मी व रुख़्ासाना यह दृश्य न देख सकीं और अंदर चली गयी।

चचा जान अटल को दर्द सहन करने के लिए साहस बंधा रहे थे। गर्म चाकू का फल अटल की बाँह में पहुँच गया जिसके साथ ही अटल दर्द को दांँत के अंदर रखने के बावज़ूद भी मुँह से निकलती कराह को रोक पाने में असमर्थ था। लैम्प पकड़े चचा जान के दोनों हाथ काँपने लग गये। कुछ पल के बाद गोली बाहर आ गयी। साफ कपड़े की पट्‌टी से तौसीफ़ ने बाँह कसनी

शुरू कर दी। उसके माथे से पसीना इतनी ठंड के बावजूद झलक रहा था। पट्‌टी के ऊपर उसने तीन चार पटि्‌टयाँ और बाँधी ताकि घाव से रिसता खून बंद हो जाये।

‘‘डॉक्टर होगा कोई आसपास'' तौसीफ़ ने हम्माद से पूछा।

‘‘हाँ क्यों नहीं, है न, मैं जाता हूँ लेने।''

‘‘तुम अकेले नहीं, मैं भी साथ चलता हूँ।'' तौसीफ़ ने कहा और पाकिस्तानी ड्रेस उतारने लगा। कुछ समय बाद तौसीफ़ हम्माद के कपड़े पहन उसके साथ डॉक्टर को लेने के लिए रवाना हो गया। कुछ देर केे लिए हॉल में सन्नाटा सा छा गया।

चचाजान खुदा को दुहाई दे रहे थे, वहीं अम्मी भी ज़माने को कोस रही थीं। यहाँ अटल आप बीती और आगे बीतने वाली घटनाओं के बारे में सोच रहा था। शांत एकदम शांत, यद्यपि रह—रह कर उसकी बाँह से तेज दर्द की लहर अभी भी उठ रही थी।

पूरे दो घंटे बाद फाटक पर आहट हुई जिसके साथ ही चचाजान टार्च व रिवाल्वर लिये हॉल से बाहर बरामदे में पहुँच गये।

कुछ देर बाद उनके साथ डॉक्टर सहित हम्माद व तौसीफ़ थे। नींद की गोली ले चुकने के बाद अटल सो रहा था।

डॉक्टर ने कुछ देर पहले लपेटी गयी, पटि्‌टयाँ अलग करके अपनी चिकित्सा आरम्भ कर दी।

‘‘डॉक्टर साहब ज़हर फैलने की सम्भावना तो नहीं है।''

‘‘नहीं, मैं एक इंजेक्शन दिये देता हूँ, ये अब ख़्ातरे से बाहर हैं। सुबह के पहले इन्हें मत जगाइयेगा, आराम करने दीजियेगा।''

‘‘माफ़ कीजियेगा डॉक्टर साहब यह सब गुप्त रखियेगा।''

‘‘आप कैसी बात करते हैं खान साहब क्या मैं आपको नहीं जानता फिर

ऐसी अवस्था में भला आपका साथ देने में कौन मूर्ख हिचकिचायेगा। पर ये पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक यहाँ कैसे?''

‘‘यह पश्चिमी पाकिस्तानी सेना का सिपाही नहीं है, बल्कि मेरा सहपाठी है, परिस्थितियोंवश भेष बदले हुए है और इसी कारण धोखे से इसे गोली लग गयी।' हम्माद ने डॉक्टर की शंका दूर करते हुए कहा।

‘‘आइये अब आपको छोड़ आया जाये।'' कहते हुए तौसीफ़ ने डॉक्टर साहब का बैग उठा लिया।

तीनों हॉल से बाहर हुए, कुछ पल बाद फाटक पर हुई आहट ने संकेत दिया कि वे तीनों कोठी से बाहर हो चुके हैं।

डॉक्टर साहब का घर चालीस मिनट पैदल चल चुकने के बाद आया। रास्ते में तीनों मौन बने रहे। अंधकार में उन्होंने टार्च को बहुत कम जलाया हर कदम के साथ वे सतर्क थे ।

‘‘डॉक्टर साहब गुडनाइट'', हम्माद ने डॉक्टर साहब के निवास स्थान के बाहर से विदा लेने के उद्देश्य से कहा।

‘‘आप दोनों को मेरे ग़रीबख़्ााने में कुछ मिनट का समय देना होगा'' डॉक्टर साहब ने आग्रहपूर्वक कहा।

हम्माद ने अंधेरे में तौसीफ़ के चेहरे की ओर घूरा। कुछ क्षण सोचने के बाद उसने हामी भर दी। दोनों डॉक्टर साहब के रिहायशी मकान में आ गये। मकान के अंदर शांति थी। यदि हम्माद के पास टार्च न होती तो वे दोनों कई

जगह टकरा गये होते। डॉक्टर साहब को जब हम्माद व तौसीफ़ बुलाने आये थे तब उन्हें क्लीनिक में उनका कम्पाउण्डर मिल गया था और अंदर रोशनी थी, परन्तु इस बार उन्हें न तो कम्पाउण्डर दिख रहा था न ही रोशनी। डॉक्टर साहब के साथ वे दोनों रहस्यमय वातावरण में पीछे—पीछे खिंचे चले जा रहे थे। तौसीफ़ पूछना चाहता था कि आखिर डॉक्टर साहब उन दोनों को घर के किस हिस्से में और कितने अंदर ले जाना चाहते हैं और क्यों? परन्तु वह शांत था। उसके हाथ में स्टेनगन थी, अतः वह किसी भी ख़्ातरे को बड़ा नहीं मान रहा था। वह समझ रहा था कि डॉक्टर साहब हम्माद के परिचित है। अतः अन्यथा सोचना बेकार है, फिर भी रहस्यमय स्थिति से वह चौकन्ना था। डॉक्टर साहब उन दोनों को लेकर घर के तहख़्ााने के दरवाज़े के पास आ गये। आख़्िार तौसीफ़ से न रहा गया। उसने डॉक्टर साहब से पूछ ही लिया।

‘‘डॉक्टर साहब आप हम दोनों को कहाँ ले जाना चाहते हैं. मैं आपका.......

‘‘.......उद्देश्य नहीं समझ पा रहा हूँ, यही कहना चाहते हो न तुम'' डॉक्टर साहब ने तौसीफ़ का वाक्य काटते हुए कहा।''

तौसीफ़ ने संकोच के साथ सहमति में सिर हिलाया। डॉक्टर साहब ने हल्का सा कहकहा लगाया, फुर्ती से तौसीफ की ओर घूमें और उसके कंधे पर अपना बायाँ हाथ रखते हुए बोले—‘‘मि. तौसीफ़ अहमद .. बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी नायक नम्बर टू डबल जीरो सेवन फाइव .. ऑपरेशन फ्रीडम।''

डॉक्टर साहब ने एक—एक शब्द स्पष्ट आवाज में चबा—चबाकर कहा। डॉक्टर साहब के रूप में अपने सामने अपने लक्ष्य के साथी को पा

तौसीफ़ व हम्माद हर अगले शब्द के साथ आश्चर्य में पड़ते जा रहे थे।

तौसीफ़ ने डॉक्टर साहब को गले से लगा लिया। हम्माद ने भी ऐसा किया परन्तु दोनों तब और भी ज्यादा आश्चर्य में पड़ गये, जब डॉक्टर साहब ने अपनी जेब से नकली दाढ़ी निकालकर चेहरे पर लगा ली।

‘‘मौलवी साहब आप'' दोनों एक साथ बोल पड़े।

‘‘हाँ! मेरे बच्चों मैं ही तुम दोनों का वही मौलवी साहब हूँ, जिनके निर्देशन में खुलना व उसके आसपास के वालंटियर पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के विरुद्ध ‘मुक्तिवाहिनी' के लिए काम कर रहे हैं।'' डॉक्टर साहब बोले जा

रहे थे।

हम्माद व तौसीफ़ डॉक्टर साहब को मौलवी साहब के रूप में पहचान नहीं पाये थे, कुछ अंधकार कुछ अविश्वास उन्हें समझने के लिए बाधक बन गया था।

तौसीफ पिछले कुछ पलों मे बीतेे रहस्यमय वातावरण की इस परिणति को समझ रहा था।

डॉक्टर साहब जो अब मेकअप के बाद मौलवी साहब के रूप में उनके सामने थे, ने तहखाने के बगल में लगा हुक दबा दिया जिससे तहख़्ााने की सीढ़ियाँ दिखने लगीं, तीनों क्रमशः उसमें समा गये। कुछ पल बाद तहख़्ााने का दरवाजा स्वतः पूर्व की भांति बंद हो गया।

मकान के अंदर तहख़्ााने में एक और मकान होगा ऐसी कल्पना न तो तौसीफ़ ने की थी न हम्माद ने सोची थी। अन्दर प्रकाश ही प्रकाश था। मौलवी साहब ने एक कमरे के बाहर दरवाज़े के पास का बटन दबाया फलस्वरूप गैलरी में लगा लाल बल्ब जलने बुझने लगा, कुछ देर बाद कमरे का दरवाज़ा स्वतः खुल गया।

अंदर मुक्तिवाहिनी के परिचित—अपरिचित सदस्य होंगे, यह भी उन दोनाें नवयुवकों की कल्पना में न था। पैतालीस वर्षीय डॉक्टर साहब इस समय साठ वर्षीय मौलवी साहब थे। हॉल के अंदर खड़े सभी मुक्तिवाहिनी के नौजवानों को मौलवी साहब ने हाथ के इशारे से बैठने को कहा और स्वयं एक आसन पर बैठ गये। हम्माद व तौसीफ को देख जहाँ कुछ अपरिचित प्रश्नवाचक दृष्टि से उन दोनों की ओर देख रहे थे, वहीं परिचित आँखों ही आँखों में कुशलक्षेम पूछ रहे थे।

हाल में लगभग पच्चीस वालंटियर थे। सभी वालंटियर कर्मठ व मुक्तिवाहिनी के प्रमुख कार्यकर्ता थे। सभा की औपचारिक शुरुआत मौलवी साहब ने की। सभी एकाग्र हो उन्हीं की ओर देख रहे थे। मौलवी साहब सभा को संबोधित कर बोले—

‘‘मुक्ति वाहिनी के बहादुर साथियों ! अब वह समय आ गया है जब हम अत्याचारी सैन्य तानाशाह याह्‌या खॉ की फौज का मुकाबला पुरजोर तरीके से करते हुए अपने नेता शेख मुजीबुर्रहमान के देखे सपने को सच साबित कर सकते हैं। २५ मार्च, १९७१ से चले खूनी ‘ऑपरेशन सर्चलाइट' के जरिए पश्चिमी पाकिस्तानी फौज ने अत्याचार की इंतहा कर दी है। मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाते हुए इन चरमपंथियों ने मानवता को कलुषित किया है। हमारे देश के बुद्धिजीवियों जिसमें डॉक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, अधिवक्ता सभी वर्ग के लोगों को चुन—चुनकर मार डाला गया है। हमारी माँ—बेटियों की अस्मिता लूटकर उनकी बेइज्जती की गई और विरोध करने पर उन्हें मार डाला गया या कैद कर क्रूरता के साथ उन्हें यातनाएँ दी गई हैं। यह संख्या हजारों से लाखों में पहुँच चुकी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जिस तरह हिटलर के नेतृत्व में नाजियों ने यहूदियों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए लगभग साठ लाख यहूदियों को घोर यातनाएँ देते हुए उन्हें मार डाला था। ठीक उसी तरह पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह के दिशा निर्देशन में उसकी अत्याचारी फौज हम बंगालियों के साथ कर रही है। हमारे नेता शेख मुजीबुर्रहमान सहित अनेक शीर्षस्थ नेताओं को बंदी बनाकर पश्चिमी पाकिस्तान ले जाया गया है। जिन्हें पता नहीं क्या—क्या यातनायें दी जा रही होंगी, उन सबके साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा होगा..... उनकी कोई भी खोज खबर हम लोगों तक नहीं पहुँच रही है। पाकिस्तानियों को हमारी ताकत, हमारी एकता का एहसास हो चुका है तभी इस आशंका से हमारे नेताओं को यहाँ से सैकड़ों मील दूर पश्चिमी पाकिस्तान ले जाया गया है कि कहीं हम लोग उन्हें कैद से छुड़ा न लें।

मेजर जियाउर्रहमान ने स्वतंत्र बांग्लादेश की घोषणा करते हुए जिस तरह से पूर्वी पाकिस्तानी सेना व पूर्वी पाकिस्तान राइफल्स जैसे अर्द्ध सैनिक बल से निष्कासित सैन्य अधिकारियों व सैनिकों को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए एकजुटकर ‘मुक्ति वाहिनी' का गठन किया है और इस स्वतन्त्रता आन्दोलन में युवाओं की भागीदारी बढ़ाते हुए उन्हें गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग दिलाकर एक समानान्तर सैन्य बल तैयार किया। इस सबके लिए वह न केवल प्रशंसा के पात्र हैं, अपितु बांग्लादेश की गौरवगाथा जब जब लिखी व गायी जायेगी तब तब मेजर जियाउर्रहमान को श्रद्धा के साथ याद किया जायेगा।

आज मुक्ति वाहिनी के हमारे गुरिल्ला जवान बांग्लादेश की सेना के

साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हैं और पश्चिमी पाकिस्तान की फौज को मुँहतोड़ जवाब देने में मजबूत हुए हैं। यहाँ उपस्थित हममें से प्रत्येक ने कुछ न कुछ खोया है..... अतः हमें मन प्राण से अपने बिछुड़े सगे—सम्बन्धियों के बलिदान की सौगन्ध हम तब तक चैन नहीं लेंगे जब तक पश्चिमी पाकिस्तानी सेना व उनके सहयोगी रज़ाकारों व जमात—ए—इस्लामी के सदस्यों को हाशिए में न ले आएँ।

भारत की सरकार ने हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन को पूर्ण समर्थन देकर न केवल हमारा मनोबल बढ़ाया है बल्कि मुक्तिवाहिनी के गुरिल्लाओं को युद्ध कौशल में पारंगत व प्रशिक्षित करने में मदद भी की है। हमारे देश से लाखों की संख्या में लोग भारत पहुँच रहे हैं, उनके रहने—खाने व स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था भी वहाँ की सरकार कर रही है...... उसने अपने देश की सीमाएँ हमारे लोगों के लिए खोल दी हैं ताकि पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की क्रूरता से हमारे लोग बच सकें। भारत की इस मदद व उपकार से हम बांग्लादेशवासी कभी उऋण नहीं हो सकते। अब मुक्तिवाहिनी भारतीय सेना से मिलकर ‘मित्र वाहिनी' के रूप में पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के दाँत खट्‌टे करेगी।

पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की क्रूरता का जवाब भारत चंद माह पहले भी दे सकता था परन्तु सैन्य रणनीतिवश उसने ठंड का इंतज़ार किया ताकी हिमालय के सारे रास्ते धोखेबाज चीनियों के लिए बर्फबारी से बन्द हो जायें और वह पाकिस्तानियों की सैन्य मदद न कर सके।

बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के सच्चे नौजवान सिपाहियों आप सभी को यह सुनकर अत्यंत प्रसन्नता होगी कि पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों के अत्याचारों से हमें उबारने के लिए, हमारी मदद के लिए भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आज सायं से भारतीय सेना हम लोगों की मदद हेतु भेजनी

शुरू कर दी है। भारतीय सेना न केवल हमारी अर्थात्‌ पूर्वी पाकिस्तान के

पीड़ित नागरिकों के लिए आई है बल्कि मानवता के हित में मानवता की रक्षक बन कर आई है। हमें उनकी हर कदम पर सहायता करनी है। इसलिए सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना है कि कितनी जल्दी व कितनी सही से सही सूचना हम उन तक पहँुंचा सकें जिससे उन्हें पश्चिमी पाकिस्तानी सेना का

सफाया करने में अधिक से अधिक सरलता हो। आप लोगों को मैं यह भी बता दूँ की परसों भोर पाँच दिसम्बर को भारतीय सेना की एक कम्पनी के कुल एक सौ पचास सैनिक खुलना शहर के पश्चिम में पैराशूट से उतरेंगे, जिनके लिए अस्थाई छावनी का निर्माण मुक्तिवाहिनी के वालंटियर कल शाम तक पूरा कर लेंगे। अतः हमने कुछ ऐसे कार्य चुने हैं, जिससे भारतीय सेना को आगे बढ़ने में कोई दिक्कत न हो। सर्वप्रथम यह कि हमें खुलना में पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के सैन्य बल की सही—सही सूचना एकत्र करनी है। इसका दायित्व मैं तौसीफ़ व हम्माद को सौंपता हूँ।'' मौलवी साहब ने तौसीफ़ व हम्माद की ओर देखते हुए कहा, ‘‘हम्माद व तौसीफ़ तुम दोनों कल शाम फौजियों के भेष में महिला छात्रावास जाओगे जहाँ पश्चिमी पाकिस्तानी सैन्य बल की सूचना एकत्र कर परसों बारह बजे दिन के बाद तुम दोनों खुलना से पश्चिम दिशा की ओर दो किलोमीटर बाहर चलने पर एक विशाल पीपल का पेड़ पाओगे जहाँ पहले से खड़ी जीप पर ड्राइवर तुम्हारे इंतज़ार में होगा। आगे का कार्यक्रम भारतीय सेना का कम्पनी कमाण्डर निर्धारित करेगा। अपने प्रत्येक प्रोग्राम का कोड वर्ड तुम दोनों को अभिजीत भट्‌टाचार्य समझा देंगे।''

पानी के गिलास से एक घूंट पानी पीने के बाद मौलवी साहब आगे बोले, ‘‘तुम दोनों तैयार हो न, तुम्हारे घायल दोस्त, अटल व तुम्हारे परिवार की सुरक्षा—व्यवस्था कर दी जायेगी। हाँ, आज की रात तुम वापस अपने घर पर जा सकते हो, परन्तु कल प्रातः ही तुम दोनों को इसी स्थान पर आ जाना होगा।'' हम्माद व तौसीफ़ ने सहमति में सिर हिलाया। तौसीफ ने घड़ी की ओर दृष्टि डाली, रात्रि के तीन बज रहे थे। तभी अचानक तौसीफ़ को कुछ याद आया, वह बेचैन हुआ, फिर मौलवी साहब की ओर बढ़कर उनके कान में वह सब कुछ बताने लगा जो कुछ घण्टों पूर्व उसके व अटल के साथ हुआ था।

मौलवी साहब के चेहरे के भाव को पढ़ने का प्रयास सभी कर रहे थे। अपनी बात कह तौसीफ़ एक ओर हट गया। मौलवी साहब ने उन दोनों को जाने का संकेत किया व प्रातः पुनः आने का कोड समझा दिया।

कुछ ही मिनटों में तौसीफ़ व हम्माद उसी सड़क पर चल रहे थे जिस पर ठीक आधे घण्टे पूर्व वे दोनों मौलवी साहब को छोड़ने उनके घर जा रहे थे।

पूर्व की भाँति वे दोनों मौन किंतु चौकन्ने बढ़े चले जा रहे थे। उनके ‘‘आमार सोनार बांग्लादेश।'' मौलवी साहब के अन्तिम तीन शब्दों को उपस्थित नौजवानों ने दोहराया। इसी के साथ सभी अपने—अपने नियत कायोर्ं पास मात्र तीन घंटे का समय था इसके बाद उन्हें तुरंत वापस भी लौटना था।

यहाँ जबकि तौसीफ़ व हम्माद हॉल से बाहर जा चुके थे मौलवी साहब की गंभीर बदली मुद्रा से सभी उपस्थित लोगों के मन में प्रश्न उठ रहा था कि आखिर जाते समय तौसीफ़ मौलवी साहब को क्या कह गया है जिससे कि वे

एकाएक गंभीर हो गये। शीघ्र ही प्रश्न का समाधान हो गया, परन्तु समाधान केवल जिज्ञासा का हुआ था। मौलवी साहब ने जब यह बताया कि मुक्तिवाहिनी के सिपाही असगर के परिवार के साथ कुछ घंटे पहले पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के दो दरिंदों ने क्या ज़ुल्म किया है और वे दोनों शैतान तौसीफ़ के हाथों मारे भी गये।

हॉल में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। सभी मौलवी साहब की भाँति गंभीर हो गये। सभी के सामने शहीद असगर का चेहरा घूमा, जो पश्चिमी पाकिस्तानी सैन्य टुकड़ी के साथ एक मुठभेड़ में लड़ते हुए शहीद हो गया था। इसके बाद उसके परिवार की हुई दुर्गति की कल्पना मात्र से सभी के शरीर के अंदर का लहू उत्तेजित होने लगा, मुट्ठियाँ भिंच गयी। मौलवी साहब को अफसोस हो रहा था कि वे शहीद असगर के परिवार की रक्षा न कर पाये। अफसोस सभी को हो रहा था परन्तु वे अब क्या कर सकते थे? इस अपमान एवं अमानवीय कार्य का बदला वे जरूर लेंगे। दोनों दरिंदों को तौसीफ़ ख़्ात्म कर चुका था, यह जान सभी तौसीफ़ की सराहना मन ही मन कर रहे थे।

‘‘मेरे साथ क़यामत व अभिजीत भट्‌टाचार्य शहीद असगर के घर चलेंगे, उसके परिवार की अंतिम क्रिया करने'' कहते—कहते मौलवी साहब का गला भर आया, ...‘हमारे सामने जब तक पश्चिमी पाकिस्तानी सेना का एक भी सिपाही टिका होगा, हम चैन नहीं लेंगे, क्योंंकि उनके यहाँ रहने से ही यह अमानवीय कार्य बढ़ रहे हैं और बढ़ते रहेंगे। हमें अपने प्रत्येक कार्य को अंजाम देते समय यह ध्यान रखना है कि हमारे सामने एक सुनहरा स्वतंत्र धर्म निरपेक्ष बांग्लादेश होगा जहाँ किसी भी प्रकार की वैमनस्यता का अभाव होगा। मेरे साथ सभी एक साथ बोलेंगे....... आमार सोनार बांग्लादेश'' में लग गये।

प्रातः छः बजे ही तौसीफ व हम्माद पुनः मौलवी साहब के घर आ गये।

यहाँ आने से पूर्व दोनों ने अपने—अपने घर में अटल सहित सभी की सुरक्षा व्यवस्था भली प्रकार कर दी थी, उन्हें अपने जाने का मक़सद बता दिया था। उन्हें विश्वास था कि अल्लाह उनके बच्चों की रक्षा करेंगे क्योंकि उनके बच्चे नेक कार्य के लिए जा रहे हैं।

अटल जो आराम से सो रहा था उसके लिए तौसीफ पत्र छोड़ आया था व हम्माद के माता—पिता को आगाह कर आया था कि वे उसका ध्यान रखें।

यहाँ आने पर उन्हें मौलवी साहब ने, जो वास्तव में पेशे से डॉक्टर हैं और खुलना शहर के आवामी लीग के अध्यक्ष हैं, जिनके दो रूपों को केवल तौसीफ़ व हम्माद ही जान पाये थे, कहा कि वे आज पूरे दिन विश्राम करें और रात्रि होते ही अपने अभियान मे लग जायें। तौसीफ़ व हम्माद अचानक आये परिवर्तन के कारण कुछ सोच में पड़ गये, परन्तु उन्होंने सहमति में अपने सिर हिला दिये। मौलवी के वेष में डॉक्टर साहब ने तौसीफ़ से कहा कि वे अभी असगर के परिवार की अंतिम क्रिया के लिए जा रहे हैं। उन्होंने दिलासा देते हुए कहा कि वे दोनों अपने परिवार की सुरक्षा के प्रति कतई चिंतित न हों। मौलवी साहब चले गये। तौसीफ़ व हम्माद दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हो नाश्ता क्या ठोस भोजन नाश्ते के रूप में लेकर पिछली रात जो जागरण में बीती थी अब सोने की तैयारी में थे।

दोनों मित्र कुछ देर यहाँ—वहाँ की बातें करते रहे और पता नहीं कब निद्रा ने उन्हें आ दबोचा और वे बेफिक्ऱ हो आराम से खर्राटे लेने लगे।

तहख़्ााने में प्रत्येक स्थान पर वालंटियर अपनी—अपनी ड्‌यूटी पर मुस्तैद थे। तौसीफ़ व हम्माद जिस कमरे में सो रहे थे उस कमरे की सुरक्षा में भी एक वालंटियर बंद कमरे के बाहर मुस्तैदी से तैनात था।

मौलवी साहब अपने दो अन्य वालंटियर के साथ असगर के फ्लैट पर पहुँचे। मंजिल पर प्रातः की शोरगुलरहित चहल—पहल शुरू हो चुकी थी। कमरे का वीभत्स दृश्य दिल दहला देने वाला था।

पलंग पर असगर की बहन निर्वस्त्र बेजान पड़ी थी। फर्श पर असगर के माता—पिता मौत की नींद सो रहे थे। उन दोनों के चेहरे पर अभी भी प्रतिशोध व संघर्ष के भाव छाये थे। दरवाज़े के पास कोने में निर्वस्त्र पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के दो दरिंदे मृत अवस्था में पड़े थे। मौलवी साहब ने उन दोनों की लाश के ऊपर घृणा से थूक दिया।

कमरे की दीवार पर टंगी स्वर्गीय असगर की फ्रेम जड़ी फोटो अपने ऊपर मुरझाये फूलों की पड़ी माला के साथ कमरे के इस दृश्य को देख रही थी। मौलवी साहब असगर की फोटो को देख विलाप करने लगे— ‘‘असगर मुझे माफ़ कर देना, मैं तुम्हें दिये वचन का पालन नहीं कर सका, मैं तुम्हारे परिवार को बचा नहीं सका, यह कहते—कहते मौलवी साहब की आँखों में आँसू आ गये।

दोनों वालंटियर्स की भी आँखें नम हो आयीं।

कुछ पल ऐसा ही वातावरण बना रहा।

हृदय की भड़़ास जब आँसुओं की सहायता से निकल गयी, तब दोनों वालंटियर कमरे में पड़ी लाशों को बाँधने लगे।

दोनों पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों की लाशें उन्होंने बोरों में भर दीें। इतना सब करने के बाद उन्होंने असगर के परिवार के शव नीचे सड़क पर खड़े टैम्पों पर रख दिये।

मौलवी साहब ने दोनाें वालंटियर्स को बोरे उठा लाने को कहा और स्वयं टैम्पो की ड्राइविंग सीट पर डट गये। पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों की लाश ले जाने का कारण वालंटियर्स की समझ में नहीं आ रहा था, परन्तु वे कुछ न बोले और आज्ञापालन में जुट गये। बोरे आ चुकने के साथ ही मौलवी साहब ने टैम्पो स्टार्ट कर दिया। चौकसी के साथ ड्राइविंग करते हुए वे निर्जन पड़ी शहर की सड़कों पर बढ़ते हुए मुख्य चौराहे पर आ गये और यंत्रवत मौलवी साहब ने वालंटियर्स की मदद से दोनों पाकिस्तानी दरिंदों की लाशें फेंक दी और क़ब्रिस्तान की ओर बढ़ गये जहाँ शहीद असगर के निर्दोष माता—पिता व बहन को दफ़नाने के बाद वे वापस गुप्त ठिकाने में लौट आये।

मौलवी साहब आज की घटना से बहुत दःुखी थे। उन्हें मुल्क के विभाजन के वे दिन याद आ गए जब स्वतंत्रता के साथ भारत का विभाजन हुआ था और यहाँ भड़क उठे दंगों में उनके अलावा उनका पूरा परिवार साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गया था। इतिहास की पुनरावृत्ति में थोड़ा फर्क जरूर था, परन्तु रूप लगभग वही था।

तौसीफ़ दरवाज़े पर हुई आहट के साथ उठकर बैठ गया। उसकी दृष्टि दरवाज़े की ओर थी, उसने अनुमान लगाया कि ताला खोला जा रहा है। वह मुस्कराया, अपनी इस प्रकार की क़ैद पर उसने हम्माद को हिलाया। वह भी जागने ही वाला था, फलस्वरूप स्वयं को हिलाये जाने पर जल्दी उठ कर बैठ गया।

तौसीफ़ दरवाज़े के पास की खूँटी पर टंगी पाकिस्तानी फौजी डे्रस को देख बौखला सा गया, जिसे कि वह स्वयं पहनता था। यही तो उसके लिए

एक विडम्बना थी, परन्तु यह परिस्थितियोंवश आवश्यक भी है, उसने सोचा। दरवाज़ा खुल गया। अंदर एक वालंटियर ने प्रवेश किया। इतनी कम उम्र ! दोनों ने अनुमान लगाया मुश्किल से बारह—तेरह वर्ष।

‘‘आप दोनों भाई जानों को मेरा सलाम।''

''सलाम'' दोनों ने कहा।

‘‘मौलवी साहब आप दोनों को याद कर रहे हैं ...मेरे साथ चलिये।''

तौसीफ व हम्माद कुर्ता पाज़ामा में ही उस किशोर वालंटियर के पीछे हो लिए।

मौलवी साहब उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे, उनके पास ही अभिजीत भट्‌टाचार्य बैठे थे। दुआ सलाम के साथ ही वे दोनों मौलवी साहब के पास ही बैठ गये।

मौलवी साहब ने किशोर वालंटियर को जाने का संकेत दिया। अभिजीत भट्‌टाचार्य संकेत पा तौसीफ व हम्माद की ओर उन्मुख हो कहने लगे,“आप दोनों पाकिस्तानी फौजी के भेष में महिला छात्रावास की ओर जाओगे जहाँ पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी अपनी अस्थाई छावनी बनाए हुए हैं, वहीं उनके अस्त्र—शस्त्र का भण्डार है, जिसका आप दोनों को पता करना है साथ ही सैन्य बल का पता करना है। इतना सब करने के बाद कल सुबह दस बजे छात्रावास की पानी की टंकी के पास एक गाड़ी पर रखे फक़ीरों का लिबास आपको मिलेगा जिसे पहन कर बारह बजे के लगभग पश्चिम दिशा की ओर आप लोग बढ़ोगे और जैसा कि मौलवी साहब बता ही चुके हैं वहाँ पीपल के पेड़ के नीचे जीप मिलेगी, जिस पर बैठा सैनिक आप दोनों को एक साथ पकड़े हुए रूमाल से पहचान जायेगा फिर जैसा भारतीय सेना का कमाण्डर आदेश देगा वैसा करना होगा, हाँ आपका कोड ‘ऑपरेशन फ्रीडम' ही रहेगा।

तौसीफ़ व हम्माद दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर भोजन करने के पश्चात्‌ पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की ड्रेस में स्टेनगन लिए तैयार हो चुके थे। मौलवी साहब व भट्‌टाचार्यजी उन्हें बंगले के पीछे तक छोड़ने आये।

काफी दिन चढ़ आने के बाद अटल ने आँखें खोली वह अंगड़ाई लेना चाहता था, परन्तु इस प्रक्रिया ने उसकी बाँह को हिला दिया और उसके गले में दर्द भरी चीख़्ा घुट कर रह गयी। अटल की चीख़्ा सुन रुख़्ासाना उसके पास दौड़ी चली आयी। क्या करें ? क्या न करें,? रुख़्ासाना कुछ सोच नहीं पा रही थी। अटल अपने आप को संयत करने लगा था, साथ ही वह सोच रहा था कि हो न हो यह प्रतिमा ज़रूर तौसीफ़ मियाँ की मंगेतर है।

रुख़्ासाना ने अटल को एक गिलास पानी पीने को दिया। अटल मसनद के सहारे टिकते हुए कुछ बोलना चाहता था, परन्तु शांत रहा। उसने गिलास

रुख़्ासाना के हाथ से लिया और पूरा का पूरा ऐसे पी गया मानो वह बहुत देर से प्यासा हो।

‘‘भाईजान्‌ ....''

रुख़्ासाना कुछ कहती कि अटल बोल पड़ा, ‘‘तौसीफ कहाँ है ?''

रुख़्ासाना ने तौसीफ़ का छोड़ा पत्र अटल की ओर बढ़ा दिया।

‘‘सॉरी आप कुछ कहना चाहती थीं न'' अटल ने बीच में बोलकर अपने को अपराधी सा महसूस कर आत्मीयता से कहा।

‘‘हाँ........ मैं इस पत्र के बारे में कहना चाहती थी।'' रुख़्ासाना चेहरे पर मुस्कराहट समेटते हुए बोली।

‘‘अच्छा'' ........परन्तु आप खड़ी क्यों है बैठिये न.......'' अटल ने शिष्टाचार के दूसरे अपराध के पूर्वाभास को समझते हुए अचानक कहा।

रुखसाना पास रखी कुर्सी पर बैठ गयी। अटल ने लिफाफा फाड़कर उसके अंदर से तौसीफ़ का पत्र निकाल लिया।

प्यारे भाई अटल,

तुम्हारे साथ जो हुआ वह महज एक संयोग था, परन्तु इसके लिए न केवल हम्माद अपितु सभी लज्जित व दुखी हैं।

हाँ! मैं आज ही हम्माद के साथ महिला छात्रावास जा रहा हूँ, जहाँ ममता के बारे में पता करूंगा। जब तक मैं वापस नहीं आ जाता, तब तक आराम करो, डॉक्टर साहब समय से आते रहेंगे।

मैं व हम्माद जिस कार्य से जा रहे हैं उसमें दो से तीन दिन तक लग सकते हैं। विस्तृत, सफलता मिलने पर।

खुदा हाफिज!

तुम्हारा ही तौसीफ़।

अटल ने पत्र मोड़कर जेब में रख लिया।

‘‘चाचाजी वगैरह नहीं दिख रहे।'' अटल ने कमरे में चारों ओर निगाह

फैलाते हुए कहा जैसे कि वे वहीं हों।

‘‘अब्बा बाथरूम में हैं, अम्मी नाश्ता बना रही हैं। .......और भाईजान..... वग़ैरह बाहर गये हैं।''

रुख़्ासाना वगैरह शब्द को कहते ही शरमा गयी। यह बात अटल ने नोट की।

‘‘भाईजान! मैं आपके लिए चाय लाती हूँ।'' उठते हुए रुख़्ासाना ने कहा।

अटल ने सहमति में सिर हिला दिया। उसे अपनी ‘ममता' याद आ रही

‘‘हैलो! अटल बेटे कैसे हो?'' हम्माद के अब्बा हुजूर तौलिए से अपना बहुत कम समय के प्रशिक्षण में बहुत कुछ सीख लिया था इन जाबांज़ों ने। कमर के पास लगे रिवाल्वर में पूरी छः गोलियाँ भरी थीं। जर्सी के अंदर एक—एक चाकू उन दोनों के पास आपातकाल के लिए सुरक्षित था।

आकाश में बादल होने के कारण वातावरण में हल्की नमी थी और हल्केसिर पोंछते हुए अटल के पास आकर उसकी कलाई अपने हाथ में लेते हुए बोले।

‘‘अच्छा हूँ चाचाजी।'' अटल ने उनके पैर छूने का उपक्रम किया।

‘‘लेटे रहो... लेटे रहो ख़्ाुश रहो बेटे।'' कहते—कहते वे पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गये, फिर बातों का सिलसिला चल निकला। रुख़्ासाना के अब्बा ने कल रात की घटना के साथ तौसीफ़ व उसके बारे में काफी कुछ सुन कह डाला। दोनों का वार्तालाप तब तक चलता रहा जब तक कि रुख़्ासाना चाय लेकर अंदर नहीं आ गयी।

‘‘यह मेरी बेटी रुख़्ासाना है। इसने इसी वर्ष कॉलेज में प्रवेश लिया है

और आपके मित्र तौसीफ़ से इसकी मँगनी हो चुकी है।''

रुख़्ासाना अंतिम वाक्य को सुनने से पहले ही टेबल पर टे्र रखकर कमरे से बाहर भाग गयी।

‘‘बहुत शर्मीली लड़की है,‘' रुख़्ासाना के अब्बा चाय बनाते हुए बोले।

अटल सहमति से सिर हिला रहा था परन्तु उसके हिलते सिर की तरफ

किसी का ध्यान नहीं था।

आसमान में दिन भर बदली छायी रहने व शाम को हल्की बूँदाबाँदी हो जाने से मौसम में ठंडक बढ़ गयी थी।

तौसीफ व हम्माद इस समय पूरी तरह पाकिस्तानी सैनिक के भेष में थे। कसी वर्दी, फौजी जूते व कंधे पर लटक रही स्टेनगन से दोनों पूरे पश्चिमी पाकिस्तानी फौज के फौजी दिख रहे थे। कोई सोच भी नहीं सकता था कि कॉलेज के यह युवा ‘बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी' के स्वयंसेवक हैं जो किसी भी ख़्ातरे का सामना करने का साहस रखते हैं।

कुहरे के छा जाने से अंधकार समय से पूर्व घिर आया था।

खुलना शहर की बड़ी—बड़ी सड़कों पर वीरानगी छायी हुयी थी। यदा कदा पेट्रोलिंग करती सैनिक गाड़ियाँ दिख जाती थीं। लैम्प—पोस्ट जो कभी दूधिया चमक से जगमगाते थे, आज बुझे पड़े हैं। तौसीफ़ व हम्माद सतर्क चौकन्ने अपने लक्ष्य की ओर क्रमशः बढ़ते चले जा रहे थे। दूर से ही उन दोनों ने महिला महाविद्यालय से लगा हुआ महिला छात्रावास देखा। इस समय जबकि सारा खुलना शहर अंधकार में डूबा हुआ अपने दुर्भाग्य को कोस रहा था, महिला छात्रावास प्रकाश से जगमगा रहा था। लगता था मानो पूरे शहर की विद्युत आपूर्ति महिला छात्रावास के लिए कर दी गयी हो। बड़ी—बड़ी सर्च लाइटें दूर—दूर तक प्रकाश फेंक रही थीं। इतने उजाले में कोई परिंदा भी छिपकर अंदर न जा सकता था, न ही बाहर निकल सकता था।

सर्च लाइट के खम्भे के सहारे कँटीले घने तारों की बाड़ लगा दी गयी थी। यह बाड़ हाल ही में सुरक्षा के दृष्टिकोण से पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों ने लगायी थी। कुछ मिनट तौसीफ़ व हम्माद अंधेरे की आड़ में सुस्ताते रहे। उन्हें मुख्य द्वार पर दो चौकन्ने पहरा दे रहे संतरी साफ दिखायी दे रहे थे।

यही पहला द्वार उन्हें सर्वप्रथम पार करना था। तौसीफ़ ने आँखों ही आँखों में

हम्माद की ओर इशारा किया और कंधे पर लापरवाही से स्टेनगन टाँग वह संतरी की ओर बढ़ लिया। हम्माद उसके समान्तर चलने लगा।

माहौल अनुकूल बना रहे इस उद्देश्य से पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार तौसीफ़ ने हम्माद से पूछा—‘‘क्यों भई इशत्याक मियाँ बिना पान खाये तुम्हारा कैसे गुज़ारा चल जाता है।'' तौसीफ़ ने इतनी सफाई से कहा कि दूर खड़े संतरी भी इस वार्तालाप को सुन लें।

‘‘अमां यार यहाँ तो साला न पान चबाने को मिलता है न ही सुपाड़ी जर्दा ... वो हमारे लाहौर में देखो हर गली—चौराहे में पान की दुकान मिल

जायेगी।'' हम्माद ने भी कुशलता से तौसीफ़ का साथ दिया।

‘मियां हमारे मुल्तान की तो बात ही कुछ और है ये पूर्वी पाकिस्तान वाले पता नहीं क्या घास पाती खाते हैं।''

‘‘अमां घास पत्ती कहाँ, चावल मछली से पेट भर लेते हैं।''

मैंने तो सुना है यहांँ चावल मछली न मिले तो यहाँ के लोगों का पेट ही नहीं भरता।'' तौसीफ ने संतरी के पास आकर लापरवाही से कहा।

‘‘क्यों मियां तुम्हीं बताओ यहाँ के लोग क्या केवल चावल मछली खाकर पेट भर लेते हैं?'' इस बार तौसीफ़ ने दो में से एक संतरी के कंधे पर हाथ रखते हुए लापरवाही से पूछा।

‘‘हाँ साले तभी तो सुस्त रहते हैं।'' संतरी जिसके कंधे पर तौसीफ ने हाथ रख दिया था, तौसीफ़ की बात में अपनी बात जोड़कर उपहास भरे शब्दों में बोला।

‘‘साले क्या यहाँ कि सालियाँ भी तो सुस्त ही रहती हैं।'' इस बार दूसरा संतरी महिला छात्रावास की क़ैद छात्राओं पर कटाक्ष करके बोला था।

एक पल को तौसीफ़ को हुआ कि वह उसे कच्चा चबा जाये पर मन की बात मन में ही रखते हुए बोला—‘‘ठीक कहा मौलाना बिल्कुल ठीक कहा ख़्ाुदा कसम एकदम मछली हैं, मछली ...सुस्त मछली।''

‘‘ख़्ाुदा कसम माल तो चोखा है, यहाँ की लौंडियाँ हैं बेहद नम्बर एक की। मैं तो सोचता हूँ महीनों लड़ाई छिड़ी रहे...साला माल छानने को तो मिल ही जाता है।'' मौलाना ने अपनी लम्बी पतली दाढ़ी पर तृप्ति से हाथ फेरते हुए कहा।

‘‘मियाँ! सुना है हिन्दुस्तान की फौज ने हमला बोल दिया है।'' दूसरे संतरी के चेहरे पर छाये खौफ़ को तौसीफ ने साफ तौर पर देखा।

‘‘चलो मियाँ मुझे अभी पाखाना जाना है।'' हम्माद ने तौसीफ़ को अंदर की ओर धकेलते हुए कहा।

दोनों संतरी अपनी चर्चा में लीन रहे। तौसीफ़ ने झुककर लापरवाही से

स्वयं को अंदर धकेलते हुए मौलाना को सलाम किया और बिना उसके उत्तर

की प्रतीक्षा किये वह लम्बे फैले घास के मैदान की ओर हम्माद के पीछे बढ़ लिया।

प्रथम द्वार इतनी सहजता से बातों बातों में पार हो जायेगा ऐसा उन दोनों ने कतई नहीं सोचा था। ख़्ौर बिना ख़्ाूनख़्ाराबे के उन्हें सरलता से प्रवेश मिल गया था। ख़्ाुदा को सच्चे मन से दोनों ने धन्यवाद दिया।

महिला छात्रावास का खुला प्रांगण पश्चिमी पाकिस्तानी फौजियों की चहल कदमी से अशांत था। कतारबद्ध तीन मंज़िल का छात्रावास तेज प्रकाश से नहाया हुआ था। मैदान में जगह—जगह तम्बू गड़े हुए थे। किसी को बिना

शक पैदा किए हुए उन दोनों को इस भीड़ में घुल मिल जाना था। तौसीफ व हम्माद नल के पास आ गये। वहाँ पहले से कुछ सैनिक हाथ मुँह धो रहे थे। तौसीफ़ ने भी मग में पानी ले लिया और दिखाने के लिए मुँह धोने लगा। पानी ठंडा था फलस्वरूप हम्माद ने केवल कुल्ला किया।

तौसीफ़ ने खोजपूर्ण निगाह महिला छात्रावास की ऊपरी मंजिल पर जमा दीं। एकाएक उसे अटल की याद आ गई जिसने ममता का पता करने को कहा था। वह मासूम इस हाल में कैसे इन दरिंदों से बची होगी शायद

...... आगे सोच न सका तौसीफ़, उसका हृदय क्षोभ से भर उठा।

हम्माद को अपने साथ आने का इशारा कर वह बरामदे के पास ऊपर जाने वाले ज़ीने की ओर बढ़ लिया।

ज़ीने के बीचोबीच बड़ी—सी मेज़ के पीछे एक अधेड़ फौजी कुर्सी पर बैठा मेज पर रखे रजिस्टर पर कलम से कुछ लिख रहा था। जैसे ही तौसीफ़ उसकी बगल से निकला वह टोकते हुए बोला, ‘‘क्यों मियाँ बिना रजिस्टर में खाना पूरी किये ऊपर कैसे चल दिए?

‘‘ओह मैं तो भूल ही गया था'' तौसीफ़ ने कुछ समझते हुए कहा तब तक हम्माद भी आ गया था।

‘‘हाँ साला तुम्हारा उम्र ही अंधा है, सिर्फ लौंडियाँ दिख रही होंगी इस समय। हाँ बोलो कौन सा कमरा एलॉट है तुम्हारे नाम?''

‘‘कमरा?'' तौसीफ़ रुकते हुए आगे कुछ बोलता कि वही अधेड़ फिर बोला—‘‘ये सूबेदार की दुम भी बड़ा तेज है, कमरा भी ठीक से नहीं बताया

होगा। पियक्कड़ कहीं का।''

‘‘हाँ मैं तो भूल ही गया, क्या था यार? तुम्हारे बाद ही तो मैं।'' तौसीफ़

ने हम्माद की ओर देखते हुए कहा।

‘‘चौव्वन तो नहीं था, यही खाली है पचपन भी खाली है।'' अधेड़ ने चौव्वन और पचपन रूम नम्बर के आगे गोल घेरा बनाते हुए कहा।

‘‘हांँ यही है, यही है।'' तौसीफ व हम्माद एक साथ बोले।

‘‘ठीक है, ठीक है, घण्टे भर से ज्यादा समय मत लगाना, ठीक दस बजे कर्नल साहब का दौरा है।''

‘‘अच्छा उस्ताद!'' तौसीफ़ व हम्माद रूम नंम्बर चौव्वन व पचपन की ओर बढ़ लिए।

पहली मंज़िल के लगभग सभी कमरों में झांकते हुए वे दूसरी मंजिल पर आ गये।

नीचे के सभी कमरों में उन्हें मानवता का नंगा रूप देखने को मिला था।

मासूम बंगाली छात्राओं के ऊपर अमानुषिक अत्याचार करते हुए पाकिस्तानी सेना के दरिंदे उन्हें हर कमरे में दिखायी दिये।

जो कमरे खाली थे उनमें बैठी लड़कियाँ कटे परों के परिंदे की भाँति सिकुड़ी भयभीत दिखीं।

वे दोनों बेबस थे। आज वे उनके लिए सिवा देखते रहने के कुछ नहीं कर सकते थे। वे मजबूर थे। अनुशासन ने बाँध रखा था उनके हाथों को, नहीं तो अभी तक बहुत कुछ उल्टा—सीधा कर सकते थे वे दोनों, पर खून का घूँट पी शांत थे। प्रथम तल पर उन्हें ममता नहीं दिखी थी।

रूम नम्बर चौव्वन व पचपन में उन्होंने झाँका। बीस वर्ष से भी कम उम्र की लड़कियाँ थी जो भयभीत अपने भाग्य को कोस रही थीं।

उन्होंने एक चीज़ ग़ौर की, सभी लड़कियाँ केवल चोंगानुमा गाउन पहने थीं।

पश्चिमी पाकिस्तानियों को डर था कि कहीं कोई लड़की गले में फांसी न लगा ले, इसलिए उन्होंने नाड़ा की झंझट ही खत्म कर दी थी। हम्माद के कान में कुछ कह तौसीफ़ शेष कमरों में ममता को खोजने लगा। हताश वापस आकर उसने निराशा में हम्माद के सामने सिर हिला दिया। उसे ममता कहीं नहीं दिखी थी। तौसीफ़ व हम्माद एक ही कमरे में आ गये। तौसीफ के कहने पर हम्माद पहले से ही चौव्वन नम्बर की लड़की को पचपन नम्बर मेें ले आया था। अभी तक दोनों लड़कियाँ सहमी—सी एक ओर खड़ी थीं। तौसीफ़ ने फुर्ती से दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और लड़कियों की ओर मुड़ा।

भयभीत लड़कियाँ जानती थीं कि अब क्या होने वाला है, फलस्वरूप अपना अपना गाउन नीचे से गले तक खींच कर दोनों कटे वृक्ष की भाँति तख़्त पर ढह गयीं। नारी का यह प्राकृत रूप दोनों मित्राें को अपने सामने दिखना

घोर पापकर्म लगा, हतप्रभ वे अपनी हथेलियों को आँखों पर लगाये रो पड़े।

‘‘यह क्या?'' स्वयं से प्रश्न करतीे दोनों बालाएँ आश्चर्यचकित थीं।

उन्हें यह प्रक्रिया अचम्भे में डालने वाली थी। अपने गाउन नीचे कर वे दोनों उठकर बैठ गयीं। तौसीफ़ रूंधे गले बोला—‘‘बहनों डरो नहीं हम दोनों पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक की वेशभूषा में बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के स्वयंसेवक हैं। चिंता मुक्त हो जाओ, क्योंकि शीघ्र ही भारतीय सेना यहाँ धावा बोलने वाली है। शायद दो—तीन दिन में तुम लोग मुक्त हो जाओ।''

‘‘सच'' एक लड़की चहकी।

‘‘हाँ बिल्कुल सच बहन! तुम दोनों हम लोगों की सहायता कर सकती हो।''

‘‘किस प्रकार भैया।'' दूसरी लड़की बोली।

‘‘पहले यह बताओ कि कोई ममता बनर्जी नाम की लड़की......''

‘‘वह तो ...'' कहकर उदास हो चुप हो गई पहली लड़की।

‘‘क्यों क्या हुआ उसे?'' घबड़ाकर तौसीफ ने पूछा ।

‘‘वह पाकिस्तानी सेना की दरिंदगी से बचने के प्रयास में मारी गयी।''

‘‘कैसे?''

‘‘इसी मंजिल से नीचे कूद कर उसने अपनी जान दे दी।''

‘‘नहीं'', लगभग चीख़्ा पड़ा था तौसीफ़।

एक साथ सैंकड़ों बल्ब जलकर बुझ गये थे, उसकी आँखों के सामने।

अब वह अटल को किस मुँह से यह दुःखदाई सूचना देगा कि उसकी प्रेयसी ममता अब इस संसार में नहीं है।

‘‘ममता क्या तुम्हारी बहन थी?'' दूसरी लड़की तौसीफ़ की स्थिति को

भाँपते हुए बोली।

तौसीफ़ ने सहमति में सिर झुकाया।

‘‘तुम दोनों का नाम क्या है?'' हम्माद ने विषय बदलने के उद्देश्य से पूछा।

‘‘मेरा नाम परवीन है, इसका कमला। मैं बी०ए० फाइनल की छात्रा हूँ,

यह प्रीवियस की। ममता इसी के साथ पढ़ती थी।''

‘‘अच्छा'' हम्माद बोला। उसने घड़ी की ओर देखा। समय पूरा हो रहा था।

‘‘बहनों कुछ दिन की बात है जल्दी ही इस नरक से सभी को मुक्ति मिल जायेगी।........... और हाँ हम लोगों के यहाँ आने की सूचना गुप्त रखना

........ अच्छा''

‘‘हाँ'' दोनों ने आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए।

हम्माद, तौसीफ़ को कमरे से बाहर ले आया। ज़ीने से गुज़रते समय

अधेड़ सैनिक व्यंग्यात्मक मुस्कान लेते हुए उन दोनों को घूरकर मुस्कराया।

हम्माद ने ज़बरदस्ती चेहरे पर मुस्कान लाते हुए उसकी मुस्कान का जवाब मुस्करा कर दिया।

हम्माद तौसीफ़ को लेकर खुले मैदान की ओर बढ़ गया।

‘‘हम्माद ! दिल करता है एक—एक का ख़्ाून पी जाऊँ।'' तौसीफ़ ग़ुस्से को चबाते हुए बोला।

‘‘तौसीफ़ भाई धैर्य रखो, अगर ज़रा भी बहक गये तो सब खेल बिगड़ जायेगा।'' कुछ रुककर वह पुनः तौसीफ़ को समझाते हुए बोला—‘मौलवी साहब का पूरा प्लान चौपट हो जायेगा'' अचानक कुछ ध्यान आ जाने पर हम्माद बोला—‘अभी हमें शस्त्रागार का पता करना है। रात बीतने के पहले

बहुत कुछ जानकारी हासिल करनी है।''

‘‘हाँ'' तौसीफ़ सोते से जागा।

‘‘आओ''

एक बार फिर वे दोनों अधेड़ के पास खड़े थे।

उन्हें विश्वास था कि उससे बहुत कुछ जानकारी मिल जायेगी।

‘‘उस्ताद हम क्यों आये हैं.. अंदाज़ा है कुछ?''

तौसीफ़ अधेड़ के पास आकर मेज़ पर झुकते हुए बोला।

‘‘मेरी बला से, मैं क्या जानू?'' अधेड़ ने टालते हुए जवाब दिया।

‘‘हम जानना चाहते हैं कि आप ज़ीने से ऊपर जाते भी हैं कि सिर्फ भेजते रहते है।'' हम्माद रजिस्टर की इबारतें पढ़ने में लगा था।

''जाता हूँ भाई, जाता हूँ पर बारह बजे के बाद साला नंबर लगता है

.........पर एक बात है,'' अधेड़ ने धीरे से कहा।

‘‘क्या?' तौसीफ़ ने अधेड़ के पास कान लगाते हुए पूछा।

‘‘माल छाँटने को मिल जाता है.....'' और खीसें निपोरते हँसने लगा।

तौसीफ़ ने भी उसका साथ दिया।

‘‘लड़कियाँ जानदार हैं। रोज—रोज इतने फौजियों को सहना कोई

आसान बात है?'' तौसीफ़ ने अधेड़ को टटोला।

आशानुरूप अधेड़ खुल गया और रजिस्टर के पन्ने पलटता हुए एक स्थान पर उंगली रखकर बोला, ‘‘ये देखो कर्नल साहब सहित पूरे चार सौ अट्‌ठारह सैनिक नब्बे लड़कियों पर चढ़ते हैं।''

तौसीफ ने अन्दर के तूफान को दबाते हुए बनावटी रूप में आश्चर्य से सिर हिलाया।

तभी दूसरे सैनिकों को ऊपर आते देख तौसीफ व हम्माद नीचे उतर आए।

अधेड़ नये सैनिकों से उलझ गया।

‘‘यानी कुल चार सौ अट्‌ठारह सैनिक हैं यहाँ जिनका कमाण्डर कोई

कर्नल है साला अय्याश।'' तौसीफ ने एक ओर थूक दिया।

टहलते हुए उन्होंने दूर एक बड़े से तम्बू की ओर देखा जिस पर पहरा लगा था। दोनों को यह समझते देर न लगी कि यही शस्त्रागार है।

तम्बू के पास से गुज़रते हुए तम्बू के अंदर हो रहे प्रकाश में कुछ लोगों को शस्त्र उलटते—पलटते देख उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि यही शस्त्रागार है। कर्नल का टेंट भी उन दोनों ने क़ागज़ पर उतार लिया। पूरा नक्शा तैयार कर वे निश्चिंत हो गये थे। घड़ी रात्रि के दो बजा रही थी। दोनों ज़बरदस्ती छात्रावास की बिल्डिंग के आस—पास टहल रहे थे।

अन्य सैनिक ‘उन्हें ड्‌यूटी में लगे है' ऐसा समझ रहे थे और अपने आप में मस्त थे।

दोनों चाहते तो अब यहाँ से जा सकते थे क्योंकि यहाँ का पूरा काम वे

ख़्ात्म कर चुके थे।

और प्रत्येक अगला पल उनके लिए जोखिम भरा था, जो उनके लिए जानलेवा भी साबित हो सकता था।

परन्तु पूर्व निर्धारित कार्यक्रम व अनुशासन ने उन्हें जकड़ रखा था। वे चाहते हुए भी दस बजे दिन से पूर्व यहाँ से हट नहीं सकते थे। क्योंकि पानी की टंकी में उन्हें फ़कीरों के कपड़े नहीं मिले थे जिसका मतलब सब कुछ समय से ही होगा।

किसी प्रकार सुबह हुई।

कोहरा चारों ओर छाया था।

घने कोहरे में हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था।

नौ बजे के बाद कोहरा छंटना शुरू हुआ। अब तक तौसीफ़ व हम्माद फ्रेश हो चुके थे। दूर पानी की टंकी जो बाड़ के साथ लगी थी, साफ दिखने लगी थी।

तौसीफ व हम्माद टहलते हुए पानी की टंकी के पास पहुँचे, उस ओर

खम्भे के नीचे पत्थर पर एक बंडल पड़ा दिखाई दिया।

तौसीफ़ ने राइफल की संगीन से बंडल को टटोला।

क़ाग़ज के बंडल से फ़क़ीरी कपड़े साफ झलक रहे थे। अब बाड़ फांदकर उस ओर पहुँचना था। बाड़ कोई पाँच फीट ऊंची थी। कुछ देर वे सोचने की मुद्रा में खड़े रहे। वे जिस तरह खम्भे की आड़ में खड़े थे कोई उन्हें देख नहीं सकता था। तौसीफ़ ने राइफल की नाल नीचे तारों में फँसाई और राइफल तिरछी करके तार को ऊपर खींचने लगा।

इस प्रक्रिया से एक व्यक्ति रेंगकर बाड़ के उस पार आसानी से निकल सकता था। तौसीफ़ ने हम्माद को इशारा किया। थोड़े से प्रयत्न के बाद हम्माद उस ओर था। ऐसा ही तौसीफ़ ने दोहराया। अब वे दोनों बाड़ के उस ओर थे। बंडल को हाथ में लिए वे एक ओर बढ़ चले और सुरक्षित स्थान में आकर उन्होंने फ़क़ीरी लबादे अपने ऊपर डाल लिए और पश्चिम दिशा की ओर चल दिये।

.......और जैसा कि पहले पाठकगण पढ़ चुके हैं, ये दोनों बहादुर बंगाली, बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के युवा पुनः खुलना की ओर लेफ़्िटनेंट भानु व बलवीर के साथ जीप में सवार वापस वहीं जा रहे थ,े जहाँ वे पिछली रात रुके थे।

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