लिखी हुई इबारत - 5 Jyotsana Kapil द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लिखी हुई इबारत - 5

9 - दंड


गाड़ी से उतरकर , बहुत आत्म विश्वास के साथ धीरज ने अपना चेहरा मोबाइल की स्क्रीन में देखा। नोटों से भरे हुए सूटकेस को हल्के से थपथपाया।आज एक और तथाकथित ईमानदार अधिकारी के ईमान को खरीदने के संकल्प के साथ उसके होंठों पर एक स्मित खेल गई।

" सर! शहर में एक नई अधिकारी आई है। उसने हमारे होटल की अवैध रूप से बनी चार मंज़िलों को गिरा देने का आदेश जारी कर दिया है।” सुबह ही उसके मैनेजर ने उसे सूचित किया था।

" इतना घबरा क्यों रहे हो वर्मा? कुछ पैसों की ज़रूरत होगी बेचारी को।" उसने मामले को बहुत हल्के में लेते हुए कहा।

" नहीं सर, सुना है वह बहुत ईमानदार और कड़क है। किसी की नहीं सुनती।"

" यहाँ हर चीज़ बिकाऊ है वर्मा, बस कीमत सही लगनी चाहिए। बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैय्या । देखना आज ही वह अपना आदेश वापस ले लेगी।" उसने घमण्ड से कहा और उससे मिलने चल दिया।

पी.ए. के इशारा करने पर बहुत ही आत्मविश्वास के साथ वह अधिकारी के कक्ष में दाखिल हो गया। अंदर प्रवेश करते ही धीरज के कदम जैसे जड़ रह गए। अधिकारी के तेज़ाब से विकृत चेहरे को देखकर उसका दिल दहल गया। इस विकृत चेहरे को वह कैसे भूल सकता था? प्रेम अस्वीकृति का 'दंड' ये विकृत चेहरा उसी की ही तो देन था।



10 - ममता

" हैलो, पाँय लागूँ दादा! कैसे हो आप सब ?" मोबाइल चालू करते हुए नवीन ने कहा।

" सब ठीक ही हैं छोटे। तू कैसा है? बहू और रिंकुआ ठीक हैं ?" दूसरी ओर से पितृतुल्य बड़े भाई ने स्नेहसींचित स्वर में कहा।

" सब ठीक हैं दादा, कैसे फ़ोन किया? सब कुशल मंगल तो है ?" उसका शंकालु स्वर गूंजा।

" पिछले दो साल से सूखे ने पहले ही परेशान कर रखा था, पर इस बार तो कमर ही टूट गई। सारी फसल बर्बाद हो गई। छोटे, अगर तू किसी तरह एक लाख रुपए का बन्दोबस्त कर दे तो काम चल जाएगा।" याचना पूर्ण स्वर में कहा गया।

" आपकी मदद करके बड़ी ख़ुशी होती दादा, पर इन दिनों हाथ बहुत तंग है।" उसका मुँह कड़वाहट से भर गया, “ शहर के खर्चे तो आपको पता ही है। अभी रिंकू का देहरादून के स्कूल में दाखिला करवाया है। बड़ा महंगा स्कूल है। काफी समय से मेरी तबियत भी ठीक नही रहती। ठीक से इलाज भी नहीं करवा पा रहा।"

" फिर तो तू बड़ी परेसानी में है!" उधर से ममता भरा स्वर सुनाई दिया, " पर तू चिंता न कर। ठीक से अपना इलाज करवा। ज़रूरत हो तो बता देना , हम गाय बेच देंगे। "

" अरे नही दादा!" वह अचकचा गया। यह बात उसके लिए एकदम अप्रत्याशित थी, "मेरी फिकर मत करो। मैं कोई न कोई बन्दोबस्त कर लूँगा, आप बस अपना इंतज़ाम कर लो।"

" ठीक है छोटे, तू राजी-खुसी रह। अपना ध्यान रखना और खबर देते रहना। पैसे की जरूरत हो तो जरूर बताना। सहर में रहना आसान नहीं रे।"

" हाँ दादा, आप भी अपना ध्यान रखना…देखता हूँ, अगर कोई जुगाड़ हो सके तो । " कहते हुए उसने फोन बन्द कर दिया।

आज पत्नी के जन्मदिन पर शाम को उसने एक सरप्राइज पार्टी रखी थी। तोहफे में एक डायमंड नेकलेस भी खरीद लिया था। उसके चेहरे पर आई खुशी की झलक देखने को व्याकुल मनाबी बुझ सा गया था।था वह। जेब मे रखा हिरे के हार का पेकेतब उसे जलता हुआ सा प्रतीत होने लगा था।

‘नहीं, मैं इतना स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ ? लानत है मुझपर ।" बुदबुदाते हुए हार का पैकेट निकालकर ,वह वापस आभूषणों की दुकान की ओर बढ़ गया।