होने से न होने तक
51.
‘‘कालेज से तुम्हारे अलावा कोई गया या नहीं?’’
‘‘हॉ कुछ लोग गये थे। आफिस से कुछ लोग क्रिमेशन ग्राउण्ड भी गए थे। शाम को भी कुछ टीचर्स पहुची थीं। रोहिणी दी और मिसेज़ दीक्षित परसों से वहीं थीं। प्रैसैन्ट स्टाफ से भी कुछ लोग गये थे। कुछ नयी आयी टीचर्स भी।’’
दमयन्ती अरोरा के चेहरे पर एक सुकून जैसा कुछ थोड़ी देर के लिए ठहर गया था। फिर उन्होंने थकी सी लंबी सॉस ली थी,‘‘मैं कैसे जाती अम्बिका?’’उन्होने अजब ढंग से अटपटाते हुए कही थी यह बात। मुझे लगा था वह अपने न जा पाने के कारण बताऐंगी...अपनी मजबूरी...दीपा दी के घर वालों का सामना न कर पाने की अपनी शर्म। पर वह तो जैसे अपनी अधूरी बात कह कर एकदम चुप हो गयी थीं। जैसे कुछ बताना चाह कर भी कह न पा रही हों। हम दोनों ही कुछ देर के लिए चुप रहे थे।
‘‘परसों से दीपा दी का चेहरा मेरी आखों के सामने से नही हट रहा।’’उनकी आवाज़ भर्राने लगी थी। वे धीरे से अर्थ भरा मुस्कुरायी थीं, ‘‘मैंने जब कालेज ज्वायन किया था तब एकदम यंग थीं दीपा दी। बहुत सुंदर लगती थीं-गुड़िया जैसी। डैडीकेटड टीचर-पैशनेट अबाउट हर टीचिंग एण्ड पैशनेट अबाउट द कालेज। अपने काम के लिए वैसा रोमान्स।’’ वे अपना वाक्य आधा छोड़ कर एकदम चुप हो गयी थीं और काफी देर चुप ही रही थीं जैसे पुरानी यादों मे खो गयी हों, ‘‘शायद इसी लिए शशि अंकल ने डिग्री सैक्शन के खुलने पर प्रिंसिपलशिप के लिए उन्हें चुना था।’’ मेज़ के किनारों पर रखे उनके दोनो हाथ...जैसे सोचते हुए वे मेज़ के किनारों से खेल रही हों। उन्होने मेरी तरफ देखा था, ‘‘पहले तो कालेज की बिल्डिंग छोटी सी ही थी। हम सब एक ही स्टाफ रूम में बैठते थे। हर दिन ही मिलना होता था।’’वे धीमें से हॅसी थीं ‘‘इन फैक्ट एक दिन में कई कई बार मिलना होता। तब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की तरह साईंस और आर्ट्स की दूर दूर फैकल्टीस कहॉ बनी थीं।’’ उन्होने हताशा में अपने सिर को हिलाया था,‘‘पता ही नहीं चला कि हम लोग कब इतनी दूर चले गये।’’ वह जैसे अपने आप से बात कर रही हों। उनकी ऑखां में फिर से ऑसू भरने लगे थे,‘‘कई कई दिन एक दूसरे से मिलना, एक दूसरे को देखना तक नही होता। पता नहीं कैसे हम लोग साईंस वाले और आर्ट्स वालों में बट गये थे...एक ही छत के नीचे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान। पता नही कैसे वे पुरानी नज़दीकियॉ दिल और दिमाग से धुल पुछ गयी थीं।’’ उनके स्वर मे एक निशब्द विलाप है,एक पश्चाताप।
मैंने एक बार चौंक कर दमयन्ती अरोरा की तरफ देखा था। यह वही डाक्टर अरोरा हैं जो कुछ साल पहले दीपा दी की इस कुर्सी को पाने के लिए कुछ भी कर सकती थीं-सही ग़लत के सारे व्यवधान तोड़ कर कुछ भी कर रही थीं। मैं चुप रही थी हालॉकि मेरे मन में बहुत सारे सवाल थे-बहुत सारी शिकायतें, दीपा दी के निधन के बाद से नए सिरे से फिर से जन्मा बहुत सारा क्रोध। मन आया था कि पूछू दमयन्ती अरोरा से कि सारे रिश्ते भूल कर अपने स्वार्थ में इतना नीचे कैसे गिर सकीं आप? मन आया था कि यह भी पूछूॅ कि दीपा दी को तो दो साल में रिटायर होना ही था फिर उन्हें इतनी हड़बड़ी क्यों हो गयी थी कि छल प्रपंच किसी भी रास्ते को अपनाने के लिए तत्पर हो गयीं वे। क्या कुछ समय का भी इंतज़ार नही किया गया उनसे। पर सवाल और शिकायतें तो अपनो से की जाती हैं। इनसे अपने मन की बात कहें या उनके मन की सुनें ऐसा कोई भी तो रिश्ता नहीं? संवाद भी अपनों से हो पाता है हर किसी से नहीं। इसलिए मैं चुप ही रही थी। वे दुखी हैं और समान परिस्थितियों के कारण दुखी हैं केवल इसी से तो वह अपनी नही बन सकतीं।
मैं चुप हूं पर लगा था दमयन्ती अरोरा ने मेरा सवाल सुना था या स्वयं थी वह बात उनके मन में‘‘अम्बिका आज मैं ख़ुद नही समझ पाती कि वे सारे डैवलपमैंन्ट्स क्यों और कैसे हुए। मैं वाईस प्रिंसिपल बनने की बात से बहुत ख़ुश थी पर मैं कब मैनेजमैंन्ट के हाथों में प्ले करने लगी यह मैने सोचा ही नहीं। मैं कब’’ अचानक अपना वाक्य अधूरा छोड़ कर वे मेरी तरफ देखने लगी थीं जैसे माफी मॉग रही हों। अपनी महत्वकॉक्षाओं से मजबूर हो गया इंसान कभी कितना दयनीय भी हो सकता है...अपनी ही निगाहों में गिरा हुआ। कुछ क्षण के लिए मुझे उन पर अजब तरह से तरस आने लगता है। पर अगले ही पल मुझे दीपा दी का अपमान याद आया था। इतना आहत हो कर उनका इस कालेज से जाना याद आया था। उनका अकेलापन याद आया था। बिना किसी से कुछ कहे दीपा दी का यूं एकदम चुपचाप दुनिया से चले जाना याद आया था। लगा था मैं पथराने लगी हूं। अन्जाने ही मेरी निगाहें कमरे की कॉच की दीवार के पार दिखते मैनेजर के कमरे पर ठहर गयी थी। दरवाज़े के बाहर स्टूल पर बैठी मजबूर सी नीरजा।
यह तो एक छोटी सी संस्था है। न जाने कितने राज्यों और राष्ट्रो का इतिहास ऐसे मूल्यहीन समझौतों और स्वार्थी महत्वकॉक्षाओं के आघातों से आहत होता रहा है। अपनी करनी पर किया गया विलाप इतिहास पर पड़ी सिलवटों को मिटा तो नही सकता-फिर उसका मतलब? अपनी रुग्ण आकांक्षाओं से दिग्भ्रमित अशोक का मन कलिंग के युद्ध में विनाश के उस तांडव को देख भले ही वैरागी हुआ हो और भले ही इतिहास ने उसे क्षमा भी किया हो पर जिन्होंने उसकी रुग्ण आकॉक्षाओं के कारण अपनी जान गवांई-वे ? जो बीत गया वह बदला नहीं जा सकता-कोई जीवन दुबारा जीया भी नहीं जा सकता फिर पछताने का मतलब ?
मैं उठ कर खड़ी हो गयी थी,‘‘डाक्टर अरोरा, पंद्रह दिन की छुट्टी चाह रही हूं। आपसे उसी की परमीशन लेने आयी थी। एप्लीकेशन मैं आपको लिख कर दे जाऊॅगी।’’
उन्होंने अजब सी पसीजी ऑखों से मेरी तरफ देखा था, ‘‘थोड़ी देर बैठो अम्बिका।’’ लगा था उनके स्वर में याचना है जैसे कुछ देर के लिए वे मेरा साथ चाह रही हों, जैसे मेरे साथ बैठ कर वह दीपा दी को याद करना चाह रही हों-जैसे अपने मन की पीड़ा मेरे साथ बॉटना चाहती हो वह या मुझे भ्रम हुआ था वैसा। पता नहीं।
मेरे चेहरे पर एक कसाव भरी सूखी सी मुस्कान आ गयी थी,‘‘अब जाना चाह रही हूं। मैंने आज अटैन्डैन्स रजिस्टर पर दस्तख़त कर दिए थे। उसे कटवा कर मेरी आज की भी छुट्टी लगवा दीजिएगा।’’ और मैं कन्धे पर पर्स डाल कर दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी थी।
Sumati Saxena Lal.
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