हत्यारा Priyadarshan Parag द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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हत्यारा

हत्यारा

प्रियदर्शन

वह जिस तरह हांफ रहा था, उससे लग रहा था कि वह बड़ी लंबी दौड़ लगाकर आया है। उसका पूरा चेहरा पसीने से तरबतर था और उसकी आंखें बता रही थीं कि उसने कोई भयावह दृश्य देखा है।

मुझे हैरानी हुई। कुछ ही समय पहले यह लड़का कितने उत्साह से भरा निकला था। फिर उसके साथ क्या हुआ?

वह बोलने की हालत में नहीं था। मैंने उसे कुर्सी पर बैठने को कहा। पानी ला कर दिया। फिर कुछ देर इंतज़ार करता रहा कि वह कुछ बोले। लेकिन वह अगले 5 मिनट तक चुप रहा।

आखिरकार मैंने पूछा कि हुआ क्या है। उसके होंठ फड़फड़ाए, उसकी आंखें सिकुड़ी, और फिर अचानक वह रोने लगा। मैं हैरान था मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा था। हताशा में देखा था, गुस्से में देखा था, उत्साह से भरा देखा था, गर्व से भरा भी देखा था, लेकिन रोते हुए कभी नहीं देखा था।

यह देखना भी मेरे लिए तकलीफ़देह था। 25 साल का एक लड़का फूट-फूट कर रोए तो एक अजीब सी बेबसी और कातरता का एहसास होता है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूं। मैं कुछ देर स्तब्ध बैठा रहा, आख़िरकार मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा। लेकिन मेरा हाथ उसे अपने कंधे पर मंजूर नहीं था। उसने एक झटके में हटा दिया। तभी उसे एहसास हुआ कि वह एक आदमी के सामने रो रहा है। शायद उसे कुछ शर्मिंदगी हुई हो जो उसके दुख से बड़ी रही हो। इसलिए अचानक उसकी आंखें कुछ रूखी हो गईं, उसका चेहरा कुछ सख्त हो गया और अचानक उसकी आवाज में एक तीखापन चला आया- ‘हम लोगों ने उसे पीट पीट कर मार डाला।‘

किसे? अब स्तब्ध होने की बारी मेरी थी। शायद मैं भीतर से सिहर या कांप रहा था। यह सीधा-सादा लड़का क्या इस हद तक हिंसक हो सकता है? अगला सवाल पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। उसे भी शायद कुछ कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लेकिन हम दोनों एक तरह की बेचैनी से भरे थे। मेरे भीतर बार-बार कोई जैसे सवाल पूछ रहा था कि क्या मेरे सामने एक अपराधी बैठा है? जो मेरे सामने बैठा था, उसके भीतर शायद यह बताने की बेसब्री थी कि वह अपराधी नहीं है।

बोलना उसी ने शुरू किया- 'हम स्टडी सर्किल से निकले‌ ही थे। हमने स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों पर चर्चा की थी। यह तय किया था कि अगली बार गांधी को पढ़ेंगे। हमने तय किया था कि अपनी भारतीयता को अपनी तरह से पहचानेंगे। लेकिन उसी बीच शोर मचा। किसी ने बताया कि पास में ही गाय को मारा गया है। हम भागते भागते वहां पहुंचे। हमने पाया कि वाकई एक गाय मरी पड़ी थी और कुछ लोगों ने दो लड़कों को बंधक बना रखा था।'

'तो तुम लोगों को पुलिस को बुलाना चाहिए था?' कुछ तल्खी और बेसब्री से मैंने पूछा। उसने कहा, वह यही चाहता था। लेकिन भैया पहले उन दोनों को 2-3 तमाचे जड़ चुके थे।

'हम उन्हें छोड़ देते। लेकिन एक हमारी पकड़ से छूटकर भाग निकला। इसी के बाद दूसरे की पिटाई शुरू हो गई। पहले वाले को भागना नहीं चाहिए था। इस बात से भीड़ भड़क गई।'

'वह नहीं भागता तो भीड़ उसे भी मार डालती। भीड़ को तर्क नहीं उन्माद चाहिए। उसे रक्त चाहिए। ‌ इससे उसके भीतर का यह अपराध भाव कम होता है कि वह कुछ नहीं कर रही है। अपने उपयोगी होने का भान होता है। देश और समाज के काम आने का भान होता है।'

मैं जिस तरह बोल रहा था, उसमें समझना मुश्किल नहीं था कि मैं भीड़ के बारे में नहीं, भीड़ में शामिल उस लड़के के बारे में बोल रहा हूं।

शायद इसे वह भी समझ रहा था। वह कुछ देर चुप बैठा रहा। मुझे याद आया, ऐसी चुप्पी उसने ठीक उस दिन भी ओढ़ रखी थी, जब पहली बार वह मुझसे मिलने आया था। उसे पता चला था कि मोहल्ले में एक प्रोफेसर हैं जो अखबारों में लिखते भी हैं। लेकिन मेरे पास आकर वह निराश हुआ था। निराशा की वजह शायद मैंने ही उसे दी थी। पहली ही बार उसका यह भ्रम तोड़ने की कोशिश की थी कि देश या धर्म भले बहुत बड़े होते हों, लेकिन सबसे बड़े नहीं, इंसानियत से बड़े नहीं। शायद वह पहली बार ऐसी बात सुन रहा था। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने अपने पहले के पढ़े-सीखे सारे शास्त्रों का बिल्कुल शस्त्रों की तरह इस्तेमाल किया और मुझ पर दे मारा। लेकिन उसे अंदाज़ा नहीं था कि मेरा वैचारिक कवच उसके इस सुने-गुने ज्ञान से ज्यादा मज़बूत है। मैं लगातार उसकी आपत्तियों के जवाब देता गया था। ऐसा नहीं कि वह मुझसे संतुष्ट होकर निकला था। जो संस्कार उसे बहुत बचपन से दिए गए थे, वे इतनी आसानी से मिटने वाले नहीं थे। तो देर तक चुप बैठा रहा था और उठ कर चला गया था।

लेकिन इसके बाद भी वह बार-बार लौटता रहा। शायद उसे मेरी बात में कुछ अनूठापन नज़र आया हो। शायद उसे लगा हो कि यह आदमी अलग ढंग से सोचता है और किसी तर्क-वितर्क के लिए उपयुक्त दलील सुझा सकता है। धीरे धीरे मैंने पाया कि हम अपने अपने उम्र के फ़ासले के बावजूद लगभग मित्रवत हो चले हैं। वह मुझसे खुलकर बात करता था। जब दुनिया भर से नाराज़ हो जाता था तब मेरे पास आकर बैठ जाता था। जब कोई उद्वेलन उसे घेरता था तब भी मेरे पास आकर अपने मन की उलझन खोलता था। उसे लगता था कि मैं उसकी अंतरात्मा को पहचानने लगा हूं, कि मैं उसकी अंतरात्मा का रक्षक हूं और सिर्फ मेरे सामने अपनी आत्म स्वीकृति से उसके गुनाह धुल जाएंगे- या कम से कम अपने ऊपर वह इन गुनाहों का बोझ महसूस नहीं करेगा।

लेकिन अभी जो महसूस कर रहा था, गुनाहों के बोझ से कुछ ज़्यादा था। उसने बताया कि ऐसी मॉब लिंचिंग में- यह शब्द बोलते बोलते फिर उसके होंठ थरथरा से गए थे और उसकी आंखों में हल्का सा पानी चला आया था- वह पहली बार शामिल हुआ है और एक आदमी की इस तरह मौत उसके दिमाग से उतर नहीं रही।

लेकिन मेरा सिर भन्रा रहा था- मैं क्या कर रहा हूं? क्या अपराधी से बात नहीं कर रहा हूं? क्या इसे पछताने का मौका देकर दूसरे अपराध के लिए तैयार नहीं कर रहा हूं? मैं अपने भीतर उसके लिए कोई करुणा महसूस नहीं कर रहा था। ‌ मैंने लगभग तल्खी से कहा- 'कोई बात नहीं, दो-चार बार दिक्कत होगी‌ लेकिन फिर धीरे धीरे सब ठीक लगने लगेगा। ‌फिर तो मॉब लिंचिंग में उस्ताद हो जाओगे। कर लेना गायों की रक्षा।'

लेकिन मेरा ताना जैसे उसके दिमाग में उतर ही नहीं रहा था। वह अपने आप में कहीं खोया हुआ था, लगभग बुदबुदाता हुआ बोल रहा था- 'वह रो रहा था, गिड़गिड़ा रहा था, पानी मांग रहा था, माफी मांग रहा था, लेकिन सब हंस रहे थे, जैसे सबको मज़ा आ रहा हो।'

'तुम्हें भी धीरे-धीरे आने लगेगा, तुम भी किसी के पानी मांगने पर हंसने लगोगे,' मैं अपनी पूरी कड़वाहट के साथ बोल रहा था। लेकिन वह जैसे कुछ नहीं सुन रहा था। अचानक वह‌ उठा और चला गया।

मैंने ठंडी सांस ली। क्या पुलिस को खबर करूं? बताऊं कि यह लड़का एक भीड़ में शामिल रहा है जिसने किसी की हत्या की है? लेकिन पुलिस ऐसे मामलों में सुनती कहां है? वह मारे जाने वाले को दोषी बता देगी और उसके ख़िलाफ़ कुछ केस दर्ज कर लेगी। लड़कों के नाम भी एफआइआर में आएंगे, धीरे धीरे फाइलों से और लोगों की स्मृतियों से ग़ायब हो जाएंगे।

मैंने इस घटना को भूलने की कोशिश की। पाया कि भूलना मेरे लिए संभव नहीं हो रहा है। एक हत्यारे से मेरी जान-पहचान है। वह मेरे घर आकर बैठता है। अपने पछताने की बात करता है। और मैं कुछ नहीं करता हूं। कैसा लेखक हूं मैं?

मैंने तय किया कि अगली बार अगर वह घर आया तो मैं उसे लौटा दूंगा। किसी हत्यारे को कम से कम मेरी सहानुभूति हासिल करने का हक़ नहीं है। उसे बता दूंगा कि मैं पुलिस में भी उसकी रिपोर्ट कर सकता हूं। हालांकि मुझे लग रहा था कि अब शायद ही वह मेरे घर आए।

लेकिन उसने मुझे ग़लत साबित किया। एक दोपहर अचानक दस्तक हुई और वह दरवाजे पर खड़ा था। मैं भी दरवाजे पर खड़ा रहा- ‘बोलो क्या क्या बात है।‘ ‘'भीतर नहीं आने देंगे?', उसकी आवाज़ में कुछ ऐसी आर्द्रता थी कि मैं अपने निश्चय पर टिका नहीं रह सका। कुछ अनमने ढंग से मैं दरवाजे से किनारे हो गया। वह भीतर चला आया और उसने हमेशा की तरह खिड़की के पास वाली कुर्सी ले ली- 'आप मुझसे नफ़रत करने लगे हैं न?' मैंने इस सवाल का जवाब नहीं दिया, बस सख़्ती से इतना भर कहा कि मेरा इरादा पुलिस को बुलाने का है। मैं इस बात को पचा नहीं पा रहा हूं कि एक अपराधी मेरे घर आ रहा है जो किसी बेक़सूर की हत्या में शामिल रहा है। ‘हत्या में नहीं, भीड़ में’- उसने मुझे काटा।

'दोनों एक ही बातें हैं', मैंने कुछ रूखेपन से कहा। इस बार उसने मेरा प्रतिवाद नहीं किया। लेकिन उदास लहजे में यह ज़रूर कहा कि पुलिस के पास जाने का कोई फ़ायदा नहीं है। पुलिस मॉब लिंचिंग में शामिल लोगों को बचा रही है।

उसने बताया कि उसे पता चला है, सीधे मुख्यमंत्री के स्तर पर निर्देश हैं। गोरक्षा के नाम पर बनाई गई टीमें उनके समय ही बनी हैं। ‘आप क्या सोचते हैं, मैं सिर्फ़ आपके पास आकर यह कह रहा हूं? मैं पुलिस के पास जाना चाहता था। लेकिन यह समझ में आ गया कि पुलिस मुझे तो कुछ नहीं ही करेगी, अपने ही दोस्तों के बीच मैं भेदिया कहलाऊंगा। उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा, मैं मारा जाऊंगा।‘

‘मारे जाने से इतना डरते हो तो दूसरों को क्यों मारते हो?‘

‘मैंने नहीं मारा, मैंने एक हाथ भी नहीं चलाया, हां, उसे मार खाता देखता रहा था।‘ वह कुछ बेचारगी से बोल रहा था।

‘धीरे-धीरे मारना भी सीख जाओगे’, मैंने पहले कही अपनी बात दुहराई- मैं नहीं चाहता था कि मेरा लहजा नरम हो। ‘क़सूर तुम लोगों का नहीं, उस विचारधारा का है जो तुम लोगों का पोषण करती है‘- क़ायदे से इसे किसी लेख का वाक्य होना चाहिए था, लेकिन मैं उसके सामने दुहरा रहा था- ‘जब पुलिस तुम्हारा कुछ बिगाड़ेगी ही नहीं, जब तुम अपने लोगों के बीच हीरो बने ही रहोगे, तब तुमको क्या चिंता? आराम से घर जाओ, दोस्तों से मिलो, आगे की प्लानिंग कर लो।‘ मैंने फिर व्यंग्य किया।

वह धीरे-धीरे फिर सुबकने लगा था। मैं उसे देखता भर रहा। क़रीब पांच मिनट बाद उसने सिर उठाया, उसकी आंखें बिल्कुल भरी हुई थीं- ‘मैं सो नहीं पा रहा हूं। वह लड़का नहीं रह गया हूं जो मैं था। आप मुझे रास्ता बताइए, क्या करूं। मैं कोई भी सज़ा भुगतने को तैयार हूं। आपने तो इतनी पढ़ाई की है। गीता-गांधी सबको पढ़ रखा है।‘

मैं सोचता रहा। इसे क्या रास्ता बताऊं। अचानक मुझे एक रास्ता बताने वाला मिल गया। महात्मा गांधी की याद आई। मैंने कहा- एक रास्ता है. एक ही जगह तुम्हें ऐसी माफ़ी मिल सकती है जो तुम्हें वाकई सुकून दे सके।‘

वह ध्यान से मेरी ओर देखने लगा। पहली बार बहुत हल्की चमक उसकी आंख में मुझे दिखाई दी। मैंने कहा, ‘तुम लोगों ने जिस लड़के को मारा है. उसके घर जाओ, घरवालों से माफ़ी मांगो। अगर वे माफ़ कर दें तो मान लेना कि वाकई तुम्हें माफ़ी मिल गई।‘

उसके चेहरे पर एक दहशत दिखी- ‘नहीं, किसी भी सूरत में नहीं। उनके यहां नहीं जाऊंगा। उनसे कैसे कहूंगा कि उनके बच्चे को मैंने मारा है। वे मुझे मार डालेंगे।‘

‘अभी तो कह रहे थे कि मरने से नहीं डरते। कुछ भी कर सकते हो इस बोझ से उबरने के लिए?’ मैंने कहा- ‘मेरा समय बरबाद मत करो, निकलो। मैं तुम्हारे पछतावे के लम्हों का टाइम पास नहीं हूं।‘

वह नहीं निकला। मुझे देखता रहा, लेकिन कुछ इस तरह जैसे वह अपने भीतर देख रहा हो, खुद को तौल रहा हो। आख़िर उसने कहा, ‘आप मेरे साथ चलेंगे?’

‘नहीं”, मेरा रूखा सा उत्तर था। मैं क्यों ऐसे किसी झंझट में फंसू, लेकिन मैंने उसे यह नहीं कहा, एक भारी-भरकम सैद्धांतिक वाक्य ज़रूर कहा- “हर किसी को अपना सलीब ख़ुद उठाना पड़ता है। तुम्हें भी ख़ुद यह करना पड़ेगा।‘

पुराना वक़्त होता तो एक ईसाई प्रतीक चुनने पर भी वह मुझसे बहस कर लेता। लेकिन शायद वह वाकई अपने कंधे पर एक सलीब महसूस कर रहा था। कंधे झुकाए हुए वह निकल गया।

इसके बाद चार-पांच दिन बीत गए। मुझे लगा कि भावुकता का ज्वार उतरने के बाद उसने मेरी सलाह भी अपने कंधों से उतार फेंकी होगी। वह राष्ट्र के किसी नए प्रोजेक्ट में लग गया होगा। उस सुबह मैं अख़बार पढ़ रहा था कि अचानक एक ख़बर पढ़ कर चिहुंक गया- ‘मृतक के परिवारवालों ने की पिटाई, अस्पताल में भर्ती युवक।‘ साथ में एक तस्वीर थी- अस्पताल के किसी बिस्तर पर लेटे हुए उस लड़के की।

मैंने एक सांस में पूरी ख़बर पढ़ डाली। ख़बर के मुताबिक यह लड़का बीती दोपहर उसके घर पहुंचा। उसे कोई पहचानता नहीं था। उसने खुद अपना परिचय दिया कि वह मारने वालों की भीड़ में शामिल था- माफ़ी मांगने आया है। लेकिन इतना भर सुनते मारे गए लड़के के भाई और रिश्तेदार उस पर टूट पड़े। उसे बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका। अभी वह अस्पताल में है। ख़तरे से बाहर है, लेकिन चोट ठीक-ठाक लगी है पूरी तरह ठीक होने में कुछ दिन लगेंगे।

मुझे लगा कि उस लड़के का सलीब अब मेरे कंधों पर है। वह मेरे पास अपनी अपराध-भावना से मुक्त होने आया था, मैंने उस पर उसका कुछ और बोझ बढ़ा दिया। मैंने उसकी मॉब लिंचिंग का एक छुपा हुआ प्रतिशोध ले लिया- उसे भी एक भीड़ के हवाले कर दिया- और ऐसा करके ख़ुद ग़ायब हो गया।

अब आगे अख़बार पढ़ना मुश्किल था। मैंने जल्दी-जल्दी कपड़े बदले- पत्नी ने हैरानी से पूछा कि बिना नाश्ता किए कहां जा रहे हो। मैंने बताया कि बस अस्पताल से उस लड़के को देखकर आ रहा हूं। 15 मिनट में अपना स्कूटर मैं अस्पताल की पार्किंग में लगा रहा था। मैंने नीचे पता किया, लड़का कहां ऐडमिट है। लगभग दौड़ता हुआ वहां पहुंचा। मेरी सांस फूल रही थी। वार्ड के पास पहुंचते-पहुंचते लेकिन जैसे मेरी सांस रुक गई। लड़के का पूरा गुट वहां मौजूद था। सबकी आंखों में जैसे खून उतरा हुआ था। मुझे देखकर अचानक उन्हें लगा कि उनका दुश्मन आ गया है। मुझे लगा कि अब मेरी मॉब लिंचिंग होगी। लेकिन यह अस्पताल था, सड़क नहीं थी। गुट का नेता, जिसे वह भैया बोलता था, दांत भींचते हुए मेरी ओर बढ़ा- ‘आपने ही भेजा था न उसे। बहुत गांधीजी बनते हैं? देख लिया, क्या हुआ इसके साथ?’

मैंने बहुत सूखे गले से पूछा, कैसी हालत है उसकी। लेकिन वह मेरी सुन नहीं रहा था, मुझसे बोल रहा था- ‘आपको तो हम लोग उसी दिन लुढ़का देते। इसी ने मना किया। कहा कि उनको कुछ मत बोलना। और आपने उसके साथ क्या किया?’ उसकी आंखों में जैसे मुझे लेकर एक हिकारत टपक रही थी। मैं चुप रहा। उसने कहा, जाइए, देख लीजिए, क्या हाल है गांधी जी का।

वार्ड में जाकर मुझे कहीं ज़्यादा घायल आंखों का सामना करना पड़ा। कमरे में लड़के की मां और शायद उसका भाई थे। दोनों ने मुझे पहचान लिया था। दोनों मुझे देखकर घूरते रहे। मैंने पूछा, क्या हाल है इसका। मां ने बस इशारा किया, देख लें। वह सो रहा था। उसके हाथ-पांव में पट्टियां बंधी थीं। उसे पता नहीं चला कि मैं आया हूं। मैं उसे एक मिनट देखता रहा। मैंने देखा, उसके चेहरे पर एक अजब सुकून था- यह मार खाए आदमी का चेहरा नहीं था, यह जीत कर लौटे विजेता का चेहरा था।

लेकिन यह बात मैं किसी से कह नहीं सकता था। बाहर निकला तो मेरे पीछे-पीछे उसकी मां निकल आई. लगभग रुलाई को छूती आवाज़ में उन्होंने कहा- “आप क्या अपने बेटे को इस तरह हत्यारों के बीच भेजते?’ मेरे पास कई जवाब थे। मैं चाहता तो कह सकता था कि हत्यारों के बीच तो वह पहले से था, मैंने उसे वहां से निकाला भर था। चाहता तो कह सकता था कि आपको अपने बेटे के ज़ख़्मी होने का इतना दुख है तो उस मां के दुख की कल्पना कीजिए, जिसका बेटा बिना क़सूर इसी तरह पीट-पीट कर मार दिया गया हो।

मगर यह कहने की हिम्मत भी नहीं थी। शायद सोचने की भी नहीं। यह खयाल तब नहीं, दरअसल उसके बाद आया था। वार्ड से निकलते हुए मैंने देखा, कोने पर एक लड़की अकेली गुमसुम सी खड़ी है। यह साफ़ था कि वह लड़के के परिवार की या मोहल्ले की नहीं है। वरना कोई न कोई उसे पहचानता, वह किसी न किसी के साथ होती। शायद वह लड़के की कोई दोस्त हो, मैंने सोचा और निकलने से पहले उसकी ओर देखा। वह भी मुझे देख रही थी। मुझे अपनी ओर देखता देख वह कुछ हिचक के साथ आगे बढ़ी। मैं रुक गया। ‘कैसा है, कैसे हैं वो?’ मैंने कहा, ठीक हैं, बस हाथ-पांव में चोट दिख रही थी।‘ उसने सिर हिलाया और फिर तेज़ी से निकल गई।

अगले दो-तीन दिन मैं लगातार वहां जाता रहा। मुझे लोग उसी हिकारत से देखा करते, लेकिन टोकते नहीं। लड़के की मां भी अब मुझे देखकर कुछ कहती नहीं थी। लड़के की बहन ने एक दिन मुझे टोका, सर, शाम को ये आपके बारे में पूछ रहा था। जब मैंने बताया कि तुमको देखने रोज़ आते हैं तो बहुत ख़ुश हुआ। कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई। सुनते-सुनते मेरी आंख भी भर आई थी। उसी ने बताया- वह ठीक हो रहा है। कल या परसों शायद आपसे बात भी हो जाए।

लेकिन हर रोज़ निकलते हुए वह लड़की मुझे उसी कोने पर मिलती। मुझे देखती, मूक ढंग से पूछती, और मेरे सब कुछ ठीक होने के अंदाज़ में सिर हिलाने पर आश्वस्त भाव से सिर हिलाती हुई चली जाती।

यह लड़की कौन है? मैं लगातार सोचता रहा और मैंने तय किया कि मैं एक दिन उससे यह पूछ ही लूंगा।

उस दिन लड़का होश में था। मुझे आया देखकर उसने उठने की कोशिश की। उठ नहीं पाया, लेकिन उसके चेहरे पर दिखी उत्फुल्लता बता रही थी कि वह मुझे देखकर बेहद ख़ुश है। उसने मुझे इशारा किया कि मैं उसके और क़रीब आऊं। लगभग फुसफुसाते हुए उसने मुझे कहा- ‘थैंक्स। आपने मुझे बचा लिया।‘ यह वाक्य मेरे अलावा उसकी मां और बहन भी सुन रही थी। दोनों कुछ हैरान थीं। उसने फिर अपनी मां को बुलाया- ‘यही हैं जिन्होंने मुझे हत्यारा होने से बचा लिया।‘ उसकी मां ने मुझे देखा। पहले आंखों में कुछ उलझन दिखी और फिर सबकुछ समझ लेने के एहसास से भरी कृतज्ञता। उन्होंने हाथ जोड़े। मैंने भी हाथ जोड़े और बाहर निकल गया।

यह मेरे लिए एक बड़ी जीत थी। पहली बार अपने लिखने-पढ़ने, विचार करने पर अभिमान हो रहा था। लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि एक और चुनौती मेरा इंतज़ार कर रही है।

वार्ड से निकलते हुए फिर कोने पर उसी लड़की को खड़ा देख मुझे याद आया, इससे तो मुझे बात करनी है। मैं रुक गया। उसने मुझे देखा तो तेज़ी से नीचे उतरने की कोशिश की। मैंने टोका, सुनिए, उसे होथ आ गया है, वह बात कर रहा है, आप चाहें तो जाकर मिल सकती हैं।

लेकिन वह घबराई हुई थी। उसने कहा कि नहीं ठीक है, वह खुश है, लौट रही है।

लेकिन मैंने उसे लौटने नहीं दिया। उसके साथ सीढ़ियों पर चलने लगा- आपने बताया नहीं, आप कौन हैं? उसके साथ पढ़ती हैं? उसकी दोस्त या क्लासमेट?’

उसने ना में सिर हिलाया। मैं कुछ और हैरान हुआ- कौन है यह लड़की। मैं उसकी ओर सवालिया निगाहों से देख रहा था। उसके होंठ कुछ कांप से रहे थे, शायद उसके पूरे चेहरे पर एक कंपन का भाव था- जैसे वह ख़ुद से लड़ रही हो। फिर उसने धीरे से कहा- ‘वह हमारे घर माफ़ी मांगने आया था।‘

जैसे कोई बम फटा हो। एक लम्हा तो मुझे समझने में लग गया कि यह क्या कह रही है। तुम. आप, उस लड़के की?’ उसने सिर हिलाया। वह मारे गए लड़के की बहन थी। उसने बताया कि उसने उस दिन भी बचाने की कोशिश की थी, कुछ और लोगों ने भी की थी, लेकिन भैया लोगों के सिर पर भूत सवार था।

मैंने देखा, वार्ड के पास अब भी उस लड़के के दोस्त जमा थे। अगर उन्हें पता चल गया कि यह उसे पीटने वालों की बहन है तो? मेरी सारी गांधीगीरी हवा हो चुकी थी। मैंने कहा, तुम निकल जाओ यहां से...जल्दी से जल्दी। ये बहुत खूंखार लोग हैं। लेकिन अब वह खड़ी हो गई थी- अपनी कांपती आवाज़ में ही कह रही थी- ‘मैं उसकी मां से माफ़ी मांगना चाहती हूं।‘

मैंने बेबसी से उसकी ओर देखा- ‘समझो, यहां क्या हो जाएगा, पता नहीं।‘ लेकिन अब उस लड़की के सिर पर कुछ सवार था- ‘प्लीज़, आप मुझे ले चलिए। उसकी मां से मिलाने। बस एक बार। जो भी हो।‘

यह कुछ अजीब सी बातचीत चल रही है, इसकी भनक वहां खड़े लोगों को लगने लगी थी। वे मेरे पास आ रहे थे- क्या हुआ, क्या हुआ। अब मेरे इम्तिहान की घड़ी थी। पता नहीं, कहां से मेरे पास वह सलीब चला आया जो पहले वह लड़का और अब लड़की अपने कंधों पर लेकर घूम रहे थे। मैंने लड़की का हाथ पकड़ा। सख्ती से उन लोगों से कहा, ‘कुछ नहीं, इसे लडके से मिलाने ले जा रहा हूं।‘

वह कुछ समझ या कह पाते, इसके पहले मैं लड़की का हाथ पकड़े वार्ड के भीतर था। वार्ड के भीतर मां-बहन और लड़के ने मुझे देखा। लड़की को भी देखा। वे तीनों कुछ चुप थे- समझ नहीं पा रहे थे कि क्या कहें। मैंने अपने लहजे को यथासंभव शांत किया। लड़के से मुखातिब हुआ- ‘सुनो, यह उस लड़के की बहन है जिसे तुम लोगों ने मारा था और जिन लोगों ने तुम्हे मारा। यह तुमसे माफ़ी मांगने आई है।‘

बोलते-बोलते मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा था। लगा कि मां के चेहरे पर कोई तूफ़ान गुज़रा है, जैसे वह तूफ़ान इस लड़की को लील जाएगा, लेकिन फिर वह सुबकने लगी। मां को देखकर बेटी भी रोने लगी। यह तीसरी अनजान लड़की भी रोए जा रही थी। अचानक मां-बेटी ने इस तीसरी लड़की को भी अपने में खींच लिया।

यह रोना सुन कर बाहर से दौड़े-दौड़े लोग भीतर आए- क्या हुआ, क्या हुआ। तीन लोगों को रोता देख कुछ हैरान से हो गए। तब तक मां चुप हो चुकी थी- अपने आंसू पोछ चुकी थी। उसने कहा, ‘आप लोग अब जाइए। बेटे को हम घर ले जाएंगे। वह ठीक हो रहा है।‘ यह बोलते हुआ उसका हाथ उस अनजान लड़की के सिर पर किसी आशीर्वाद की तरह पड़ा हुआ था। मैंने बिस्तर पर लेटे लड़के को देखा- उसकी आंखों में एक अलग सी चमक थी। उसने मेरी ओर सिर हिलाया, जैसे वह सारी बात उसे समझ में आ गई हो, जो लगातार हमारी बातचीत के दौरान वह समझने से इनकार करता रहा था।

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