नई सुबह. Vandana Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नई सुबह.

नई सुबह

माधव का नाम साहित्य जगत का एक जाना -पहचाना नाम था.उसकी कलम से निकला हर शब्द पढने वाले को सोचने पर मजबूर कर देता था --------क्या श्रृंगार,क्या वियोग,क्या मानवता और क्या व्यंग्य ----------हर विधा का बेजोड़ लेखक था. हर शब्द में ऐसा जादू कि पढने वाले उसमे ही खो जाते थे शायद हर दिल की बात महसूस करने की कूवत थी उसमे तभी उसका हर शब्द हर शख्स को अपना सा लगता था. माधव जो लिखता उसके लिए एक पूजा थी और वो अपनी पूजा को बेचता नहीं था सिर्फ पूजा का प्रशाद ही सबमे बांटता था.अपनी कृतियों से प्राप्त पैसा वो अपने लिए प्रयोग नहीं करता था बल्कि सारा पैसा गरीब, नि:सहाय,झुग्गी झोंपड़ी में रहने वालों पर खर्च कर देता था. उस कमाई का एक भी पैसा अपने पर खर्च ना करता. उसके चाहने वालों को पता भी ना था कि वो कहाँ रहता है और क्या करता है. एक गुमनाम सी ज़िन्दगी जीता था माधव.अपने जीवन का निर्वाह वो सिर्फ लालबत्ती पर प्राप्त पैसों से ही करता था. ऐसा था मस्त फक्कड़ माधव. जो रोज़ ज़िन्दगी के ना जाने कितने रंगों से सामना करता था और उसी को लफ़्ज़ो में उतार देता था. सारी दुनिया उससे मिलने को बेचैन रहती और शायद लोग उसके पास से गुजर भी जाते होंगे मगर फिर भी उसे पहचान ना पाने के कारण एक भिखारी समझ आगे बढ़ जाते होंगे. उसके संपादक उससे कितनी ही मिन्नतें करते मगर वो टस से मस ना होता. ना जाने क्यों वो गुमनामी के अंधेरों में ही खोया रहना चाहता था. ना जाने कौन सी खलिश थी जो उसे ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर कर रही थी.

आज के वक़्त में भी ऐसा इन्सान होना संसार के आठवें आश्चर्य से कम नहीं. आज के वक्त में ऐसा कौन इंसान होगा जो दौलत और शोहरत ना चाहता हो या ऐशोआराम की ज़िन्दगी जीना ना चाहता हो मगर माधव की सोच आज के ज़माने से बिलकुल हटकर थी. बेशक जीता आज के वक्त में था और लिखता भी आज के दौर का ही था तभी तो हर दिल की धड़कन बन गया था मगर फिर भी अपने उसूलों और आदर्शों से कभी समझौता नहीं करता था.

माधव के आस पास के भिखारी जो लालबत्ती पर होते थे कोई भी उसके दिल की बात नहीं जानता था. इतना तो था कि वो कभी कभी कुछ दार्शनिक बातें कहता तो अन्य लोगो के सिर के ऊपर से गुजर जाती और इसे ही पागल समझने लगते मगर उन में से कोई भी नहीं सोच सकता था कि उनके बीच गुदड़ी का लाल छुपा है.

एक दिन अचानक जब माधव लाल बत्ती पर खड़ा भीख मांग रहा था तभी पीछे से आती एक तेज़ रफ़्तार कार का बैलेंस बिगड़ जाने के कारण फुटपाथ पर खड़े माधव को उसने टक्कर मार दी और माधव अपने झोले के साथ लहूलुहान हो गया और उसके झोले में पड़े पैसों के साथ उसके कागज़ भी हवा में उड़कर तपती सड़क पर उसके ही लहू में भीग कर इधर -उधर बिखर गए जैसे किसी के सपनो को आँधी अपने साथ उडा ले गयी हो और सब तितर -बितर कर दिया हो.आप -पास लोगों का हुजूम इकठ्ठा हो गया और वो सब गाड़ी वाले के पीछे पड़ गए उसे पुलिस में ले जाने की धमकी देने लगे.कोई कह रहा था "गरीब आदमी क्या इन्सान नहीं होता जो इन गाड़ी वालो को दिखाई नहीं देता, गरीब का खून क्या खून नहीं होता या उसकी जान मुफ्त की होती है जो इतनी बेरहमी से बेचारे को मार दिया". ऐसे इंसानों को तो पकड़ कर पुलिस में दे देना चाहिए मगर इतने में जो गाडी में बैठा था वो उतर कर आया वो शहर का एक जाना माना शख्स था और गाडी उसका ड्राईवर चला रहा था. उसने कहा,"भाइयो मेरी मदद करो और इसे जल्दी से गाड़ी में डालो मैं इसका इलाज करवाता हूँ. इतने में भीड़ में से कोई बोला ये सब बचने के उपाय हैं कोई इलाज नहीं करवाएगा हम तो अभी पुलिस का इंतज़ार करेंगे मगर गाडी वाला बोला अगर पुलिस का इंतज़ार करोगे तो उसके इलाज में देरी होने की वजह से वो मर भी सकता है देखो उसका कितना खून बह चुका है.एक बार इसे अस्पताल में दाखिल करवा दो फिर चाहे तो पुलिस में दे देना.कम से कम इसकी जान तो बच जाएगी. उसकी बात में दम देखकर लोगो न माधव और उसके झोले और कागजों को उसके साथ ही गाड़ी में रख दिया.

गाडी वाला माधव को अस्पताल ले गया और उसका इलाज शहर के सबसे बड़े अस्पताल में करवाया. पुलिस से निपटना वो अच्छी तरह जानता था और सबसे बड़ी बात कि उसने खुद उसका इलाज करवाया और सारा खर्चा उठाया तो पुलिस तो खुद इन सबसे हाथ झाडती फिरती है और वैसे भी उनका पेट भर ही चुका था गाडी वाला, तो वो क्यूँ कोई एक्शन लेती. दो ही दिन में माधव चलने -फिरने लायक हो गया तब एक दिन वो गाडी वाला उससे मिलने आया. माधव का हाल पूछा तो माधव ने अपने दार्शनिक अंदाज़ में कहा,"बेरहम ज़िन्दगी एक बार फिर जीत गयी, मौत को भी धोखा दे आई, ना जाने अभी और कौन सा करम बाकी है ".ये सुनकर गाडी वाले के चहेरे पर लाचारगी का एक भाव आकर चला गया मगर माधव को महसूस भी नहीं हुआ.अब माधव को ख्याल आया कि उसने तो उस आदमी से उसका परिचय ही नहीं पुछा. तब माधव बोला,"सर, मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझ जैसे भिखारी का शहर के इतने बड़े अस्पताल में इलाज करवाया. मेरे जैसे इंसान तो ऐसा कभी सपने में भी नहीं सोच सकते. अब आप अपने बारे में कुछ बताइए ताकि मैं आपका परिचय जान सकूँ ".............

ये सुनकर गाडी वाला मंद - मंद मुस्कान के साथ बोला, " माधव गलती मेरे ड्राईवर की थी और इस दुनिया में किसी को भी किसी की जान लेने का कोई हक़ नहीं है. जब नौकर गलती करे तो उसका जिम्मेदार उसका मालिक होता है. इसलिए अपने ड्राईवर की गलती के लिए, ये जो मैंने किया, उससे भी उस गलती की भरपाई नहीं हो सकती क्योंकि जो दुःख तकलीफ तुमने सही और तुम्हारा जो इतना लहू बहा क्या उसका इस संसार में कोई मोल है. हर इंसान को उतना ही दर्द होता है जितना खुद को लगने पर होता है. मैं तो अपने ड्राईवर के इस कृत्य पर शर्मिंदा हूँ और तुमसे इस भूल की क्षमा मांगने का भी अख्तियार नहीं रखता बल्कि ये चाहता हूँ कि तुम मुझे इसके लिए कोई सजा दो ".

बस इतना सुनते ही माधव तो जैसे भाव-विभोर हो गया. उसके जैसे कवि ह्रदय वाला व्यक्ति कहाँ इतनी विनम्रता सहन कर पाता. माधव की आँखें छलक आई थीं ये सोचकर कि आज के ज़माने में भी ऐसे इन्सान हैं. इसका मतलब इंसानियत अभी मरी नहीं शायद ऐसे इंसानों के कारण ही पृथ्वी टिकी हुई है.

फिर माधव बोला, "सर ये आपकी महानता है वरना तो लोग टक्कर मार कर रोंदते हुए गाड़ी भगा कर ले जाते हैं. एक पल ठहरते भी नहीं ये जानने के लिए कि जिसे टक्कर मारी है वो जिंदा भी बचा या मर गया और एक आप हैं जिनकी खुद की कोई गलती नहीं बल्कि ड्राईवर से गलती हुई उसके लिए भी मुझसे माफ़ी मांग रहे हैं.........आप जैसे लोग इस दुनिया में ऊँगली पर गिने जाने लायक ही होंगे. मैं आपकी विनम्रता, कृतज्ञता और महानता के आगे नतमस्तक हूँ. मुझे आपसे या आपके ड्राईवर से किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं है. आज मेरे सामने इस एक्सिडेंट के कारण ज़िन्दगी का एक नया पहलू सामने आया है."

इतना कहकर माधव ने गाडी वाले से जाने की आज्ञा मांगी मगर गाडी वाला तो अब तक हाथ जोड़े और सिर झुकाए आँखों से अविरल धारा बहाता हुआ उसके आगे खड़ा था. ये देखकर तो माधव के होश उड़ गए. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किसी इन्सान को देख रहा है या साक्षात् भगवान उसके रूप में पृथ्वी पर अवतरित हो गए हैं क्योंकि आज के हालात में जब इन्सान ही इन्सान का सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है उसमे किसी इन्सान को इस स्थिति में देखना तो ऐसा ही लगेगा कि जैसे या तो भगवान आ गए हैं या फिर वो कोई सपना ही देख रहा है, असल ज़िन्दगी में तो ऐसा संभव ही नहीं,फिर भी ये एक जीती -जागती हकीकत उसके सामने खडी थी. माधव की जुबान पर शब्द आकर रुके जा रहे थे और वाणी गदगद हो गयी थी.

कुछ देर में खुद को संयत करके माधव गाड़ी वाले के पैरों पर गिर पड़ा और बोला, " सर आप मुझसे बड़े हैं मेरे पिता के समान हैं और इस तरह हाथ जोड़े खड़े हैं ----मैं शर्मिंदा हो रहा हूँ,आप ऐसा मत करिए".

जब गाड़ी वाले ने माधव को अपने पैरों पर गिरे देखा तो वो खुद को और लज्जित महसूस करने लगा. उसने माधव को उठाया और गले से लगा लिया.

गाडी वाला बोला, " बेटा मैं इस ग्लानि के कारण खुद को मूँह दिखाने के काबिल नहीं और तुम मुझे और शर्मिंदा कर रहे हो ".

तब माधव बोला,"सर, बस अब और नहीं. आपको जो कहना था और करना था आप कर चुके हैं. अगर आपको इतना ही ये बात परेशान किये जा रही है तो सिर्फ इतना बता दीजिये कि आप हैं कौन? आपका परिचय ही आपका प्रायश्चित होगा".

तब गाड़ी वाला बोला, " मैं इस शहर में एक अख़बार जन -जागरण का मालिक हर्षवर्धन हूँ ".

इतना सुनते ही माधव तो अचम्भित हो गया. वो तो सोच भी नहीं सकता था कि इतना बड़ा इन्सान आज उसके सामने इस तरह खड़ा है. माधव तो खुद को कृतज्ञ समझने लगा. अब माधव ने हर्षवर्धन से जाने की इजाजत मांगी तो उन्होंने मना कर दिया और कहा कि तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे और जब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक आराम करोगे. माधव की तो जुबान ही तालू से चिपक गयी थी. वो चुप खड़ा रहा.तब हर्षवर्धन माधव का हाथ पकड़कर उसे अपनी गाडी में बैठाकर घर ले गए.

हर्षवर्धन का घर था या एक राजमहल था. कितने नौकर- चाकर थे कोई गिनती नहीं. रात को भी घर ऐसा लगता जैसे दिन निकला हो. माधव खुद में सिमटता जा रहा था. उसने तो कभी सपने में भी ऐसा भव्य दृश्य नहीं देखा था. हर्षवर्धन ने नौकरों से कहकर माधव के रहने और उसकी देखभाल का खास इंतजाम करवाया. भला ऐसे जन्नत जैसे माहौल में कोई कितने दिन बीमार रह सकता था सो ४-५ दिन में ही माधव भला -चंगा हो गया और फिर एक दिन उसने हर्षवर्धन से जाने की इजाजत मांगी.

तब हर्षवर्धन ने कहा,"मुझे तुमसे जरूरी बात करनी है इसलिए अभी तुम नहीं जा सकते. बस शाम को आकर तुमसे बात करता हूँ. अभी आज एक जरूरी मीटिंग है वो निपटाकर आ जाऊं ".

माधव के पास रुकने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं था..............

शाम को जब हर्षवर्धन आये तो उन्होंने माधव को बुलाया और उससे कहना शुरू किया, "देखो माधव तुम जैसा होनहार इन्सान फिर इसी दलदल में जाए तो मुझ पर धिक्कार है. मैं चाहता हूँ तुम अपना एक अलग आकाश बनाओ. ज़िन्दगी में ऊंचाइयों को छुओ. अपने आप को एक नयी पहचान दो".

ये सुनकर माधव बोला, " सर, मैं एक भिखारी हूँ और मुझमे ऐसी कोई काबिलियत नहीं जो आप ऐसा कह रहे हैं. हम तो ज़मीन के लोग ज़मीन से ही जुड़े रहते हैं और एक दिन इसी में मर खप जाते हैं. हमारे पास से तो काबिलियत भी दूर से ही नमस्कार करके निकल जाती है ".

ये सुनकर हर्षवर्धन ने कहा, " माधव तुम अपने आप को चाहे जितना छुपा लो मगर मैं तुमको और तुम्हारे अन्दर छुपी काबिलियत को पहचान गया हूँ. मुझे पता चल गया है कि मेरे सामने कोई छोटा मोटा इंसान नहीं बल्कि एक गंभीर शख्सियत का मालिक बैठा है जो ऐसा छुपे रुस्तम है कि हर पल नकाब ओढ़े रहता है. मगर आज वक़्त आ गया है कि तुम ये नकाब उठा दो और दुनिया के आगे खुद को जाहिर कर दो. ना जाने कितने प्रशंसक तुम्हारे दीदार को तरस रहे हैं ".

ये सुनकर तो माधव सकपका गया.उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये इंसान है या जादूगर, जो उसके बारे में सब जान गया.

खुद को संयत करते हुए हिम्मत जुटाकर माधव बोला,"सर, मैं एक आम इन्सान हूँ. आपको जरूर कोई गलफहमी हो रही है. मुझमे ऐसी कोई बात नहीं है जिससे आप इतना प्रभावित हो रहे हैं ".

तब हर्षवर्धन ने कहा, " माधव अब खुद को भ्रमजाल से बाहर निकालो और सत्य को स्वीकार करो. मुझे अब तुम्हारे बारे में सब पता है कि तुम कौन हो? जब तुम्हारा एक्सिडेंट हुआ था तब तुम्हारे झोले में जो कागज़ थे वो मैंने अब तक संभाल कर रखे हुए हैं. उन्ही कागजों से मुझे तुम्हारे बारे में सब पता चल गया. बाकी मैं खुद ऐसे काम में हूँ कि तुम्हारे बारे में इन सबके बाद सारी जानकारी निकलना कोई मुश्किल काम नहीं, इतना तो तुम समझते ही होंगे.अब खुद को छुपाने से कोई फायदा नहीं इसलिए अब साफ़ -साफ़ बात करो. "

ये सुनकर माधव बोला, " ठीक है सर, जब आपको सब पता चल ही गया है तो फिर अब कहिये, क्या चाहते हैं आप "?

ये सुनकर कुछ देर खामोश हो कर कुछ सोचते हुए से हर्षवर्धन बोले, " माधव, एक बात बताओ तुम इतनी ज़हीन शख्सियत के मालिक हो, फिर क्यूँ तुमने खुद को दुनिया से छुपा रखा है ? क्यूँ दुनिया के सामने नहीं आते ? तुम्हें देखने और तुम्हें जानने के लिए आज तुम्हारे पाठक कितना बेचैन हैं ये तुम सोच भी नहीं सकते. फिर ऐसा कौन सा कारण है जो तुम खुद को सारे ज़माने से छुपा कर रखते हो और एक गुमनामी की ज़िन्दगी जीते हो ?.

इतना कहकर हर्षवर्धन खामोश हो गए और माधव की तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे. माधव बेचैनी से पहलू बदलने लगा मगर कुछ कह नहीं पा रहा था. उसके चेहरे पर छाई उदासी की महीन सी रेखा उसके दिल में उबलते ख्यालों को छुपा पाने में असमर्थ हो रही थी. ना तो वो कुछ कह पा रहा था और ना ही चुप रहकर हर्षवर्धन की बात का मान घटाना चाहता था क्योंकि उसके दिल में अब हर्षवर्धन के लिए एक खास स्थान बन चुका था.

बड़ी मुश्किल से अपने जज्बातों को काबू करके माधव ने बोलना शुरू किया.माधव ने कहा, " सर आपकी जगह कोई और होता तो शायद मैं इस बात का कभी जवाब ना देता मगर आज आप से कहकर शायद मैं अपने दिल पर बरसों से रखा गम का भार कुछ हल्का कर सकूँ ".

कुछ देर रुककर माधव ने कहना शुरू किया, " सर, मैं पहले ऐसा नहीं था. मेरा भी एक हँसता मुस्कुराता परिवार था. मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान था. बेहद लाड- प्यार से पला हुआ. हम अपनी ज़िन्दगी में बेहद खुश थे. जैसे एक मध्यमवर्गीय परिवार की ज़िन्दगी होती है वैसी ही मेरी भी ज़िन्दगी थी. कोई गम नहीं था ज़िन्दगी में. हमेशा मस्ती करना और हंसमुख मिजाज़ इन्सान था मैं. कॉलेज के दिन याद आते हैं जब मैं उमंगों से भरा कॉलेज जाया करता था, आर्ट्स का स्टुडेंट था क्योंकि मेरी साहित्य में रूचि थी और हिंदी मेरा प्रिय विषय. इसलिए पढ़ाई की कोई टेंशन तो थी नहीं और शुरू- शुरू में वैसे भी मस्ती ही मस्ती होती है. मैं भी बेफिक्र सा मौज- मस्ती करता कॉलेज जाया करता था.

मैं अपनी शायरी के लिए सारे कॉलेज में मशहूर था और किसी भी कार्यक्रम में जब तक मेरा नाम ना होता तो वो कार्यक्रम अधूरा ही माना जाता था. एक दिन जब मैं ऐसा ही एक कार्यक्रम पेश करके बाहर निकला तो एक आवाज़ ने मुझे चौंका दिया. शहद सी मीठी, कोयल सी कुहुकती एक आवाज़ ने जब मेरा नाम लेकर आवाज़ दी तो मैं ठिठक कर रुक गया. पीछे मुड़कर देखा तो एक लड़की मुझे बुला रही है. मैंने सोचा शायद वो भी मेरी कोई फैन है क्यूँकि कॉलेज की लड़कियों में मैं काफी मशहूर था. उसके पास गया तो पूछा कि क्या बात है तो उसने कहा, " मैं शैफाली हूँ और इस कॉलेज में नयी -नयी आई हूँ इसलिए ज्यादा तो कुछ नहीं जानती मगर आपसे एक बात कहती हूँ कि आप जो शायरी करते हैं यूँ तो उसमे कोई कमी नहीं है मगर फिर भी इस तरफ कभी गंभीरता से ध्यान देना कि तुम्हारी शायरी सिर्फ रोमांटिक पहलू पर ही केन्द्रित है. अपनी शायरी में यदि तुम विविधता लाओ और साथ ही गहराई भी तो तुम एक उत्कृष्ट शायर बन सकते हो जिसका नाम सारे देश में उज्जवल होगा क्योंकि तुम में वो बात तो है जो तुम्हारी शायरी को एक नयी दिशा दे सकती है. तुम कोशिश करना और कभी सोचना इस तरफ और अगर बुरा लगे तो माफ़ी चाहती हूँ मगर मेरे ख्याल से अब तक तुम्हें सिर्फ तुम्हारे प्रशंसक ही मिले होंगे. कोई मेरे जैसा आलोचक और सही मार्गदर्शन करने वाला नहीं मिला होगा. तुम अपनी प्रतिभा को सही दिशा दोगे तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी. इतना कहकर शैफाली मुझे स्तब्ध खड़ा छोड़कर चली गयी और मैं काफी देर बुत -सा ठगा खड़ा रहा............

वो तो दोस्तों ने जब मुझे काफी देर तक दूर खड़ा देखा तो आकर पूछा, "कौन थी वो जो उसके ख्यालों में पहली ही मुलाकात में डूब गया " क्यूँकि उन सब को पता था कि मेरी कोई गर्ल फ्रेंड नहीं है और किसी भी लड़की से आज तक मैंने कभी इतनी देर बात नही की थी तो उनके लिए तो ये एक नयी बात ही थी. उस सारा दिन मेरा मन कॉलेज के किसी भी काम में नहीं लगा. लेक्चरार ने क्या पढाया, यार दोस्तों ने क्या कहा मुझे कुछ याद नहीं. मैं तो सारा दिन एक ही सोच में डूबा था कि वो थी कौन जिसने इतनी आत्मीयता से मुझे समझाया जैसे कोई अपना किसी अपने के लिए चिंतित होता है. घर आकर भी मैं इसी उधेड़बुन में लगा रहा और अगले दिन का इंतज़ार करने लगा. सारी रात एक बेचैनी सी छाई रही. रात कटने का नाम ही नहीं ले रही थी. यूँ लग रहा था जैसे आज की रात मेरी ज़िन्दगी की सबसे लम्बी रात हो.

अगले दिन वक़्त से काफी पहले ही मैं घर से कॉलेज के लिए निकल पड़ा और कॉलेज के गेट के पास एक पेड़ की ओट में इस तरह खड़ा हो गया कि मैं तो सबको देख सकूँ मगर कोई मुझे ना देख सके. आज मुझे शैफाली का इंतज़ार था इसलिए हर आने वाले स्टुडेंट में मैं शैफाली को ढूँढ रहा था. खड़े खड़े काफी वक्त निकल गया यहाँ तक कि मेरी एक क्लास भी मिस हो गयी.यार दोस्त मुझे ढूंढते फिर रहे थे और मैं किसी और को.

थक- हार कर जैसे ही जाने को हुआ तभी देखा एक चमचमाती कार कॉलेज के गेट के पास अगर रुकी और उसमे से शैफाली उतरी. उसे देखते ही मेरे तो जैसे पंखों को परवाज़ मिल गयी हो. मैं लगभग दौड़ता सा उसकी तरफ लपका और उसके सामने जाकर खड़ा हो गया मगर अब ख़ामोशी ने आकर मेरा रास्ता रोक लिया. जुबान तालू से चिपक गयी. समझ नहीं आ रहा था कि कल से तो उससे मिलने को इतना बेताब था और आज जब वो सामने है तो कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. मुझे इस तरह चुप देख शेफाली ने ही 'हेलो' कहा और मेरा हाल पूछा तो मुझे भी शब्द मिल गए और मैं कह उठा,

बीमार कर के जो चले गए बज़्म से

आज पूछ रहे हैं बीमार का हाल कैसा है

अब मैं अपने चिर -परिचित अंदाज़ में वापस आ गया था. इतना सुन शैफाली ने हँसते हुए कहा -----क्या हुआ है जो मुझ पर इतना संगीन इलज़ाम लगाया जा रहा है. तब मैंने कहा," शैफाली जी, कल से जब से आपने जो बातें कहीं तभी से आपके ही बारे में सोच रहा हूँ कि आपको इतना सूक्ष्म ज्ञान कैसे है. जो बात आज तक किसी ने नहीं कही वो आपने निसंकोच पहली ही बार में कह दी तो मुझे लगता है कि आप मेरी सबसे बड़ी शुभचिंतक हैं. आप मेरी मार्गदर्शिका बन जाइये और जब भी मैं कुछ भी नया लिखूँगा तो आपको जरूर दिखाऊँगा और आप उसमें जो भी कमी हो बताइयेगा ताकि मैं अपने स्तर में सुधार कर सकूँ ".

मेरे इतना कहते ही शैफाली जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी और मैं सकपका गया कि कहीं मैंने अपने पागलपन में कुछ गलत तो नहीं कह दिया इतने में वो बोली," अरे माधव जी, मैं कोई बहुत बड़ी चिन्तक या विश्लेषक या आलोचक नहीं हूँ मैंने तो सिर्फ साधारण रूप में ये बात कही थी क्योंकि कहीं ना कहीं मुझे लगा कि तुम में वो बात है जो तुम्हें बुलंदी पर ले जा सकती है. बाकी मेरे बारे में कोई ग़लतफ़हमी मत पालो ".

इतना कहकर वो अपनी क्लास में चली गयी और एक बार मुझे सोचने के लिए अकेला छोड़कर. अब धीरे -धीरे मुझमे सच में बदलाव आने लगा था. जिस शायरी को मैंने कभी गंभीरता से नहीं लिया था उसे अब मैंने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था. मैं अपनी शायरी अब और डूबकर लिखने लगा था. जैसा कि शैफाली ने कहा था. अब उसमे देश, समाज, व्यवहार सब शामिल होता मगर तब भी कभी शैफाली ने मेरी तारीफ नहीं की बल्कि हर रचना में कोई ना कोई कमी निकाल ही देती और मैं हर रचना को और स्तरीय बनाने के लिए पुरजोर मेहनत करने लगा यहाँ तक कि अब मुझमे अब वो पहले जैसी चंचलता भी कम हो गयी थी और गंभीरता अपना राज़ करने लगी थी.

मैं और शैफाली दोनों को एक- दूसरे की जब जरूरत होती मिलने लगे थे मगर सिर्फ लेखन से सम्बंधित बातें ही हमारे तक सीमित थीं. मगर कॉलेज और यार दोस्तों में हमारे प्यार के चर्चे सिर उठाने लगे. सभी तरह तरह के कयास लगाने लगे और जब मुझे और शैफाली को इस बात का पता चला तो दोनों बहुत जोर से हँसे. हम दोनों तो कभी ऐसा सोच भी नहीं सकते थे.हमें तो समझ ही नहीं आया कि कैसे सबको सच बताएं क्योंकि कॉलेज में तो जरा किसी से हँस कर बोले नहीं कि ' मामला फिट है' वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है और यहाँ तो हम दोनों ही जब देखो तब एक दूसरे के साथ ज्यादातर वक्त बिताने लगे थे इसलिए किसी का मूँह कैसे बंद किया जा सकता था और अगर हम कुछ कहते भी तो किसी ने उस बात को मानना नहीं था जबकि हम दोनों के बीच ऐसा कुछ नहीं था मगर फिर भी कुछ कर नहीं पा रहे थे. इसी बीच शैफाली की क्लास से एक सेमिनार १५ दिनों के इए शिमला जा रहा था और वो भी वहाँ जा रही थी. ये एक साधारण बात थी तो मैंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया मगर जब शैफाली चली गयी तो मेरा मन उदास रहने लगा. मुझे कुछ भी अच्छा ना लगता. एक बेचैनी -सी हर जगह छाई रहती. मैं खोया- खोया सा रहने लगा. सारा कॉलेज उसके बिना सूना -सूना सा लगने लगा. चारों तरफ वीराना नज़र आता. किसी से बात करने का दिल न करता. दोस्त कुछ कहते तो उन पर भड़क जाता.............उनकी छोटी से छोटी बात भी मुझे चुभने लगी थी. मैं परेशान हो गया कि ये मुझे क्या हो रहा है इसलिए घर जल्दी चला जाता मगर चैन तो कहीं नहीं आ रहा था हर जगह मुझे उदास, खामोश, वीरान नज़र आती. एक अजीब सी जद्दोजहद से गुजर रहा था और इस हाल में एक दिन मैंने फिर लिखना शुरू किया ताकि अपने को कुछ बिजी रख सकूँ.

अब हर शेर, हर ग़ज़ल में सिर्फ दर्द ही दर्द, विरह और प्रेम के रंग भरे थे. रात दिन खुद को सिर्फ और सिर्फ लेखन में ही डुबा दिया ताकि कुछ पल चैन से जी सकूँ वरना तो हर प़ल काट खाने को आता था.

१५ दिन कैसे बीते ये तो सिर्फ मैं ही जानता था मगर अगले दिन शैफाली आ गयी होगी मुझसे मिलेगी आते ही,इसी उत्साह में रात कैसे कट गयी पता ही नहीं चला. इन्सान का मन भी कैसा होता है कभी तो इंतज़ार का क्षण- क्षण उसे युगों से बड़ा लगता है और कभी एक युग भी एक क्षण सा प्रतीत होता है. सब वक़्त का ही तो खेल है. कुछ ऐसा ही हाल मेरे मन का था.

अगले दिन शैफाली से मिलने के लिए मैं जल्दी से जल्दी पंख लगाकर उड़कर कॉलेज पहुंचना चाहता था. मैं जल्दी से उसी जगह पहुच गया जहाँ हम मिला करते थे मगर वहाँ शैफाली नहीं थी तो मैं उसे उसकी क्लास में ढूँढने गया तो पता चला कि वो नहीं आई है. उसकी शिमला में तबियत ख़राब हो गयी थी इसलिए कुछ दिन बाद आएगी.

आज मुझे अफ़सोस हो रहा था कि इतने दिन हो गए हमें मिलते मगर कभी भी हम दोनों ने एक -दूसरे के घर -परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं ली. मैं तो आज तक जानता ही नहीं था कि उसका घर कहाँ है. अब इंतज़ार करने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था. मैं क्यूँकि लड़कियों से ज्यादा बात नहीं करता था तो उसकी सहेलियों से भी इस बारे में नही पूछ सकता था कि ना जाने कोई उसका क्या मतलब निकाले.

अब हर दिन उसके इंतज़ार में बीतने लगा और मेरी बेचैनी भी बढ़ने लगी. यार दोस्त मुझसे बात करना चाहते मेरा दिल बहलाना चाहते मगर मेरे तो होशोहवास पर मेरा ही काबू ना था.

एक दिन मेरे एक दोस्त राकेश ने कहा,"माधव तू मान न मान लेकिन ये सच है मेरे यार, तुझे शैफाली से प्यार हो गया है. ये बेचैनी, उसके बिना कुछ भी अच्छा ना लगना, दोस्तों से भी बात ना करना,हर वक्त कहीं खोया खोया रहना --------ऐसा तभी होता है जब किसी को किसी से प्यार हो जाता है. तू हर वक़्त उसी का इंतज़ार करता रहता है. उसके नाम लेने पर तेरे चेहरे पर मुस्कान खिल जाती है जैसे लाखों गुलाब एक साथ एक ही बार में खिल गए हों और उसके बगैर तू ऐसा रहता है जैसे किसी ने तेरा सब कुछ छीन लिया हो, अब तू ही बता ये प्यार नहीं है तो और क्या है.अब मान भी जा इस बात को नहीं तो अपने दिल से पूछ कर देख ------क्यों तू ऐसा हो गया. क्या पहले तू ऐसा था. हर दम ज़िन्दगी से भरपूर खुद भी खुश रहता और दूसरों को भी हँसाता रहता था मगर अब देख अपने आप को. कोई भी तुझे जानने वाला पहली ही नज़र में बता देगा कि तुझमे बदलाव आ गया है और ये बदलाव तो सुखद है. अगर तुझे महसूस होता हैकि मैं सही कह रहा हूँ तो इस बारे में सोचना और अपने प्यार का इज़हार कर ताकि हमें हमारा वो ही पुराना दोस्त वापस मिल जाए".

इतना कहकर राकेश तो चला गया मगर अपने पीछे सौ सवाल छोड़ गया.

आज मैं सोचने को मजबूर हो गया था कि कहीं राकेश सही तो नहीं कहा रहा था. कहीं ये सारे लक्षण प्यार के तो नहीं. क्या सचमुच मुझे प्यार हो गया है जो मैं शैफाली के बिना रह नहीं पाता हूँ. उसके साथ के बिना अधूरा महसूस करना, शायद यही प्यार है.

अब मैं शैफाली के आने का इंतज़ार करने लगा. करीब एक हफ्ते बाद शैफाली कॉलेज आई तो उसे देखकर यूं लगा जैसे ना जाने कितने सालों से बीमार रही हो. मैं तो उसे देखकर स्तब्ध रह गया. परन्तु शैफाली उसी जोशो- खरोश से मिली जैसे हमेशा से मिलती थी. मैंने पूछा कि क्या हुआ था तो हँसकर बोली,"तुम्हारी शायरी सुनी नहीं थी ना इसलिए दिल बीमार हो गया था मगर अब आ गयी हूँ और तुम भी मौजूद हो तो देखना दो ही दिन में ठीक हो जायेगा". मुझे उसकी बातों ने आश्वस्त नहीं किया मगर मैं उसे परेशान भी नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा.

तभी शैफाली बोली,"अच्छा बताओ,इतने दिन मेरे बिना कैसे बिताये ? क्या मेरी याद आई ?क्या मेरी याद में कोई नज़्म लिखी या सोचा अच्छा हुआ मैडम चली गयी चलो कुछ दिन तो स्कूल की छुट्टी हुई". कितनी सहजता से शैफाली कहे जा रही थी और मैं उसे सिर्फ सुने जा रहा था. इस पल के लिए ही तो इतने दिन से तड़प रहा था और दिल चाह रहा था कि वो कहती रहे और मैं सुनता रहूँ बस और वक़्त यहीं रुक जाये. "अरे, कहाँ खो गए माधव, तुम्ही ही से तो बात कर रही हूँ" जब शैफाली ने ये कहकर मुझे हिलाया तो अहसास हुआ कि मैं कहाँ हूँ. उस दिन मैंने ज्यादा बात नहीं की और कोशिश करता रहा की मेरी किसी बात से शैफाली को बुरा ना लगे.

अगले दिन मैं कुछ नोर्मल हुआ तो मैंने शैफाली के कहने पर उसे इतने दिन क्या -क्या किया सब बताया और जो -जो लिखा था सब उसे दिखाया. आज मेरा लिखा पढने के बाद शैफाली की आँखों में आँसू भर आये. एक उदासी उसके चेहरे पर छा गयी और वो बुत बनी बैठी रह गयी. उसे इस हाल में देखकर मैं परशान हो गया.,मुझे लगा कि शायद कुछ गलत लिख दिया मैंने जो वो इतना दुखी हो गयी है. मैंने उसे कहा, " शैफाली तुम परेशान मत होना अगर ख़राब लिखा है या पसंद नहीं आया तो कह दो, तुम्हें पता है मुझे तुम्हारा कुछ भी कहना बुरा नहीं लगता ". इस पर वो बोली, " अरे माधव वो बात नहीं है. आज मैं कह सकती हूँ कि अब तुम्हारी लेखनी में वो जादू आ गया है जिसकी मुझे तलाश थी. आज तुम्हारे लेखन में कहीं कोई कमी नहीं रही. सच यही तो चाहती थी मैं. अब तुम्हें आसमान छूने से कोई नहीं रोक सकता". मेरे लिए तो ये सब अप्रत्याशित था.

शैफाली ने पूछा, " अच्छा बताओ ये सब कैसे हुआ. १५ दिन में ही इतना सब कैसे बदल गया. कौन सा ऐसा चमत्कार हुआ कि तुम्हारे लेखन में इतनी उत्कृष्टता आ गयी "?

तब मैंने कहा ---------------" ये सब तुम्हारे ही कारण हुआ और उसे इतने दिन में क्या क्या महसूस किया सब बता दिया साथ ही उससे अपने प्यार का इज़हार कर दिया कि शैफाली ये सब तुम्हारे प्यार ने ही करवाया है. मुझे नहीं पता था कि प्यार में इतनी शक्ति होती है जो एक आम इंसान को खास बना देता है ".

मेरे इतना कहते ही शैफाली ने अचानक जोर से अपना हाथ खींचा और उठ खडी हुई और बोली," माधव ये तुम क्या कह रहे हो ? मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा. तुम और मैं तो सिर्फ अच्छे दोस्त हैं. तुमने ऐसा कैसे सोच लिया ".

तब मैंने कहा, "मुझे भी नहीं पता था कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है. ये तो राकेश ने मुझे इसका अहसास करवाया. अच्छा बताओ, बिलकुल सच -सच बताना, कि क्या तुम्हें मैं कभी याद नहीं आया इतने दिनों में. क्या तुम्हारा वहाँ मन लगा मेरे बिना. क्या तुम मुझसे मिलने के लिए बेचैन नहीं थीं ".

इन बातों का तो शायद शैफाली के पास भी कोई जवाब नहीं था. वो मुझे बिना कुछ कहे चुप चाप वहाँ से चली गयी और मैंने भी उसे नहीं रोका ताकि वो भी इस अहसास को महसूस कर सके..........कुछ देर इसमें भीग सके और फिर कोई फैसला करे. हाल बेशक दोनों तरफ एक जैसा था मगर वो अभी इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी. कई दिन शैफाली मुझसे बचती रही. सामने आने पर कोई ना कोई काम का बहाना बनाकर चली जाती.और मैं उसका इंतज़ार कर रह था कि कब वो मेरे प्रेम को स्वीकारती है और अपने प्रेम का इज़हार करती है.

इसी बीच मैं घर से सीढियां उतरते समय गिर पड़ा और पैर की हड्डी तुडवा बैठा. अब तो उससे मिलना नामुमकिन हो गया. ना जाने अभी कितनी ही बातें अधूरी थीं मगर सब अधूरी ही रह गयीं. मगर एक दिन अचानक कॉलेज के सारे दोस्त मेरा हाल पूछने मेरे घर आ गए उनके साथ शैफाली भी थी. उस दिन तो वो सबके साथ जैसी आई थी वैसी ही चली गयी थी मगर उसके २ दिन बाद वो फिर आई और आते ही जब हम कमरे में अकेले थे, माँ चाय बनाने गयी हुई थी इसी बीच बोली, " माधव तुम जल्दी से ठीक हो जाओ. अब मेरी समझ में आ गया है कि तुम सही कह रहे थे. शायद हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं. अब तुम्हारे बिना कॉलेज जाने का मन नहीं करता.हर तरफ तुम ही दिखाई देते हो. हमारी दोस्ती कब प्यार में बदल गयी ना तुम्हें पता चला ना मुझे मगर अब जब अहसास हो गया है तो स्वीकारोक्ति में देर क्यूँ करें".

मुझे तो यूँ लगा जैसे मेरी टांग पहले क्यूँ नहीं टूटी कम से कम ये ख़ुशी पहले नसीब हो जाती. अब तो ज़िन्दगी एक अलग ही राह पर बह निकली थी. अब हर दिन एक नया दिन बन कर आता. जैसे खुदा ने सारे जहाँ की खुशियाँ समेट कर मेरे दामन में डाल दी हों.मेरे पैर तो जैसे किसी ने फूलों की मखमली चादर पर रख दिए हों और वक़्त अपनी रफ़्तार से उडा जा रहा हो.मेरे माता पिता तो उसी में खुश थे जिसमे मेरी ख़ुशी थी मगर मैं अभी तक ना शैफाली के घर जा सका था और ना ही उसके पिता से मिल पाया था. ना ही कभी शैफाली ने चाहा कि मैं उनसे मिलूँ. कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था. उसकी माँ नहीं थी और वो भी अपने पिता की इकलौती संतान थी. दिन सपनो की तरह रोज नए रंग के साथ गुजर रहे थे और हम आसमान की रंगीनियों में विचरण कर रहे थे बिना सोचे कि वक्त जितना इन्सान पर मेहरबान होता है उतना ही बेरहम भी होता है...........कब अपनी दी हर सौगात एक ही झटके में छीन लेता है पता भी नहीं चलता और उस पल इंसान बेबस, खाली हाथ सिर्फ वक़्त को कोसता रह जाता है.

जैसे किसी को एक ही दिन में अचानक सारे जहाँ की दौलत मिल गयी हो और एक ही पल में वो कंगाल हो गया हो ऐसा एक हादसा मेरी ज़िन्दगी को बदलने के लिए काफी था. दुर्भाग्य ने मेरी किस्मत का दरवाज़ा खटखटा दिया था. मेरे माता पिता का एक एक्सिडेंट में देहांत हो गया. मेरी तो सारी दुनिया ही उजड़ गयी. मैं तो जैसे भरे बाज़ार में लुट गया था. एक दम पागल सा हो गया था मैं. इतना गहरा सदमा लगा था मुझे कि मेरा अपने होशो हवास पर काबू ही नहीं रहा. मेरा तो सब कुछ मेरे माँ बाप थे, उनके बिना मैं अधूरा था.मुझे नहीं पता कब और कैसे मेरे माता पिता की अंत्येष्टि हुई. कितने महीने, साल मेरी ज़िन्दगी के शून्य में खो गए मुझे नहीं पता. जब ८ साल बाद होश आया तो खुद को सड़क पर भटकता पाया. मैं एक भिखारी के रूप में दर- दर भटक रह था.दो लोगों के झगडे की चपेट में आने से एक डंडा मेरे सिर पर ऐसा पड़ा कि जो मैं भूल गया चुका था वो सब याद आ गया और मैं अपने घर की और चीखते -चिल्लाते हुए दौड़ा. मेरे पीछे -पीछे एक भिखारी दोस्त भी भागा मुझे आवाज़ देते हुए -रूक जाओ भैया, रूक जाओ लेकिन मुझे तो होश ही नहीं था. मुझे तो वो ही याद था कि मेरे माँ बाप इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे उनका अंतिम संस्कार करना है.........

जब मैं अपने घर पहुँचा तो वहाँ तो एक आलिशान कोठी खडी थी और उसमे कोई और रहता था. मैंने कहा ये मेरा घर है मगर वहाँ मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई. आस- पास वालों से बात करने पर पता चला कि मेरे माता- पिता की मृत्यु का गहरा सदमा लगा था मुझे और मैं पागल हो गया था इसलिए मुझे पागलखाने में दाखिल करा दिया गया था. कुछ दिन तो जान- पहचान वाले आते रहे और दोस्त भी, मगर धीरे- धीरे सबने आना बंद कर दिया. ना ही किसी ने घर को देखा और ना ही मुझे. यहाँ तक कि मेरे मकान पर भी असामाजिक तत्वों ने कब्ज़ा कर लिया और फिर उसे ऊँचे दामों पर बेच दिया और जिसने ख़रीदा वो भी वहाँ कोठी बनाकर रहने लगा था. पडोसी तो क्या कर सकते थे.........बदमाशों से सभी डरते हैं इसलिए वो सब भी चुप रहे..........रिश्तेदार सब सुख के ही साथी होते हैं और जिसका कुछ ना रहा हो उस तरफ कौन ध्यान देता है इसलिए सभी ने किनारा कर लिया.

पड़ोसियों ने ही बताया कि एक लड़की आया करती थी. उसी से तुम्हारा हाल- चाल मिला करता था मगर पिछले ३-४ साल से उसका भी कोई पता नही क्योकि आखिरी बार जब वो आई थी तो उसी से पता चला था कि एक दिन तुम पागलखाने से भाग गए थे और वो तुम्हें ढूंढती हुई ही आई थी मगर उसके बाद उसका भी कुछ पता नहीं था.

ये सब सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान ने सारे जहान के दुःख मेरे ही हिस्से में लिख दिए है. मैंने अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश की कि किसी तरह शैफाली का पता चल जाये मगर मुझे उसका पता नहीं मिला. यहाँ तक कि कॉलेज से भी पूछने की कोशिश की तो वहाँ भी किसी ने कोई जानकारी नहीं दी क्यूँकि किसी लड़की के बारे में जानकारी तो वैसे भी मुहैया नहीं कराते जल्दी से.आज अपनी बेवकूफी पर अफ़सोस हो रहा था कि कभी शैफाली के घर क्यूँ नहीं गया, उसका पता क्यूँ नहीं पूछा. फिर भी अपनी तरफ से हर कोशिश के बाद भी मैं हारता ही गया. हर जगह निराशा ही हाथ लगी.

यहाँ तक कि मुझे अफ़सोस होने लगा कि भगवान तू मुझे होश में ही क्यों लाया ? कम से कम बेहोशी में दुनिया के हर गम से दूर तो था मगर इस भरी दुनिया में अपना कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं था. यार- दोस्तों का भी नहीं पता कौन कहाँ चला गया था और वैसे भी उनसे क्या उम्मीद जिन्होंने मुझे किस्मत के भरोसे छोड़ दिया हो. अब तो मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं जिंदा ही क्यूँ हूँ?

मगर इतना सब कुछ होते हुए भी मेरे साथ जो मेरा भिखारी दोस्त था वो मेरे साथ साये की तरह था और हर बार मेरा होंसला बढ़ा रहा था.अब मैंने उससे पूछा,"मैं तुम्हें कैसे मिला "? तब उसने बताया कि जब उन लोगों के झगडे में तुम्हें चोट लगी थी तो सब तुम्हें तड़पता हुआ छोड़ कर चले गए थे और तुम बेतहाशा कराह रहे थे तब मैंने ही तुम्हारी देखभाल की थी और उसी पल से मैं तुम्हारे साथ हूँ. उसका नाम कृष्णा था. मगर मुझे ये नहीं पता चल पाया कि पागलखाने से भाग जाने के बाद मैं कहाँ रहा ? कैसे दिन गुजरे? किसने देखभाल की? इस बारे में मुझे कुछ पता नहीं चल पाया.

अब कृष्णा ने कहा,"अब तुम क्या करोगे भैया "?.............

मैंने कहा, " मुझे तो समझ नहीं आ रहा क्या करूँ, कहाँ जाऊं? मैं आखिर जिंदा ही क्यों हूँ ? अब किसके लिए जियूँ ? कौन है मेरा? मेरा तो सारा संसार ही लुट चुका ". तब कृष्णा ने कहा," अगर आप बुरा ना मानो तो या तो आप ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरू करो या मेरे साथ मेरी झोंपड़ी में रहने चलो". मैंने कहा, " अब किसके लिए नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करूँ ? अब तो जीने की चाह ही नहीं रही ". तब कृष्णा मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपनी झोंपड़ी में ले गया.

झोंपड़ी क्या थी सिर्फ इतनी कि दो लोग मुश्किल से पैर फैला सकते थे. एक नया ही अनुभव था मेरे लिए. जैसा जीवन जीने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था आज वो नारकीय जीवन मेरे सामने था मगर मुझे इस सब की कोई परवाह ना थी. जब इन्सान की जीने की चाह ख़त्म हो जाए तो फिर वो किसी भी हाल में रह लेता है. कृष्णा भीख माँग कर गुजारा करता था. जो भी मिलता उसी से अपना और मेरा पेट भरता था. यहाँ तक कि कभी -कभी वो खुद भूखा सो जाता मगर मेरा पेट जरूर भरता. हाँ,यदि कुछ ना मिलता तो दोनों भूखे पेट ही सो जाते.

कुछ दिन तक सब यूँ ही चलता रहा और अब मैं भी उसका अभ्यस्त हो चला था तब मुझे बहुत ही आत्मग्लानि होने लगी कि मेरी वजह से वो बेचारा इतना दुखी होता है मगर कभी उफ़ नहीं करता. मैं उसका लगता क्या हूँ........कुछ भी नहीं मगर फिर भी उसके चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती. हमेशा हर हाल में मुस्कुराता रहता है. क्या मैं उस पर बोझ बनकर रहूँगा हमेशा...........जब ये अहसास हुआ तो मुझे लगा कि मुझे भी कोई काम करना चाहिए इसलिए मैंने एक दिन उससे कहा कि मुझे भी अपने साथ काम पर लगा दो. घर में खाली बैठा रहता हूँ. उसने काफी मना किया मगर मैं उसके साथ अगले दिन ज़बरदस्ती चला गया मगर मुझसे भीख मांगी ही नहीं गयी क्योंकि ये तो मेरे संस्कारों में ही नहीं था.

मैंने अगले दिन से दूसरी जगहों पर काम करने की कोशिश की मगर मुझे तो कोई काम आता नहीं था इसलिए लाख कोशिशों के बाद भी मुझे काम नहीं मिला.मजदूरी भी करनी चाही मगर कभी इतनी मेहनत की नहीं थी तो शरीर ने साथ नहीं दिया और बीमार पड़ गया..........इसका बोझ भी कृष्ण पर ही पड़ा, इससे तो मैं और बेचैन हो गया. एकतो खुद पहले ही उस पर बोझ था ही अब मेरी बीमारी की वजह से वो और परेशान था.मुझे अपने आप से घृणा होने लगी...........क्या है मेरे जीवन का उद्देश्य...........क्या यही कि दूसरों को दुःख ही देता रहूँ...............अपनी हर मुमकिन कोशिश की मगर कहीं कोई नौकरी भी नहीं मिली क्योंकि हर किसी को कोई ना कोई जमानत चाहिए थी और मेरा तो इस संसार में अपना कहलाने वाला कोई नहीं था इसलिए थक हार कर मैं एक बार फिर उसके साथ जाने लगा. मुझसे भीख तो नहीं मांगी गयी मगर एक कटोरा लेकर खड़ा रहता था. जो भी अपने आप डाल जाता तो ठीक मगर मैं कभी खुद नहीं माँगा करता था.

तभी एकदिन लाल बत्ती पर खडी एक गाडी पर लिखा शेर मैंने पढ़ा तो याद आया कि कभी मैं भी इस फन में माहिर हुआ करता था. तभी एक विचार कौंधा कि क्यों ना अपने उसी हुनर का प्रयोग करूँ और मैंने एक बार फिर से लिखना शुरू कर दिया और भीख से मिले पैसे बचाने लगा ताकि जब पैसे इकठ्ठा हो जाएँ तो अपनी एक किताब छपवाऊं और जितने भी मेरे आस पास के भिखारी दोस्त हैं इनके जीवन में खुशियों का कुछ तो उजाला कर सकूँ. मेरे इस प्रयत्न का जब कृष्णा को पता चला तो वो भी इसमें सहयोग करने लगा और पैसे बचाने लगा. यहाँ तक कि इस चाह में ना जाने कितनी ही रातें वो भूखा सोया होगा.

फिर एक दिन मैं प्रकाशन के लिए सम्पादक के पास अपनी किताब छपवाने के आशय से गया और अपना लिखा उन्हें पढवाया. वैसे तो ये काम इतना आसान नहीं था मगर मेरा लिखा पहला पृष्ठ पढ़ते ही संपादक मेरे लेखन का कायल हो गया और उसने कम से कम पैसों में मेरी पुस्तक छापने और बिक्री का प्रबंध किया. शायद मेरी नेकनीयती की वजह से भगवान को मुझ पर पहली बार दया आ गयी थी तभी मेरा पहला ही संस्करण इतना लोकप्रिय हुआ कि हाथों हाथ बिक गया और उसके बाद मुझे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. बस मैंने इतना किया कि वहाँ भी मैंने अपना परिचय किसी को नहीं दिया क्योंकि अब कोई लालसा बची ही नहीं थी. अपने लिए जीने की चाह तो कब की मिट चुकी थी बस अब तो उन किताबों की बिक्री से प्राप्त पैसे को मैं पूरा का पूरा सिर्फ अपने भिखारी दोस्तों और आस- पास के दूसरे झुग्गी- झोंपड़ी वासियों पर खर्च कर दिया करता था. यहाँ तक कि उस पैसे का एक भी रुपया अपने ऊपर खर्चा नहीं करता था और सिर्फ भीख के पैसे से ही अपना गुजर -बसर करता था क्योंकि मेरे मन में एक विश्वास घर कर गया था कि ये सब उन सबकी दुआओं और भूखे पेट सोकर बचे पैसे की बदौलत ही संभव हो पाया है और वो पैसा मेरे लिए मेरी पूजा का प्रशाद बन चुका था जिसे मैं सबमे बाँटकर बेहद शांत और खुश महसूस करता था............जब किसी चेहरे पर ख़ुशी देखता तो मुझे आत्मिक शांति मिलती..........बस उस पल लगता शायद ईश्वर ने मुझे इन सबकी सेवा के लिए भी बचा कर रखा था...........जो सुख देने में है वो लेने में कहाँ...........ये तब जान पाया था और अब इसे ही मैंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया था.

मेरा संपादक हमेशा चाहता था कि मैं दुनिया के सामने आऊं मगर अब कोई इच्छा बाकी नहीं थी इसलिए चाहता था कि अपने लेखन से कुछ ऐसा कर जाऊं ताकि कुछ लोगों का जीवन बदल जाए.

बस यही मेरी ज़िन्दगी की सारी हकीकत है सर, इतना कहकर माधव चुप हो गया................

अब हर्षमोहन बोले, " चलो, उठो, मेरे साथ चलो. माधव ने पूछा, " कहाँ "? मगर बिना कोई जवाब दिए हर्षमोहन चलते गए और उनके पीछे पीछे माधव को भी जाना पड़ा.

वो उसे अपने साथ लेकर एक आश्रम में गए और उसे एक कमरे में बैठाकर चले गए. माधव सारे रास्ते पूछता रहा मगर हर्षमोहन खामोश बैठे रहे सिर्फ इतना बोले,"आज का दिन तुम कभी नहीं भूलोगे ".

थोड़ी देर में हर्षमोहन आये और बोले, " माधव, तुम परेशान हो रहे होंगे कि ये मैं तुम्हें कहाँ ले आया हूँ. देखो ये एक विकलांग बच्चों का आश्रम है. यहाँ देखो, बच्चों को उनकी विकलांगता का कभी भी अहसास नहीं होने दिया जाता और उन्हें हर तरह से आगे बढ़ने के लिए हर संभव सहायता प्रदान की जाती है. मुझे यहाँ आकर बड़ा सुकून मिलता है. पता है माधव, मैं खुद को भी एक विकलांग महसूस करता हूँ. आज मेरे पास धन- दौलत,प्रसिद्धि सब कुछ है. देखने में हर इन्सान यही कहेगा कि इसे क्या कमी हो सकती है मगर देखो मेरी धन -दौलत सब एक जगह आकर हार गयी और मैं कुछ ना कर सका. चाहे सारी दुनिया की खुशियाँ भी समेट कर अगर एक पलड़े में रख दी जायें तो भी चेहरे की सिर्फ एक मुस्कान के आगे वो सब फीके हैं. अब बताओ, मुझसे ज्यादा विकलांग कौन होगा जो सब कुछ होते हुए भी अपंगों की ज़िन्दगी जीने को बेबस हो गया हो ".

माधव को कुछ समझ नहीं आ रहा था. वो तो सिर्फ उनकी सुने जा रहा था और इस असमंजस में था कि इतना सब कुछ होते हुए भी उनके दिल की ऐसी कौन सी फाँस है जिसने उन्हें या कहो उनकी सोच को विकलांग बना रखा है और वो खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं. फिर उसने पूछा, " ऐसी कौन सी कमी है जो आप अपने को विकलांग महसूस करते हैं ".

तब उन्होंने कहा कि माधव , आज अपनी विकलांगता से मिलवाता हूँ और वो उसे एक कमरे में लेकर गए वहाँ माधव ने देखा कि एक लड़की छोटे- छोटे विकलांग बच्चों की बड़ी तन्मयता से सेवा करने में लगी है मगर पीठ होने की वजह से वो उसे देख नहीं पा रहा था मगर हर्षमोहन ने जैसे ही पुकारा," बिट्टो देखो तो आज मैं क्या लेकर आया हूँ. तुम्हारी सारी ज़िन्दगी की तपस्या का फल आज मैं अपने साथ लाया हूँ. जो तुम स्वप्न में भी नही सोच सकती थीं आज वो हो गया.बस एक बार ज़रा नज़र तो घुमा कर देखो और फिर माधव से बोले,"ये लो मिलो मेरी विकलांगता से जिसके प्यार ने मुझे पंगु बना दिया. जिसके चेहरे की एक मुस्कान के लिए मैं पिछले कितने सालों से एक पल में कितनी मौत मर- मर कर जीता रहा हूँ ".

और जैसे ही लड़की मुड़ी और माधव की तरफ देखा तो माधव की आँखें फटी की फटी रह गयीं. उसके सामने शैफाली खडी थी और शैफाली , वो तो जैसे पत्थर की मूरत सी खडी रह गयी. कुछ बोल ही नहीं पाई. ऐसी अप्रत्याशित घटना थी जिसके बारे में उन तीनो में से किसी ने नहीं सोचा था. तीनो को ही आज संसार की सबसे बड़ी दौलत मिल गयी थी. तीनो को ही उनकी चाहत मिल गयी थी क्योंकि शैफाली ने ज़िन्दगी भर शादी किये बिना विकलांग बच्चों की सेवा करने की ठान ली थी और पिता का घर छोड़कर उसी आश्रम में रहने आ गयी थी और हर्षमोहन के लिए तो ये बात मरने से भी बदतर थी मगर शैफाली के आगे उनकी एक नहीं चली थी और मजबूरन उन्हें उसकी इच्छा के आगे अपना सिर झुकाना पड़ा था मगर वो ऐसे जी रहे थे जैस किसी ने शरीर से आत्मा निकाल ली हो और आज का दिन तो जैसे तीनो की जिंदगियों में एक नयी सुबह का पैगाम लेकर आया था जिसमे तीनो की ज़िन्दगी में एक नयी उर्जा और रौशनी का संचार कर दिया था.

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