likhi hui ibarat - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

लिखी हुई इबारत - 4

लिखी हुई इबारत


बड़ी बेसब्री से बेटे की पसन्द देखने का इंतज़ार करती डॉक्टर शिल्पा उस लड़की को देखकर चौंक गई।

" ये क्या , शिशिर को यही मिली थी ?"

सात वर्ष पहले किसी सम्बन्धी की ज़बरदस्ती का शिकार होकर गर्भवती हुई उस किशोरी को उसी ने तो छुटकारा दिलाया था उस मुसीबत से।

" ठीक है माना कि लड़की की कोई गलती नहीं थी, पर मेरा ही बेटा क्यों ?" रसोई में आकर वह बड़बड़ाई।उसका मन कसैला हो उठा था।

" क्या सारे समाज सुधार का ठेका हमने ही ले रखा है ?"

" एक्सक्यूज़ मी । " पृष्ठ से उभरे स्वर को सुनकर शिल्पा चौंक गई। पलटकर देखा तो वही लड़की शुचि ,चेहरे पर लाचारी के भरे भाव लेकर खड़ी हुई थी।

" आपकी परेशानी की वजह जानती हूँ। आप फ़िक्र मत करिये,मैं शिशिर को कोई बहाना बनाकर शादी से इंकार कर दूँगी"। अवसाद की काली छाया उसके चेहरे पर अधिकर जमा चुकी थी। आँखे नम हो आयी थीं। यकायक शिल्पा कुछ कह नहीं पाई। थोड़ी देर संशय में रही, फिर निर्णायक स्वर में बोली

" रहने दो शुचि,कुछ मत कहना उससे,मैं ही भूल गई थी की तुम मानव हो, कोई कागज का टुकड़ा नहीं । जिसपर एक बार कोई इबारत लिख गई तो वो बेदाग न रहा। किसी की दुष्टता की सज़ा तुम क्यों भुगतो ?"



8 - एक और द्रौपदी



जब पत्ते खोले गए तो मोहन के होश उड़ गए। इस बाजी के साथ वह अपना सब कुछ गंवा चुका था। एक चाल में दो हज़ार रुपए जीतने के बाद वह लगातार हार रहा था। अपनी मेहनत की कमाई के दस हज़ार रूपये, अपना खोमचा, अपनी घरवाली के चाँदी के गहने।

" अब दाँव पर क्या लगाते हो चचा? " राजा धूर्तता से मुस्कुराया।

" अब मेरे पास बचा ही क्या है ? सब कुछ तो हार गया। " वह रुआँसा हो गया।

" एक चीज़ अब भी है तुम्हारे पास "

" क्या? " वह हैरान रह गया।

" तुम्हारी घरवाली ।"

मोहन ने आवेश में आकर उसका गिरेबान पकड़ लिया।

" इस बार कही सो कही, दोबारा ये बात जबान से बाहर निकाली तो मुझसे बुरा कोई न होगा।"

राजा ठठाकर हँस पड़ा और जोर देकर समझाया की कई बार किसी की किस्मत दूसरे का भाग्य बदलकर रख देती है। यह मार्के की बात दिमाग मे फँस गई।अंततः मोहन खतरा उठाने को तैयार हो गया, इस लालच में कि शायद किस्मत अब उस पर मेहरबान हो जाए। देवी माता का नाम लेकर पत्ते देखे तो भूमण्डल घूमता नज़र आया।

राजा गर्व से सीना फुलाए हुए मोहन के साथ उसके घर आया। मोहन का लटका हुआ मुँह देखकर आशंका से सुगना का कलेजा धड़क गया। सब जानकर, हमेशा खामोश रहने वाली सुगना पर मानो माँ चण्डी सवार हो गई ।

" तू आदमी है या जिनावर, जिसे अपनी औरत की रक्छा करनी चाहिए वही उसे दाँव पर लगा बैठा ? आक थू ।" कहते हुए उसने मोहन के सामने ज़मीन पर थूक दिया, और फिर हँसिया उठाते हुए राजा की ओर देखा।

" देखती हूँ किस माँ के जाए में इतनी हिम्मत है जो मुझे हाथ लगाए। " हँसिये की खून की प्यास भाँपते ही राजा के होश उड़ गए।

" हो हो हो " वह ठठाकर हँस पड़ा। " भौजी, ये सब तो डिरामा था, इन्हें यह समझाने के लिए, कि देखो जुआ कित्ती बुरी चीज है। "

" पर अपनी जीत का स्वाद तो चखते जाओ लालाजी। " सुगना ने दाँत पीसे। अब राजा ने वहाँ से

चुपचाप सरक लेने में ही अपनी भलाई समझी।

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