Naam me kya rakha hai - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

नाम में क्या रखा है - 3 - अंतिम भाग

नाम में क्या रखा है

(3)

“काश ! ये हमारे जीवन का सच होता निशि.यूँ लगा जैसे किसी ने हमारी कहानी लिख दी हो. तुम्हारी अस्वीकार्यता और मेरी चाहत के बीच एक पुल का निर्माण किया हो. निशि जवाब जरूर देना. सच मैं आगे बढ़ना चाहता हूँ, मेरा एकांत मुझे छीज रहा है, रेशा रेशा एक सवाल बन गुजर रहा है. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ. मेरा हाथ थाम लो निशि कहीं मैं घुट घुट कर ही न मर जाऊँ. बेचैनियों ने जीना मुहाल कर दिया है कभी कभी मन होता है कुछ खाकर ऐसा सो जाऊँ फिर कभी न उठूँ. ओह निशि, समझ नहीं आ रहा ये मुझे क्या हुआ है.”

ख़त पढ़कर सन्न रह गयी मैं. क्या किसी से बात करना इतना बड़ा गुनाह बन जाता है कि वो इस हद तक परेशां हो जाये. मेरे अन्दर कशमकश की मछलियाँ आकार लेने लगीं, बेचैन हो मुझे कचोटने लगीं. आखिर क्यों पुरुष सिर्फ पुरुष ही रहना चाहता है और सिर्फ अपनी ख़ुशी और अपनी चाहत ही पूरी करना चाहता है साम दाम दंड भेद अपनाकर. मैंने कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि जानती थी मेरा जवाब उसे गंवारा नहीं होगा. मेरे अन्दर की स्त्री बेशक सहानुभूति रखती थी उससे लेकिन इश्क विश्क प्रेम व्रेम के चक्करों से कोसों दूर थी.

उसकी ख़ामोशी मुझे झंझोड़ देती थी तो उसका मुखर होना मुझे नागवार गुजरता था वो भी इस हद तक जब मैं अपना पक्ष सामने रख चुकी थी. मैं उसे खोना भी नहीं चाहती थी और पाना भी नहीं चाहती थी. बीच के हिस्से में कहीं रहना चाहती थी. मेरे अन्दर की मछली कुलबुलाती थी, घूँट नहीं भरती थी और प्यास मानो रेगिस्तान में उगे कैक्टस सी मुझे बींध रही थी. जाने क्यों हर शख्स के अन्दर छुपी लालसा पढ़ लेना आता है स्त्री को, कौन से दिव्य दृष्टि उसे मिली होती है मगर नहीं जानती तो सिर्फ इतना कि वो आखिर क्या चाहती है. खोने और पाने के बीच की लक्ष्मण रेखा पर खड़ी मैं पुरुष के अन्दर के पुरुष से लड़ रही थी और मेरे अन्दर की स्त्री को स्वीकार नहीं थी अपनी हार क्योंकि यदि स्वीकार लेती तुम्हारा प्यार तो भटकने की सम्भावना ज्यादा थी. जब ज्यादा खोली जाती है पतंग की डोर तो उसके उलझने का खतरा ज्यादा होता है और अक्सर स्त्री पुरुष संबंधों की परिणति यही होती है एक हद के बाद उतर ही आते हैं सभी अपनी असलियत पर. मैं मर्यादा के भंवर में गोते नहीं लगा रही थी बल्कि मर्यादा को जान बूझकर लपेट रखा था पाँव में क्योंकि यही तो मेरा आखिरी आधार है. शायद खुद को सहेजने के लिए जरूरी भी है वर्ना आसान था मेरे लिए तुम्हारे बढ़ाये हाथ को पकड़ना और साथ साथ चलना.

तुम्हारे फ़ोन आने बंद हो गए, मेल भी बंद क्योंकि मैंने भी अब चुप्पी की चादर ओढ़ ली थी. बेवजह क्यों उस ओर कदम बढाऊँ जिस पर जाना ही नहीं और तुम्हारे अन्दर चाहत के बीज रोपित करूँ जो बेवजह आकार लें. तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ना ही उचित विकल्प था मेरे लिए और शायद तुमने भी समझौता कर लिया था तभी अब गाहे बगाहे सिर्फ साहित्यिक गोष्ठियों में ही मिल पाते थे और उसमे भी आँख बचाकर निकलने लगे हम दोनों ही. शायद वक्त को वक्त दिया जाए तो संभाल ही लेता है सब कुछ.

एक नीम बेहोशी में खोयी मैं नहीं ढलकाना चाहती थी आँचल जिसका सिला मुझे नहीं पता था कि ये मिलेगा कोई इस हद तक आगे बढ़ जाएगा जिसकी कोई हद ही नहीं होगी. तुमने अगली बार के सम्पादकीय में एक चिट्ठी के माध्यम से आखिरी सिरा भी तोड़ दिया :

प्रिय....

नाम में क्या रखा है, तुम कोई भी हो सकती हो. नाहक बदनाम करना मेरी मंशा नहीं.बस तुम में मैंने खुद को पाया है और जीना चाहता था कुछ लम्हात तुम्हारे साथ. जिनकी तुम कभी तलबगार नहीं रहीं और मेरी तलब को कहीं कोई किनारा नहीं मिला. पीड़ा जब गहन हो जाती है तो निराशा में बदल जाती है और निराशा जब गहन हो जाती है अंधकार में तब्दील हो जाती है. आज मेरे जीवन में सिर्फ अँधियारा है. तुम में कुछ रौशनी की किरण देखी थी लेकिन ये मेरी बदनसीबी है कि चाहकर भी उस उजाले की तरफ रुख नहीं कर सकता. जीवन जीने को कोई मकसद तो होना चाहिए कहा था न तुमसे एक बार और तुम मेरा मकसद भी नहीं बन सकीं. चलो खुश रहो तुम अपने जहान में बंजारों के कभी घर नहीं होते....... दुआ है कभी मेरी तरह तनहा न हो उम्र दराज हो तुम्हारी......नि....

तुम्हारा कोई नहीं

क्योंकि नाम में क्या रखा है

उफ़.......ये आखिरी शब्द......नि.... कितने भारी पड़े मुझे तुम समझ ही नहीं सकते. ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं और ऐसा ही मेरे साथ हुआ जब ये सम्पादकीय जिस जिस ने पढ़ा कयासों की अमरबेल सिरे चढ़ती गयी. सब ढूँढने निकल पड़े उस बेमुरव्वत को जिसके कारण तुम्हें ये कदम उठाना पड़ा. बेशक मूर्तियाँ नहीं बोला करतीं मगर कयासों की जमीन इतनी पुख्ता होती है जो ताड़ने वाले की नज़र से बच नहीं पाती सिर्फ एक पल में मेरी दुनिया उजड़ गयी. मेरी सारी ख्याति धराशायी हो मुझे मुंह चिढाने लगी और मैं हैरानी के सिरे पर बैठी सोच में पड़ गयी आखिर मैं गलत कहाँ थी ? क्या किसी को सही राह दिखाना उससे थोड़ी सहानुभूति रखना गुनाह है ? क्या मैंने इतना बड़ा गुनाह कर दिया जो मुझे ये दर्द मिला .

ये पता करना इतना मुश्किल भी न था कि वो कौन हो सकती है ? सुबह से लगातार बजती फ़ोनों की घंटी ने मेरा सारा चैन छीन लिया. फ़ोन उठाते हुए भी डरने लगी. बेवजह की बदनामी ने ऐसा कत्लो गारत किया कि अब आइना देखते भी डरती हूँ. उस गुनाह की लकीरें ही नज़र आती हैं जो मैंने नहीं किया. स्त्री और पुरुष का संबध कभी स्वस्थ नहीं हो सकता तुमने इसे साबित कर दिया ये कदम उठाकर वर्ना क्या जरूरत थी तुम्हें इस तरह लिखने की. दोस्ती से बढ़कर कोई नेमत नहीं होती. एक सच्चा दोस्त मिल जाये ज़िन्दगी आसान हो जाती है मगर मैं तो अब वहां खड़ी थी जहाँ कोई राह ही नहीं बची थी तो सफाई किसे देती और कैसे ? मेरी ‘ ना ‘ का कोई अर्थ नहीं रह गया था, टीवी चैनल हों या अख़बार सिर्फ एक खबर का बाज़ार गरम था जिसमे मेरी तरफ से बेशक कोई पुष्टि नहीं की गयी थी मगर अंदाजों और कयासों ने मेरी ख्याति जरूर धूमिल कर दी थी, मेरा खंडन मानो कयासों के पाँव तले कुचला पड़ा कराहने को मजबूर था...

एक अंतहीन रिश्ता जिसे कोई खूबसूरत मोड़ देकर भी नहीं छोड़ा जा सकता था आज उस मुकाम पर पहुँच गया था जहाँ न जमीन थी मेरे पाँव के नीचे और न ही सिर पर आसमां. धूल - धूसरित प्रतिष्ठा से आतंकित मेरे चेहरे पर पुती थी तुम्हारे शब्दों की कालिख.क्या यही चाहा था तुमने प्रणय ? क्या बता सकते हो मेरा कोई अंत ? तुम तो मुक्त हो गए मगर मैं जिंदा चिनी हूँ ज़िन्दगी की दीवार में वो भी एक जन्म नहीं युगों युगों के लिए क्योंकि ये कालिख इतिहास में दर्ज हो चुकी है जिसे अब कोई स्याही मिटा नहीं सकती.

तुम तो मुक्त हो गए और मैं अब रोज कटूँगी, रोज छिलूंगी और रोज मरूंगी तुम्हारी बनायीं चिता पर जो तुम मेरे लिए बनाकर गए हो ? क्या मैं इस सबके लायक थी ? किसी को बेमौत मारना शायद इसी को कहते हैं. आखिर तुम भी सिर्फ पुरुष ही रहे.वासना के पुजारी, रूप के भँवरे जिसने जीते जी मुझे मौत की खाई में लटका दिया.

तुम कमजोर थे प्रणय ज़िन्दगी से लड़ना और ज़िन्दगी को कैसे जीना चाहिए ये जानते हुए भी अनजान बने रहे फिर चाहे अपने सम्पादकीयों में कितनी ही ओजस्वी शब्दों की गरिमा बिखेरते रहे मगर अन्दर से तुम कितने कमजोर थे ये तो मैं सोच भी नहीं सकती थी और अपनी कमजोरी को ढांपना एक मर्द अच्छी तरह जानता है. उसे पता होता है कैसे स्त्री को दोषारोपण का शिकार बना खुद को पाक साफ़ दिखाया जा सकता है और आखिर तुमने भी खुद को सच्चा और मुझे झूठा साबित करने को वो ही अंतिम हथियार अपनाया जिसने मुझसे मेरी सारी गरिमा छीन ली. मुझे भरे समाज में निर्वस्त्र कर दिया. बेशक सामने कहने की किसी की इतनी हिम्मत न हो मगर सुगबुगाहटें मेरे कानो तक भी पहुँचती हैं, ये टीवी चैनल ये अख़बार ये फ़ोन की घंटियाँ गवाह हैं इस बात की मैं निर्दोष होते हुए भी दोषी करार दी गयी और अब उम्रकैद की सजा तजवीज हुई है मुझे... तुम्हारी कायरता का दंड भरूँगी सिर्फ मैं.

“क्या ये अंत किसी को दिशा दे सकता है” प्रणय शायद तुम सोच भी नहीं सकते क्योंकि हर ज़िन्दगी एक कहानी ही तो है.

आज मुझे नफरत हो गयी है मर्द जात से प्रणय सिर्फ तुम्हारी वजह से. शायद अब कभी किसी पर विश्वास न कर सकूं. खबरें तो खबरें होती हैं जब कुछ नहीं मिलता तो चटकारा लगाने को स्त्री का तड़का लगा दिया जाता है ताकि स्वाद बरकरार रहे फिर चाहे उस वजह से एक स्त्री उम्र भर के लिए दोजख की आग में जलती रहे जिसने मेरी ज़िन्दगी की हर सुबह को काला कर दिया जब एक दिन सुबह के अख़बार में ये खबर मिली :

अख़बार की सुर्ख़ियों में ‘अपना चेहरा और तुम्हारे नाम’ का मुझसे जुड़ना मेरी रही सही अस्मिता की धज्जियाँ उड़ा मुझ पर हँस रहा था.

“शब्दबोध के संपादक प्रणय ने आत्महत्या कर ली........ किसी बेनामी..नि.. के लिए !!!”

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