1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की - 3 Priyamvad द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की - 3

1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की

प्रियंवद

(3)

‘‘मुझे सुनाओगे‘‘ ? कंबल वाले की आवाज में वही पहले वाली गिडगिड़ाहट लौट आयी थी, जैसी खून के बारे मे पूछते समय थी। उसने एक बिस्किट उठा कर प्लेट उसकी तरफ सरका दी। चश्मे वाले ने प्लेट से एक बिस्किट उठा लिया।

‘‘वास्तव में वे पंक्तियाँ नहीं थीं। कुछ सू़त्र थे जिन्हें वह कविता में बदलना चाहते थे और यही नहीं हो पा रहा था। वह यहीं पर गलती कर रहे थे। कविता उनके अंदर खुद जन्म नहीं ले रही थी। वह उसे बना रहे थे, जैसे रसायन मिला कर दवा बनायी जाती है या बढ़ई लकडियाँ जोड़ कर कुर्सी बनाता है‘‘

‘‘वह ऐसा क्यों कर रहे थे‘‘?

‘‘पता नहीं। शायद धीरे धीरे उनके अंदर एक अंधा कुँआ बन गया था। उसी में रहने लगे थे। वहीं से उनकी आवाज़ आती थी। वहाँ कोई रोशनी नहीं थी, वहाँ कुछ भी जन्म नहीं ले सकता था। वह इसके अपने अंदर बन जाने और उसमे खुद के पड़े रहने की सच्चाई पर विश्वास नहीं करना चाहते थे। अपनी रचनात्मक मृत्यु को स्वीकार नही कर पा रहे थे‘‘

‘‘पर कुआँ क्यों बन गया था‘‘?

‘‘यह एक रहस्य है। गहरा रहस्य। क्योंकि कविताएं तो वह इस तरह लिख लेते थे जिस तरह हम साँस लेते हैं‘‘

‘‘पर हुआ क्या था ?,,,,तुमने जानने की कोशिश नहीं की‘‘?

‘‘मुझे कुछ अंदाज़ा हो गया था। उन दिनों उनके सिरहाने कुछ खास तरह की किताबें रहने लगीं थीे‘‘

‘‘किस तरह की‘‘?

‘‘तानाशाहों की, उनके राज्य की, तानाशाही समर्थक दार्शनिकों की, इनकी क्रूरताओं, नीतियों, विचारों की। इनके तरीकों, संगठन, इनके प्रभाव, नियंत्रण और इनकी सफलताओं की। बहुत सी किताबें थीं। मैकियावली, नीत्शे,,,,इनमे एक शिरर की ‘बर्लिन डायरी‘ भी थी। उसके एक हिस्से को उन्होंने लाल पेंसिल से रंग रखा था। मुझे पढ़ाया था। 4 सितम्बर 1934 का न्यूरेम्बर्ग था उसमें‘‘

‘‘तुम्हें याद हैं वे पंक्तियाँ‘‘?

‘‘हाँ‘‘

‘‘सुनाओ‘‘ चश्मे वाले ने कुछ क्षण उसे देखा फिर धीमी आवाज में बोलने लगा।

‘‘रात दस बजे के आसपास मैं दस हजार हिस्टीरिया के दौरों की तरह उन्मादी भीड़ के बीच था। इन्होंने हिटलर के होटल के बाहर सब कुछ जाम कर दिया था। वे चिल्ला रहे थे ‘हम अपना फ्यूहरर चाहते हैं।‘ आखिरकार जब हिटलर कुछ क्षणों के लिए बालकनी पर आया, उन चेहरों को देख कर मुझे आघात लगा, खासतौर से स्त्रियों के। वे सब उसकी तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे वह मसीहा हो। उनके चेहरे निश्चित रुप से एक तरह की अमानवीयता में बदल गए थे। यदि वह उनकी नजरों के आगे कुछ और क्षण रुका रहता, मुझे लगता है बहुत सी स्त्रियाँ उत्तेजना से बेहोश हो जातीं‘‘ चश्मे वाले ने एक साँस ली। ‘‘उसी मे एक तस्वीर रखी थी। हिटलर हाथ हिला रहा था और भीड़ में एक खूबसूरत जवान होती लड़की रो रही थी। अपनी दोनों हथेलियाँ चिपकाए हुए, उंगलियों को होठों से छुआते कुछ बुदबुदा रही थी। उसकी चमकदार, बड़ी आँखों से आँसू गाल पर गिर रहे थे। ‘भयानक है यह पर सच है‘। वह बुदबुदाए थे। ‘इस संबध को देखो। तानाशाह और खुशी से रोती इस जवान लड़की में क्या संबध हो सकता है ? पर है। इसीलिए तानाशाह कभी नहीं मरता। कुछ लोगों की लालसाओं में हमेशा जीवित रहता है। उन्हें प्रेरित करता है, उकसाता है। एक सुबह उनमेें से ही कोई फिर वही तानाशाह बन जाता है जिसे पहले लोग टुकड़ों में काट चुके हैं या जला चुके हैं। उसी के रुप मे फिर एक नया तानाशाह जन्म लेता है। इस तरह वह हमेशा जवान और जीवित बना रहता है। ईश्वर और शैतान की तरह। इस लड़की को देखो तुम। जब इसके प्रेम करने के दिन हैं, यह घृणा करना सीख रही है। क्यों ? तानाशाह इसकी लालसाओं में है, जो संभव है इसकी कोख से जन्मे‘। बस तभी ये दो पंक्तियां उनके दिमाग में कौंधी थीं, ‘तानाशाह जब हाथ हिलाता है...खुशी से रोती है जवान होती हुयी लड़की‘। तभी से उनकी बातों का सिलसिला टूटने लगा था। उन्होंने इतिहास के दोहराने की बात की थी। समाजों के खुशी से गुलामी स्वीकार करने, स्वेच्छा से यातना गृहों में रहने की बात की थी। खून के गर्म नहीं, ठंडे, सूख कर कत्थई हो जाने की बात की थी। इसी को वह कविता में लिखना चाहते थे या यूँ कहो इस संबध के रहस्य को खोलना चाहते थे या यूँ कहो दुनिया को किसी खतरे से आगाह करना चाहते थे। इसी कोशिश में उन्होेंने कुछ सूत्र लिखे थे। ये सूत्र ही कविता की पंक्तियाँ नहीं बन पा रहे थे। उनकी तड़प, बेचैनी बढ़ रही थी। वह समय को तेजी से बीतता हुआ देख रहे थे। किसी बहुत नजदीक के खतरे से डरने लगे थे। असंबद्ध बातें बोलने लगे थे। बात करते करते अचानक चुप हो जाते, जैसे किसी प्रेत को देख लिय हो। खाना भूल जाते। अक्सर रात का बचा खाना तीसरे दिन खाते। वह किसी बहुत बड़े अनिष्ट की आशंका से डर रहे थे। शायद मनुष्य के खत्म होने की, मनुष्यता के खत्म होने की। स्वतंत्रता और जीवन की विराटता के खत्म होने की। जरुर हाथ हिलाने वाले तानाशाह और न्यूरेम्बर्ग की उस रोती लड़की में उन्होंने इतिहास का कोई सत्य ढूँढा था, जो उन्होंने समझ तो लिया था, पर बता नहीं पा रहे थे‘‘ चश्में वाला गहरी साँस लेकर चुप हो गया। देर हो गयी थी। चाय ठंडी हो चुकी थी। बेखयाली में वह ठंडी चाय के ही घूँट लेता रहा।

‘‘वे सूत्र सुनाओ‘‘ कुछ देर बाद कंबल वाला बोला। उसने अपनी चाय पहले ही खत्म कर दी थी ‘‘शायद हम मिल कर वह रहस्य ढूँढ लें‘‘

‘‘तुमने पहली बार समझदारी की बात की है। यह ठीक होगा ‘‘चश्मे वाला कप एक ओर खिसका कर आगे झुक गया

‘‘रुको,,,मैं लिख लूँ‘‘ कंबल वाले ने मेज पर एक ओर रखा कागज का पैड उठाया। पेन उठाया।

‘‘हाँ .... अब बोलो‘‘

‘‘लिखो,,,कटा हुआ सर कभी कोई कहानी नहीं कहता‘‘

कंबल वाले ने लिखा

‘‘साँप होने की सरसराहट आतंक पैदा करती है, साँप नहीं। साँप दिख जाता है तो मार दिया जाता है‘‘

कंबल वाले ने लिखा

‘‘शेर और मेमने की कहानी से हत्या को नैतिक बनाना सीखो‘‘

‘‘लोगों को उनकी अंतरात्मा से मारो, हथियारों से नहीं ‘‘

‘‘उबलते इंसानी खून से हाथ धोने पर हथेली की रेखाएं बदली जा सकती हैं‘‘

‘‘बस,,बस‘‘ कंबल वाले का चेहरा सफेद हो गया। वह हल्का हल्का काँप रहा था। उसने पैड एक ओर रख दिया। कुछ देर गहरी साँस लेने के बाद उसने एक बचा हुआ बिस्किट चबाया

‘‘इन वाक्यों में क्या कोई संबध है‘‘?

‘‘ज़रुर होगा। शायद समाजों के सैकड़ों सालों का कोई संबध या इतिहास के दोहराने या क्रांतियों की स्थायी मृत्यु या अंदर के उगते अंधे कुँओं या यातना गृहों के कल्पित सुखों या मसीहा की संभावनाओं का ,,,कुछ भी‘‘

‘‘या क्रूर लालसाओं और उन्माद का‘‘?

‘‘हाँ‘‘

‘‘या हिंसक महानताओं और जवान लड़कियों का‘‘?

‘‘हाँ‘‘

‘‘या घृणा की तार्किकता और उसकी स्वीकृति का‘‘?

‘‘हाँ‘‘

‘‘अब तुम्हारी बारी है‘‘ कंबल वाला झटके में बोल गया फिर हकलाने लगा। इस बार चश्मे वाला कुछ नही बोला।

‘‘क्या तुम इसे पूरा नही कर सकते‘‘? हकलाते हुए कंबल वाले ने पूछा। चश्मे वाला चुप रहा।

‘‘तुमने कविताएं लिखी हैं न‘‘?

‘‘हाँ‘‘

‘‘फिर शायद डर रहे हो कि पूरा नहीं कर पाए तो वह बेचैनी, घुटन, अँधा कुँआ तुम्हारे अंदर न रहने लगे‘‘?

चश्मे वाले का चेहरा सफेद हो गया। इस ठंड में भी उसकी कनपटी पर दो बूँदे चमकने लगीं।

‘‘तुम मुझे डरा क्यों रहे हो‘‘? वह चिल्लाया। कुर्सी से उठा और मेज के सामने तेजी से आगे पीछे घूमने लगा।

‘‘एक काम करते हैं‘‘ कंबल वाला भी उठ गया ‘‘मिल कर उनकी कविता पूरी करते हैं,,,जैसे मिल कर उनकी लाश ले जाएंगे‘‘

‘‘तुमसे मैने पहले भी कहा है,, मिल कर लाश ले जायी जा सकती है, कविता नहीं लिखी जा सकती। दोनों दो अलग बातें हैं‘‘

‘‘नहीं..... दोनों एक हैं,,,एक जब होता है दूसरा अपने आप होता है। जब तुम कविता लिखते हो तो किसी लाश की बात भी कर रहे होते हो‘‘

‘‘तुम पागल हो,,लाशों के साथ रहते हुए तुम्हें सब कुछ लाश से जुड़ा नजर आता है‘‘

‘‘ऐसा ही है,,,‘‘ कंबल वाले ने पहली बार अपनी आवाज ऊँची की ‘‘ऐसा नहीं होता तो इतनी देर से हम सिर्फ कविता और लाश की बातें नहीं कर रहे होते‘‘?

‘‘तुम मुझे भी पागल कर दोगे‘‘ चश्मे वाला रुक गया। कंबल वाले के सामने आया। उसकी आँखों में आँखे डालीं।

‘‘ठीक है,,,मैं तुम्हें कविता सुनाता हूँ,,,बताओ इसका लाश से क्या संबध है‘‘?

‘‘हाँ,,यह ठीक है‘‘ कंबल वाला बड़बड़ाया ‘‘उदाहरण से बात करना ठीक है‘‘

‘‘सुनो

‘‘सुमुखि तुम्हारे नयन लजीले अधरों पर अंकित मृदुहास

क्षण भर को फिर जी उठते हैं, ईश्वर और पूजन विश्वास

‘‘मैं जीत गया‘‘ कंबल वाला हाथ उठा कर चिल्लाया और कूदने लगा। बहुत देर से वह खेल खेलने और उसमे जीतने की कोशिश कर रहा था। उसकी खुशी और उत्तेजना बाहर फटी पड़ रही थी।

‘‘कैसे‘‘? चश्मे वाला अकबकाता हुआ उसे देख रहा था।

‘‘तुमने कहा ईश्वर और पूजन विश्वास जी उठते हैं। यानी इसके पहले मरे हुए थे। यानी लाश थे। फिर यह भी कहा कि क्षण भर को जी उठते हैं। यानी एक क्षण बाद फिर मर जाएगें यानी फिर लाश हो जाएंगे। कविता.... ..... ....लाश....लाश ....अहा ,,,हा‘‘ वह कूदता हुआ घूम रहा था।

‘‘मैं थक गया हूँ ‘‘चश्मे वाला कुर्सी पर बैठ गया। ‘‘मुझे भूख लग रही है। तुम्हारे पास कुछ खाने के लिए है‘‘?

कूदते हुए ही कंबल वाले ने मेज की दराज खोली। कूदते हुए उसमे रखा केक का पैकेट निकाला। कूदते हुए ही उसे पकड़ा दिया।

‘‘कूदो मत‘‘ चश्मे वाले ने पैकेट ले लिया। उसने कूदना बंद कर दिया।

‘‘हमें लगता है हम एक चाय और पी सकते हैं‘‘

चश्मे वाला कुछ नहीं बोला। उसने पैकेट खोल कर दो केक एक साथ मुँह में डाल लिए। आँखे बंद करके वह तेजी से मुँह चबाने लगा। तेज मुँह चलाने से उसके गाल की खाल हिल रही थी। कुचले हुए केक के साथ थोड़ी सी लार होठों के कोने से बाहर आ गयी थी। उसने आँखें खोल लीं। हाथ से लार को पोछा। लार वाली हथेली कोट पर रगड़ी फिर दो और केक मुँह में डाल लिए। उसी तरह कुछ देर चबाने और सब कुछ निगलने के बाद उसने सर हिलाया।

‘‘हाँ...... शायद तब तक गाड़ी वाला भी आ जाए‘‘

कंबल वाले ने मेज पर रखे कप उठाए। कोने में रखी चाय की मेज तक आया। मेज के साथ लगे सिंक में सारे बर्तन डाल कर उन्हें धोया। फिर पहले की तरह चाय का पानी चढ़ा दिया।

‘‘अगर मेडिकल कॉलेज लाश नहीं लेगा तो हम क्या करेंगे‘‘ ? उसने वहीं से पूछा

चश्मे वाले ने इस पहलू पर सोचा ही नहीं था। वह फौरन कोई उत्तर नहीं दे पाया।

‘‘फिर हमें ही उनका अंतिम संस्कार करना होगा। क्या करेंगे ? जलाएंगे या दफनाएंगे‘‘?

‘‘पता नही‘‘

‘‘यह कैसे हो सकता है ? शायद तुम बताना नहीं चाहते‘‘

‘‘नहीं,,हमने इस बारे में कभी बात ही नहीं की‘‘

‘‘क्यों‘‘?

‘‘यूँ ही.... हमने बहुत सी बातों के बारे में कभी बात नहीं की थी‘‘

‘‘जैसे‘‘?

‘‘जैसे हमने कभी औरत, देश, धर्म, पैसा, खेल, भगवान, पवित्रता पर बात नहीं की‘‘

‘‘और किस पर बात करते थे‘‘?

‘‘मनुष्य, स्वतंत्रता, मुक्ति, दमन, हिंसा, प्रतिरोध, घृणा, क्रांति, कविता, इतिहास‘‘

‘‘इनसे तो धर्म का पता नहीं चलता‘‘

‘‘शायद इसीलिए करते थे‘‘

‘‘तुम्हें जानने की उत्सुकता नहीं हुयी‘‘?

‘‘नहीं‘‘

‘‘आदमी की ज़बान, खान—पान, पहनावा, त्योहार इनसे भी तो धर्म का पता चलता है‘‘

‘‘मैंने कभी इन सब पर ध्यान नहीं दिया या यूँ कहो ध्यान देने की जरुरत नहीं समझी‘‘

‘‘क्यों‘‘?

‘‘क्योंकि सोचने के लिए दूसरी ज्यादा जरुरी बातें थीं‘‘

‘‘क्या धर्म से जरुरी भी कुछ होता है‘‘?

‘‘हाँ,,,जीवन होता है, स्वतंत्रता होती है, अधिकार होते हैं‘‘

‘‘नहीं,,,इंसान के जीवन में सब कुछ सिर्फ उसका धर्म होता है‘‘

‘‘नहीं‘‘

‘‘तुम फिर गलत हो‘‘। कंबल वाला पास आ गया। ‘‘ध्यान से देखो ज़रा,,। जन्म लेते ही साँस के साथ तुम्हारा धर्म तय कर दिया जाता है। तुमसे कोई नहीं पूछता कि तुम इस धर्म में होना चाहते हो या नहीं। इसके बाद जीवन भर तुम अंधों की तरह उसी धर्म की उंगली पकड़ कर चलते हो या इसके चाबुक के इशारों पर नाचते हो। ईश्वर तुम्हारा सबसे बड़ा भय होता है। धर्म के कारण ही तुम पवित्र महानताओं के छद्‌म में जीते हुए युद्ध करते हो, खून करते हो, नफरत करते हो, दूसरों को गुलाम बनाते हो। तुम कैसे जिओगे यह धर्म तय करना है, और कैसे मरोगे यह भी। किससे कितना प्रेम कारोगे, किस तरह के कपड़े पहनोगे, कौन से सपने देखोगे, क्या खाओगे, किस बात पर जान दोगे, किस बात पर पर जान लोगे यह भी धर्म तय करता है। इंसान की हर साँस का आना जाना तक भी धर्म ही तय करता है‘‘