कर्म पथ पर - 64 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 64




कर्म पथ पर
Chapter 64


श्यामलाल के लिए उनका बंगला वैसे ही हो गया था जैसे कोई वीरान खाली खंडहर हो। आज भी शानो शौकत बढ़ाने वाली सभी वस्तुएं बंगले में मौजूद थीं। कभी ये सभी वस्तुएं उनके अहंकार को पोषित करती थीं। उन्हें एहसास दिलाती थीं कि उनका समाज में एक रुतबा है। पर अब वही वस्तुएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थीं। क्योंकी उन सबके रहते हुए भी उन्हें एक खोखलापन महसूस होता था। उन्हें अपनी इकलौती संतान जय की याद आती थी।
अब उन्हें अपनी अमीरी अपने रुतबे का कोई अभिमान नहीं रह गया था। ना ही इनका उनके जीवन में कोई मूल्य रह गया था। आज अगर कोई उनसे कहता कि वह उनसे उनका सब कुछ लेकर उनका बेटा उनके पास ले आएगा तो वह खुशी खुशी सब कुछ गवांने को तैयार हो जाते।
उनका मन अब किसी चीज़ में नहीं लगता था‌। कोर्ट गए उन्हें एक अर्सा बीत गया था। क्लब जाना उन्होंने छोड़ दिया था।‌ क्लब में मिलने वाले लोग उनसे जय के बारे में पूँछते थे। वह कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं थे।‌ वैसे भी क्लब जाकर मनोरंजन करने की भी इच्छा नहीं होती थी।
कभी कभी जब मन बहुत घबराता था तो अपने दोस्त रहमतुल्लाह के पास चले जाते थे। वहाँ जाकर उनका मन कुछ हल्का हो जाता था। इसके अलावा वह कहीं आते जाते नहीं थे। इधर कुछ दिनों से तो उन्होंने लॉन में बैठकर चाय पीने की आदत भी छोड़ दी थी। उनका अधिकांश समय उनके कमरे में ही बीतता था।

कई तरह के विचार उनके मन में उठते रहते थे। कभी सोचते कि जय ने यह क्या कर दिया‌‌। अपने अच्छे भले जीवन को बेवजह कष्ट में डाल दिया। वह भी उस बेवकूफ लड़की वृंदा और उसके सरफिरे साथियों के लिए। क्या कमी थी उनके पास ? आराम से रहता। दोनों हाथों से लुटाता तो भी खर्च नहीं कर पाता। पर तैश में लिए गए अपने निर्णय में घर छोड़कर चला गया।
लेकिन दूसरी तरफ वह सोचते कि क्या सचमुच जय का लिया गया फैसला गलत था। उन्होंने तो यही सोचा था कि जय ने जल्दबाजी में एक फैसला लिया है। जल्दी ही वह अपने फैसले से विमुख होकर घर वापस आ जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं। उसे घर छोड़कर गए सात महीने हो चुके हैं। इन सात महीनों में उसने पलट कर भी नहीं देखा। इन महीनों में उसने ना जाने कितनी तकलीफें उठाई होंगी। उसने सब कुछ सहने का निर्णय लिया। हार कर घर नहीं आया।
यह विचार आते ही उनके मन में जय के लिए जो गुस्सा था वह गायब हो जाता था। उनका मन गर्व से भर उठता था। उसी पिता की तरह जिसकी संतान ने कुछ बड़ा कर दिखाया हो। यह सोच कर उन्हें एक अजीब सी खुशी मिलती थी कि जिस जय के बारे में उनकी राय थी कि जीवन में वह उनके रुतबे और दौलत का इस्तेमाल करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता है। जिसकी कभी अपनी कोई पहचान नहीं होगी। वह सदैव उनकी छत्र छाया में जिएगा। लेकिन जय ने उन्हें गलत साबित कर दिया। आज वह उनकी दौलत और रुतबे से दूर अपने दम पर जी रहा था। उनकी सोच गलत साबित हुई थी। अपने बेटे से इस तरह हार जाना उनके मन को ठंडक पहुँचाता था।
जब वह इस तरह से सोचते थे तब उन्हें ‌वृंदा का खयाल आता था। वह सोचते थे कि कुछ तो खास होगा इस लड़की में जिसके कारण उनका बेटा इतना बदल गया। वह वृंदा के बारे में सोचने लगते। जो कुछ उन्होंने उसके बारे में जाना या सुना था उसके हिसाब से वह एक साधारण परिवार की बाल विधवा थी। पर इसके बावजूद भी वह हैमिल्टन जैसे अंग्रेज़ अधिकारी से भी निडरता से भिड़ गई। उन्हें आश्चर्य होता था कि उस साधारण सी लड़की में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई।
सिर्फ वृंदा में ही नहीं। भारत देश के ना जाने कितने साधारण परिवारों के नवयुवक और नवयुवतियां आज अपना सब कुछ छोड़कर अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं। पुलिस की ज्यादतियां सह रहे हैं। तो क्या उन सभी को भटका हुआ कह देना सही है। कहीं उनसे या उनके जैसे तमाम लोगों से उनके उद्देश्य को समझने में गलती तो नहीं हो रही है। जो उन्हें गलत समझ रहे हैं वही तो गलत नहीं हैं।
कुछ तो गलत है जिसके लिए देश का भविष्य कहे जाने वाले नौजवान इस तरह सड़कों पर उतरे हैं। जानते तो वह भी थे कि अंग्रेज़ी हुकूमत किस कदर जनसाधारण को दबा रही है। कई बार वह सब जानते हुए भी अन्याय का हिस्सा बने थे। मानस पाठक के निर्दोष होते हुए भी उन्होंने अपनी वकालत का गलत प्रयोग कर उसे जेल भिजवाया था। वह और उनके जैसे कई और लोग अंग्रेज़ी सरकार के इस दमन चक्र में उनके सहायक रहे हैं।
अब उनका नज़रिया बदलने लगा था। उन्हें यह नौजवान भटके हुए लोग नहीं लगते थे। उन नौजवानों से नफ़रत करने की जगह वह अब उनसे सहानुभूति रखते थे।
इसके अलावा एक और बदलाव आया था उनमें। अपनी दौलत का बेजा घमंड तो खत्म हो ही गया था। पर अब वह इस दौलत को ज़रूरतमंद लोगों पर खर्च करने लगे थे। उन्होंने अपने माली की उसके कर्ज़ की अदायगी में सहायता की थी। अपने नौकर भोला की बेटी की शादी पर उसे मदद की थी।
श्यामलाल को ना अब राय बहादुर के खिताब की चाह रह गई थी और ना ही अपने रुतबे की फ़िक्र। वह जानते थे कि उनकी दौलत का अधिकांश हिस्सा उनके और उनके बाप दादा द्वारा साधारण जनता के हितों का हनन कर कमाया गया है। अतः उनकी इच्छा थी कि वह इस दौलत‌ का प्रयोग उसी जनसाधारण के हित में करें। आजकल वह अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने की योजना की रुपरेखा तैयार कर रहे थे।
श्यामलाल अपने कमरे में बैठे थे कि भोला ने आकर सूचना दी कि रहमतुल्लाह खान तशरीफ़ लाए हैं। श्यामलाल फौरन ही उनसे मिलने के लिए बाहर आए। शाम का समय था। रहमतुल्लाह खान ने लॉन में बैठने की इच्छा जताई। भोला को चाय लाने का आदेश देकर वह उनके साथ लॉन में आकर बैठ गए।
लॉन में बैठकर चाय पीते हुए श्यामलाल और रहमतुल्लाह के बीच बातचीत होने लगी। रहमतुल्लाह ने उन्हें समझाया,
"जय ने तो अपनी राह चुन ली है। अब जो भी होगा वह उसे भुगतेगा।‌ पर तुम खुद को परेशान मत करो। जितना हो सके खुश रहने की कोशिश करो। घर में बंद ना रहा करो। पहले की तरह कोर्ट जाया करो। क्लब में लोगों से मिला करो।"
"भाईजान अब किसी भी चीज़ में मन नहीं लगता है। ना पैसे कमाने की और ना ही किसी से मिलने की।"
"लेकिन इस तरह तो तुम अपने गम के बोझ में दब कर रह जाओगे।"
"नहीं भाईजान इतना कमज़ोर नहीं हूँ कि अपने दुखों को खुद पर हावी होने दूँ। मैं भी समझ रहा हूँ कि इस तरह से ज़िंदगी नहीं जी सकता हूँ। इसलिए मैंने एक रास्ता सोचा है।"
"कैसा रास्ता ?"
श्यामलाल ने उन्हें अपने मन की बात बताई। उनकी बात सुनकर रहमतुल्लाह कुछ देर तक विचार करने के बाद बोले,
"जो तुमने सोचा है ठीक ही है। वैसे भी दौलत और शोहरत कुछ भी तो साथ नहीं जाता है। हमारे साथ तो हमारा किरदार ही रहता है। जो तुम करने की सोच रहे हो वह खुदा की निगाह में एक नेक काम होगा।"
रहमतुल्लाह का इस तरह उनका उत्साह बढ़ाना श्यामलाल को अच्छा लगा। रहमतुल्लाह ने आगे कहा,
"वैसे भी हम दौलत अपनी औलादों के लिए ही तो कमाते हैं। अब जब जय ने खुद ही लोगों की खिदमत का रास्ता चुन लिया है तो फिर क्या सोचना। एक तरह से तुम उसकी ही राह पर चलोगे। तुम वही करो जो तुम्हारे दिल को सुकून दे।"
कुछ और देर ठहर कर रहमतुल्लाह चले गए। पर उनकी सलाह ने श्यामलाल के मन को शांत और उनके इरादों को दृढ़ कर दिया था।