वो होती तो... Vandana Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

वो होती तो...

वो होती तो...

स्त्री, शब्द ही काफी है खुद को व्यक्त करने को, पीड़ा और सहनशीलता की मिसाल सामने आ जाती है और हम ढूंढने लगते हैं उसमे असीम सम्भावनाएं बिना जाने वो क्या चाहती है ? उसकी चाहतों से परे एक देश सिमटा होता है उसके जीवन के आँगन में, हाँ, उसका देश जो उसके घर से शुरू होता है, रिश्तों के सम्बन्ध बनते हैं जिसकी सीमाएं और जिसे संजोने को वो एक कर्मठ सैनिक की भांति चारों दिशाओं पर निगाह रखते हुए अपने कर्तव्य को अंजाम देती है और खुद की आहुति देती रहती है फिर चाहे कितनी ही वर्षा हो, ताप हो या शीत हो क्योंकि यही तो स्त्री की सम्पूर्ण पहचान मानी गयी है फिर कहाँ कौन सी कमी रही गयी जो ये तीन शब्द मेरी ज़िन्दगी पर ग्रहण बन कर बैठ गए और मैं ता -उम्र उस ग्रहण की कालिख से मुक्त नहीं हो पायी जबकि सुना है ग्रहण तो सिर्फ कुछ समय के लिए हुआ करता है मगर मेरी ज़िन्दगी में तो उम्र भर ही ठहरा रहा, आखिर क्यों, सोचते सोचते सरला अपने विगत में पहुँच गयी........

देश में चारों तरफ इक आग फैली हुयी थी, बंटवारे ने जाने क्या - क्या बाँट दिया था सिर्फ धर्म ही नहीं खून भी बँट चुका था। सारे देश में त्राहि - त्राहि मची थी। कहीं कोई खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करता था और उसमे औरतें और बच्चियों पर तो जैसे एक गाज़ ही गिर पड़ी थी इसलिए सब अपनी बहन बेटियों की हिफाज़त में लगे होते थे। ये वो ही वक्त था जब मैंने छठी कक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी। पढ़ने लिखने में शुरू से ही बेहद होशियार थी। बेशक गाँव में रहती थी मगर तब भी पढाई करने दी गयी थी ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी मगर तभी दंगों की इस आग ने सारे देश को अपने आगोश में लपेट लिया था और उन्ही दिनों जब दिल्ली में रहने वाले एक सरकारी कर्मचारी के रिश्ते की आमद हुयी। मेरे स्कूल की टीचर ने मेरे भाई को बहुत समझाया कि अभी जल्दी मत करो सिर्फ एक साल रुक जाओ मैं इसे एक साल में दो क्लास की पढाई करा दूँगी और ये आठवीं पास हो जायेगी मगर मेरे भाई नहीं माने क्योंकि एक तरफ देश में फैला बवाल और दूसरी तरफ एक अच्छा रिश्ता वो हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे फिर चाहे वो लड़का विधुर ही क्यों न हो और उसके अपनी पहली पत्नी से एक बच्चा ही क्यों ना हो, सबकी अनदेखी कर दी गयी। बस ब्याह करना जरूरी था, सो कर दिया गया मेरी उम्र से नौ साल बड़े से।

मैं, जिसे उसकी माँ ने यही सीख दी थी कि पति ही परमेश्वर होता है, पति की इच्छा ही औरत का जीवन होती है और मेरी कच्ची उम्र, दुनियादारी से अनजान, सिर्फ पंद्रह वर्ष की उम्र में क्या जान सकती थी क्या होती है शादी और उसका महत्त्व ? जैसी शिक्षा मिली उसे ही सही माना और उसका ही अनुसरण किया ता - उम्र।

ब्याह के बाद जो मिला सब पहली की उतरन स्वरुप ही मिला यहाँ तक कि उसके गहने, कपडे और पति सब। कोई लाड चाव नहीं हुआ आखिर क्यों होता मैं दूसरी जो थी। बेशक भरा पूरा परिवार था, बेशक मेरे पति के तीन भाई और दो बहनें और थे मगर सबके लिए मैं कोई नयी नवेली दुल्हन नहीं थी बल्कि उनकी पत्नी थी जिसका पहले भी ब्याह हो चुका था मगर मैं तो इन बातों से भी अंजान थी जिसने जो कहा, जैसा कहा बस करती गयी। ससुराल में कैसे रहा जाता है नहीं जानती थी बस इतना पता था कि सब मुझसे बड़े हैं और मुझे उन सबसे पहले उठना है और घर का सारा काम करना है और मैं इसी तरह जीवन यापन करने लगी। किसी के मन चढ़ी या नहीं कभी सोचा ही नहीं बस ये करना मेरा धर्म है यही सोच काम करती रहती।

जब काफी दिन हो गए तब मैंने उनसे पूछा

“आपका बेटा कहाँ है ?”

“उसे उसकी नानी के पास छोड़ा हुआ है । यहाँ तो कोई था नहीं जो उसकी देखभाल करता इसलिए वहीं पल बढ रहा है ।“

“आपको उसकी याद तो आती होगी न”

“हाँ, मगर क्या करूँ,सारा दिन तो ऑफ़िस में गुजरता है यहाँ इतना छोटा बच्चा कैसे रहता ।“

“मैं चाहती हूँ कि उसे यहाँ ले आऊँ । अब तो मैं आ गयी हूँ ।“

सुन तुम्हारे चेहरे पर उतरी हल्की सी मुस्कान और तसल्ली ने मेरा हौसला बढा दिया समझ गयी कि चाहते तो तुम भी हो मगर कह नही पाये अब तक ।

तब एक दिन मैं उन लोगों से मिलने गयी और देखा वहाँ उनके बेटे का बुरा हाल था , ठीक से देखभाल नहीं की जाती थी वहाँ, जो मुझसे देखा नहीं गया और मैं उन सबके मना करने पर भी जिद करके उसे अपने साथ ले आयी।

उस लड़के को अपने बच्चे की तरह प्यार देता देख घर के लोग मन ही मन कुढ़ने लगे क्योंकि उस ज़माने में कौन पहली पत्नी के बच्चे को इतना प्यार देती थी और ऐसे में मैंने संसार की रीत से अलग कुछ किया तो कैसे किसी के गले से नीचे उतरता आखिर औरत जात ठहरीं और उस पर अनपढ़ कहाँ समझ पातीं कि बच्चे तो बच्चे होते हैं फिर किसी के भी हों मगर मेरे लिए तो वो जैसे मेरा ही बेटा था, क्या हुआ जो जन्म नहीं दिया मगर यशोदा बन कर उसे पाल रही थी मगर घरवालों को चैन कहाँ आता है।

दो साल का मासूम था जब उसे अपने साथ ले आयी थी उसके लिए तो मैं ही उसकी माँ थी. उसे क्या पता दूसरी माँ क्या होती है । कोई भी काम होता मेरे आगे पीछे डोलता, मुझसे कहता और मेरी ही सुनता । इस तरह वो बडा होने लगा । अपनी हर बात हर दुख तकलीफ़ मुझसे कहता मगर साथ साथ थोडा बहुत समझता कि कौन सी बात माँ नहीं मानेगी और कैसे मनवानी है क्योंकि घर का माहौल ऐसा था कि यदि किसी बात को मना करती जो उसके लिए उचित न होती तो सासु माँ और अन्य लोग ताना उलाहना देते कि ‘दूसरी है न इसलिए मना कर दिया आज बेचारे की अपनी माँ होती तो क्या मना करती’ तो ये बातें उसके मन में बैठने लगीं और समझने लगा कि कैसे बात मनवानी है फिर चाहे मैं उसकी सेहत आदि को देखकर ही कुछ खाने पीने को कभी कभार बीमारी में मना कर देती मगर घरवाले वो ही काम जबरदस्ती करवाते. ये बात उसके अबोध मन में घर करने लगी बिना ये सच जाने कि जब एक माँ को बच्चे को प्यार करने का हक़ है तो उसकी गलती पर उसे डाँटने का भी अधिकार होता है ताकि उसे अच्छी शिक्षा मिल सके और वो एक अच्छा इंसान बन सके मगर ये बात उन्हें कहाँ अच्छी लगती. जब भी वो जरा सा कुछ गलत करता और मैं यदि डाँट भी देती तो मेरे पति से एक की चार लगाकर शिकायत कर दी जाती ।

“देख रामलाल आज श्याम ने कुल्फ़ी खानी चाही और सरला ने मना कर दिया अब बच्चा किसे कहे अपनी माँ से न कहे तो और जब जिद करने लगा तो उसे मारने को दौडी बेटा मुझे बूढी से तो ये सब नहीं देखा जाता । छोरा अनाथ की तरह पल रहा है ।“

गुस्से से आग बबूला होते तुम बोल उठे, “बडा प्यार जता रही थी लाने के लिए, क्या यही प्यार है तेरा ? इससे तो अच्छा वहीं पलता बढता कम से कम मेरा बेटा तो चैन से रहता मन का खाता पीता ।“

इस तरह हमेशा बिना मेरी सुने जब वो सबके सामने मुझे बुरा भला कहते तो सब बहुत खुश होते।एक दोगले संसार मे फँसी थी मैं मगर अभी तक पति की शायद विश्वासपात्र नहीं बनी थी तभी तो वो और सबकी बात का विश्वास कर लेते मगर मेरी ही नहीं।

इस बीच मेरे भी एक बेटी हो गयी थी और मैं नहीं चाहती थी कि अब और कोई बच्चा हो क्योंकि मेरी सोच यही थी कि एक बेटा और एक बेटी हो गए अब और क्या चाहिए। मेरे जीवन की बगिया में ये दो फूल खिले रहे बस। दोनों बच्चों में चार साल का महज अंतर था।

अपनी बेटी से ज्यादा लाड प्यार करती, उसे राजकुमार सा बना कर रखती मानो मेरे जीवन का ही अंश हो क्योंकि जब पति को अपना लिया, उसे चाह लिया तो उसकी हर चीज़ मेरी ही तो हुयी फिर कैसा परायापन । कभी ख्वाबो ख्याल में भी नहीं आता परायेपन का अहसास । यशोदा सी अपने कृष्ण को पाल पोसकर बडा कर रही थी । इस बीच ईश्वर की देन ही कह सकती हूँ दो और बेटियों को जन्म दिया वरना मेरे लिए तो मेरे दो बच्चे ही काफ़ी थे ।

जब श्याम बडा होने लगा थोडा बहुत समझने लगा तो जेठानियाँ ननदें सब ताने उलाहनों में बात करतीं. उसके सामने उसकी पहली माँ के बारे में बात करतीं - “सोना होती तो कैसा राजकुमार सा रखती, कितने लाड चाव करती बेचारा दूसरी माँ की छाँव में है जैसा चाहे व्यवहार करे हम कौन होते हैं कुछ कहने वाले” और वो सुनता सब कुछ और मैं चाहकर भी कुछ न बोल पाती. बडों की इज़्ज़त करने के सिवा और कुछ सीखा ही नहीं था. कभी उनके आगे बोलती ही नहीं थी. वैसे भी पन्द्रह साल की उम्र होती ही क्या है जो कोई दुनियादारी सीख सके तब तक तो बचपन भी पूरी तरह अलविदा कहकर नहीं गया होता, ऐसे में ब्याह की आग में जिसे झोंक दिया गया हो उसकी सोच उसके विचार कितने परिपक्व हो सकते हैं ? उसे तो जो भी आईना दिखाया जायेगा वो ही उसका सत्य होगा. जिस पानी की धार पर चलने को कहा जायेगा चलता जायेगा फिर पाँव के नीचे जमीन हो या नहीं, वो डूबे या तरे किसी को क्या फ़र्क पडता है । भरा पूरा परिवार, दिल्ली जैसे शहर में रहना ही गाँव वालों की सोच को कुंठित कर देता है, उसके आगे सोचने की ज़हमत कौन उठाना चाहता है तो फिर मैं तो गुड्डे गुडियों के खेल का जैसे एक मोहरा बन ब्याह दी गयी थी फिर कैसे दुनियादारी के पके हुए आँवे की ताप को महसूस कर सकती थी ।

मुझे आज भी याद है वो दिन जब घर का गुजारा बहुत मुश्किल से चला करता था इसलिए मैं घर में ही सिलाई कढाई और बुनाई के काम करती थी ताकि कुछ बचत हो सके और बच्चों का भविष्य सुधर सके । थोडा बहुत पैसा हाथ में आता तो बच्चों पर ही खर्च किया करती थी. ऐसे ही एक बार श्याम के जन्मदिन पर मै नया कपडा बाज़ार से लेकर आयी और घर में बनाया और जब उसे पहनाया तो सारे घर में दिखाता फ़िरा सबको “देखो, माँ ने कितनी सुन्दर कमीज़ बनायी है “ और फिर एक दिन मेरी छोटी बेटी ने वो कमीज़ शौक में पहन ली तो उसी पर घरवालों ने श्याम के कान भरने शुरु कर दिए, “देखा श्याम, बडा कह रहा था माँ ने कमीज़ बनायी है वो तो सिर्फ़ दिखावे को थी. वास्तव में तो छोटी के लिए बनायी थी. देख कैसे पहने डोल रही है । अब क्या तू उसकी उतरन पहनेगा ? आज तेरी माँ होती तो ऐसा करती क्या ?”

“माँ जी ऐसी बातें श्याम के आगे मत कहिए. बच्चा है, जाने क्या बात उसके मन में बैठ जाए अभी कच्ची उम्र है” जब मैने हिम्मत कर कहा तो बोलीं

“ये दिखावा हमारे आगे मत किया कर सरला.हम सब जानती हैं तेरे मन में क्या है. बस अपने पति को रिझाने को जो चाहे उसके आगे ढकोसला कर मगर हमें पता है तू कितना चाहती है और कितना नहीं श्याम को.”

“माँ जी, मैं कैसे यकीन दिलाऊँ आप सबको कि श्याम मेरे लिए मेरा बेटा है कोई पराया नहीं.”

“बस बस रहने दे …… देखा है तेरा प्यार, कैसे एक मिनट मे पलट गया जहाँ अपनी बेटी की बात आयी.”

“अरे हमने दुनिया देखी है और ये नौटंकी भी. कैसे खसम को अंटे में करने के लिए दोगला चेहरा लगाए घूमती हैं तेरी जैसी औरतें. जब कैकेयी जैसी त्रेता में राम जैसे पुत्र को वो प्यार नहीं दे सकी तो तुझ जैसी से कोई क्या उम्मीद कर सकता है ।“

और मैं कभी श्याम के चेहरे को और कभी सासु माँ और बाकी सबको देखती रह गयी बिना किसी गुनाह के गुनाहगार बना दी गयी।

श्याम गुमसुम सा कुछ कुछ समझने की कोशिश करने लगा । ऐसी जाने कितनी ही घटनायें उसके मासूम मन पर दूसरी माँ की छाप छोडने लगीं जिन्हें मैं चाह कर भी नहीं निकाल पा रही थी. फिर चाहे उसके लिए कितना भी कुछ करती हर बात में कोई न कोई कमी निकालना और दूसरी माँ का ताना उसके आगे देना उनका परम धर्म था जिसमें उसकी मासूमियत खोने लगी थी।

श्याम बचपन के उस मुहाने पर था जिसे जिस रंग में ढाल दो उसी में ढल सकता था, जैसा चाहे आकार दिया जा सकता था. एक नाज़ुक उम्र का दौर जहाँ जो सामने दिखता है वो ही उनका सत्य होता है. अभी सोच की ग्रंथि इतनी परिपक्व नहीं होती कि सही गलत को समझ सके और उसके अनुसार फ़ैसले ले सके । ऐसे में उसके आगे उसकी पहली माँ की बातें उसके मन में उथल पुथल मचाने लगी थीं. वो समझ नहीं पा रहा था कि कौन क्या कह रहा है. क्या सच है क्या झूठ. उसके लिए तो बस मैं ही उसकी माँ थी लेकिन उसका गुमसुम रहना मेरी छटी इंद्रिय को सचेत कर रहा था कि कहीं कुछ गडबड है. इस मासूम के मन पर कोई गलत छाप बैठे उससे पहले मुझे कोई कदम उठाना होगा, सोच उनके आने की प्रतीक्षा करने लगी ।

जहाँ कदम कदम पर रुसवाइयाँ आपकी कदमबोशी करती हों,हर दिन काँटों की चुभन से शुरु होता हो वहाँ कैसे संभव था संभावना तलाशना और अपने लिए थोडी सी जगह अपने बेटे के दिल में बनाना.

वक्त ने आखिर करवट ले ही ली और उसके दिल पर दूसरी माँ की छाप ऐसे चस्पाँ हो गयी जैसे कोई अदालती मोहर और उम्र भर सिर्फ़ उसके लिए जीती रही, उसका ब्याह किया, उसकी पत्नी को कितना ही लाड प्यार किया, उसके बच्चे होने पर उसका सारा कार्यभार संभाला भले ही उसकी उपेक्षा से मुझे दिल का रोग लग गया, भले ही मेरा ब्लड प्रैशर बढा हुआ रहने लगा, भले ही मेरे दिमाग में क्लॉट हो गया, 2-3 बार फ़ालिज़ पड पड गया मगर मैं कभी उसके लिए फिर सगी माँ न रह सकी । ज़िन्दगी की सारी रुसवाइयाँ मेरे हिस्से आ चुकी थीं और वक्त अपनी चाल चल चुका था क्योंकि तुम्हें ज़िद थी कि नहीं मेरे घरवाले ऐसा कुछ नहीं कर सकते या कह सकते. तुम्हारे विश्वास की कीमत मैने तमाम उम्र अपनी सेहत की आहुति देकर चुकायी. बेशक बाद में तुम्हें भी ये अहसास हो गया जब उसी बेटे ने तुम्हें नकार दिया ।

याद है वो दिन जब उसकी पत्नी जिसे मैने कभी पानी का गिलास नही उठाने दिया, उसे एक दिन मेरी बीमारी में उसकी बेध्यानी पर तुमने जरा सा यही तो कहा था, “बेटी, माँ की दवाई ज़रा वक्त पर दे दिया करो नहीं तो इसका ठीक होना मुश्किल हो जाएगा” तो कैसे तुम्हें जवाब देने लगी और उल्टा सीधा बोलने लगी थी और फिर जब मैने तुम्हें चुप कराया कि कुछ मत कहो हो जाता है ऐसा तो उसकी पत्नी ने ये कहते हुए जैसे तमाचा सा ही जड दिया था क्योंकि उसे भी आते ही श्याम और घरवालों ने अपने रंग में रंग लिया था और मेरे और श्याम के संबंध में इतना सिखा दिया था कि वो कह उठी :

“ जिन बच्चों की माँ दूसरी होती हैं उनके बाप तो तीसरे हो जाया करते हैं “

मानो सारे समाज के आगे वस्त्रहीन कर दिया हो, मानो जलती लकडी पर पांव रखा गया हो और उठाने के लिये बस उसमें दम ही न बचा हो. सब जान लिया तुमने भी, समझ लिया तुमने भी, अपनी बहनों की शादी तक में जो न कभी आया कि कहीं पैसे न अपनी तरफ़ से लगाने पड जाएं, रोक दिया था उसकी पत्नी ने समझ आने लगा था तुम्हें मगर तब तक तो बात हाथ से निकल चुकी थी ।

ये वो ही बेटा था जिसकी पढाई के लिए तुम बेचैन हो गये थे जब गलत संगत में पड गया था तब मेरी बहन के यहाँ रहा एक साल तब जाकर संभला बेशक खर्चा तुम देते थे मगर एक अह्सान तो हमारे माथे चढ ही चुका था जिस कारण कभी हम सिर उठा कर नहीं जी सके । यहाँ तक कि याद है एक बार सबके कहने पर किरायेदार से झगडे में उसकी भी जेल तक जाने की नौबत आ गयी थी और तब तुमने कितनी भागदौड की थी, याद है न, तुम्हारा दस किलो वजन कम हो गया था. इतने चिन्तित हो गये थे ये सोच कि यदि जेल का ठप्पा लग गया तो उसकी ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी और उसी बेटे के बेटे ने जब तुम्हें गालियाँ दीं और वो चुप रहा, मुस्कुराता रहा तब जाकर तुमने वो निर्णय लिया जो लेते हुए जाने कितने ज्वालामुखी तुम्हारे अन्दर फ़टे होंगे, जाने किन बीहडों से तुम गुजरे होंगे ये मैं समझ सकती हूँ -- तुमने न केवल अपनी जायदाद से बल्कि अपने दाह संस्कार करने के अधिकार से भी उसे बेदखल कर दिया था क्योंकि अब तक तुम्हारी हर उम्मीद दम तोड चुकी थी और तुम अपनी तरफ़ से हर संभव कोशिश कर चुके थे और जब देख लिया और समझ लिया कि अब ये मेरा नहीं रहा तब जाकर तुमने ये निर्णय लिया । जानती हूँ अंत समय में भी तुमने बेशक कुछ नहीं कहा कोमा में जो थे मगर कोमा में भी तुम्हारी चेतना को उसका इंतज़ार था इसलिए हमने उसे कहा कि एक बार आ जा कम से कम तुम्हारे पिता तो तुम्हारे ही थे तब जाकर दुनियादारी निभाने आया था वो और उसकी आवाज़ तुम्हारे अन्तर्मन तक पहुँची थी तभी शांत हो पाये थे तुम ।

याद है, हमारी छोटी बेटी जब महज सात - आठ बरस की होगी और श्याम की शादी हो चुकी थी और उसके भी बच्चा था उस वक्त तक यही बात घर में हुआ करती थी जिसका असर मेरी बच्ची पर ऐसा हुआ कि वो भी मुझे अपनी दूसरी माँ समझने लगी और श्याम के कमरे में लगी उसकी माँ की तस्वीर को अपनी माँ समझने लगी याद है न तुम्हें जब उसने कहा था,

“तुम मेरी माँ नहीं हो”

“तो फिर कौन है ?”

“वो ही जो भाई के कमरे में फ़ोटो लगी है मैं छज्जे में से उसे देखा करती हूँ ।“

ये रहस्योदघाट्न हम सबके पाँव के नीचे से जमीन को धकेलने को काफ़ी था और फिर तुमने उसे किस तरह प्यार से समझाया था और बताया था उम्र का गणित और कहा कि यही तुम्हारी माँ है । सिखावट और बातों का असर एक अबोध मन पर किस हद तक हो सकता है ये तुम्हें उस वक्त समझ आया था मगर तब तक तो बात हाथ से निकल चुकी थी और रिश्ते में दरार पड चुकी थी ।

वो शाम आज भी याद है मुझे जब तुम्हारे ऑफ़िस से आने पर मैने तुमसे श्याम के बारे में बात की थी जब वो उम्र की उस पगडंडी पर पैर रख रहा था जहाँ से वो किसी भी दिशा में मुड सकता था ।

शाम को एकांत में तुमसे कहा, “सुनिये, एक जरूरी बात करनी है श्याम के बारे में । देखिये अभी उसकी कच्ची उम्र है. इस उम्र में जो सुनेगा, जो जानेगा उसे ही सत्य मानेगा और आजकल घर का माहौल सही नहीं चल रहा. इतने दिन से आप से कुछ नहीं कहा मगर काफ़ी दिनों से देख रही हूँ श्याम खोया खोया रहता है. एक उधेडबुन सी उसके मन में चलती रहती है. कभी कभी मुझसे भी खिंचा खिंचा रहता है. इससे पहले कि उसकी ज़िन्दगी में ज़हर घुले और हम अपने श्याम से हाथ धो बैठें क्या ऐसा नहीं हो सकता आप सरकारी क्वाटर ले लो और हम वहाँ जाकर रहें क्योंकि यहाँ सब मुझे दूसरी माँ कहकर उलाहने देते हैं तो श्याम को समझ नहीं आता कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं और वो हतप्रभ सा मुझे देखता रहता है. मगर है तो मासूम मन ही न, कहीं कोई गलत ग्रंथि न पाल बैठे और फिर हमारे हाथ कुछ न रहे । इस माहौल से दूर रहेगा तो कभी नहीं जान पायेगा मैं उसकी दूसरी माँ हूँ । कच्ची उम्र निकल जायेगी एक परिपक्वता आ जायेगी उसके बाद यदि पता भी चलेगा तो वो जानता होगा कि मैने कभी एक पल के लिए भी उसे पराया नहीं माना बल्कि अपनी बेटियों से ज्यादा उसे चाहा है तो तब उस पर कोई फ़र्क नहीं पडेगा इतना भरोसा है मुझे अपनी परवरिश पर मगर यहाँ रहे तो एक दिन जरूर सबकी बातों में आ जायेगा क्योंकि जब एक ही झूठ को सौ लोग बोलें तो सुनने वाले को वो ही सत्य लगने लगता है फिर इसकी तो उम्र ही क्या है । अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए क्या इतना नहीं कर सकते ?

और फिर आपके जवाब ने मुझे निशब्द कर दिया और वो फ़ाँस सा उम्र भर छाती में गडा रहा फिर चाहे मेरे हाथ से श्याम निकल गया. शायद मेरा मन जानता था कि एक दिन ऐसा ही आयेगा जब अपनेपन के सारे फ़ूल उसकी झोली से तिरोहित हो जायेंगे बचेगा तो बस कलुषता का विष, सिखावट के काँटे जिससे वो उम्र भर लहुलुहान होता रहेगा मगर कभी उससे बाहर नहीं आ पायेगा. यदि तुमने समय रहते एक निर्णय ले लिया होता मेरे कहने पर तो आज ये दिन न देखना पडता और मैं तुम्हारी यादों से यूँ बतिया न रही होती. अकेली इतने बडे घर में जहाँ बोलने को मेरे सिवा कोई नहीं, जहाँ सुनने को मेरे सिवा कोई नहीं, जहाँ रहने को मेरे सिवा कोई नहीं । शायद तुम्हें भी नहीं पता था कि एक ऐसा दिन भी ज़िन्दगी में आ सकता है लेकिन ये आज का सच है कि आज मैं दिन के चौबीस घंटों में एक एक पल में जाने कितनी मौत मरती हूँ. कोई इंतज़ार नहीं, कोई आस नहीं, कोई बोलने वाला नहीं, अपनी आवाज़ सुने ही लगता है जैसे बरसों हो गए । यूँ लगता है जैसे अपने एकान्त में चिनी अनारकली हूँ जिसके इंतज़ार, अकेलेपन को सिर्फ़ अब मौत ही सहलायेगी । हर घडी वक्त की बेरहमी मुझमें से जैसे मुझे छीलती है. मेरी बर्दाश्त करने की क्षमता का मानो इम्तिहान लेती है मानो किसी निर्जन टापू पर मैं अकेली विचर रही होउँ । तुम कह सकते हो बेटियाँ हैं लेकिन उन संस्कारों का क्या करूँ जो बचपन से मुझमें रोपें गए कि बेटी के घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए. अब चाहूँ तो भी उनसे बाहर नहीं आ पाती. खुद की कहूँ या संस्कारों की बेडियों में जकडी आज अकेलेपन की जलती वो चिता हूँ जो राख होती ही नहीं ।बेटियाँ तो पराई होती हैं सब अपने अपने घर को संभाल रही हैं तुम्हें पता ही है ।

साँसों की डोर से बँधी अभिशप्त सा जीवन जीने को विवश हूँ मगर जाने क्यों आज तक समझ नहीं पायी आखिर क्यों मैं तुम्हें पूरी तरह नहीं पा सकी ? आखिर क्या कमी थी मेरे त्याग, मेरे समर्पण, मेरी तपस्या में ? आखिर कौन सी शाख ऐसी थी तुम्हारे मन की जिसे मैं छू न सकी जो तुमने मेरा कहा न माना और मेरे प्रश्न का जवाब इस तरह दिया ………हाँ, ले लेता मैं सरकारी क्वार्टर भी यदि “वो होती तो ……”

*****