होने से न होने तक - 48 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 48

होने से न होने तक

48.

अगले ही दिन मानसी जी एक सत्रह अठ्ठारह साल की लड़की को लेकर मेरे घर पहुंच गयी थीं,‘‘इसकी बड़ी बहन ने मदन भैया के घर काम किया था। वह अभी कुछ महीने पहले ही शादी करने के लिए अपने घर छत्तीसगढ़ लौट गयी है। आज यह उसकी छोटी बहन तुम्हारे ही पड़ोस के चौकीदार के साथ खड़ी दिख गयी। काम ढूंड रही है। हम इसे तुम्हारे लिए ले आए हैं।’’

‘‘मानसी जी मैं क्या करुंगी। फुल्लो है तो। झाड़ू,पोछा,बर्तन-सारे काम वही करती है। अब मुझे किस काम के लिए ज़रुरत है भला। फिर उससे क्या कहूंगी कि क्यों निकाल रही हूं ।’’

मानसी जी ने हाथ के इशारे से मेरी बात वहीं रोक दी थी ‘‘तुम्हे कुछ भी कहने की ज़रुरत नही है। उससे मैं बात कर लूंगी। मैंने ही तो लगवाया है न उसे। मैं तो उसे तब से जानती हॅू जब वह छोटी सी बच्ची थी।’’ उन्होने हाथ के इशारे से बताया था ‘‘फिर उसे हटाने के लिए भी कौन कह रहा है। बर्तन मंजवाती रहना। बाकी कामों से हटा देना।’’

‘‘मानसी जी मैं अकेली जान। दो नौकरानियॉ एक जन के ऊपर। कैसा तो लगेगा।’’

‘‘कैसा लगेगा ?’’उन्होने पूछा था ‘‘तुम्हें किसी को सफाई देनी है क्या। अकेली जान हो तो क्या,काम तो घर के पूरे ही रहते हैं न। बस चार कपड़े कम धुलते हैं, चार रोटी कम बनती हैं, बस। बाकी तो सब वही है न?’’ वे कुछ देर चुप रही थीं,‘‘फिर किसके लिए रुपए बचाना है जो इतना सोच रही हो ? किस को दे कर जाओगी?’’

‘‘आपको’’ मैं हॅसी थी।

‘‘हम को?’’ वे बड़बड़ायी थीं,‘‘जैसे हम तुम्हारे मरने तक ज़िदा बैठे रहेंगे।’’

‘‘चलिए आपके बच्चों को सही।’’ मैं भी हॅसी थी।

‘‘नहीं चाहिए किसी को तुम्हारा। खाओ फूको एैश करो।’’ उन्होंने जैसे आदेश दिया था,‘‘कोई नहीं एक फुल टाइम वर्कर रहेगी तो कम से कम समय पर गर्म खाना नाश्ता तो बनेगा। नही तो आधे टाइम तो भूखी सो जाती हो। फिर सारे घर में प्रेतात्मा की तरह अकेली डोलती रहती हो। किसी दूसरे इंसान की आहट तो रहेगी घर में।’’

प्रेतात्मा शब्द पर मैं देर तक हॅसती रही थी,‘‘आज आपने हमारा नया नामकरण कर दिया।’’

मानसी जी भी हॅसती रही थीं। तुरंत उसी समय उन्होने उसे काम की शर्तें समझा दी थीं और उसकी क्या शर्ते होंगी यह भी समझ लिया था। पीछे के बराम्दे में बनी अल्मारी के ऊपर की शैल्फ उन्होने स्वयं ही जल्दी से ख़ाली कर दी थी और उसमें सतवंती से अपना सामान रखने के लिए कह दिया था। उसे सुबह से लेकर रात तक का सारा काम समझा दिया था। दीदी मना करें तब भी पूरा खाना बनेगा...कम से कम एक सब्जी,दाल,दही का कुछ,सलाद और गर्म रोटी। ठंडी रोटी नहीं देनी है। धीर धीरे बना कर एक एक गरम रोटी। कालेज जाने से पहले कोई फल और साथ के लिए दो पराठे। इस लंबे चौड़े निर्देश पर मैं बैठे बैठे हॅसती रही थी। साफ सफाई कैसे होनी है यह भी समझा दिया था और उसी समय किचन की अल्मारी ख़ाली करा कर सफाई का काम शुरू करा दिया था। अपने सामने उससे दुपहर का खाना बनवाया था और हम दोनों ने साथ बैठ कर खाया था। मेज़ पर आती एक एक गरम रोटी और मुझ को लगा था जैसे ज़िदगी सच में अचानक सुखद और सरल हो गयी हो।

नीता की बेटी आयी हुई है। मैं उससे मिलने गई थी। नीता खाना लगवाने के लिए उठ कर किचन में चली गयी थीं। उतनी देर विनीता मुझ से बातें करती रही थी,‘‘मौसी मॉ की कभी कभी बहुत चिंता होती है। रिटायर हो जाऐंगी तो कैसे तो रहेंगी अकेले। समझ ही नहीं आता है। मुझे पता है भरत के साथ वह एकदम कम्फर्टेबल नहीं हैं जो उन्हें अपने साथ ले जाऊॅ। वैसे भी।’’ लगा था उसकी आवाज़ पसीजने लगी है,‘‘कभी कभी बड़ी गिल्टी फीलिंग होती है। एक बार आप लोगों ने मॉ के रीसैटिल होने की कोशिश की थी मगर मैने ही अड़ंगा डाल दिया था।’’ वह चुप हो गयी थी।

मेरी समझ नही आया था कि मैं क्या कहॅू। फिर भी समझाती रही थी। मन में यह भी आया था कि नीता के पास तो विनीता है। दूर ही सही...कभी वह आती है यहॉ...कभी नीता भी जाती ही है उसके पास। मेरे पास तो कोई नहीं। पर अपने आप को लेकर मै चुप ही रही थी। वैसे भी क्या कहती उससे।

उसकी आवाज़ भर्राने लगी थी,‘‘मौसी यू आर अ ग्रेट सपोर्ट टु हर।’’

मैं हॅस दी थी। क्या बताऊॅ उसे कि मैं तो नीता और मानसी जी के बगैर इस शहर में अपना वजूद सोच ही नहीं पाती। अचानक लगा था कि किसी दिन वे दोनों यहॉ नहीं रहीं तो मैं कैसे जीऊॅगी इस शहर में। सोचती हॅू इन सहारा ढूंडने वाले रिश्तों को कौन सा नाम दिया जा सकता है भला ? मित्रता ? पर यह सिर्फ मित्रता भर कहॉ है ?

मेरी प्लेट में पहली रोटी डालकर सतवंती खड़ी को गयी थी,‘‘दीदी कल की छुट्टी चाहिए।’’

मैंने उसकी तरफ देखा था,‘‘कब आएगी ?’’

वह वैसे ही शॉत मुद्रा में खड़ी रही थी ‘‘परसों सन डे है। आप देर से सो कर उठेंगी। तब तक आ जाऊॅगी।’’

मैं ने फिर उसकी तरफ देखा था,‘‘तब तक मतलब?’’

वह धीमें से मुस्करायी थी,‘‘तब तक मतलब दस बजे तक।’’

मैं भी हॅसी थी,‘‘दस बजे मतलब दस बजे। नाश्ता तुझे ही आकर कराना है।’’

‘‘जी’’ और वह दूसरी रोटी बनाने चली गयी थी। थोड़ी देर में रोटी लेकर आयी तो मैंने पूछा था,‘‘कहॉ जा रही है ?’’

वह फिर धीरे से मुस्कुरायी थी,‘‘वहीं ’’

‘‘वहीं मतलब कहॉ? उसी बहादुर के यहॉ ?’’

‘‘जी’’ उसने धीमें से जवाब दिया था। झूठ वह नहीं बोलती। शुरू में मैं उसके बाज बहादुर के यहॉ जाने के नाम से परेशान हो जाती थी। बीस इक्कीस साल की जवान लड़की, उसके घर क्यों जाती है। वह यहॉ बगल की कोठी में चौकीदार है और महानगर में रहता है। महीने में दो बार सतवंती छुट्ठी लेती है और उसी के पास जाती है। पहली बार जब वह गयी थी तो मन किया था कि मना कर दूॅ। पर महीने में दो बार छुट्टी की बात नौकरी की शर्त में तय थी और नौकरी लगवाने के लिए जब मानसी जी उसे मेरे घर ले कर आयीं थीं तो यह बाज बहादुर ही तो उसके गार्जियन की तरह साथ आया था। मेरे पास नौकरी करने से पहले इसी कालोनी की किसी कोठी में तीन साल से नौकरी कर रही थी। अबकी से एक महीने के लिए अपने घर छत्तीसगढ़ गयी थी और लौट कर अपने पुराने काम पर नहीं गयी थी। एक तो उनके यहॉ संयुक्त परिवार था सो काम बहुत ज़्यादा था फिर उन लोगों ने तीन साल में तन्ख़ा भी नहीं बढ़ाई थी। यह सतवंती ने ही मुझे बताया था। सो लौट कर आकर मेरे घर नौकरी मिलने से पहले करीब एक महीने इसी बाज बहादुर के घर पर ही तो रही थी। वैसे भी मुझ को लगा था कि जब उसके मॉ बाप ने ही इस कम उम्र में एक अन्जान जगह यूं नौकरी करने भेज दिया है तो मैं कौन हूं उसे मना करने वाली।

तब भी मेरा मन नहीं माना था। जब पहली बार वह छुट्टी लेकर गयी थी और लौट कर आयी तो मैंने उससे सीधे सीधे बात की थी,‘‘देखो सतवंती यह दूर गॉवों से काम पर आने वाले लोग....नौकरी के लिए इधर देस में आते हैं। खेत, खलिहान, परिवार सब पीछे वहॉ पहाड़ पर रहते हैं। बीबी वहॉ पहाड़ पर है, बच्चे वहॉ जा कर पैदा करते हैं और लपड़ झपड़ यहॉ तुमसे करेंगे।’’

वह मेरी हर बात पर सिर हिलाती रही थी। मैं ने सफाई सी दी थी,‘‘तुम अभी बच्ची हो इसलिए समझा रही हूं तुम्हें।’’

‘‘नहीं आप तो मेरे भले के लिए कह रही हैं।’’ वह खड़े खड़े पर्दे से खेलती रही थी।

‘‘बहादुर के बीबी बच्चे हैं ?’’मैंने सीधा सवाल पूछा था।

‘‘हॉ हैं।’’

‘‘कहॉ रहते है?’’

‘‘वहीं गॉव में।’’

‘‘यहॉ अकेला रहता है वह?’’

‘‘हॉ पड़ोस में उसकी बुआ रहती है।’’

‘‘बीबी को क्यों नहीं लाता वह ?’’

‘‘पता नहीं। मुझे क्या पता।’’

‘‘तू मिली है उसकी बीबी से?’’

वह हॅंसी थी,‘‘जब वह आई ही नहीं तो कैसे मिलूंगी?’’

मैं फिर भी उसे समझाती रही थी। बहादुर पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि इस भोली भाली लड़की को बेवकूफ बना रहा है। मुझे लगा था शायद मेरे समझाने का सतवंती पर कुछ असर हुआ है। पर दो हफ्ते बाद वह फिर उसी अंदाज़ में छुट्टी मॉगने के लिए खड़ी हो गयी थी। मुझे भी लगा था मैं उसे मना कैसे कर सकती हूं। धीमे धीमे मुझे उसके उस रिश्ते की आदत सी पड़ गयी थी। सुबह मेरे उठने से पहले ही वह उसके पास बैठ आती। कभी मैं घर में रहती तो देखती कि वह डाइनिंग रूम की बाल्कनी से पड़ेस में उसके डयूटी पर आने की आहट लेती रहती।

मैं ने यथास्थिति को स्वीकार कर लिया था़-बस इतना ज़रूर उससे साफ कर दिया था कि मेरी मौजूदगी या ग़ैर मौजूदगी में बहादुर मेरे गेट के अन्दर कदम नहीं रखेगा और उसने मुझे वायदा किया था। न जाने क्यों मुझे उस पर इतना भरोसा था कि वह झूठ नहीं बोलेगी। झूठ वह बोलती भी नहीं थी। अभी उस दिन कैरेमल कस्टर्ड बनाने के लिए मैं किचन में चली गयी थी। मैंने उससे फ्रिज में से मलाई निकालने के लिए कहा था।

वह वैसे ही खड़ी रही थी ‘‘मलाई नही है।’’

मैं हड़बड़ा गयी थी,‘‘अरे कल तो मैंने कटोरी भरी मलाई देखी थी फ्रिज में।’’

उसने बड़े शॉत लहज़े में बता दिया था,‘‘वह तो मैंने खा ली।’’

‘‘खा ली मतलब?’’

उसके चेहरे, उसके स्वर में कोई उतार चढ़ाव नहीं आया था जैसे उसने मेरा प्रश्न समझा ही न हो। बड़ी शॅाति से उसने बताया था ‘‘मुझे मलाई बहुत अच्छी लगती है। रहती है तो मैं उसमें शक्कर डाल कर खा लेती हॅू।’’ उसने शक्कर के जार की तरफ इशारा किया था।

मेरे मन में क्षण भर के लिए बड़ी ज़ोर की झुंझलाहट आई थी। पर टोकने या कुछ कहने में संकोच लगा था....वह भी खाने के लिए टोकना। थोड़ी देर में यह भी लगा था कि मेरे पास रहती है तो कुछ खाने का मन करेगा तो मेरे घर में ही तो खाएगी। उसके बाद वह आए दिन किसी भी चीज़ के खा लिए जाने की बात बता देती, जिन चीज़ों को खा लेने का साहस उससे पहले फुल्लो ने कभी नहीं किया था। पर मुझे सतवंती अच्छी लगती। उसका शॅात सा चेहरा। सच बोलने का उसका भोला सा तरीका। मुझे उसकी आदत पड़ रही थी। शायद उसे भी मेरी।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com