1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की
प्रियंवद
(2)
‘‘पर ये सब वाक्य तो बिल्कुल सिलसिले से हैं। एक तयशुदा तरीके से स्पष्ट और निश्चित अर्थ दे रहे हैं‘‘?
‘‘हाँ...पर यहीं तक। इसके बाद वह खिड़की से हट कर पलंग पर बैठ गए। कुछ देर बाद थकी और टूटी आवाज मे बोले ‘दुनिया अब आखरी क्रांति की ओर बढ़ रही है। इसके बाद धरती पर मनुष्यों के लिए कभी कुछ नहीं बदलेगा। इसलिए कि मनुष्य खुद गुलामी से प्यार करने लगेगा। उस तानाशाह को मसीहा की तरह देखेगा जो उन्हें बिना यंत्रणा दिए कैद में रखेगा। इसलिए भी कुछ नहीं बदलेगा, कि इस क्रांति के बाद इंसानों के खून का रंग लाल नहीं कत्थई हो चुका होगा‘‘
कंबल वाला उछल पड़ा।
‘‘तभी तुमने खून के रंग की बात सुनी थी‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘ओह‘‘ कुछ देर तक कंबल वाला गंभीरता से कुछ सोचता रहा, इतनी गंभीरता से कि उसके माथे पर तीन मोटी सलवटें बन गयीं। उन सलवटों को कुछ देर के उंगलियों से मसलने के बाद उसने पूछा ‘‘क्या वह हमेशा इसी तरह की बातें करते थे‘‘?
‘‘नहीं....मरने के कुछ दिन पहले करने लगे थे‘‘
‘‘और तुम्हारा खयाल है इसलिए करने लगे थे कि उनकी कविता पूरी नहीं हो रही थी‘‘?
‘‘हाँ‘‘
कंबल वाला कमर सीधी करके पीछे खिसक गया। उसने अपनी गर्दन को दांए बांए तीन बार घुमाया फिर कुर्सी की पुश्त से पीठ टिका कर आँखे बंद कर लीं। चश्मे वाला कुछ देर उसे देखता रहा फिर कुर्सी से उठ गया। कमरे के दरवाजे पर आ कर उसने जरा सा दरवाजा खोल कर बाहर देखा। बाहर अभी तक सब कुछ अंधेरे और कोहरे में डूबा था। दरवाजा बंद करके वह वहीं, दीवार से पीठ टिका कर खड़ा हो गया। उसने कमरे में नज़र दौड़ाई। कमरे की ऊँची और बीच से दोनों तरफ ढलान वाली पुरानी लकड़ी के पटरों की छत थी। कमरे की सपाट दीवारों में ऊँची पतली खिड़कियाँ बनी थीं। लकड़ियों की तीन अल्मारियों में पुराने कागज़ रखे थे। उनमें पुराने गजट थे, नक्शे थे, अखबारों की कंटिग थीं, तस्वीरें थीं, बैनर थे, ट्रॉफी थी। कुछ देर इन सब पर उदास निगाहें दौड़ाने के बाद चश्मे वाले ने कोट के अंदर दबे मफलर को गले पर ठीक से कसा।
कंबल वाला अचानक आँख खोलकर सीधा हो गया।
‘‘तुम कागज़ तो लाए हो न‘‘? उसने उसी जगह से चिल्ला कर पूछा।
‘‘कौन से काग़ज‘‘? चश्मे वाला चिल्ला कर नहीं बोलना चाहता था इसलिए वह चलता हुआ फिर मेज तक आ गया। उसने कुर्सी खींची और बैठ गया।
‘‘हमारा भरा हुआ फॉर्म ,उनका हलफ़नामा कि मृत्यु के बाद वह स्वेच्छा से देहदान कर रहे हैं और वह चाहते हैं कि हम उनकी देह को मेडिकल कालेज को सौंप दें‘‘
चश्मे वाले ने कोट के अंदर वाली जेब में हाथ डाल कर प्लास्टिक के लिफ़ाफे से काग़ज निकाल कर उसे दिए। कंबल वाले ने फॉर्म देखा, हलफनामा देखा, नोटरी की मुहर, दस्तखत, तारीख देखी। काग़ज पलटा। पीछे स्टाम्प पेपर खरीदने की तारीख देखी।
‘‘गवाही में तुम्हारा ही नाम और दस्तखत हैं न‘‘? उसने सर उठा कर पूछा।
‘‘हाँ‘‘
‘‘क्या रिश्ता है‘‘ ?
‘‘कोई नही‘‘
‘‘गवाही में कोई रिश्तेदार तो होना चाहिए। कल को कोई कानूनी अडंगा डाल दे तो‘‘?
‘‘उनका कोई नही था ‘‘
‘‘तुम कह रहे हो तुमने लाश नहीं देखी‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘और यह सिर्फ तुम्हारा विश्वास है कि वह मर चुके हैं‘‘
‘‘हाँ...दो दिन पहले‘‘
‘‘तुम्हारे अंदर मरने के बाद उनको देखने की इच्छा या उत्सुकता पैदा नहीं हुयी‘‘?
‘‘ नहीं‘‘
‘‘क्यों‘‘ ?
‘‘मेरी इच्छाएं या उत्सुकताएं लाशों के साथ जुड़ी हुयी नहीं हैं‘‘
‘‘तुम देहदान के गवाह हो, मृत्यु के बारे में सूचना दे रहे हो। पुष्टि तो करनी चाहिए थी‘‘?
‘‘ज़रुरत नहीं है‘‘
‘‘क्यों‘‘?
‘‘कितनी बार कहूँ मुझे विश्वास है कि वह मर चुके हैं‘‘ चश्मे वाला झुँझला गया।
‘‘और इसका भी कि दो दिन पहले मर चुके हैं‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘अगर तुम्हारी बात सच है तो हो सकता है लाश अब हमारे काम की न रह गयी हो‘‘
‘‘क्यों‘‘?
‘‘हो सकता है उसमें दुर्गन्ध अपने लगी हो.. कीडे़ पड़ गए हों या चूहों ने कान या पैर का अंगूठा कुतर लिया हो। उनके अंग सड़ कर अब छात्रों के काम के न रह गए हों। इस हालत में मेडिकल कॉलेज वाले उसे न लें।‘‘
‘‘ऐसा नहीं होगा,,,बहुत ठंड है। वह कमरे खिड़कियाँ भी हमेशा खुली रखते थे‘‘
‘‘क्यों‘‘?
‘‘शायद इसलिए, कि चाँद रास्ते में थक जाए या ओस को प्यास लगे या परियों को नहाना हो तो कमरे में आ सकें‘‘
‘‘या जुगनू को चमक गिरवी रखनी हो‘‘
‘‘हाँ‘‘
‘‘या फरिश्ते रहमत की पोटली रखने आएं‘‘
‘‘हाँ‘‘
‘‘या चिड़िया घर बनाएं‘‘
‘‘हाँ‘‘
‘‘अब तुम्हारी बारी‘‘ कम्बल वाला उछल कर बोला।
‘‘तुम सचमुच कमीने हो‘‘ चश्मे वाले ने दांत पीसे।
‘‘पता नहीं क्यों हो रहा हैं। मुझे सचमुच खेलना नहीं चाहिए‘‘। कंबल वाले की आवाज में निराशा और दुख था। ‘‘खैर,,,तुम दो दिन क्या करते रहे‘‘?
‘‘इंतज़ार‘‘
‘‘किसका‘‘?
‘‘उनके फोन का। हर सुबह फोन आता था। मैं उठाता था। उधर से बस एक गहरी साँस सुनायी पड़ती थी और फोन कट जाता था। उन्होंने कहा था कि यदि दो दिन मेरा फोन न आए तो समझ लेना मैं मर चुका हूँ। मुझे देखने मत आना। यहाँ खबर कर देना। इसलिए नहीं गया।‘‘
‘‘फोन नहीं आया तो तुमने मान लिया वह मर चुके हैं‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘फोन अक्सर खराब हो जाते हैं‘‘
‘‘हो जाते हैं,,,,पर वह कहीं से भी फोन करते,,,वह जानते थे उन्होंने मुझसे क्या कहा है‘‘
‘‘फोन सिर्फ यह बताने आता था कि वह जिंदा हैं‘‘?
‘‘नहीं,,,यह बताने कि कविता पूरी नहीं हो पा रही है‘‘
‘‘पर तुमने कहा वह सिर्फ गहरी साँस लेते थे‘‘
‘‘हाँ.... वह साँस तीन कुओं के बराबर गहरी होती थी। उसमे निराशा, दुख, भय और थकान भरी होती थी। यह बात वह साँस बताती थी‘‘।
‘‘क्या यह उनकी पहली कविता थी‘‘?
‘‘नहीं,,,उन्होंने बहुत कविताएं लिखीं थीं‘‘
‘‘फिर‘‘?
‘‘फिर क्या‘‘?
‘‘क्यों पूरी नहीं हो रही थी‘‘?
‘‘पता नहीं‘‘
‘‘पूछा नहीं‘‘?
‘‘यह पूछने वाली बात नहीं थी। कविता का पूरा होना ज़रुरी नहीं होता‘‘
‘‘तुम्हारा मतलब है कविताओं का अधूरा रहना मामूली बात है। बहुत सी कविताएं अधूरी रह जाती हैं‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘उन्हें कभी कोई पूरा नही करता‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘फिर क्या होता है उनका‘‘?
‘‘वे इधर उधर पड़ी रहती हैं,,,जैसे पतझर में सूखी पत्तियाँ, जैसे बाली से गिरे दाने,,,जैसे चिड़ियों के पंख‘‘ चश्मे वाला बुदबुदाया
‘‘यानी जैसे अधूरी स्मृतियाँ‘‘ ?अब कंबल वाला फिर मेज पर कोहनी टिका कर झुक गया।
‘‘हाँ‘‘
‘‘जैसे अधूरी प्रार्थनाएं‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘जैसे अधूरे चुम्बन‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘अब तुम्हारी बारी है‘‘ कंबल वाला बोला। चश्मे वाले ने घूरा उसे ‘‘तुम फिर खेलने लगे। तुम्हारे हाथ में एक आदमी की लाश का काग़ज है और तुम खेल शुरु कर रहे हो। उन्हें उठाने का इंतजाम क्यों नहीं करते‘‘ ? चश्मे वाला अब चीख रहा था।
‘‘मैं कह चुका हूँ इंतजाम वे लोग करेंगे। मैं सिर्फ काग़ज बनाऊँगा ‘‘
‘‘फिर उन्हें बुलाते क्यों नही‘‘?
‘‘वे अपने आप आते हैं‘‘
‘‘कैसे‘‘?
‘‘गाड़ी वाला दूध लेने इधर से ही जाता है। जब जाता है तो नीचे से आवाज़ दे कर लाश के बारे में पूछ लेता है। बाकी लोग उसके घर के पास रहते हैं। लाश होती है तो वह उन्हें बता देता है‘‘
‘‘दूध लेने कब जाता है?
‘‘जब भैंस के थनों में दूध आ जाता है‘‘
चश्मे वाले ने उसे फिर घूरा
‘‘घूरो मत। उसे इसका समय पता रहता है। पहली चिड़िया की चहचहाहट, पहली अज़ान और नल की टोंटी में पानी की पहली बूँद से भैंस के दूध का कोई संबध उसे पता है। वह हमेशा सही समय पर निकलता और पहुँचता है। चिंता मत करो। ठंड बहुत है। हमने अभी तक न चिड़िया की आवाज सुनी है, न अज़ान की। वह आ जाएगा। पर हमें चाय की सख्त ज़रुरत है। मैं चाय बनाता हूँ‘‘ वह उठ गया। उसने कंबल दीवार के साथ लगे तख्त पर रख दिया। धीरे धीरे बाँया पैर लचकाता हुआ दरवाजे पर आया। दरवाजा खोला उसने। दरवाजा खोलते ही ठंडा कोहरा अंदर घुस गया। काँपते हुए बाहर देखा उसने। हल्की रोशनी होने लगी थी। उसकी निगाह नीचे पड़ी। ऊपर आने वाली लकड़ी की सीढ़ी गिरी हुयी थी।
‘‘तुमने सीढ़ी गिरा दी‘‘? वह चश्मे वाले की तरफ घूमा। चश्मे वाला भी दरवाजे पर आया। उसने भी ज़मीन पर गिरी सीढ़ी देखी।
‘‘मै तो इसी से ऊपर आया था। मैं कैसे गिरा सकता हूँ‘‘?
‘‘फिर‘‘?
‘‘हो सकता है तेज हवा ने गिरायी हो या चिड़िया ने‘‘
‘‘चिड़िया ने‘‘ ?
‘‘या फिर किसी ने ऊपर आने की कोशिश की हो। इस कोशिश में सीढ़ी गिर पड़ी हो और वह लौट गया हो‘‘
‘‘अब‘‘?
‘‘अब क्या‘‘?
‘‘अब हम बाहर नहीं जा सकते जब तक कि कोई सीढ़ी न लगाए‘‘
‘‘तुम किसी को आवाज दो‘‘
‘‘यहाँ कोई नहीं है‘‘
‘‘उस बंगले में‘‘?
‘‘सालों से वहाँ बुझे फायर प्लेस,,,,टूटी प्रतिमाएं, सूखा कुँआ, फर्श और दरारों में उगे सब्जे हैं बस। अब गाड़ी वाला ही आएगा, तभी कुछ हेागा‘‘
‘‘अगर नहीं आया तो‘‘?
कंबल वाला कुछ नही बोला। उसने दरवाजा बंद कर दिया। इतनी देर में ही वह काँपने लगा था। कमरा ठंडा हो गया था। पैर लचकाता हुआ वह कोने की मेज तक आया। मेज पर बिजली की अंगीठी, पानी की बोतल, चाय का बरतन, पत्ती, डिब्बे मे दूध, कप, प्लेट, छोटा तौलिया रखा था। उसने बरतन में पानी डाल कर बरतन अंगीठी पर रख दिया। अंगीठी का स्विच खोल दिया। पानी गर्म होने लगा। दो कपों में उसने डिब्बे मे रखा पाउडर वाला दूध डाला। शक्कर डाली। मेज की दराज से चम्मच निकाले। बिस्किट का पैकैट निकाल कर चार बिस्किट प्लेट में रखे। चश्मे वाला भी पास आ गया।
‘‘तुम्हें क्या लगता है‘‘ कंबल वाले ने उसे देखा ‘‘कविता पूरी कर लेते तो बच जाते‘‘? वह सीढ़ी की बात भूल गया था, शायद इसलिए कि उसे कहीं जाना नहीं था या यह उम्मीद थी कि गाड़ी वाला आता ही होगा।
‘‘हाँ‘‘
‘‘तुमने पूरी करने में मदद नहीं की‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘क्यों‘‘?
‘‘कविता लिखना लाश उठाने जैसा काम नहीं होता जो दूसरों की मदद से किया जा सकता है‘‘
‘‘यानी कविता लिखने वाला वह लाश खुद उठाता है‘‘? कंबल वाला चिढ़ गया।
‘‘कविता लिखना लाश उठाना नहीं होता‘‘
‘‘क्या लोग कभी मिल कर कविता नहीं लिखते‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘क्या मिल कर अधूरी कविता को भी पूरा नहीं करते‘‘?
‘‘नहीं ... पर शायद यह किया जा सकता है‘‘
‘‘तुम्हें कविता लिखना आता है‘‘ ?
‘‘हाँ‘‘
‘‘तुमने उनकी कविता पूरी क्यों नहीं की‘‘?
‘‘कोई दूसरे की कविता पूरी नहीं करता‘‘
‘‘पर हम तो दूसरों की लाश उठाते हैं‘‘
‘‘तुम पागल हो‘‘ चश्मे वाला फिर चीखने लगा‘‘ ‘‘मुझे नहीं पता तुम क्या बोल रहे हो। अब तुम कविता में लाश ले आए। तुम ये काग़ज संभालो और मुझे जाने दो। मुझे गाड़ी वाले से क्या लेना देना ? वह तुम्हारा काम है। मेरा काम खत्म हुआ‘‘
‘‘तुम नहीं जा सकते। सीढ़ी गिरी हुयी है। तुम्हें गाड़ी वाले के आने तक रुकना ही पड़ेगा‘‘
‘‘और वह तब आएगा जब भैंस के थनों में दूध आ जाएगा‘‘?
‘‘हाँ‘‘
अंगीठी का पानी खौलने लगा। कंबल वाले ने उसमे पत्ती डाली। थोड़ी देर पानी पत्ती के साथ खौलता रहा। उसने बर्तन का हैंडिल पकड़ कर अंगीठी से उतार लिया। छन्नी लगा कर दोनों कपों मे पानी डाला। चम्मच से उसे चलाया। एक कप उसने चश्मे वाले को दिया। अपने एक हाथ मे कप और दूसरे में बिस्किट की प्लेट लेकर वह मेज पर आ गया। मेज पर कप और बिस्किट की प्लेट रख कर वह कुर्सी पर बैठ गया। चश्मे वाला सामने की कुर्सी पर बैठ गया।
‘‘अच्छा ... कविता लिखने की कोशिश में उन्होंने बहुत सी पंक्तियाँ लिखी होगीं‘‘? कंबल वाले ने चाय की घूँट लिया।
‘‘हाँ‘‘ चश्मे वाले ने भी।
‘‘तुमने सुनी थीं‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘याद हैं‘‘?
‘‘कुछ याद हैं‘‘