तुम बदल रहे थे और इस बार तो साफ मैंने महसूस किया यह बदलाव। क्या कारण था। तुम कोशिश में लगे हुए थे पर संतोषजनक परिणाम आया नहीं था कहीं से। मुझे पूरा विश्वास था तुम्हारी क्षमताओं पर , पर तुम क्यों नकारात्मक हो रहे थे? समय लगता है जब हमारी आकांक्षाएं बड़ी हो, और मैं तो थी ही तुम्हारे साथ हर कदम पर।
पर क्या मेरा साथ होना ही तुम्हें परेशान कर रहा था? दिल्ली में हमारी पहली मुलाकात, जो कि बहुप्रतीक्षित रही थी मेरे लिए, कहीं से मुलाकात भी नहीं लगी मुझे। शायद मेरे जोर देने की वजह से ही आए भी तुम मिलने। क्या वजह थी हमारे बीच दूरी की - मेरा नौकरी में होना या तुम्हारा बेरोजगार होना? या दोनों?
प्रेम और अन्य सुहाने सपने तब तक ही अच्छे लगते हैं जब तक जीवन की कठोर सच्चाइयां सामने नहीं आती हमारे। और लड़कों को तो घर के साथ - साथ समाज के प्रश्न सूचक निग़ाहों का भी सामना करना पड़ता है लड़कियों की तुलना में ज्यादा। ३ साल दिल्ली में रह कर गए थे तो मुहल्ले में भी लोग आते - जाते पूछ ही लेते थे। तो अब तुम दूर होने लगे थे मुझसे और शायद चिढ़ने भी लगे थे।
“मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ।
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो –
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो।
मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिगो सको, मुमकिन है तो।
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार... मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से।
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।“
शमशेर बहादुर सिंह जी ने जैसे मेरे ही पंक्तियों को अपने शब्द दिए हों।
दिल्ली में करीब एक साल से ज्यादा हो गया था और अब एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत थी मैं। महिपालपुर ही शिफ्ट हो गए थे छुटकी और मैं। मेरा ऑफिस घर से पैदल ५मिनट की दूरी पर था और बहन को आधा घंटा लगता था। मेरा वेतन पहले से बेहतर था और बहन का तो अच्छा था ही। जीवन सुंदर चलने लगा था हमारा। हमारी कंपनी हरेक दूसरे शनिवार को हमें कहीं - कहीं ले जाती। पहली बार मल्टीप्लेक्स में वहीं फिल्म देखी मैंने -' ब्लैक' - अमिताभ बच्चन एवम् रानी मुखर्जी अभिनीत। हमारा स्टाफ वेलफेयर का अच्छा फंड आता था। सब जम कर खाते पीते और मस्ती करते। दिल्ली के सुंदर जगहों और रेस्तरां जाने का मौका अब निरंतर मिलता हमें। यहां हमारे कंट्री हेड दिल्ली ऑफिस में ही बैठते थे और उनकी स्नेह पात्र बनने लगी थी मैं। ऑफिस में सबसे मित्रता हो ही गई थी।
बहन और उसके बहुत से डिजाइनर मित्र थे दिल्ली में अब तो नए किस्म के ड्रेस , एसेसरीज पहनने को मिल रहा था।अभी भी हमारा शॉपिंग का ठिकाना जनपथ ही था पर अब उन लोगों की वजह से नए चीजों को ट्राई करने लगी थी मैं भी। सरोजिनी नगर मुझे कभी बहुत अच्छा लगा नहीं। बाद में जब पता चला एक्सपोर्ट सरप्लस के स्टॉल के बारे में, तब कभी - कभी वहां से भी शॉपिंग करते हम। बहन कटा टैग देख कर बता देती कि बहुत अच्छे ब्रैंड का है ये। दिल्ली में वैसे भी लोगों का रंग निखर जाता है। पानी अच्छा है यहां का। मेरा आत्म विश्वास फिर से लौट आया था। काम में नई नहीं थी मैं अब, मेरी प्रिय बहन और उसके आत्म विश्वास से भरे मित्र साथ थे मेरे । स्टाइलिश ड्रेस और अच्छा वेतन - रही सही कमी पूरी कर रहे थे।
उस रात फोन आया तुम्हारा कि फिर दिल्ली का कार्यक्रम बन रहा तुम्हारा। किसी कोर्स में नामांकन के लिए आ रहे थे तुम। तुमने बताया कि सुबह ४बजे ट्रेन पहुंचेगी तुम्हारी।
४बजे - यानी महिपालपुर से ३ बजे सुबह अंधेरे में निकलना होगा मुझे। थोड़े तनाव में आई मैं। ऑटो मिलेगा क्या? दिल्ली है, मिल ही जाएगा आश्वस्त किया मैंने खुद को। मिलने तो जाना था ही।
प्यार तेरा - दिल्ली की सर्दी
तय था कि थोड़ी देर स्टेशन पर ही मेरे साथ बिता कर तुम मुखर्जीनगर निकल जाओगे किसी सीनियर के पास। मैंने सोचा कि अपने हाथ से कुछ बनाऊ तुम्हारे लिए। खाना बनाना कभी पसंद नहीं था मुझे, पर अपने प्रिय जनों के लिए बनाना अच्छा लगता था कभी - कभार। मौका भी बहुत नहीं मिला था क्योंकि मम्मी और बहन शौकीन हैं बनाने के। जब कभी संयोग से दोनों साथ बाहर गए तो मेरी प्रिय मित्र प्रतिमा, मनीषा या संयोगिता आ जाते सहायता करने। घर भी जब आए मेरे कोई मित्र, बहन ने तुरन्त ही कुछ बना कर खिलाया सबों को हमेशा।मैंने तो हमेशा रोटी ही बनाई है तो आज भी सोचा कि कल सुबह तुम्हारे लिए आलू पराठा ले कर जाऊंगी। छुटकी बोली कि सॉस वह बना देगी।
दिल्ली की ठंड उससे कहीं ज्यादा है , जैसा कि एक गाने में सुना है मैंने। पंक्तियां कुछ ऐसी हैं - "तड़पाए सताए रे, सारी रात जगाए रे, प्यार तेरा - दिल्ली की सर्दी। " और आज इस गाने की नायिका मैं होने वाली थी जबकि इस तरह के गाने पसंद नहीं हैं मुझे।
दिसंबर के महीने में दिल्ली में सुबह २बजे उठ कर बहुत प्रेम से तुम्हारे लिए पराठा बनाया , तैयार हुई अपने हिसाब से अपने सबसे सुंदर ड्रेस में - मल्टीकलर राजस्थानी थीम वाली स्कर्ट जिस पर कौड़ी टांके हुए थे जगह - जगह और ऑरेंज टॉप में। गहरे मरून कलर का हुड वाला स्वेटर पहना था मैंने। सैंडल फ्लैट पहना मैंने , सुबह सुबह खाली सड़क पर अपने शरीर पर नियंत्रण चाहती थी मैं।
सर्दी की सुबह के ३बजे, पूरा मुहल्ला निशब्द था सिवाय कुत्तों के भौंकने के, ऐसे सन्नाटे में महिपालपुर के अंदर वाली गली से रोड तक जाना - एक चैलेंज ही था। ८-१० मिनट की दूरी लगभग दौड़ते, कुत्तों से बचते हुए पार की मैंने। बुरा लग रहा था कि स्कर्ट क्यों पहना, जींस पहन सकती थी। संयोग से ऑटो मिल गया मुझे। और एक घंटे के अंदर स्टेशन पहुंच चुकी थी मैं।
अब तुम्हारा इंतजार था। मोबाइल था नहीं तुम्हारे पास। बार - बार इंक्वायरी में जाकर पता कर रही थी मैं। सभी गाड़ियां विलम्ब से चल रही थीं। तुम्हारी गाड़ी का समय ८ बता रहा था अभी। यानी चार घंटे। किसी तरह स्टेशन पर समय बिताया मैंने। ८बजने को थे और फिर ८:३० हो गया। कहीं दूर तक तुम्हारी ट्रेन नजर नहीं आ रही थी। फिर गई मैं पूछने, पता चला ११ बजे आएगी। कोई चारा था नहीं मेरे पास। मुश्किल से ११ बजा घड़ी में, लगा अब तुम आओगे । पर नहीं, इस भीड़ भरे स्टेशन पर तुम्हारी ट्रेन अब तक नहीं पहुंची थी। झल्लाया सा काउंटर पर का रेलवे स्टाफ सबको सूचना दे रहा था। बताया कि ट्रेन २बजे आएगी। और अंततः तुम्हारी ट्रेन आई ३बजे। थक कर चूर थी मैं - मानसिक एवम् शारीरिक रूप से। आज रविवार के दिन सुबह २बजे से सक्रिय और प्लेटफॉर्म पर भटकती सी।
तुम आए, देख कर दिल को तसल्ली हुई। तुमने कहा कि बहुत भूख लगी है तुम्हें। डब्बा निकाला मैंने, अब तक याद भी नहीं था कि मैं भी भूखी थी। हम दोनों वही स्टेशन पर हाथ धोकर खाने लगे। मैंने खुशी से बताया कि मैंने सुबह सुबह बनाया पराठा तुम्हारे लिए। "और सॉस, ये किसने बनाया?" तुमने पूछा। " बहन ने" - मेरा उत्तर था। " अच्छा होता अगर ये भी तुम ही बनाती।" मन बुझ गया मेरा, जो बनाया उसके लिए तो कोई प्रशंसा के शब्द नहीं। और छुटकी का बनाया तो पहले भी बहुत बार खाया तुमने।
तुम हड़बड़ी में आ गए कि तुम्हें निकलना है अपने भैया के दोस्त के घर। क्योंकि वो भी सुबह से प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
"और मैं? "
" तुम भी निकलो।"
तो इतवार के सुबह २बजे से अभी तक की प्रतीक्षा के एवज में मुझे मिला था १ घंटा, वो भी बिना किसी स्नेह या आभार के। ४:३० बजे के करीब निकल पड़ी मैं घर की तरफ।
बचपन से सबसे प्रेम पाने की अभ्यस्त रही हूं मैं। ये तुम ही हो हर्ष कि इतना सह रही मैं। घर, स्कूल या कॉलेज - कभी किसी को एकतरफा इतना भाव नहीं दिया मैंने।
दिल्ली की सर्दी की तरह तुम्हारा प्रेम भी हृदय में नश्तर की तरह चुभ रहा था आज मेरे।
"इश्क की झील साफ-साफ है अब,
सारे कंकर दिखाई देने लगे। "
- संजू शब्दिता
संजू शब्दिता के पंक्तियां उसके दिमाग में गूंज रही थी।