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एक बूँद इश्क - 24 - अंतिम भाग

एक बूँद इश्क

(24)

एक दिन पूर्णमासी की रात थी चाँद पूरा चमक रहा था...चार दिन से चन्दा नदी पर नही आई थी वह बुखार में तप रही थी...दूसरे उसके घर से निकलने पर भी पाबंदी लगी थी......पटवारी उगाही के लिये दूसरे गाँव गया था.....चन्दा बैजू से मिलने को रोई चिल्लाई तो माँ ने तरस खाकर उसे घर से जाने दिया इस शर्त पर कि दो घण्टें में वापस लौट आयेगी।

चन्दा नदी किनारें पहुँची तो बैजू पहले से बैठा उसका इन्तजार कर रहा था...उस समय नदी का किनारा इतना सुनसान नही था....अक्सर लोग वहाँ आते थे कुछ घूमने..कुछ भेड़ें चराने भी।

चन्दा बैजू को देखते ही उससे लिपट गयी...जैसे...बरसों बाद मिली हो.....कुछ मिनटों तक दोनों एक दूसरे की साँसों को सुनते रहे......वोह अपनी दिल का हाल कहती रही और बैजू अपना...बगैर बोले वो बात करते रहे....बैजू ने उसके तपते शरीर को महसूस किया और कलख उठा...."इतना तेज बुखार???? चन्दा...तुम कितनी बीमार हो??? फिर क्यों आई हो??? बस मेरे लिये ही न??? "उसने पत्थर पर चन्दा को बिठा दिया....दोनों एक दूसरे में समायें बैठे रहे.....चन्दा भूल गयी कि उसे दो घण्टें में घर वापस जाना है.....बैजू आँखें बंद करके खोया है और चन्दा भी।

परेश और गणेश पूरी कहानी को साँस रोके सुन रहे हैं....बाबा ने आगे कहना शुरु किया--

फिर एक खौफनाक आँधी आई...जिसकी आवाज़ को चन्दा के कानों ने सुन लिया...उसने आँख खोल कर देखा नदी के दाईं तरफ की पहाड़ी से एक बड़ा सा पत्थर नीचे गिर रहा है......वह बुरी तरह डर गयी उसके मुँह से तेज चीख निकली और उसने बैजू को जोर से धक्का दे दिया...बैजू पलटता हुआ सीधे नदी की तरफ जा गिरा...ठंडे पानी में उसका शरीर एठ गया...वह संभलता इससे पहले ही वह बड़ा सा पत्थर आकर नीचे गिरा और उसने चन्दा को कुचल दिया....."

बाबा कहते-कहते रो पड़े...फिर खुद को संभालते हुये आगे बढ़े-

"बैजू चेतना शून्य....भौचक्का सा चन्दा को देखने लगा...अब वहाँ पर चन्दा नही उसकी मृत देह पड़ी थी...चन्दा पत्थर के नीचे दबी हुई थी....चारो तरफ खून ही खून बह रहा था........बैजू काँप रहा था..वह बेसुध सा हो गया...वह कभी चन्दा को झाँक कर देखता कभी...उसके बचे हुये शरीर को छूता......तो कभी पत्थर को हटाने की कोशिश करता...मगर वह पत्थर उससे हिला भी नही....वह पागलों की नाई चीखने लगा....." कोई है...? कोई मद्द करो....आ जाओ जल्दी से... हे भगवान! ...जल्दी से भेज दो किसी को.....मैं क्या करुँ??? कहाँ जाऊँ??? चन्दा...आ..आ...."रात का समय था....इलाका भी सुनसान..बस्ती भी नही थी सो कौन आता ??? उसकी आवाज़ उन पहाड़ियों से टकरा कर वापस आने लगी....बदहवास सी स्तिथी में वह चन्दा का चेहरा ढ़ूँढ़ने लगा....जो पूरी तरह कुचल चुका था......कमर से नीचे का हिस्सा पत्थर की गिरफ्त से बाहर था जिसको उसने कस कर पकड़ लिया....शायद वह आधा शरीर बचा लेगा???? बैजू अपने सिर के बाल नोचने लगा....कभी खुद के सीने में मुक्के जड़ता तो कभी हवा में गोल-गोल घूम कर पछाड़ खाकर गिर पड़ता। खौफनाक मंजर था..जिसे देख कर सोये हुये पंक्षी भी जाग गये...नदी का पानी भी ठहर गया......फिर पता नही कौन आया? जब बैजू को होश आया तो वह अपने घर में बिस्तर पर पड़ा था....

चन्दा हमेशा-हमेशा के लिये उसे छोड़ कर जा चुकी थी...जाते-जाते वह बैजू की मौत अपने सिर ले गयी थी.....आँख खुलते ही बैजू चीख पड़ा..."चन्दा कहाँ है? "

सत्तू सिरहाने बैठा था बोल पड़ा- "वह तो चली गयी...अच्छा हुआ तुम बच गये..."

"मुझे सच सच बताओ मेरी चन्दा कहाँ है???" बैजू बिलख पड़ा।

"आज सुबह पौ फटते ही पटवारी के आदमियों ने दरवाजा खटकाया और तुम्हें यहाँ डाल गया......सारी रात गाँव में खंगामा मचा रहा...तुम तो बेहोश पड़े थे.....हुआ यूँ,,,,,,सुबह अंधेरे ही पटवारी घर लौटा तो चन्दा को घर में न पाकर चार आदमी लेकर नदी पर पहुँच गया...वह जानता था तुम दोनों चोरी-छिपे वहीं मिलते हो....जैसे ही वह वहाँ पहुँचा उसके होश उड़ गये.....तुम बेहोश पड़े थे और पास ही एक बड़े पत्थर के नीचे चन्दा का शव पड़ा था...वह खून से लथपथ थी....पटवारी का कलेजा काँप गया..सबने मिल कर उसे अस्पताल पहुँचाया मगर उसका सिर इतनी बुरी तरह कुचल गया था कि......." कहते-कहते सत्तू भी काँप गया.... " पूरा गाँव तुम्हें ही कोस रहा है...अब तुम किसी को मुँह दिखाने के काबिल ही न रहे बैजू.....कैसे जिओगे बोलो????"

सत्तू की एक-एक बात बैजू के जख्मी कलेजे को फाड़ रही थी....वह उठ कर बाहर भागने लगा..तभी सत्तू ने उसे रोक कर कहा- "कहाँ जा रहे हो बैजू? बाहर लोग तुम्हें मार डालेगें...पटवारी बहुत गुस्से में हैं.....अगर जाना ही है तो चन्दा के पास चले जाओ......अपने सच्चे प्रेम को साबित करने का यही एक तरीका है...." कुटिलता उसके चेहरे पर तैर रही थी।

सत्तू का छल बैजू के रिसते जख्मों को छील रहा था.....वह समझ गया सत्तू ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन है...वह चुपचाप उठा और हमेशा -हमेशा के लिये घर से बाहर निकल गया।

चन्दा की अर्थी को दूर से देखता रहा....लोग रो रहे थे ...चीख रहे थे....चारों तरफ मातम पसरा था....वह जाती हुई अर्थी को निहारता रहा....और फिर उसके कदम नदी के पार बसे जंगलों की तरफ बढने लगे। उसने अपना घर, गाँव सब छोड़ दिया।

अक्सर लोग उसे नदी पर देखते कोई कुछ खाने को डाल देता तो कोई घृणा से मुँह फेर लेता.....कोई तरस खाता तो कोई पहचान भी न पाता। ज्यादार लोग उसे सिरफिरा पागल ही समझते रहे।

समय बीतता गया,,,,, लोग उसे भूलने लगे......सत्तू ने उसके घर , जमीन और भेड़ों पर अपना कब्जा कर लिया था...जिसकी उसे तनिक भी परवाह नही.....लोगों ने यह भी कहा कि वोह पत्थर सत्तू ने ही गिराया था.....लेकिन इसका कोई पुख्ता सबूत नही था....सबूत की जरुरत भी नही थी....चन्दा के जाने से उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी...फिर इन चीजों का क्या मोल??? चन्दा की यादें लेकर वह पागल तब से लेकर आज तक उसी जंगल में भटक रहा है....चन्दा की वापसी की राह देख रहा है....उसका प्रेम कितना सच्चा है? यह कुदरत से जानना है....अपनी चन्दा को एक बार साँस लेते हुये देखना है....जिसकी साँसों को कुदरत ने उसी के सामने से छीन लिया था....हाथों से जिन्दगी को फिसलते हुये देखा था उसने...अपनी सपनों की दुनिया को भरभरा कर ढहते हुये देखा था उसने......आखिर कब तक इम्तहान लेगा ऊपर वाला ? उसे पिघलना ही होगा..."

बोगी बाबा बोलते-बोलते फूट-फूट कर रो पड़े ...दोनों हाथों में रीमा का चेहरा लेकर चूमने लगे...वह उसे छू..छू.. कर देख रहे हैं..वह पागलों की तरह उसे प्यार कर रहे हैं...परेश मूर्ति बना ठगा सा खड़ा है...एकदम निरुत्तर...शून्य और बेजान सा। गणेश भी जैसे सब समझ कर भावनाओं के समन्दर में डूबा है...वहाँ पर गहन सन्नाटा है..उस सन्नाटें में बोगी बाबा की सिसकियाँ गूँज रहीं है...

अचानक रीमा के शरीर में हलचल हुई है..उस निष्प्राण शरीर में जैसे प्राण वायु का संचार हो रहा है.....उसकी आँखों से पानी की बूँदें गिर रही हैं...वह चूमते हुये बोगी बाबा को एकटक देख रही है...फिर एक तेज सिसकारी भरते हुये वह अपने आपे से बाहर हो गयी है...उसने बोगी बाबा को कस कर पकड़ लिया है....दोनों एक -दूसरे से बुरी तरह लिपटे हुये हैं.....उसे न बोगी बाबा के कपड़ों की दुर्गंध है न उनके हुलिया की परवाह..... वह तो बेसुध ...बेपरवाह सी तृप्त हो रही है...आत्मा से आत्मा का मिलन है......जिसे देखने के लिये मछलियाँ..नदी से निकल कर झाँक रही हैं...मोर मोरनी का जोड़ा उड़ता हुआ आ पहुँचा है...चिड़ियें पेड़ों की डालियों पर उत्सव मना रही हैं....बंदरों का झुण्ड अपने साथियों के साथ उछल रहा है....ऐसा अदभुत नजारा है कि सभी के आँखों से झरझर पानी बह रहा है.....

दोनों को आलिंगन बद्ध देख कर परेश की जड़ता भी अडिग है....गणेश रोते-रोते बेहाल है..अब किसी को कुछ समझने या जानने की जरुरत नही रह गयी है...हर राज से परदा हट चुका है.....

अचानक लिपटे हुये बोगी बाबा के शरीर में हरकत हुई और उनकी गरदन एक तरफ लुड़क गयी...रीमा चीख कर बिलख पड़ी..."बैजू,,,, तुम मुझे छोड़ कर नही जा सकते....बैजू......बैजू.......वापस आओ......देखो.. मेरे बैजू को क्या हुआ..?" वह चीखे जा रही है।

अब परेश के एक और कड़े इम्तहान की बारी थी....उसने और गणेश ने रीमा को अलग किया...बोगी बाबा को वही घास पर लिटा दिया..गणेश के द्वारा उनकी नब्ज़ देखी जा चुकी थी...अब वहाँ पर बोगी बाबा नही, उनका शव पड़ा था...ठीक उसी जगह जहाँ एक रोज चन्दा का शव पड़ा था....यह इत्तिफाक है या कुदरत का अजब फैसला,,, पता नही.....मगर सब कुछ किसी और की मर्जी से घटित हो रहा था ...जैसे वह अस्सी बरस के बाबा इसी दिन के इन्तजार में साठ बरस से जी रहे हों...कहानी खत्म हो चुकी थी....इसके साथ ही बैजू भी और चन्दा भी..

.परेश की बाँहों ने रीमा को संभाल लिया....'क्या इसी एक क्षण के लिये रीमा तरस रही थी...? कितना मानसिक कष्ट झेला है इसने? और इस एक क्षण में क्या पा लिया बैजू ने??? इसी के लिये वह इतनें बरसों से तपस्या कर रहा था?? आम आदमी की जिन्दगी में एक क्षण चाय के कप की तरह होता है.....जहाँ सिर्फ चाय होती है...रिश्तों की सुगबुगाहट होती है बस...मगर यह प्रेम का एक क्षण मुक्ति के लिये काफी था....बैजू और चन्दा के लिये यह चाय का कप नही.....मुक्तिबोध था....दिल की वह प्यासी धरती जो बरसों से अतृप्त थी आज प्रेम की एक बूँद से पल्लवित हो तृप्त हो गयी.... उन दोनों ने उस अमृत को तृप्त हो पी लिया.....उर्दू में कहा जाये तो इश्क मुकम्मल हुआ था।

गणेश ने शंकर और कुछ लोगों को फोन कर बुला लिया है..आनन-फानन में शंकर काबेरी और तीन-चार लोग वहाँ पहुँच गये हैं....रीमा को अस्पताल पहुँचाने के बाद यही तय हुआ कि बोगी बाबा उर्फ बैजू के शव का इसी नदी के किनारे ही दाह संस्कार किया जायेगा.....शायद बैजू से ही बदल कर उनका नाम बोगी बाबा पड़ा होगा?

अगली सुबह रीमा होश में आ चुकी है वह अपनी पिछली दुनिया से बाहर निकल आई है....बैजू अपने साथ सब यादें लेकर उसे आजाद कर गया है....काबेरी रीमा को लिपटाये खड़ी है....गणेश शंकर और गाँव के तमाम लोगों तक इस कहानी की चर्चा पहुँच गयी है वहाँ पर लोगों का हुजूम लगा है...सभी बैजू चन्दा की इस प्रेम कहानी का साक्षी बनना चाहते हैं....परेश ने बैजू चन्दा की कुछ तस्वीरे अपने कैमरें में कैद कर ली हैं...वह दिव्या, कुशाग्र शुचिता और घर के सभी लोगों को इस अदभुत सच्चाई से अवगत कराना चाहता है और यह बताना चाहता है कि रीमा गलत नही है.....कौन कहता है पुनर्जन्म नही होता??? कौन कहता है प्रेम, प्रेम नही होता??? आज भ्रम का परदा हट गया है। यह कहानी आज के परिप्रेक्ष्य में फिट बैठती हो या नही यह तो नही कहा जा सकता मगर एक सच है जो उससे जुड़े लोगों ने जिया है....

परेश ने बैजू की ठंडी देह को मुखाग्नि देकर उसे इस प्रेम तपस्या से मुक्ति दे दी है ....सुनहरी आग की लपटों में बैजू का शरीर अपने आखरी निशानों को छोड़ रहा है......रीमा और परेश एक बार फिर अपनी दुनिया में वापस लौट रहे हैं.....यह तय है, वो कोसानी गाँव...वो नदी का किनारा हमेशा- हमेशा इस पवित्र ...अनोखी प्रेम कहानी को याद रखेगा।

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छाया अग्रवाल

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