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गुलाबी बिंदु

गुलाबी बिंदु

प्रियदर्शन

गाजियाबाद को दिल्ली से जोड़ने वाली और एनएच-24 से जुड़ने वाली वह सड़क सन्नाटे में डूबी थी। परितोष ऐसी ख़ाली सड़क देखता है तो गाड़ी की रफ़्तार सौ के क़रीब तक ले आता है। आसपास की इमारतें तेज़ी से पीछे छूटी जा रही थीं, क़रीब एक किलोमीटर दूर नजर आ रहा फ्लाई ओवर उतनी ही तेज़ी से पास आ रहा था। कार में बज रहा म्यूज़िक सफ़र के आनंद को कुछ और बढ़ा रहा था। लेकिन अचानक परितोष चौंका। क़रीब 200 मीटर की दूरी पर उसे सड़क पर कोई गुलाबी सा बिंदु दिखा। यह क्या है? जाने क्या हुआ कि परितोष ने ज़ोर का ब्रेक लगाया। गाड़ी रुकते-रुकते भी बिंदु के पास आ चुकी थी जो अब बड़ा हो चुका था। गाड़ी में बैठे हुए परितोष को तब भी समझ में नहीं आ रहा था कि यह गुलाबी चीज़ क्या है। वह एक लम्हे संशय में रहा- कुछ भी हो, उसे क्या, वह आगे बढ़ जाए। लेकिन कुछ नागरिक होने की ज़िम्मेदारियों का एहसास और कुछ पत्रकार होने के कौतूहल का कमाल- उसने सोचा कि उतर कर देख ले- यह क्या चीज़ है।

आसपास कोई गाड़ी नहीं थी। उसने लगभग बीच सड़क पर ही गाड़ी रोक रखी थी। उसने दरवाज़ा खोला और एक लम्हे के लिए बाहर की गरम हवा से सकपका गया। लगा कि वह तो झुलस जाएगा। दोपहर के दो बजे थे। मई का महीना था। धूप बहुत तीखी थी। हालांकि एसी कार में बैठ कर ड्राइव करते हुए इस मौसम का पता तक नहीं चलता था।

लेकिन वह कार से उतर चुका था। वह गुलाबी चीज़ के पास पहुंचा तो चौंक गया। यह बहुत छोटे बच्चे के पांव का जूता था- बस एक पांव का। उसने जूता उठा लिया। यह एक पांव का जूता बहुत महंगा नहीं दिख रहा था। गली-मोहल्लों में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों में बिकने वाले रंगीन जूतों की तरह का ही जूता था।

वह अपनी नासमझी पर कुछ हैरान हुआ। बस इसी के लिए गाड़ी सड़क पर खड़ी कर वह उतर आया था? ध्यान से देखता तो सीट पर बैठै-बैठे पहचान लेता। उसने जूते को सड़क के किनारे फेंका और फिर गाड़ी का दरवाज़ा खोल सीट पर आ बैठा। कार स्टार्ट करते ही एसी चल पड़ा और उसकी ठंडक ने याद दिलाया कि वह कितनी गर्मी में निकल पड़ा था। इतनी ही देर में कॉलर के पीछे की चिपचिपाहट उसे खलने लगी थी।

लेकिन गाड़ी बढ़ाते-बढ़ाते अचानक फिर वह रुक गया। जिस गर्मी में वह दो मिनट ठीक से खड़ा नहीं रह सका, उसमें यह कौन बच्चा रहा होगा जो चल रहा होगा? उसका यह जूता कैसे छूट गया होगा? एक साथ बहुत सारे खयाल उसके दिमाग में आने लगे। संभव है, बच्चा मां-बाप में से किसी की गोद में हो और नींद में बेख़बर उसके एक पांव का जूता निकल गया हो? लेकिन धूप तो फिर भी उसके सिर पर पड़ रही होगी। हो सकता है, मां ने अपने आंचल से या पिता ने अपने गमछे से उसका सिर ढंक रखा हो, लेकिन इतनी धूप में कोई परिवार पैदल इस सड़क पर क्यों निकला होगा? या ऐसा तो नहीं कि सब पैदल जा रहे होंगे और बच्चा सुध-बुध खो बैठा हो? या हो सकता है, इस परिवार के कई बच्चे हों, धूप में भी खेलते-दौड़ते जा रहे हों और निकला हुआ जूता पीछे छूट गया हो?

उसने अपना सिर झटकने की कोशिश की। इतने वाहियात खयाल उसे क्यों आ रहे हैं? संभव है, ऐसा कुछ भी न हुआ हो, जूता कहीं से पांवों की ठोकर खाता-खाता यहां तक चला आया हो। यानी किसी का बेकार पड़ा जूता हो, उसने बाहर फेंका हो, बच्चों ने खिलौना बना लिया हो, और ठोकर मार-मार कर यहां तक ले आए हों। आख़िर इसका दूसरा जोड़ा तो नहीं मिल रहा?

उसने चुपचाप गाड़ी बढ़ा दी। लेकिन जूता था कि कहीं उसके भीतर गड़े जा रहा था। उसे अपने प्रिय कवि रघुवीर सहाय की कविता ‘दुख’ याद आई- ‘यह क्या है जो इस जूते में गड़ता है / यह कील कहां से रोज़ निकल आती है / इस दुख को रोज़ समझना क्यों पड़ता है?’

हालांकि इसका भी औचित्य नहीं था। सड़क पर पड़े एक गुलाबी जूते से रघुवीर सहाय की इस कविता का क्या वास्ता है? क्या गुलाबी जूते या बच्चे के जूतों को लेकर भी कोई कविता है? अचानक उसे दुनिया की सबसे छोटी कहलाने वाली कहानी की याद आई। यह हेमिंग्वे की लिखी बताई जाती है। सिर्फ़ छह शब्दों की कहानी- ‘फॉर सेल, बेबी शूज़, नेवर वोर्न।‘ वह सिहर गया। कहीं यह वैसा ही बदनसीब जूता तो नहीं जिसे ऐसे बच्चे के लिए खरीदा गया था जो इसे पहन तक नहीं पाया और लंबे सफ़र पर निकल गया?

उसने घड़ी देखी। तीन बजे से वह सेमिनार है जहां उसे पहुंचना है। अगर यह सेमिनार न होता तो वह कतई इस धूप में न निकलता। बल्कि सेमिनार के विषय से ज़्यादा वह अपने मित्र के आग्रह का मान रखने के लिए वहां जा रहा था। यह बात भी कुछ अश्लील सी थी। उसे खयाल आया- सेमिनार का टॉपिक है- ‘बंद होती सरहदें और मारे जाते बच्चे।‘ उसे वे बहुत सारी सतही कहानियां याद आईं जिनमें बच्चों पर सेमिनार के लिए जा रहा नायक अपने आसपास के बच्चों की आपराधिक अवहेलना करता है।

लेकिन क्या अभी की घड़ी में वह ऐसी ही किसी सतही कहानी के नायक जैसा वाकई नहीं हो गया है? जब तक बच्चे कोई दलदली सरहद पार करते हुए किसी दारुण तस्वीर में न बदल जाएं, तब तक क्या हम उनके बारे में नहीं सोचते? इस तपती धूप में यह ख़ाली सड़क पार करते किसी अनजाने बच्चे की त्रासदी क्या उस बच्चे से कम होगी जो सीरिया छोड़ने और बेहतर ज़िंदगी की तलाश करने निकले अपने परिवारवालों के साथ चला और मारा गया?

उसने तय किया कि वह सेमिनार में नहीं जाएगा। पहले पता लगाएगा कि यह जूता किसका है? गाड़ी जूते की जगह से दो किलोमीटर आगे जा चुकी थी- अगला यू टर्न आधे किलोमीटर बाद आने वाला था। उसने वाकई गाड़ी मोड़ ली। पांच मिनट के भीतर वह फिर वहीं था। इस बार उसने गाड़ी सड़क किनारे ख़ड़ी की और जूता खोजने लगा। जूता अब भी वहीं पड़ा था जहां उसने पांव से ठोकर मार कर उसे हटाया था। इस बार उसने जूता हाथ में उठा लिया- बहुत छोटा सा जूता बहुत मुलायम भी था। उसे लगा कि वह जूता नहीं, अपने बेटे का पांव छू रहा है। 20 बरस पहले उसका बेटा भी ऐसे ही जूते पहना करता था। उसने जूता उलटा-पलटा तो अचानक चूं चूं की आवाज़ आई। यह आवाज़ भी जैसे उसे 20 साल पीछे ले गई। उसे वह सोसाइटी याद आई जहां उसका बच्चा चूंचूं बजते जूते के साथ तेज़ी से चलता जाता था और पीछे-पीछे वह और उसकी पत्नी हंसते हुए चला करते थे।

उसे लगा कि वह पहले दूसरे पांव का जूता खोजे। उसने आसपास के 100 मीटर में चक्कर काटा। दूसरा जूता उसे नहीं मिला। वह सड़क से नीचे खेतों की ओर उतरा, वहां भी खोजता रहा. जूता उसे नहीं मिला। उसने सड़क पार की और दूसरी तरफ़ भी सारी संभव जगहें देख ली। जूता अब भी नहीं मिला।

क्या वह किसी से पूछे? आसपास बस एक रेहड़ी वाला था और गुमटी थी जिसमें एक शख़्स नजर आ रहा था। दोनों उसे कुछ कौतूहल से देख रहे थे। वह कुछ शर्मिंदा सा हो गया। ये लोग यह न सोच रहे हों कि उसे सड़क पर पड़ा एक जूता मिला है और वह दूसरा खोज कर अपने लिए एक सामान जुटा लेना चाहता है। यह शर्मिंदगी दूर करने के लिए भी इन लोगों से बात करनी जरूरी थी। तो वह कुछ बेफ़िक्र बनते हुए उसके पास पहुंचा- ‘भाई, कितनी देर से यहां पर हो?’

फल बेच रहे रेहड़ी वाले को किसी और सवाल की उम्मीद भले हो, इस सवाल की उम्मीद नहीं थी। वह कुछ अचकचा गया- साहब तीन-चार घंटे से तो हैं ही।

‘यहां बिक जाते हैं तुम्हारे फल?’ उसने मुंडी हिलाई- जी। ‘यहां आकर कौन लेता है?’

‘ई जो सोसाइटी है न सर, वहां के लोग चले आते हैं, अभी कम। लेकिन शाम को ठीकठाक बिक जाता है’, अब वह फल वाला कुछ सहज हो रहा था।

‘अच्छा ये बताओ, कुछ देर पहले तुमने किसी परिवार को, या किसी बच्चे को, सड़क पर पैदल जाते देखा था?”

फल वाले ने कहा कि देखा भी होगा तो ध्यान नहीं है साहब। एक के बाद एक गाड़ियां पार होती रहती हैं। तो बीच सड़क पर तो नहीं, लेकिन किनारे से इक्का-दुक्का लोग आते-जाते रहते हैं। उसे देखने की कहां फुरसत।

कुछ संकोच के साथ उसने रेहड़ी वाले को वह गुलाबी जूता दिखाया- ‘लगता है, किसी बच्चे का गिर गया है। सोच रहा था कि वह मिल जाता तो उसे दे देता।‘

रेहड़ी वाला पहले कुछ हैरान हुआ और फिर हंसने लगा- ‘अरे बाबू साहब, ऐसा सामान तो बहुत फेंका-बीगा रहता है। कहां-कहां चुन कर बांटते चलिएगा। छोड़िए। होगा किसी का। कोई बच्चा फेंक गया होगा।‘

लेकिन परितोष का मन नहीं मान रहा था- ‘यार इतनी धूप में कोई ऐसे ही क्यों निकलेगा।‘

रेहड़ी वाला इस बार और हैरान हुआ। ‘अरे धूप है तो का हुआ। काम है तो निकलना पड़ेगा। कुछ देर में धूप का पता भी नहीं चलता।‘

फिर भी परितोष संतुष्ट नहीं हुआ। उसने रेहड़ी वाले से पूछा, आसपास कोई बस्ती है जहां वह इसके बारे में पता कर सके?

रेहड़ी वाला अब उसे पागल समझने लगा था। उसने कहा, ‘देखिए, सोसाइटी में तो आपको कुछ पता नहीं चलेगा। दरबान घुसने भी नहीं देगा जब आप भीतर वाले किसी को जानते नहीं होंगे। हां, सोसाइटी के पीछे कुछ मजदूर लोग रहते हैं। वहां जाकर देख लीजिए।“

उसने देखा- सोसाइटी कुछ दूर नज़र आ रही थी। मन ही मन अंदाजा लगाया कि वह आधा किलोमीटर तक होगी। वहां तक तो गाड़ी चली जाएगी। इसके आगे पैदल जाना होगा- यानी आधा किलोमीटर और मान ले। वह कुछ हिचका। लेकिन कभी-कभी कोई भूत सवार हो जाता है तो वह पीछा नहीं छोड़ता। इसलिए उसने तय किया कि यह काम तो करना ही है। उसने गाड़ी उठाई, सोसाइटी के बाहर सड़क किनारे खड़ी की, जूते को एहतियात से संभाला और निकल पड़ा।

फिर धूप उसका इम्तिहान लेने लगी थी। करीब 200 मीटर दूर उसे कुछ दुकानें और झुग्गियां दिख रही थीं। लेकिन वह चलता रहा। उसे कुछ अच्छा सा भी लगा। बहुत दिन बाद इस तरह अपने पसीने को अपने बदन पर वह महसूस कर रहा था। उसे अपने छात्र जीवन की याद आई, जब गर्मियों में कॉलेज से पैदल लौटते हुए ऐसा ही पसीना बहा करता था। तब वह घर लौट कर कुएं के किनारे जम कर नहा लिया करता और तरो-ताज़ा हो जाता था।

लेकिन अभी वह घर नहीं जा रहा था। वह एक अनजान बस्ती की ओर जा रहा था। आदतन उसने मोबाइल निकालने के लिए ऊपर की जेब की तरफ हाथ बढ़ाया और उसका दिल धक्क से रह गया- मोबाइल जेब में नहीं है। यानी वह गाड़ी में छूट गया है। गाड़ी इतनी दूर खड़ी थी कि उसका मन नहीं हुआ कि वह मोबाइल लेने लौटे। अच्छा ही हुआ, मोबाइल पीछे रह गया। अब अचानक किसी का फोन नहीं आएगा और उसे बताना नहीं पड़ेगा कि वह एक अनजान बस्ती में किसी बच्चे का खोया हुआ जूता बच्चे को खोज कर लौटाने जा रहा है।

क्या वाकई वह ऐसा करने जा रहा है? इस बात को पहली बार उसने इतने साफ़ ढंग से सोचा था। यह कैसा फितूर है? उसे मालूम था कि न बच्चा मिलेगा, न जूता लौटाया जा सकेगा। फिर वह किसकी खोज में एक गुलाबी जूता हाथ में टांगे चला जा रहा था?

उसे अपने भीतर भी कोई जवाब नहीं सूझा। टहलता-टहलता वह सोसाइटी के पीछे की बस्ती तक पहुंच गया था। दूर से जो उसे झुग्गियों की कतार भर लग रही थी, पास आने पर एक हलचल भरी दुनिया में बदल गई थी। उन्हीं झुग्गियों के बीच उसे छोटी-छोटी दुकानें दिख रही थीं, टूटा-फूटा, मरम्मत के लिए रखा या मरम्मत की गुंजाइश खो चुका ढेर सारा सामान पड़ा था, धूप से बेपरवाह इक चिल्लपौं सी जारी थी और बच्चे-बड़े सब अपने-अपने ढंग से मौसम से बेपरवाह अपने काम में लगे हुए थे।

परितोष एक पल को हिचका। यहां वह किससे जूते के बारे में पूछे? यह जूता तो इस बस्ती में मौजूद किसी भी बच्चे का हो सकता है। वह एक झुग्गीनुमा दुकान के आगे रुका। सामने तरह-तरह के पाउच लटके हुए थे, नीचे किसिम-किसिम के डब्बे पड़े हुए थे। भीतर भी सामान ठीक-ठाक दिख रहा था। लेकिन दुकान पर कोई नजर नहीं आ रहा था। अचानक एक छोटा सा बच्चा कहीं से दौड़ता आया- ‘क्या चाहिए? सिगरेट?’ परितोष ने देखा- यह बच्चा चप्पल पहने हुए था- पुरानी सी, धूल भरी, लेकिन पांव में चप्पल थी। उसने पूछा, कोई बड़ा आदमी नहीं है घर में? ‘अभी मैं ही सामान देता हूं। दे दूंगा। क्या लेना है?’ बच्चा दुकान के मालिक की तरह बात कर रहा था। परितोष ने अनुमान लगाया, इस उम्र के बच्चे पांचवीं या छठी में हुआ करते हैं। लेकिन आगे कुछ कहने की नौबत नहीं आई। एक रूखे से चेहरे और खिचड़ी बाल वाला नौजवन पहुंच गया था। परितोष को देखकर उसने पूछा, ‘क्या चाहिए?’

परितोष ने उसे बच्चे का जूता दिखाया। बताया कि हाइवे पर मिला है। यह भी बताया कि उसे लगा कि इसी बस्ती के किसी बच्चे का होगा तो चला आया। ‘ऐसा कैसे लगा आपको?” वह युवक कुछ अचरज से पूछ रहा धा, ‘वहां तो बहुत सारे लोग गुजरते हैं। दूर-दूर से मजदूरी करने वाले भी आते हैं। ऐसा कीजिए, आप छोड़ दीजिए यहीं, कोई मिलेगा तो दे देंगे।‘

लेकिन परितोष को इससे तसल्ली नहीं हो रही थी। वह जैसे दुनिया का सबसे ज़रूरी काम कर रहा था और इसे बिल्कुल ठीक जगह पहुंचाया जाना था। उसने कहा कि नहीं, वह देख ले रहा है। इसके बाद उसने लगभग सारी बस्ती का चक्कर लगा लिया। कई लोगों ने जूते में दिलचस्पी दिखाई, मगर यह जानकर कि बस एक पांव का जूता है, पीछे हट गए। बच्चे भी कौतूहल से यह जूता देख रहे थे।

धीरे-धीरे पूरी बस्ती में ख़बर फैल गई कि आदमी एक पांव का जूता लिए किसी को खोज रहा है। इसके साथ तरह-तरह की चर्चाएं चल पड़ीं। किसी ने कहा कि वह कहीं पागल तो नहीं। किसी को शक हुआ कि उसका इरादा कुछ और तो नहीं। एक नौजवान को यह ख़याल भी आया कि इसे दो थप्पड़ मार कर बस्ती से बाहर निकाल देते हैं।

इन तमाम तरह के ख़यालों से बेखबर परितोष अब तक बुरी तरह थक भी चुका था। उसने किसी से समय पूछा और जान कर हैरान रह गया कि वह दो घंटे से ऊपर इस बस्ती में गुज़ार चुका है। उसे प्यास भी लग आई थी और कुछ खाने की इच्छा महसूस हो रही थी। यह खयाल भी आया कि उसका शुगर लेवल नीचे न चला गया हो। उसने एक छोटी सी चाय की गुमटी देखी और वहीं बैठ गया। आजकल बिसलेरी की बोतल इन बस्तियों में भी मिल जाती है। उसने एक बोतल पानी ख़रीदा, गटागट पी गया, एक चाय का ऑर्डर किया और शीशे के डिब्बे में पड़ी दो मट्ठियां भी ख़रीद लीं।

चाय वाले को भी पता चल चुका था कि यह फितूरी आदमी एक पांव का जूता लेकर दो घंटे से घूम रहा है। उसने पूछा, बाबू साहेब, दूसरे पांव का जूता मिला? परितोष को कुछ अचरज हुआ। वह समझ गया कि सबको मालूम है वह इस बस्ती में एक जूता लेकर आया है।

अब उसे अपने ऊपर खीझ और शर्मिंदगी सी होने लगी थी। ऐसी भावुकता की क्या ज़रूरत थी? इस बस्ती में उसे लगभग किसी अजूबे की तरह देखा जा रहा है। वह जल्दी से जल्दी यहां से निकलने की सोचने लगा। लेकिन चाय का इंतज़ार करना था।

चाय आई, उसने पी, दुकानवाले को 10 रुपये दिए और वह बस्ती से निकल पड़ा। फिर क़रीब आधे घंटे का पैदल का रास्ता था। धूप बेशक कम हो गई थी, लेकिन चुभन बनी हुई थी। पहली बार उसने ध्यान दिया कि इन तीन घंटों में उसकी नीली शर्ट पर पसीने के दाग़ बन गए हैं। करीब 15 मिनट चल कर वह हाइवे पर पहुंचा तो एक और अचरज उसका इंतज़ार कर रहा था। उसकी गाड़ी गायब थी। फल वाला भी गायब था। गुमटी वाला भी गायब था। वह अचानक किसी अंदेशे से घिर गया। उसकी कार चोरी तो नहीं चली गई? कार में ही उसका मोबाइल है। उसे लगा, वह जल्दी से 100 नंबर को फोन करे। लेकिन आसपास कोई दिख नहीं रहा था जिससे मोबाइल लेकर वह फोन कर सके। जो गाड़ियां आ-जा रही थीं, वे इस रफ़्तार में थीं कि उसके हाथ देने से भी नहीं रुकतीं। अब वह दहशत में था। उसने ख़ुद को संभाला। दो सौ मीटर दूर एक पेट्रोल पंप है। वहां लोग ज़रूर मिल जाएंगे।

दस मिनट बाद वह पेट्रोल पंप पर था। उसने एक आदमी से बात की, बताया कि उसकी कार चोरी हो गई है, उसी में उसका मोबाइल है और उसे पुलिस को फोन करना है। लेकिन इसके आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पेट्रोल पंप पर खड़े चार-पांच लड़के उसके चारों ओर जमा हो चुके थे। उनमें से एक कह रहा था- ‘अरे साहब, आप ही की गाड़ी यहां खड़ी थी? पुलिस ले गई है। आपकी पत्नी तो बिल्कुल बदहवास थी। सबको लग रहा था कि आपको किडनैप कर लिया गया है।

अब परितोष का गला बिल्कुल सूख चुका था। दोपहर की थकान का असर था या इस नई ख़बर का- वह लड़खड़ा सा गया। फिर शोर मचा और एक लड़के ने उसे जल्दी से पानी लाकर दिया। फिर एक ने कहा कि वह उसे मोटरसाइकिल से थाने तक छुड़वा देगा।

पांच मिनट के भीतर वह थाने के पास था। घुसते-घुसते उसने देख लिया था कि एक किनारे उसकी कार लगी थी, उसके कुछ पत्रकार दोस्त वहां खड़े थे, उसकी पत्नी गरिमा भी वहीं थी और शायद अब भी रो रही थी।

‘परितोष!’ किसी ने उसे देखा और लगभग चीख पड़ा। अचानक कई सिर उसकी ओर मुड़े और एक शोर सा मच गया। गरिमा लगभग सुबकती हुई उसके पास पहुंची- “कहां थे तुम?”

धीरे-धीरे पूरा वाकया खुला। गरिमा ने परितोष को फोन किया था। एक घंटे रुक-रुक कर फोन करती रही। घंटी जाती रही, लेकिन परितोष ने फोन नहीं उठाया। उसे लगा कि सेमिनार के बीच परितोष ने फोन साइलेंट करके छोड़ दिया होगा। लेकिन तभी सुनील का फोन आया- परितोष क्यों नहीं आया सेमिनार में?” तब गरिमा हैरान रह गई। उसने कहा कि परितोष तो पौने दो बजे ही कार लेकर निकला है। अधिकतम ढाई बजे तक पहुंच जाना चाहिए था। अब उसे कुछ फिक्र होने लगी थी। इसके बाद बाकी दोस्तों को फोन किए गए। कहीं से परितोष की कोई जानकारी नहीं मिल रही थी। फिर राकेश ने देखा, सुनील की कार लावारिस सी सड़क किनारे खड़ी है।

“तब मैंने गुड्डू को साथ लिया और सीधे चली आई। कार में झांक कर देखा, तुम्हारा फोन पड़ा हुआ है। तुम नहीं हो। अगल-बगल पूछा, कुछ पता नहीं चला। बस एक फल वाला बता रहा था कि तुम एक जूता खोज रहे थे। मैं घबरा गई। मैंने पुलिस को फोन किया। तुम्हारे दोस्तों को फोन किया। दूसरी चाबी लेकर गाड़ी यहां ले आई।‘

पुलिस काफी मुस्तैद निकली थी। दरअसल फोन सिर्फ़ गरिमा ने नहीं किया था, कई और दोस्तों ने कर दिया था। पुलिस को समझ में आ गया था कि यह हाई प्रोफ़ाइल केस है। इसके बाद उसने फ़ौरन जांच शुरू कर दी। आसपास के लोगों को उठा कर ले भी आई।

‘आसपास के लोगों को...मतलब?” अब परितोष का मुंह खुला। तब तक हीही करता हुआ इंस्पेक्टर चला आया- ‘अरे साहब, आपके चक्कर में ये लोग दो-तीन थप्पड़ खा गए। चलो-चलो निकलो तुम लोग।‘ जिन लोगों को निकलने का आदेश दिया जा रहा था, अब परितोष ने उन्हें देखा। उनके चेहरे बता रहे थे कि मामला दो-तीन थप्पड़ से आगे का गया है। उनमें एक फल वाला था, एक गुमटी वाला- और एक तीसरा आदमी, जिसे वह पहचान नहीं पा रहा था।

परितोष स्तब्ध था। वह जिन लोगों का हमदर्द होना चाहता था, उन पर ऐसी बीती? इन गरीब लोगों पर उसकी हमदर्दी भी इतनी भारी पड़ती है?

तब तक वह फल वाला पास चला आया था- ‘साहेब आप इसी को खोज रहे थे न? बस आप निकले, और दस मिनट बाद ये आ गया। अपने बेटे का जूता खोजते। मैंने रोक लिया कि साहब आ रहे हैं, तुम्हीं को खोजने गए हैं। लेकिन फिर पुलिस ले आई।‘

परितोष ने अब देखा- वह थप्पड़ खाया एक निरीह सा चेहरा था, जिसके बगल में गुस्से और डर से मिली-जुली निगाह के साथ उसे देखती एक औरत खड़ी थी और औरत का पल्लू पकड़े एक छोटा सा बच्चा था जिसके हाथ में एक गुलाबी बिंदु चमक रहा था।

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