बुखार Priyadarshan Parag द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बुखार

बुखार

प्रियदर्शन

वह बाईस मार्च का दिन था। प्रधानमंत्री के आह्वान पर वह अपनी बालकनी पर खड़े होकर एक प्यारी सी घंटी बजा रहा था। यह घंटी उसने अपनी दुछत्ती पर पड़े पुराने सामानों के बीच से खोज कर निकाली थी। बरसों पहले- यानी क़रीब 25 बरस पहले- वह जब गया से दिल्ली के लिए चला था तो अपने साथ बहुत सारे ज़रूरी सामान के अलावा बहुत सारी ग़ैरज़रूरी भावुकता भी ले आया था- यह घंटी उसी भावुकता की बची हुई निशानियों में एक थी। दरअसल यह घंटी उसकी दादी बजाती थी- हर सुबह बिना नागा अपने कृष्ण कन्हैया के सामने। अक्सर उसकी नींद इसी घंटी की मधुर ध्वनि से टूटती थी। हालांकि उसकी दादी बहुत कर्मकांडी नहीं थी। पंद्रह मिनट में पूजा निबटा कर दिन के बाकी काम में लग जाती। लेकिन लगता कि घंटी की उस आवाज़ ने घर की एक लय बना दी है- उसी लय में चूल्हा जलाया जा रहा है, उसी लय में चाय बन रही है, उसी लय में बच्चे स्कूल और पिता दफ़्तर जा रहे हैं, उसी लय में मां उसके लिए स्वेटर बुन रही है और उसी लय में फिर शाम और रात हुआ करती थी। दादी नहीं रही तो मां ने भी यह लय टूटने नहीं दी।

यह लय उस दिन टूटी जब पता चला कि उसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाना होगा। हालांकि यह अफ़सोस नहीं, पूरे परिवार और शहर के लिए गौरव का विषय था। यह ख़बर अख़बार में भी छपी थी। वह छोटी-मोटी जगह नहीं आइआइटी दिल्ली आ रहा था। मां याद कर रही थी कि वह बचपन में तरह-तरह की मशीनों से खेला करता था। उनके मुताबिक उसके इंजीनियर बनने के बीज इन्हीं खिलौनों के बीच दिखने लगे थे। पिता का गुमान था कि उन्होंने अपने दफ़्तर से लौट कर उसे जिस तन्मयता से गणित और विज्ञान पढ़ाया, उसी का नतीजा है कि बेटा सीधे आइआइटी जा रहा है।

लेकिन जब वाकई जाने की घड़ी आई तो उसके भीतर का कोई पुर्जा हिलने लगा था- कोई ऐसा पुर्जा जिसका विज्ञान से वास्ता नहीं था। वह रो रहा था, मां रो रही थी, पिता भी कहीं सुबक रहे थे, बहन की आंखें भी भरी हुई थीं। मगर सबको मालूम था- यह रुलाई रोकनी होगी। तो वह तैयार हुआ। उसका सामान घर आए ऑटो में चढ़ाया गया। पिता ने कहा, वे रेलवे स्टेशन तक छोड़ने जाएंगे। तभी मां ने पूजा घर से यह घंटी निकाली- 'इसे ले जा।' पिता कुछ कहना चाहते थे, लेकिन किसी हिचक के बीच रुक गए। उसने बिल्कुल कांपते हुए हाथों से वह घंटी सहेजी थी। उसे लगा कि मां ने उसे घर की लय सौंप दी है। इसी से वह बंधा रहेगा। उम्र भर।

लेकिन लय घंटी की नहीं, ज़िंदगी की होती है- यह उसे दिल्ली ने सिखाया था। आइआइटी हॉस्टल में अपने दोस्तों के साथ रहते हुए उसने पाया कि पुराने कई धागे टूट रहे हैं और जिंदगी बिल्कुल नए तारों पर चलने को मचल रही है। धीरे-धीरे ज़िंदगी ने नई लय पकड़ ली- बल्कि लय से नाता ही तोड़ लिया- यह बिल्कुल दौड़ती, झटके खाती ज़िंदगी थी जिसमें मोटे होते पैकेज और मोटे होते बीवी-बच्चों का सुख सबसे ऊपर था।

वे बीवी बच्चे अब भी उसके साथ थे। बीवी के पास घंटी नहीं थी तो वह थाली बजा रही थी। बेटे ने अपना गिटार उठा लिया था। यह मिला-जुला कोलाहल में बदलता संगीत हालांकि किसी पुरानी लय की याद नहीं दिला रहा था, लेकिन पास-पड़ोस से आती थालियों-तालियों की आवाज़ उनके लिए एक आश्वस्तिदायी सामूहिकता का सृजन कर रही थी। वह खुश था- यह सोच कर रोमांचित था कि पूरा देश किस तरह पांच मिनट के लिए ध्वनियों का समुच्चय हो गया है। पूरे देश में तरह-तरह से गूंज रही हैं घंटियां और थालियां। वह अपने प्रधानमंत्री के प्रति दो और वजहों से कृतज्ञ था- उनके द्वारा घोषित जनता कर्फ़्यू की वजह से उसे दफ़्तर से एक दिन की छुट्टी मिल गई थी- वरना इतवार को उसकी ड्यूटी रहा करती थी। दूसरी बात यह कि जब उसने घंटी बजाई तो उसके भीतर बचपन की बहुत सारी घंटियां बजने लगीं। उसे अचानक अपनी दादी याद आई, मां याद आई, घर याद आया और यह भी याद आया कि इन वर्षों में वह कितनी तेज़ी से इन सबको भूलता जा रहा है। थैंक्स प्रधानमंत्री महोदय, उसने मन ही मन कहा और घंटी बजाता रहा।

घर और पास-पड़ोस में देर रात तक इस ताली-थाली-घंटी की गूंज रही। जनता कर्फ्यू की वजह से मिली छुट्टी ने सोशल डिस्टेंसिंग बरतने के प्रघानमंत्री के आह्वान के बावजूद सबको सोसाइटी के गेट पर ला खड़ा किया था और सब याद कर रहे थे कि जब ये मॉल-शॉल नहीं बने थे, जब सबके पास गाड़ियां नहीं थीं और ऐसी नौकरियां भी नहीं कि सबको देर शाम तक रुकना पड़े तो सब कैसे एक-दूसरे के घर जाया करते थे और ख़ूब गपशप किया करते थे।

इस कोरोना से आक्रांत समय में एक-दूसरे के घर जाने का सवाल तो नहीं था, लेकिन सोसाइटी परिसर में माहौल खुशनुमा था। सबको लग रहा था कि प्रधानमंत्री के आह्वान ने देश को एक कर दिया है और सब लोग कोरोना से मिल कर लड़ेंगे। वह सबसे गपशप करके घर लौट आया था। पत्नी किसी से इंटरकॉम पर बात कर रही थी। उसके घर में दाखिल होते ही उसने फोन रखा और कहा, चलो बाज़ार चलते हैं। वह हैरान हुआ- अभी बाज़ार क्यों जाना है? क्योंकि राशन लाना है- पत्नी ने उसी लय में कहा। वह और हैरान हुआ, मगर राशन तो कल ही आया है? तब पत्नी ने बताया कि सब लोग राशन ला रहे हैं। सबको डर है कि जनता कर्फ्यू अभी बढेगा- तो कम से कम दो महीनों तक का सारा ज़रूरी सामान लेकर रख लेना चाहिए। पत्नी के इस सयानेपन का वह कायल हुआ। बेटे से घर पर रहने को कह कर दोनों कार से बिग बाज़ार पहुंच गए।

बाज़ार पहुंच कर उसकी सांस फिर रुक गई। इतनी भीड़ तो होली-दिवाली से पहले भी नहीं होती। कहां प्रधानमंत्री ने सोशल डिस्टेंस बरतने को कहा था और कहां सब सामान के लिए गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। अभी-अभी जो लोग कोरोना से एक साथ मिल कर लड़ने की बात कर रहे थे, वे फिलहाल सामान के लिए आपस में लड़ रहे थे। कोरोना से निबटने से पहले बच्चों के लिए कुरकुरे और मैगी का इंतज़ाम कर लेना था। बिग बाज़ार में बिल्कुल जादुई दृश्य था। लोग जैसे सिर्फ उचकते हुए हाथों में बदल गए थे और इतनी बड़ी दुकान के रैक जैसे खाली होते जा रहे थे। वह भी ऐसे हाथ में बदल गया था और उचक-उचक कर सामान गायब करने का खेल दिखा रहा था।

पूरे दो घंटे लगाकर वे कार भर सामान खरीद लाए थे। पहले फ्रिज भरा गया, फिर रसोई के खाने भरे गए और फिर भी सामान बचा रहा तो उसे दीवार से लगा कर रखा गया। इस पूरी कवायद में फिर कम से कम एक घंटा लग गया। वह बुरी तरह थक गया था, लेकिन संतुष्ट था। वे दो महीने का सामान लेने गए थे, कम से कम चार महीने का लेकर लौटे थे। अब जितना भी लंबा चले जनता कर्फ्यू, उसे चिंता नहीं करनी है। रात को खाना खाकर सोते-सोते 12 बज गए। नींद आई लेकिन नींद में भी शॉपिंग का सपना आता रहा। उसने देखा कि नीचे कहीं सामान नहीं है और ऊपर के रैक भरे हुए हैं। लेकिन उसका हाथ वहां पहुंच नहीं पा रहा था। उसने पूरा जोर लगाया और रैक का ऊपरी सिरा पकड़ लिया। लेकिन यह क्या? उसके हाथ के दबाव से पूरी आलमारी झुकी और उस पर गिर पड़ी। उसे अचानक बहुत गर्मी लगने लगी, उसे अपना दम घुटता हुआ महसूस हुआ। और इसी के साथ उसकी नींद टूट गई।

उसका शरीर तप रहा था। यह सपना नहीं था। उसे अगले ही पल समझ में आ गया कि उसे बुखार है। उसने बगल में सोई पत्नी को आवाज़ देने की कोशिश की, लेकिन पाया कि उसका गला इस तरह बैठा हुआ है कि आवाज़ नहीं निकल रही है। उसने हाथ बढ़ा कर पत्नी को झिंझोड़ा। पत्नी कुछ अचकचाती सी उठी। वह कुछ पूछती, उसके पहले उसने बताया कि उसे बुखार है। पत्नी चिंतित हुई। उसका कलेजा धक से कर गया। उसे लगा कि कहीं कोरोना न हो। वह तत्काल हटकर छह फुट दूर हो गई। फिर अपनी ही हरकत पर शर्मिंदा- तेज़ी से पास आई और पति का माथा छुआ। यह वाकई तप रहा था। उसने घड़ी देखी-रात के तीन बज रहे थे। झपट कर ड्राइंग रूम में गई और आलमारी में पड़ा थर्मामीटर निकाला। इस पर धूल जमी हुई थी। उसने पाया कि इस खुली आलमारी की हर चीज़ पर धूल है। उसे फिर अफ़सोस हुआ कि अपनी भागदौड़ भरी ज़िंदगी में उसने घर का क्या हाल कर रखा है। लेकिन यह अफ़सोस करने का समय नहीं था। उसने थर्मामीटर को वैसी ही गंदी झाड़न से रगड़ कर साफ़ किया और बुखार से तप रहे पति के पास पहुंच गई। बुखार 103 डिग्री था-बिल्कुल घबरा देने वाला। गनीमत है कि घर में क्रोसिन 650 था। वह जल्दी से रसोईघर गई, उसने दो गुडडे बिस्किट निकाले, दराज से क्रोसिन 650 की पत्ती निकाली, पत्ती से एक टैबलेट निकाला, पति को पहले बिस्किट खिलाए और फिर टैबलेट। इसके बाद वह कटोरी में पानी ले आई, साथ में एक साफ़ कपड़ा भी- और उसने उसके माथे पर पट्टी रखी। आधे घंटे बाद बुखार उतर गया था। पति को जमकर पसीना आ रहा था। उसे अब कुछ ठीक लग रहा था। उसने कहा, चलो अब सो जाते हैं। लेकिन पत्नी के पास सोने से पहले पूछने को सवाल थे। उसने पूछा, सूखी खांसी तो नहीं है या सांस लेने में दिक्कत तो नहीं आ रही? ये दोनों बातें नहीं थीं। उसे एहसास था कि पत्नी बस एक ज़रूरी तसल्ली के लिए यह सवाल पूछ रही है कि कहीं उसमें कोरोना के लक्षण तो नहीं। उसे कुछ डर भी लगा, कुछ उदासी का अनुभव भी हुआ और कुछ खीज का भी-लेकिन उसने पत्नी को बस इतना कहा कि ऐसे कोई लक्षण नहीं है, लेकिन वह चाहे तो एहतियात बरतते हुए बेटे के कमरे में सो जाए।

पत्नी एहतियात बरतना चाहती थी लेकिन उसे एहसास था कि उनके रिश्तों में पहले से आ बैठा अनमनापन उसके अलग सोने से कुछ और गाढ़ा हो जाएगा। फिर यह उसे अमानवीय भी लगा कि वह पति के बीमार पड़ने पर उससे अलग सोए। तो अंततः दोनों एक ही कमरे में सोए।

सुबह बुखार उतरा हुआ था। उसने राहत की सांस ली। यह याद करके उसकी राहत कुछ और बढ़ गई कि अगले दो दिन उसका ऑफ़ है। यानी अब उसे पच्चीस को ऑफिस जाना है। लेकिन 24 की रात को फिर प्रधानमंत्री का संदेश चला आया- पंद्रह अप्रैल तक सबकुछ बंद। लोग बिल्कुल घरों के भीतर रहें। बालकनी से आगे न जाएं, बस, ट्रेन, विमान- कुछ नहीं चलेंगे। और हां, दुकानों पर भीड़ न लगाएं- क्योंकि सरकार किसी ज़रूरी सामान की किल्लत नहीं होने देगी।

लोगों को अपने प्रधानमंत्री पर बहुत भरोसा था- उनमें उन्हें एक मसीहाई छवि दिखती थी। तीन दिन पहले ही सबने ताली-थाली बजाकर इस भरोसे का राष्ट्रीय प्रदर्शन किया था। मगर उन्हें प्रधानमंत्री की सरकार की योग्यता पर शायद भरोसा नहीं था। इसलिए प्रधानमंत्री की घोषणा के तत्काल बाद फिर दुकानों पर भीड़ उमड़ पड़ी और सोशल डिस्टेंसिंग की जगह धक्का-मुक्की की सोशल यूनिटी दिखने लगी- इस बार उन कम सयानों और ज़्यादा घबराए लोगों की, जिन्होंने दो दिन पहले ख़रीददारी करके सामान भर लेने की समझदारी नहीं दिखाई थी।

लेकिन असली नज़ारा आने वाले दिनों में दिखाई पड़ा। दिल्ली-गाज़ियाबाद की सरहद पर जैसे टिड्डियों की तरह मजदूरों का एक विशाल हुज़ूम उमड़ा हुआ था। अचानक इतने लोग किन बिलों से निकल पड़े? यह कौन सी भूमिगत सेना है जो लॉकडाउन को नाकाम बनाने पर तुली है? क्या बीती रात दुकानों पर टूट पड़ने वाले लोगों की तरह इसे भी अपने प्रघानमंत्री पर भरोसा नहीं है? सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर तरह-तरह की व्याख्याएं चल रही थीं- साज़िश से लेकर मजबूरी तक की। लेकिन कोई नहीं बता रहा था कि इनके इस तरह भागने की असली वजह क्या थी। खाते-पीते लोग उन दुकानों की तरफ़ भाग रहे थे जो बरसों से उनके घरों के भीतर चली आई हैं और ग़रीब लोगअपने उन घरो की तरफ़ जिन्हें बरसों पहले छोड़ कर वे कुछ खाने-कमाने और घर भेजने की आस में इन शहरों में चले आए थे। वे भाग रहे थे क्येकि उन्हें मालूम था कि यह शहर उन्हें जीने नहीं देगा। वे भाग रहे थे कि मरना भी हो तो अपनों के बीच हो। और भागते-भागते भी वे मर जा रहे थे- कभी अपनी थकान से और कभी दूसरों की गाड़ी से कुचल कर। जैसे यह कोई दूसरा देश था जो विकास का लॉक डाउन तोड़ कर निकल पड़ा था। शहर उन्हें पहले भी सम्मान नहीं देता था, लेकिन अब उसने इन मेहनतकश मजदूरों को बिल्कुल भिखमंगों में बदल डाला था जो दोपहर के खाने के लिए सुबह छह बजे से लाइन में लग जाते थे। इस दौरान उनके छोटे-छोटे बच्चे और औरतें दुकानों के सामने अपनी कारों से उतरते लोगों के आगे दयनीय मुंह बनाए भीख मांगने की कला सीख रहे थे।

हालांकि इतना कुछ उसने न देखा था न सोचा था। शहर के ग़रीब लोग उसके लिए कोई नया दृश्य नहीं थे। अपनी कार से दफ़्तर आते-जाते वह अक्सर इन्हें फ़्लाई ओवरों के नीचे और फुटपाथों पर खाते-पीते, और पर्यटन स्थलों और रेडलाइटों पर तरह-तरह का सामान बेचते देखा करता था। उसे आंकड़े की तरह यह बात भी मालूम थी कि दिल्ली की साठ फ़ीसदी आबादी झुग्गी-बस्तियों में रहती है और यह धुंधला एहसास भी था कि उसके घर जो कामवाली बाई आती है, जो ड्राइवर आता है, चौराहे पर जो सब्ज़ीवाला आता है-सब उसी अंधेरी-गंदी दुनिया से आते हैं। लेकिन जब यह दुनिया एक दिन एक साथ सड़क पर आ गई तो वह हैरान रह गया- हे भगवान, यह तो कोई और देश है।

लेकिन वह इन पर देर तक नहीं सोच सकता था। उसके पास चिंता की और भी बड़ी वजहें थीं। उसे फिर से बुखार हो गया था और उतर नहीं रहा था। उसे हर रोज़ क्रोसिन का कम से कम एक टैबलेट खाना पड़ रहा था। वह दो अलग-अलग डॉक्टरों से मिल चुका था, सारे ज़रूरी टेस्ट करा चुका था, लेकिन कुछ निकला नहीं था। डॉक्टर इसे ज़िद्दी वायरल बता रहे थे। लेकिन उसे यह डर बना हुआ था कि यह कोरोना न हो। डॉक्टरों से उसने पूछा भी, लेकिन सबने यही बताया कि कोरोना के लक्षण नहीं हैं और बिना लक्षणों के कोई जांच नहीं हो सकती। सच है कि इससे उसे कुछ राहत भी मिली थी। आख़िर वह भी ऐसी किसी जांच से बचना चाहता था। क्योंकि कोरोना का संदेह भी कोरोना की बीमारी से कम ख़तरनाक नहीं था। पत्नी ने पहले ही बेटे को उससे दूर रखना शुरू कर दिया था जो उसे भी ठीक लग रहा था। ख़ुद पत्नी छुपते-छुपाते उससे दूरी बरत रही थी। लेकिन उसे असली फिक़्र पड़ोसियों की थी। अगर उन्हें पता चला कि उसे बुखार है तो उनकी प्रतिक्रिया न जाने क्या हो।

शुक्र है कि पड़ोसियों को यह मालूम नहीं था। फिलहाल वे दूसरी ज़रूरी बहस में उलझे हुए थे। प्रधानमंत्री के लॉक डाउन के एलान और सोशल डिस्टेंसिंग बरतने के सुझाव के तहत क्या-क्या किया जाए? कामवाली बाइयों को, सफाई करने वाले लड़कों को, अखबार बांटने वाले एजेंट कोऔर इस्त्री करने वाले परिवार को सोसाइटी के भीतर आने दिया जाए या नहीं। बहुत सारे लोगों का कहना था- सब पर पूरी रोक लगाई जाए। लेकिन महिलाएं चाहती थीं कि कामवालियों को आने की छूट मिले। उन्हें मालूम था कि उनके न रहने पर उनका काम दुगुना नहीं तिगुना हो जाएगा- खासकर तब जब लॉकडाउन की वजह से पति और बच्चे भी चौबीस घंटे घर पर हों। बल्कि जब सब पर पाबंदी लग गई तो अकेले रह रही एक मैम अपनी कार में बिठाकर अपनी मेड को ले आईं और जब गार्ड ने रोकने की कोशिश की तो उससे बुरी तरह झगड़ पड़ीं। आरडब्ल्यूसी वालों ने भी उनसे दूर रहने में भलाई समझी।

वैसे इसी सोसाइटी में सेन साहब जैसे लोग भी थे जो हर बात पर अलग रुख़ अख़्तियार करते थे। प्रधानमंत्री के थाली-ताली अभियान का भी उन्होंने साथ नहीं दिया था। उनका कहना था-ये कामवालियां, ये ड्राइवर, ये सफ़ाईवाले भी आपकी ही तरह इस देश के नागरिक हैं और लॉक डाउन में घर से न निकलने का निर्देश उन पर भी उतना ही लागू होता है जितना आप पर। उनकी यह भी दलील थी कि जैसे आप चाहते हैं कि आपकी कंपनी आपको घर बैठे पैसा दे वैसे आपको भी इन लोगों को इनके पूरे पैसे देने चाहिए, भले वे एक दिन भी काम न करें। सेन साहब यहीं नहीं रुके, यह भी जोड़ दिया कि यह थाली-ताली बस ड्रामा है, कोरोना से ठीक से निबटने की जगह एक राष्ट्रवादी उफान पैदा करने की कोशिश है जो अंततः नुक़सानदेह साबित होगी। हालांकि उनके इस खयाल पर सोसाइटी के कुछ लोग इतना भड़क गए कि लगा कि मारपीट की नौबत न आ जाए। यही नहीं, सेन साहब ने सोसाइटी के कुछ युवा लोगों की मदद से आसपास के सौ मजदूरों को रोज़ खाने के पैकेट बांटने का इंतज़ाम किया- जिसमें कुछ खुशी-खुशी पैसे देते थे और कुछ अनिच्छा से। वैसे इस दौरान सफ़ाईकर्मियों के न आने से सोसाइटी की रंगत अजब ढंग से बदल गई। सड़कें गंदी दिखने लगीं, पार्क बेतरतीब और पूरी सोसाइटी धूल से भरी। सबसे बुरा हाल खुले में एक कतार से लगी गाड़ियों का हुआ-कभी उनकी चमक सोसाइटी की भव्यता का भान कराती थी, अब उन पर पड़ी धूल से लगता था जैसे वे बरसों से पड़ी अनाथ गाड़ियां हों जिनके मालिक मर गए हों।

लेकिन वे मरे नहीं थे। वे नए कार्यक्रमों में लगे थे। इस बार प्रघानमंत्री ने एक नया काम दिया था। ठीक रात नौ बजे घर की सारी बत्तियां बुझाकर दीया, मोमबत्ती या मोबाइल का फ्लैश कुछ भी जलाना था। इसे कोरोना के अंधेरे के विरुद्ध राष्ट्र की विजय के संकल्प का प्रतीक होना था। पंद्रह दिन के भीतर दूसरी बार प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को एक विचार-सूत्र में गूंथने का अभिनव मंत्र दिया था। पिछली बार जो ज्योतिषी और वैज्ञानिक कालगणना के अनुसार ग्रहों की गति और ध्वनि-तरंगों के विज्ञान का हवाला देते हुए ताली-थाली को कोरोनावायरस के विरुद्ध प्रधानमंत्री का मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे, इस बार वही दीये से निकलने वाले समवेत प्रकाश में कोरोना के समूल नाश की संभावना देख रहे थे। हालांकि सरकार ने साफ़ कर दिया था कि प्रधानमंत्री के इस महान प्रयास को किसी अंधविश्वास की रोशनी में न देखा जाए। मगर सोशल मीडिया पर, तमाम पारिवारिक-सामाजिक वाट्सऐप समूहों में आइटी सेल के तैयार किए गए ऐसे वीडियो घूमने लगे थे जिनसे पता चलता था कि प्रधानमंत्री द्वारा आहूत अभियान वैज्ञानिक रूप से कितना महत्वपूर्ण है और ज्योतिषीय कालगणना के हिसाब से कितना सटीक।

बेशक, कुछ सिरफिरे थे जो राष्ट्र के इस महान अभियान में शामिल होने को तैयार नहीं थे। पिछली बार थाली-ताली का उन्होंने जम कर मज़ाक उड़ाया था और इस बार पड़ोसियों के आग्रह के बावजूद बिजली बुझाने और दीया जलाने को तैयार नहीं हुए थे। अंधेरे में डूबी और दीयों से टिमटिमाती सोसाइटी के भीतर बिजली से चमकता उनका घर प्रधानमंत्री में निष्ठा रखने वालों को बिल्कुल कोरोना का प्रतीक लग रहा था। उनकी देखादेखी कुछ और घर थे जिन्होंने बत्ती बुझाने से इनकार कर दिया था। इन सारे घरों की सूची बना ली गई थी और उन्हें किसी सही समय पर सबक सिखाने का सबका इरादा पक्का था।

लेकिन इन घरों की सूची में उसका घर नहीं था। उसने बत्ती भी बुझाई और दीये भी जलाए-हालांकि तब भी वह 102 डिग्री बुखार में था। सावधानी बरतते हुए वह कमरे से निकला नहीं था। पत्नी ने बाहर दो दीए जला दिए थे, जबकि बेटा मोबाइल का फ़्लैश चमका रहा था। इन सबके बीच हर तरफ़ आतिशबाज़ी की आवाज़ आ रही थी। वाकई प्रधानमंत्री की एक अपील पर देश ने छोटी-मोटी दिवाली मना डाली थी। उनकी आवाज़ में जादू है।

लेकिन यह जादू उसे बहुत राहत नहीं दे पा रहा था। उल्टे धीरे-धीरे उसके भीतर डर पैदा हो रहा था- अगर उसे कोरोना हो गया तो? लेकिन यह बीमारी का डर नहीं था। घर पर रहते हुए उसने इतनी रिसर्च तो कर ली थी कि कोरोना के अस्सी फ़ीसदी मरीज़ ख़ुद ठीक हो जाते हैं। वह अपने आस-पास, पास-पड़ोस और समाज से डरा हुआ था। वह देख रहा था कि कोरोना के बीमारों को लोग बीमार की तरह नहीं, दुश्मन की तरह देख रहे हैं। तबलीगी जमात अपनी अहंकारी मूर्खता में देश के कई हिस्सों में कोरोना फैलाने की ज़िम्मेदार बन गई थी। शहरों-कस्बों और गांवों की मस्जिदों में ऐसे लोग निकल रहे थे जो दिल्ली के निज़ामुद्दीन में तबलीगी जमात के मरकज़ से लौटे थे और कोरोना की चपेट में आ रहे थे। उनके संपर्क में आए तमाम लोगों को ‘क्वॉरन्टीन’ किया जा रहा था। देश भर में इन बीमार वायरस-वाहकों को कोसा जा रहा था। यहां तक कहा जा रहा था कि यह देश में कोरोना फैलाने की मुसलमानों की साज़िश है। जैसे कोरोना के वायरस से कहीं ज़्यादा यह नफ़रत का वायरस था जो उससे भी तेज़ी से लोगों पर हमला कर रहा था।

क्या यह नफ़रत सिर्फ़ सांप्रदायिक थी? वह पा रहा था कि कोई और भी चीज़ है जो लोगों में यह उन्माद पैदा कर रही है। जिन डॉक्टरों के लिए कभी प्रधानमंत्री के कहने पर ताली-थाली बजाई गई, उनको लोग घरों से निकाल रहे थे, क्योंकि वे कोरोना के मरीज़ों के संपर्क में आते हैं। जिनके बारे में कोरोना होने का संदेह भर हुआ, उनका सामाजिक बहिष्कार हो जा रहा था। और तो और, लोग मृतकों का अपने-अपने क़ब्रिस्तानों और श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार तक नहीं करने दे रहे। उसने मोबाइल पर वीडियो देखा था कि कहीं-कहीं तो बेटे बाप के शव को इस डर से हाथ नहीं लगा रहे कि उन्हें कोरोना न हो जाए। वह देख रहा था कि लोग समाज के डर से अपनी बीमारी छुपा रहे हैं और बाद में समाज सवाल कर रहा है कि ये कैसे लोग हैं जो छुप-छुप कर कोरोना फैला रहे हैं? हालांकि इसी समाज में ऐसे ताकतवर लोग भी थे- नेता, अफ़सर और दूसरे रसूखदार-जो अपनी ताकत के गुमान में सारे नियम तोड़ते हुए दूसरों को ख़तरे में डाल रहे थे और उनके ख़िलाफ़ कोई केस नहीं हो रहा था।

यह कैसा समाज हम बना रहे हैं? ऐसे सवालों पर उसने कभी सोचा नहीं था। बल्कि इस तरह के सवाल करने वाले अपने बचपन के पत्रकार दोस्त अमिताभ का बाक़ी सब दोस्त मज़ाक बनाया करते थे। उसे ख़याल आया कि वह अमिताभ को फोन करे, लेकिन इस बीमारी में उसका मन नहीं हुआ। कहीं उसके भीतर एक चोर-डर यह बैठा हुआ था कि वह अपनी सोसाइटी के लोगों से अपनी बीमारी छुपा कर कोई अपराध तो नहीं कर रहा?

लेकिन अपराध क्यों? उसे बस वायरल बुखार है। यह एक नही, तीन-तीन डॉक्टरों ने मार्च के शुरू में ही बताया था। उसके भीतर कोरोना के कोई लक्षण नहीं हैं। हालांकि यह चिंता की बात है कि बुखार उतर क्यों नहीं रहा है। अब तो डॉक्टर भी मिलने से कतरा रहे हैं। उन्होंने अपने क्लीनिक बंद कर रखे हैं। उनका कहना है, वे तो अपना बचाव कर लेंगे, लेकिन उनके क्लीनिक में आए दूसरे लोगों को किसी मरीज़ से संक्रमण हो गया तो? दलील उनकी ठीक थी, लेकिन उसके मन का कोई कोना कहता था कि डॉक्टर इस दलील की आड़ में अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहे हैं।

लेकिन वह कौन होता है दूसरों की ज़िम्मेदारी तय करने वाला? वैसे भी इस बुखार में वह कुछ और

सोचने की हालत में नहीं था। दो दिन से उसका बुखार भी बढ़ रहा था और उसकी बेबसी भी। वह

समझ नहीं पा रहा था कि कहां जाए, किसे दिखाए। पास के जो अस्पताल अब तक काम आते रहे थे

वहां ओपीडी बंद थी और इमरजेंसी वाले डॉक्टरों का कोई ठिकाना नहीं था। दूर के और बड़े

अस्पतालों की व्यववस्था तक उसकी पहुंच नहीं थी। वैसे भी महीने भर के बुखार ने उसमें इतनी

हिम्मत नहीं छोड़ी थी कि वह ख़ुद ड्राइव करके जा सके। 16 साल का बेटा कई बार ज़िद करता था

कि वह कार चलाएगा, लेकिन उसी ने उसे सख़्ती से रोक रखा था।

वह अक्सर सोचा करता कि यह कोरोना से कैसी लड़ाई है जिसमें बाकी बीमारियों और मरीज़ों को मरने

के लिए छोड़ दिया जाए। लेकिन इससे आगे वह सोच नहीं पाता था। उसे मालूम था, कोरोना से

लड़ना अभी ज़रूरी है।

उसे लग रहा था कि किसी की मदद लेना ज़रूरी है। सोसाइटी में वह आठ साल से रह रहा है। इस 14

मंज़िला इमारत के आठ ब्लॉक हैं। लगभग हर ब्लॉक मे उसके कई परिचित हैं। कई लोग सुबह छह

बजे उसके साथ टहलते भी हैं। इधर सोसाइटी ने टहलने पर रोक लगा रखी है वरना कोई न कोई

हाल पूछने आ जाता।

लेकिन अभी वह क्या करे? किसे अपना हाल बताए? उसने पत्नी से राय ली। पत्नी की भी यही सलाह थी

कि सोसाइटी में बुखार की बात न खुले तो बेहतर। उसने याद दिलाया कि इससे अच्छा अमिताभ जी

को बुलाना होगा- वे पत्रकार हैं, लॉक डाउन के बाद भी आ सकते हैं और उसे कहीं दिखाने भी ले

जा सकते हैं। उसे यह बात जमी। उसने तुरंत अमिताभ को फोन किया। अमिताभ उसका हाल सुन

कर चिंतित हुआ। उसने नाराज़गी भी जताई कि पहले क्यों नहीं बताया। फिर उसने कहा कि वह

एक सीनियर डॉक्टर से बात कर लेगा। यह शुक्रवार का दिन था और अमिताभ ने कहा कि शनिवार

छुट्टी रहती है- वे दोनों कार से चल चलेंगे। उसे बड़ी राहत मिली। इस दुनिया में ऐसे दोस्त हैं जो

इस लॉकडाउन में भी उसके लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं।

अगली सुबह फिर अमिताभ का फोन आया। डॉक्टर ने दोपहर 12 बजे का समय दिया है इसलिए वे

सवा ग्यारह तक निकल लेंगे। अमिताभ ने कहा कि वह अपनी गाड़ी ले आएगा। नियत समय पर

अमिताभ पहुंच गया। वह बड़ी मुश्किल से पत्नी की मदद से तैयार हो पाया। उसे ठीक से पहली बार समझ

में आ रहा था कि हाल के हाई फीवर ने उसके जिस्म से कैसी क़ीमत वसूल की है।

लेकिन इस बुखार की असली क़ीमत अभी चुकाई जानी बाक़ी थी। वह और अमिताभ मास्क

लगाकर निकले। लिफ्ट के पास खड़े थे कि बगल के फ्लैट वाले रस्तोगी जी भी एक मास्क लगाए और

एक झोला लिए आ खड़े हुए। मास्क के भीतर-भीतर से ही औपचारिक मुस्कुराहटों का

आदान-प्रदान हुआ। लेकिन जब लिफ़्ट खुली और रस्तोगी जी के पीछे-पीछे वह अमिताभ के साथ

धीमे-धीमे दाख़िल हुआ तो रस्तोगी जी चौंक गए- ‘तबीयत ठीक नहीं है क्या?’

उसने सिर हिलाया- ‘हां, दो-तीन दिन से वायरल फीवर है।‘ रस्तोगी जी अनायास उस तंग लिफ्ट में

भी सोशल डिस्टेंसिंग के लिए जैसे व्याकुल हो उठे। वे बिल्कुल लिफ्ट की दीवार से चिपक गए।

छठे फ्लोर से लिफ़्ट को नीचे आने में जो 30 सेकंड लगने थे, वही उनको आफ़त लगने लगे।

उनको लग रहा था कि उनके सामने एक कोरोना बम है जो फटेगा और उनके मुंह और नाक के

सहारे उनके भीतर समा कर उनको भी बीमार बना डालेगा। ऐसे समय बस इतनी भर तसल्ली थी

कि उन्होंने एन-95 मास्क लगा रखा है जो स्वास्थ्यकर्मियों के लिए ही बताया जाता है। अच्छा हुआ

जो उन्होंने प्रधानमंत्री की यह सलाह नहीं मानी कि आम लोग घर के बने मास्क का इस्तेमाल कर

सकते हैं। उनकी पत्नी ने अपने पुराने कपड़ों से चार मास्क तैयार भी कर दिए थे, लेकिन उन्होंने

फटकार लगाई कि यह अनपढ़ों वाला काम न करे। वे मास्क उन्होंने सोसाइटी के गार्ड्स को दे दिए।

कहां वे बाहर दुकान और सब्ज़ीवालों से बचने में लगे थे और कहां पड़ोस में ही कोरोना छुपा निकल

आया। लिफ़्ट से बाहर आते ही उन्होंने मास्क के भीतर से ही ज़ोर की सांस ली। फिर उनसे रहा नहीं

गया। उन्होंने कह ही दिया- ‘बुखार में आपको लिफ्ट का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।‘

उसने कहना चाहा, यह कोरोना नहीं, बस वायरल है। लेकिन वे सुनने के लिए रुके तक नहीं। जैसे

कुछ और सेकंड इस आदमी के संपर्क में रह गए तो उन्हें भी संक्रमण हो जाएगा।

वह भीतर से कुछ कातर और उदास हो गया। रस्तोगी जी भी छह साल से पड़ोस में रह रहे हैं।

लेकिन उन्होंने करीने से हालचाल तक नहीं पूछा, बस एक टिप्पणी जड़ कर चले गए।

अमिताभ ने उसकी उदासी पकड़ ली। कहा, ‘अरे छोड़ो, जाने दो उसको।‘ फिर उसे खयाल आया कि

वह अपने पसंदीदा विषय पर यहां भाषण झाड़ सकता है। तो वह शुरू हो गया- ‘दरअसल कसूर

उसका नहीं है, उस समाज का है जो हमने बनाया है। यह एक बीमार पूंजीवादी समाज है, जो सिर्फ़

अपनी चिंता करता है। वह पैसे के दम पर खरीदे गए रेडिमेड सुखों-दुखों पर पलता है, कहीं और से

मिले सपनों और उम्मीदों को अपना मानता है। कभी इस क्लास को मल्टीप्लेक्स में देखना। वह

किसी इमोशनल सीन पर आंसू भी बहाता रहेगा और साथ में पॉपकॉर्न भी खाता रहेगा। अभी ये डरने के

दिन हैं इसलिए वह डर रहा है।‘

लेकिन वह इस बुखार में इतना लंबा भाषण सुनने के मूड में नहीं था। उसने झल्लाते हुए अमिताभ को कहा कि वह चुप रहे। अमिताभ हंसने लगा, ‘साले, तुम भी इसी क्लास के हो इसलिए। रस्तोगी ने तो तुम्हें टोका भर, तुम होते तो अब तक उसे सोसाइटी से बाहर कर चुके होते।‘

क्या वाकई? वह वास्तव में सोचने लगा कि क्या वह भी ऐसा ही करता? उसे याद आया कि जब बी ब्लॉक के सुरेश तोमर की नौकरी छूट गई थी और वह कई महीनों का मेन्टेननेस चार्ज नहीं दे पाया था तो जो लोग उसकी बिजली काटने के पक्ष में थे, उनमें वह भी था। तब कई लोगों ने यह सुझाव भी दिया था कि सुरेश को लिफ्ट का इस्तेमाल न करने दिया जाए। हालांकि इस पर अमल इसलिए नहीं हो पाया कि सुरेश ने कहीं से पैसे लाकर जमा कर दिए थे। महीनों बाद उड़ती-उड़ती यह खबर उसकी पत्नी तक पहुंची थी कि सुरेश की पत्नी ने इसके लिए अपनी चूडियां बेच दी थीं- सिर्फ मेंटेनेंस नहीं देना था, बच्चों की फीस भी देनी थी और बैंक की ईएमआई भी।

खैर, डॉक्टर से मिलकर उसे राहत मिली थी। इस डॉक्टर ने भी यही कहा कि ये कोरोना नहीं है, एक ज़िद्दी वायरल है जो जाते-जाते जाएगा। उसने दो दवाएं भी लिखी थीं। उसने तय किया था कि लौट कर वह

सोसाइटी में सबको बता देगा कि उसे बुखार है, मगर कोरोना नहीं है और उससे किसी को डरने की ज़रूरत नहीं है।

लेकिन इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। उसके पहले रस्तोगी जी सबको बता चुके थे कि वह बीमार है और यह बीमारी सबसे छुपा रहा है। सोसाइटी के वाट्सऐप ग्रुप में यह सूचना तरह-तरह की शिकायतों और सवालों

के साथ घूम रही थी। सबको यही लग रहा था कि उसने पूरी सोसाइटी- और ख़ास कर अपने ब्लॉक के लोगों को- ख़तरे में डाल दिया है। कई दिन से बुखार में होने के बावजूद उसने सोसाइटी की प्रबंध समिति को कोई सूचना नहीं दी, बल्कि इस दौरान वह और उसका परिवार धड़ल्ले से लिफ़्ट इस्तेमाल करते रहे। जबकि ऐसे संगीन समय में सबको ख़ुद क्वॉरन्टीन हो जाना चाहिए था।

वह हैरान था। लोग कितनी तेज़ी से किसी नतीजे तक पहुंच जाते हैं! वह जैसे उनके बीच का नहीं, किसी तबलीगी जमात का सदस्य हो जिसने जान-बूझ कर सबके ख़िलाफ़ बीमारी फैलाने की साज़िश की हो। वह डर गया कि कहीं कोई ऐसा वीडियो न निकल जाए जिसमें वह कहीं या किसी पर थूकता दिख रहा हो। हालांकि उसे मालूम था कि ऐसा नहीं होगा-वह उनके बीच का ही है। मगर इसी से उसे यह भी खयाल आया कि एक बड़े परिवार या समाज के हिस्से के तौर पर तबलीगी पराये क्यों थे?

वह इस पर कुछ सोच पाता, इसके पहले इंटरकॉम बजने लगा था। पत्नी ने उठाया, हां हूं की और मुड़कर उससे कहा, अवस्थी जी का फोन है। अवस्थी जी सोसाइटी के अध्यक्ष थे। बात-बात पर हेहेहे करने वाले विनम्र आदमी थे। उन्होंने बहुत धीरज से उसका हालचाल लिया। बुखार की बाबत पूछा। यह भी कहा कि पहले बताते तो वे किसी बड़े डॉक्टर के पास ले चलते। उलाहना दिया कि सोसाइटी के लोग ऐसे मौकों पर एक-दूसरे के काम नहीं आएंगे तो कब आएंगे। यह भरोसा भी दिलाया कि सब उसके साथ हैं,वह फ़िक्र न करे। वह वाकई फिक्र नहीं करना चाहता था। डॉक्टर से मिलने के बाद उसकी बची-खुची फ़िक्र भी ख़त्म हो जाती। लेकिन सोसाइटी के वाट्सऐप ग्रुप पर जो कुछ चल रहा था, उसने उसे बुरी तरह परेशान कर दिया था। ऐसे में प्रेसिडेंट साहब की बात उसे बड़ी तसल्ली भरी लग रही थी।

लेकिन यह तसल्ली देर तक नहीं टिकी रही। अवस्थी जी कुछ हिचकते हुए अपने असल मुद्दे पर आ रहे थे। सोसाइटी बहुत चिंतित है कि उसके यहां एक आदमी को बुखार है और इसे उसने सबसे छुपाया हुआ है। अवस्थी जी याद दिला रहे थे कि इतने बड़े अपराध पर तो देश भर में तबलीगियों को खोज-खोज कर जेल में डाला जा रहा है। लेकिन वे लोग पुलिस नहीं बुलाने जा रहे हैं। सोसाइटी बस कुछ एहतियाती क़दम उठाने जा रही है। उसके ब्लॉक की लिफ्ट को सैनेटाइज़ कराया जा रहा है। इस बीच उससे अनुरोध है कि वह परिवार सहित ख़ुद को क्वॉरन्टीन रखे। ज़रूरत पड़ने पर सीढ़ियों का इस्तेमाल कर ले, लेकिन लिफ़्ट से न आए-जाए।

वह बुरी तरह भड़क गया था। उसने कहा कि उसे कोरोना नहीं है, मामूली वायरल है और यह बात तीन नहीं, चार डॉक्टर कह चुके है। सोसाइटी चाहे तो उनके पर्चे देख ले। और हां, उसने कुछ छुपाया नहीं है। सोसाइटी में हर किसी को फोन करके बताने का कोई मतलब नहीं है कि उसे वायरल हुआ है। उसने गुस्से में यह भी कहा कि जो सोसाइटी अपने सदस्य के साथ नहीं खड़ी नहीं हो सकती, वह प्रधानमंत्री के संकल्प के मुताबिक कोरोना से साझा लड़ाई क्या करेगी? और सोसाइटी के जिन लोगों को आज उससे डर लग रहा है, वही लॉक डाउन से पहले सारे नियम तोड़कर दुकानों में धक्का-मुक्की कर रहे थे।

अवस्थी जी अपने स्वभाव के मुताबिक पूरे धीरज से उसकी बात सुनते रहे। उन्होंने यह भी माना कि वह बिल्कुल ठीक कह रहा है, कि समाज में जागरूकता की बहुत कमी है, कि लोग अपने स्वार्थ में अंधे हुए जा रहे हैं और इसीलिए कभी जगतगुरु कहलाने वाला भारत आगे नहीं बढ़ पा रहा है, प्रधानमंत्री की कल्पना वाला एकजुट राष्ट्र नहीं बन पा रहा है। उन्होंने फिर तबलीगियों का उदाहरण दिया जो कोरोना फैलाते घूम रहे हैं। बताया कि कैसे इंदौर में डॉक्टरों पर पत्थर फेंके जा रहे हैं।

लेकिन फिर वे मुद्दे पर चले आए। कहा कि सोसाइटी के लोगों की चिंता भी अपनी जगह सही है। यहां बहुत सारे बच्चे हैं, बहुत सारे बुज़ुर्ग भी। सबका ख़याल रखना पड़ेगा। और जहां तक कोरोना का सवाल है,अब तो डॉक्टर भी बोल रहे हैं कि कोरोना के ज़्यादातर मरीज़ ऐसे हैं जिनमें लक्षण नहीं दिखते। तो यह कैसे कहा जा सकता है, उसे कोरोना नहीं हो सकता। तो अच्छा यही है कि वह सोसाइटी के साथ सहयोग करे, 14 दिन घर से न निकले। उन्होंने फिर भरोसा दिलाया कि वह सोसाइटी से सहयोग करेगा तो सोसाइटी भी उससे सहयोग करेगी।

इसके बाद ज़्यादा कुछ कहने-सुनने की गुंज़ाइश नहीं बची थी। उसने पत्नी को अवस्थी जी से हुई बातचीत के बारे में विस्तार से बताया। फिर वह चिंतित हो गया- बेटा कहां है? पत्नी ने बताया, वह दोस्तों के साथ नीचे गपशप कर रहा होगा। लेकिन यह बातचीत चल ही रही थी कि घंटी बजी। पत्नी ने दरवाज़ा खोला तो बेटा खड़ा था- कुछ परेशान सा और कुछ पसीना-पसीना। उसने बताया कि हर जगह पापा की बीमारी की बात चल रही है। उसका अपने दोस्तों से झगड़ा भी हो गया। वे याद दिला रहे थे कि बॉलिंग करते समय वह गेंद पर थूक लगा रहा था। बाद में नीचे वाले अंकल ने उसे घर जाने को कहा, लेकिन लिफ्ट से नहीं, सीढ़ियों से। तो वह सीढ़ियों से चल कर आया है।

वह स्तब्ध था। तो बात यहां तक चली आई। थूक का सवाल भी चला आया। वह भीतर से बिखर सा रहा था। लेकिन यह वक़्त परिवार को संभालने का था- उसका सोलह साल का बेटा रो रहा था। उसने उसे चुप कराया, कहा कि सब ठीक हो जाएगा। बस दो हफ़्ते की बात है। वैसे भी उसका बुखार आज उतरा हुआ है। अब शायद न आए। उसके बाद वह इन लोगों का बुखार उतारेगा।

लेकिन कैसे उतारेगा? वह भी तो इन्हीं लोगों के बीच का रहा है। किसी और को बुखार आया होता तो वह परिवार रो रहा होता और वही उनके बच्चे को लिफ्ट से न जाने की हिदायत दे रहा होता। वह भीतर से शर्मिंदा हो गया।

उसे मालूम था, उसका बुखार उतर जाएगा। लिफ़्ट उसके लिए फिर से खुल जाएगी। लेकिन पूरे समाज में जो एक अदृश्य बुखार पसरा हुआ है, यह कैसे उतरेगा? कोरोना की तरह इसके लक्षण भी किसी को नज़र नहीं आ रहे। तरह-तरह के अंदेशों और शक-शुबहों से भरी और एक-दूसरे को शिकायत, हिकारत और नफ़रत से देखती यह दुनिया कैसे बदलेगी? प्रधानमंत्री की तरह-तरह की अपीलों का क्या मतलब है? यह जो ताली-थाली बजी, यह जो दीए जलाए गए- उनका मक़सद क्या एकजुटता पैदा करना और रोशनी फैलाना है? लेकिन उसके पहले का अंधेरा किसने पैदा किया है? या यह जान-बूझ कर एक अंधेरे को छुपाने की कोशिश है? जो गरीब, बेघर मज़दूर हैं, क्या वे इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या तबलीगी जमात के नाम पर एक पूरी कौम को बदनाम करना ठीक है? यह तो कहीं ज़्यादा बड़ा वायरस है, इससे कैसे लड़ेंगे?

इन सवालों के जवाब उसके पास नहीं थे। सच तो यह है कि ये सवाल पहले उसके दिमाग मेंआते भी नहीं थे। जब ख़ुद पर गुज़री, तब सच खुला। उसने तय किया कि वह अब ऐसी किसी कोशिश में शरीक नहीं होगा। उसे अपना घर याद आया, मां याद आई, दादी की घंटी याद आई- और यह याद आया कि प्रधानमंत्री के आह्वान पर उसने यह घंटी बजाई थी। आज यह घंटी फिर निकालनी होगी-इस बार किसी के कहने पर नहीं, बस अपने भीतर की आवाज़ से। यह उसका निजी प्रतिरोध होगा- अपनी सोसाइटी के रवैये से।

लेकिन इसके पहले कुछ और भी करना होगा। उसने सोसाइटी के वाट्सऐप ग्रुप पर एक लंबा मेसेज लिखा। हालांकि लिखते-लिखते ही वह थकने लगा। उसे लगा कि मेसेज फारवर्ड करना कितना आसान है और लिखना कितना मुश्किल। लिखने के पहले सोचना पड़ता है। फिर भी उसने लिख ही लिया- ‘साथियो, छह साल से आपके बीच रह रहा हूं। हर सुख-दुख में साथ रहा। कभी किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। सारे बिल समय पर जमा करता रहा। लेकिन अभी अचानक मुझे सबने दुश्मन मान लिया है। बस इसलिए कि मुझे बुखार है। यह बस वायरल है, लेकिन आप सब कोरोना निकाल लाए। आपने हम लोगों का निकलना बंद कर दिया। यह कैसी सोसाइटी है-यह कैसा समाज है? अगर हमारे बीच किसी को वाकई कोरोना हो गया तो उसे तो आप लोग फांसी पर चढ़ा देंगे। कोरोना से आपकी लड़ाई झूठी है। आपने जो ताली-थाली बजाई. वह झूठी है। उस दिन आपके साथ मैं भी शामिल था। लेकिन थोड़ी ही देर में मैं अलग से घंटी बजाने जा रहा हूं- याद दिलाने के लिए कि कोरोना से लड़ना है तो सबको सच में साथ आना होगा, साथ होने का दिखावा करने से काम नहीं चलेगा। हम पहले से बीमार लोग हैं। यह बीमारी दूर करनी है।‘

वह जल्दी से अपने कमरे में गया। दुछत्ती में फिर से रख दी गई घंटी निकाली। पत्नी और बेटा उसे कुछ हैरत से देख रहे थे। वह बालकनी में पहुंचा। उसने ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजानी शुरू की। लॉक डाउन के सन्नाटे में वह घंटी पूरी सोसाइटी में जैसे एक चेतावनी की तरह गूंज रही थी। अगल-बगल के लोग बालकनी में चले आए थे और उसे देख रहे थे। इस बीच उसकी पत्नी और बेटा बालकनी में आकर उससे भीतर आने की मनुहार कर रहे थे। सब उसकी घंटी सुन रहे थे, किसी ने देखा नहीं कि वह रो रहा था- फूट-फूट कर। परिवार उसे संभालने में लगा था।

लेकिन तभी एक दूसरे ब्लॉक से भी एक घंटी बजने की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी। उसने हैरानी से देखा-जो सेन साहब न ताली-थाली में शामिल हुए न दीया जलाने में, वे घंटी बजा रहे हैं। दोनों की नज़र मिली तो उन्होंने हाथ उठाकर अभिवादन किया- जैसे भरोसा दिला रहे हों कि वह अकेला नहीं है। फिर अचानक तीन-चार और घरों से ताली और बर्तन की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी थी। यह सब पांच मिनट में हुआ और ख़त्म भी हो गया।

पत्नी-बेटे के साथ अब वह कमरे में आ गया था। घंटी उसने मेज़ पर रख दी। देर तक अपने भीतर डूबा रहा। उसे अब एक अजब सी शांति महसूस हो रही थी। उसका बुखार उतर चुका था-वह बुखार भी जिसकी उसे ख़बर नही थी लेकिन जो अब पकड़ में आया था।

मगर उस रात सोसाइटी में बहुत सारे लोगों की नींद में वह घंटी बजती रही। सब बेचैन रहे- परेशान कि उसकी घंटी का मतलब क्या था। कहना मुश्किल है, उसमें कितने लोग अपना बुखार पकड़ पाए। जबकि वह चैन से सोता रहा- आश्वस्त कि वह अकेला नहीं है और बीमार भी नहीं है।

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