1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की
प्रियंवद
(4)
चश्मे वाला कुछ नही बोला। उसने केक का पैकेट लपेट कर मेज पर रख दिया। उसके चेहरे पर थकान और उदासी थी। ऊब और वितृष्णा भी थी। घृणा की छाँह भी थी। घृणा किसके लिए थी, साफ नही था।
‘‘मेरा काम खत्म हो चुका है। मैं जाना चाहता हूँ‘‘ वह टूटी आवाज में बोला,,,इस हद तक टूटी कि लगा शायद वह रो देगा। कंबल वाले ने उसकी वितृष्णा देखी। शायद घृणा भी। वह धीरे से बोला।
‘‘मैं मज़हबी नहीं हूँ‘‘
‘मुझे पता है। मज़हबी होते तो लाश उठाने और पहुँचाने का नेक काम नहीं करते। मैं भी नहीं हूँ। होता तो इस कड़ी सर्दी में सुबह उनके मरने की खबर देने नहीं आता। वह भी नहीं थे। होते तो कविता पूरी न होने की वजह से नहीं मरते। इसलिए मैने कहा था, फिर कह रहा हूँ। तुम उन्हें जलाओ, दफनाओ, मेडिकल कॉलेज को दो, चील कौओं को खिलाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता। बस मुझे जाने दो‘‘
‘‘धैर्य रखो‘‘ वह बोला। अब उसने ध्यान दिया, देर से चाय की पानी खौल रहा था। वह वापस चाय की मेज पर लौटा। पहले की तरह चाय बनायी और ले आया ‘‘तुम चाय पिओ। तब तक गाड़ी वाला जरुर आ जाएगा‘‘ उसे सचमुच चश्मे वाले से सहानुभूति हो रही थी। अगर सीढ़ी गिरी न होती तो वह उसे जाने देता।
‘‘पर अब तक तो भैसों के थनों में दूध आ कर निकल भी चुका हेागा‘‘ चश्मे वाले ने चाय का प्याला पास खींच लिया।
‘‘अरे...मैं तो भूल ही गया। आज उसे दूध लेने नहीं जाना था‘‘ कंबल वाला सामने की कुर्सी पर बैठते हुए बोला।
‘‘क्यों‘‘?
‘‘कल पूरे चाँद की रात थी न ?,,,ऐसी रात वह एक औरत के घर में रुकता है। जब वह उसे छोड़ेगी तब वहाँ से सीधा यहीं आएगा‘‘
‘‘अब तुमने बीच में पूरा चाँद और औरत घुसेड़ दी‘‘?
‘‘मैं कुछ नहीं घुसेड़ रहा। उसके जीवन में पहले से घुसा है। चिड़िया...अज़ान....भैसों के थन...पूरा चाँद....औरत ....नल की टाेंटी...मैं क्या करुँ‘‘?
‘‘वह नहीं आया तो गाड़ी चलाने वाला कोई दूसरा नहीं है ?
‘‘वह आएगा...बस देर हो सकती है‘‘
‘‘कितनी देर ? कब तक इंतजार करोगे‘‘?
‘‘जितना भी करना पड़े। हम और कर भी क्या सकते हैं‘‘ ?
‘‘किसी को आवाज दो बाहर। सीढी तो लगाए‘‘
‘‘कोई नहीं है। मैं दरवाजा खोल कर चिल्लाऊँ भी तो किसे बुलाऊँ ? मेरे गले में ठंडी हवा और कोहरा घुस जाएगा वह अलग। मैं बहुत जल्दी सर्दी पकड़ लेता हूँ। कई दिन तक सूजी हुयी लाल नाक बहती रहती है। बीबी पास नहीं आने देती‘‘
‘‘क्या ऐसा हो सकता है औरत उसे दिन में भी रोक ले‘‘?
कंबल वाला हँसा ‘‘अब औरत के दिल के बारे में मैं क्या कहूँ‘‘?
‘‘तुम जानते हो उसे‘‘?
‘‘किसे‘‘?
‘‘औरत को‘‘?
‘‘थोड़ा बहुत। ब्याज पर रुपए देती है। पूरे चाँद वाली रात महीने का ब्याज वसूलने निकलती है। तब वह उसके साथ रहता है। उसे रिक्शे पर बैठा कर पतली, अंधेरी गलियों में रिक्शा चलाता घूमता है। भड़भूजे, फेरी वाले, सस्ती वेश्याओं, कुम्हार, छोटे कसाई, ठठेरों, नटों की बस्ती में वह पैसा वसूलती है। पैसा न मिलने पर चीखती है,,,गालियाँ देती है। घर लौटने तक थक कर चूर हो जाती है। तब यह उसके पूरे बदन की मालिश करता है। उसके बाद वह नहाती है। जब तक नहाती है यह अंग्रेजी शराब का इंतजाम करता है। कबाब और लहसुन की चटनी बना कर रखता है। फिर दोनों पूरी रात साथ रहते हैं। सुबह जब उसका मन आता है, उसके गले से पट्टा निकाल कर छोड़ देती है‘‘
‘‘तुम कभी मिले‘‘?
‘‘औरत से‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘नुक्कड़ के कसाई ने एक दिन इन दोनों को खाने पर बुलाया था। दुकान को और बड़ा करने के लिए उसे औरत से कर्ज चाहिए था। गाड़ी वाले ने मुझे भी बुला लिया था। मैं नहीं जाता, पर उसने फुसलाया कि कसाई दुनिया में सबसे अच्छा मांस बनाने वाले होते हैं। बोटी के बारे में उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता। कहाँ की बोटी नरम, कहाँ पर चूसने लायक और कहाँ चाटने लायक होती है, वह सब जानता है। दिन भर मांस काटते और बेचते वह पकते हुए मांस की भी सारी बारीकी, कारीगरी समझने लगता है। कितनी आँच...कितनी देर, कितना गलाना है सब। मैं चला गया। मांस मेरी कमजोरी है। वह गलत नहीं था। उसने हम लोगों को बकरे की गोलियों की दावत दी थी। तुमने खायी हैं कभी‘‘?
‘‘क्या‘‘? चश्मे वाला चौंक गया। उसका ध्यान कहीं और चला गया था।
‘‘बकरे की गोलियाँ‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘ओह‘‘ कंबल वाले ने अपने माथे पर हाथ मारा ‘‘तुम्हें नहीं पता तुम जीवन में क्या खो रहे हो। खैर...उसी दिन मैं उस औरत से मिला था। देखने में बुरी नहीं थी। उमर भी ज्यादा नहीं थी। उस दिन पीने के बाद वह अपना बचपन याद करके बहुत रोयी थी। ‘हम वहाँ नगाड़े बजाते हुए बाँसों के झुरमुटों में घूमते थे‘। वह कह रही थी। ‘नदियों का नीलापन हमारा था...जंगलों की हरियाली हमारी थी। हमारे भगवान गूँगे बहरे नहीं थे। चाँदनी रातों में शराब पी कर हमारे साथ नाचते थे। झरनों में हमारी हँसी थी। हमारे पास कहानियाँ थीं जिनमे कई पर्त वाली नींदें और उन नींदों में कई पर्त वाले सपने थे‘। वह बोल रही थी। हम चुपचाप सुन रहे थे। उस दिन मुझे समझ में आया वह पढ़ी लिखी भी है। उसने बताया था कि शहर आने से पहले वह अपने जंगलों में एक अंग्रेज औरत के साथ रही थी। उसी ने उसे पढाया, लिखाया। अपने साथ सुलाती थी। उसकी छातियाँ चूमती थी। अपने साथ लंदन भी ले जाती। पर इसका बाप नहीं था। चाचा था। धोखे से नौकरी के बहाने शहर लाया और बेच गया। मैं उससे फिर कभी नहीं मिला‘‘। कंबल वाले ने चाय खत्म कर दी।
‘‘अब कुछ काम की बात कर लें‘‘ उसने मेज पर रखे कागज़ उठाए। कुछ देर उन्हें उलट पलट कर देखा।
‘‘इसमे डेथ सर्टिफिकेट तो नहीं है‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘फिर‘‘?
‘‘फिर क्या‘‘?
‘‘वह जरुरी है। उसके बगैर तो कुछ भी नहीं होगा‘‘
‘‘पर वह अकेले थे। अचानक मर गए। कौन डेथ सर्टिफिकेट देगा ? सच तो यह है कि वह मर गए हैं यह भी सिर्फ मुझे पता है‘‘
‘‘वह भी तुम्हें पता नहीं है तुम्हारा विश्वास है।‘‘
‘‘हाँ‘‘
‘‘तब तो पुलिस बुलाना जरुरी हेा गया है। जब तक पुलिस लाश का पंचनामा नहीं करेगी, कुछ नही हो सकता। पुलिस पूछताछ भी करेगी। तुम्हारा रहना जरुरी है‘‘
‘‘मैं क्या बताऊँगा‘‘?
‘‘जो मुझे बताया...जो सच है‘‘
‘‘यही कि कविता पूरी न कर पाने की वजह से मर गए‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘पुलिस इसे नहीं मानेगी‘‘
‘‘क्यों‘‘?
‘‘कोई इस तरह कभी नहीं मरा। पुलिस ऐसे किसी केस के बारे में नहीं जानती। कानून की किताबों में भी ऐसी किसी मौत का जिक्र नहीं है‘‘
‘‘पर वह मरे.... क्या थी वे दो पंक्तियाँ ‘‘?
‘‘तानाशाह जब हाथ हिलाता है ....खुशी से रोती है जवान होती हुयी लड़की‘‘
‘‘हाँ... हाँ...यह अधूरी कविता तो वहाँ रखी होगी‘‘?
‘‘उनके सिरहाने होगी‘‘
‘‘तब हम सबूत दिखा देंगे कि इस अधूरी कविता ने उनकी हत्या की‘‘?
‘‘ठीक है‘‘
‘‘क्या इसका यह मतलब भी निकलता है कि अगर इस कविता को पूरा नही किया गया, तो हो सकता है यह और हत्याएं भी करे‘‘? कुछ देर चुप रह कर कंबल वाले ने पूछा।
‘‘शायद‘‘?
‘‘शायद अगली बार तुम्हारी हत्या‘‘ ?
‘‘मुझे लग रहा है‘‘
‘‘मुझे भी। तुम्हारे लिए इसे पूरी करना बहुत जरुरी है...तुम समझ रहे हो न‘‘?
‘‘मैं समझ रहा हूँ‘‘ चश्मे वाला चिल्लाया ‘‘मुझे डराओ मत। मैं जानता हूँ मुझे क्या करना है‘‘
‘‘तुम नहीं जानते ....तुम सुबह से यहाँ बैठे हो...तुमने क्या एक बार भी कविता पूरी करने की इच्छा ज़ाहिर की‘‘ ?
‘‘नहीं‘‘
‘‘कोई कोशिश की‘‘?
‘‘नहीं‘‘
‘‘इसलिए कह रहा हूँ तुम नहीं समझ रहे। तुम्हें अपनी मौत नहीं दिख रही है‘‘। चश्मे वाला चुप रहा।
‘‘तुम नहीं जानते..... अधूरी कविता उल्टे मुँह का फोड़ा हेाती है जो अंदर ही अंदर फैलता जाता है‘‘
‘‘और पूरी कविता‘‘?
‘‘पेन किलर‘‘ चश्मे वाले के होंठ सूख गए। उसने होठों पर जीभ फेरी। कंबल वाला कुछ देर उसे अपने सूखे और फटे होठों की पपड़ी पर जीभ फेरते देखता रहा।
‘‘मैं मदद करुँ‘‘?
‘‘किस बात में ‘‘? उसने सर उठाया
‘‘कविता पूरी करने में‘‘
चश्मे वाला कुछ नहीं बोला।
‘‘सुनो... इस बार हम सचमुच खेल खेलते हैं। मिल कर एक अधूरी कविता पूरी करने का खेल‘‘
‘‘मैं तैयार हूँ‘‘ चश्मे वाला कुछ देर बाद बुदबुदाया।
‘‘तुम्हें सूत्र याद हैं न‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘तुम उन्हें बोलो। मैं एक और कागज पर उन्हें लिख लेता हूँ। एक कागज तुम रखो, एक मैं। फिर हम इन्हें बारी बारी से कविता में डालेंगे‘‘ कंबल वाले ने मेज के कोने पर रखा पैड और पेन खींच लिया। चश्मे वाला मेज पर कोहनियाँ रख कर झुक गया।
‘‘लिखो...कटा हुआ सर कभी कोई कहानी नहीं कहता।
‘‘साँप होने की सरसराहट आंतक पैदा करती है साँप नहीं। साँप दिख जाए तो मार दिया जाता है।
‘‘शेर और मेमने की कहानी से हत्या को नैतिक बनाना सीखो।
‘‘लोगों को उनकी अंतरात्मा से मारो, हथियारों से नहीं।
‘‘उबलते इंसानी खून से हाथ धोने पर हाथ की रेखाएं बदल जाती हैं।‘‘
कंबल वाले ने लिखने के बाद यह कागज चश्मे वाले की ओर बढ़ा दिया। पहले का कागज़ अपने पास रख लिया। उसने अधूरी कविता की पहली दो पंक्तियां पढ़ीं फिर उसके साथ ये पंक्तियाँ पढ़ीं।
‘‘ज्यादा कठिन काम नहीं है। हम मिल कर इसे पूरा कर सकते हैं‘‘‘ वह कुर्सी से उठ गया। इस बार उसने ऊँची आवाज में सारी पक्तियाँ पढ़ीं। चश्मे वाले ने भी उन्हें उसी तरह, ऊँची आवाज में दोहराया। कुछ पंक्तियाँ ऊपर नीचे करके उन्होंने फिर पढ़ा। फिर पढ़ा। अब वे कमरे में इन पंक्तियों को पढ़ते हुए घूम रहे थे। घूमते रहे। दीवारों के साथ, फर्श से चिपक कर, कोनों में धँस कर पंक्तिया को पढ़ते रहे। धीरे धीरे ये पक्तियाँ एक तय लय में, एक तय अर्थ देने लगीं। पहले अधूरे, अस्पष्ट अर्थ, फिर धीरे धीरे एक अनगढ़ कविता के रुप में।
तानाशाह जब हाथ हिलाता है
1934 के न्यूरेम्बर्ग में
खुशी से रोती है एक जवान होती हुयी लड़की।
तानाशाह की हिलती हथेली की आड़ी—तिरछी रेखाओं में लिखा है
शेर और मेमने की कहानी का सच
और यह सच भी
कि साँप होने की सरसराहट आंतक पैदा करती है
साँप नहीं,
साँप तो मार ही दिया जाता है अगर दिख जाए तो।
उसकी हथेली की रेखाओं में लिखा है
लोगों को हथियारों से नहीं उनकी अन्तरात्मा से मारो और निर्भय, निश्चिंत रहो
इस तरह काटा गया सर कभी कोई कहानी नहीं कहता,
उसका कोई इतिहास भी नहीं होता
सपनों और किस्सों में उसके होने की संभावना तो दूर की बात है।
कटे सरों का सच सीखा है उसने पुराने विश्व विजेताओं से
जो बनाते थे कल्ला मीनारें
और पूजे जाते रहे इतिहास में असंदिग्ध रुप से।
हाथ हिला कर बताता है वह
ऐसा बनने के लिए किसी और ने नहीं
उसने खुद ही अपनी हथेली की रेखाओं को बदल दिया है
बदली जा सकती हैं हथेली की रेखांए भी
यदि उन्हें धोया जाए इंसानाें के उबलते खून से
आठ दिन में एक बार
जैसे धोता रहा है वह।
बताता है यह भी, कि
वह बदल सकता है दुनिया की सारी हथेलियों की लकीरें भी
अगर मिल जाए इतना उबलता हुआ इंसानी खून
कि धोयी जा सके सारी हथेलियाँ आठ दिन में एक बार।
1934 के न्यूरेम्बर्ग की गली में खुशी से रोती हुयी लड़की से
2017 के नरेन्द्रपुर की गली में दुखों से रोती हुयी लड़की तक
कभी नही बदली किसी हथेली की लकीरें
बावजूद उबलते इंसानी खून से धोने के
एक दिन में आठ बार भी।
न्यूरेम्बर्ग की उस रोती हुयी लड़की के बारे में आज कोई नहीं जानता
पर सब जानते हैं तानाशाह को, उसकी हिलती हथेली को
कल्ला मीनारों को
साँप की सरसराहट के आतंक को
शेर और मेमने की कहानी को
हत्यारी अंतरात्माओं को
जिन्हें जन्म दिया था उस लड़की ने बिन जाने बिन समझे,
कोख से नहीं खुशी के आँसुओं से जो बहाए थे उसने गली में।
जब तक धरती की गलियों में रहेगीं खुशी से रोती
ये नासमझ और जवान होती हुयी लड़कियाँ
तनाशाहों के हिलते हुए हाथ भी रहेंगे,
मेमने, कटे सर, साँप की सरसराहट और विश्व विजेता भी रहेंगे
और रहेंगी इनके विरोध में लिखी हुयी बहुत सारी अधूरी कविताएं भी
जिन्हें मिल कर कभी पूरा करेंगे
सर्दियों की सुबह दो अज्ञात अपरिचित निस्वार्थ
मनुष्य की स्वतंत्रता, प्रेम और चूजे की तरह फड़फड़ाते सुर्ख खून के पक्ष में।
बेशक अनगढ़ तरीके से ही
इस धरती पर जन्म लेगी एक और नयी कविता
और उड़ जाएगी चुपचाप
बंद खिड़कियों की दरारों और गलों की घोटी जाती रगों से जादू की तरह
दुनिया की असंख्य तानाशाह विरोधी कविताओं में शामिल होने के लिए।
कोहरा खत्म हो गया था। गाड़ी वाला आया। उसने जमीन पर गिरी सीढ़ी देखी। हैरानी से चारों और देखा। कोई नहीं था। उसने सीढ़ी उठा कर खड़ी की। उसे कमरे के बाहर पटरों वाली खुली जगह पर टिकाया। सीढ़ी चढ़ कर ऊपर आया। कमरे का द़रवाजा खुला था। मेज तक आया। चारों ओर देखा। कमरे में कोई नहीं था। तख्त तक आ कर उसने आवाजें दी। कोई नही बोला। मेज पर देहदान का भरा फार्म और हलफनामा रखा था।
प्रियंवद
16/269 सिविल लाइन्स
कानपुर—208001
मो0.9839215236
ई—मेल : चतपलंउअंकक / हउंपसण्बवउ