छूटा हुआ कुछ - 2 Ramakant Sharma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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छूटा हुआ कुछ - 2

छूटा हुआ कुछ

डा. रमाकांत शर्मा

2.

उमा जी को उनके पति ने आवाज दी तो उनकी तंद्रा टूटी। वे उठकर बाहर आईं तो काम में लगे उनके पति ने बिना उनकी ओर देखे कहा – “अर्जेंट काम बस खत्म होने को ही है, एक कप चाय बना दोगी।“

“हां, अभी बना कर लाती हूं। कुछ खाओगे उसके साथ?”

“नहीं, मन नहीं कर रहा। अब तो सीधे खाना ही खाऊंगा।“

“ठीक है, मेरा भी सिर भारी हो रहा है, अपने लिए भी चाय बना लेती हूं।“

हां, बना लो।“

उमा जी इंतजार करती रह गईं कि शायद वे पूछ लें, तुम्हारा सिर भारी क्यों हो रहा है, पर उन्होंने चिंता करने की तरह उनकी चिंता कभी की भी है? उन्होंने काम में लगे अपने पति पर नजर डाली और फिर चाय बनाने चली गई।

थोड़ी देर में दोनों हाथों में चाय का एक-एक कप पकड़े हुए वे वहां आईं और उन्हें मेज पर रखते हुए बोलीं – “सुबह से लगे हो काम में, अब बस भी करो।“

“कहा ना, मेरा अर्जेंट काम खत्म ही हो रहा है” – उन्होंने चाय का कप उठा कर मुंह तक ले जाते हुए कहा।

अब तो वे दोनों ही रिटायर हो चुके थे। पर, ब्याह कर इस घर में आने के बाद से ही उन्होंने अपने पति के स्वभाव को अच्छी तरह जान लिया था। जब तक काम पूरा नहीं हो जाता उन्हें चैन नहीं आता। ज़िंदगी भर वे काम में ही तो लगे रहे हैं। शायद ही उन्होंने कभी उनकी तरफ ध्यान दिया हो। सीधे-सरल उनके पति बस अपने काम से काम रखते। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर के बीच की दूरी नापते हुए ही उन्होंने इतनी ज़िंदगी काट दी। थके हुए घर आते तो उनसे कुछ कहने-सुनने की उनकी हिम्मत भी नहीं होती थी।

उनकी आंखों के सामने वे दिन घूम गए जब उनका इकलौता बेटा प्रशांत सुबह सबेरे ही स्कूल के लिए निकल जाता और फिर शाम को चार बजे से पहले वापस नहीं लौटता था। उसके जाने के लगभग एक घंटे बाद पति भी ऑफिस चले जाते। वे जल्दी उठकर उन दोनों के लिए टिफन बनातीं और खुद के लिए भी तभी दो रोटियां सेंक कर रख देतीं। दोपहर में जब भी भूख लगती वे खा लेतीं। यह बात और थी कि अकेले खाना उन्हें जरा भी नहीं सुहाता था। फिर सारे दिन घर का सूनापन भी उन्हें काट खाने को दौड़ता। उन्हें घर में ऐसा कोई काम भी तो नहीं था जिसमें वे व्यस्त रह सकतीं। रेडियो उनके पास था नहीं और टीवी का तो तब किसी ने नाम भी नहीं सुना था। हिंदी का एक अखबार जरूर आता था जिसे वे पूरा चाट जातीं। सुबह से शाम तक का खालीपन उन्हें काट खाने को दौड़ता। प्रशांत स्कूल से आते ही कुछ खा-पी कर अपने दोस्तो के साथ खेलने निकल जाता और पतिदेव तो शायद ही कभी समय पर घर लौटते।

उस दिन वे समय पर घर लौट आए। आने के बाद वे कुछ देर तक अपनी थकान मिटाते रहे और उमा जी उनके उठकर बैठने का इंतजार करती रहीं। फिर खुद ही उनके पास जाकर बैठ गईं। उन्हें आया देखकर पतिदेव ने करवट बदली और पूछा – “बोलो, कुछ काम है?”

“कुछ काम होगा तभी आपके पास आकर बैठूंगी क्या?”

पतिदेव ने मुस्कराते हुए कहा – “क्या करूं ऑफिस में इतना ज्यादा काम होता है कि बुरी तरह थक जाता हूं। हर दिन वहां देर तक बैठना ही पड़ता है। आज काम जल्दी निपट गया तो घर चला आया। घर आकर बस पड़े रहने को मन करता है।“

“हां, मुझे पता है आप थक कर लौटते हो, पर मैं क्या करूं सारा दिन आराम कर-करके थकती रहती हूं। करने को कुछ होता ही नहीं।“

“बात तो तुम्हारी सही है, थोड़ा अड़ोस-पड़ोस में चली जाया करो।“

“मेरी तरह सब खाली थोड़े ही बैठी रहती हैं। फिर रोजाना किसी के घर जाया जा सकता है क्या।“

पतिदेव थोड़ा सोच में पड़ गए । उन्होंने अपना सिर खुजलाते हुए कहा – “इंटर तक पढ़ी हुई हो, आसपास के बच्चों को ट्यूशन ही पढ़ा दिया करो।“

“सुबह से सभी बच्चे स्कूल चले जाते हैं। ट्यूशन शुरू भी करूं तो सब शाम को ही आना चाहेंगे, असली समस्या तो पहाड़ सा दिन निकालने की है।“

“हूं”, पतिदेव ने सिर हिलाते हुए कहा – “तुम किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने क्यों नहीं चली जातीं। तुम्हारा मन भी लग जाएगा और कुछ पैसे भी हाथ में आ जाएंगे।“

“मुझ बारहवीं पास को कौन स्कूल नौकरी पर रखेगा।“

“क्या बात कर रही हो, हर गली मोहल्ले में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल खुले हुए हैं। मैं पता लगाता हूं।“

“समय है आपके पास?”

“ऑफिस में कुछ लोग हैं, उनसे बात करता हूं।“

“ठीक है, याद करके बात कर लेना, काम में भूल मत जाना।“

“तुम चिंता मत करो, कुछ करता हूं मैं।“

उमा जी को यह आइडिया पसंद आया। वे पहली से पांचवी-छठी तक के बच्चों को तो आसानी से पढ़ा ही सकती थीं। पर, पतिदेव को ऑफिस की व्यस्तता के बीच याद तो रहे। वे हर दिन उन्हें याद दिलातीं और हर दिन ही वे उन्हें आश्वासन देकर चले जाते।

शायद वह दिन कुछ खास था। उस दिन घर आते ही पति महोदय ने बताया – “सुनो, नवीन विद्यालय की संचालिका अरुणा जी से मेरे एक मित्र वकील ने बात की है। उन्होंने तुम्हें कल सुबह मिलने के लिए बुलाया है।“

उमा जी के मन में खुशी की लहर सी दौड़ गई थी – “ये तो बड़ी अच्छी बात है। कितने बजे जाना है?”

“यही कोई दस बजे के आसपास चले जाना”

“लेकिन, जाना कहां है?”

“सात नंबर गली में है, वहां किसी से भी पूछ लेना नवीन विद्यालय कहां है।“

“ठीक है, मैं पता कर लूंगी।“

उस रात उमा जी को ठीक से नींद नहीं आई थी। पता नहीं उन्हें यह काम मिलेगा या नहीं। अरुणा जी से वो ठीक से बात कर पाएंगी या नहीं। जब नींद आई तो सपने में भी वह स्कूल का रास्ता ढूंढ़ती रहीं।

सुबह प्रशांत को स्कूल भेजने के बाद से ही वह नवीन विद्यालय जाने के लिए तैयारी करने लगीं। कौनसी साड़ी पहनना ठीक रहेगा या फिर सलवार-कुर्ता पहन कर जाएं। उन्हें पता था कि पतिदेव से पूछना तो बेकार ही था, कह देंगे कुछ भी पहन जाओ।

वही हुआ भी जब ऑफिस के लिए निकलते समय उन्होंने पलंग पर पड़ी साड़ियों को देखते हुए कहा – “ये क्या ढ़ेर लगा कर बैठ गई हो। छोटे बच्चों का प्राइवेट स्कूल है, उसकी संचालिका से मिलना है। कुछ भी पहन जाओ।“

“ठीक है, मैं देख लूंगी” – उन्होंने कहा था।

दसवीं का सर्टिफिकेट ढूंढ़ने में उन्हें थोड़ा समय लगा। इससे पहले उसकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। सर्टिफिकेट पर लिखी जन्मतिथि पर उनकी नजर गई तो वे मुस्करा कर रह गईं। अठारह साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। उन्नीस की उम्र में प्रशांत हो गया था जो अब आठ साल का होने जा रहा था। इसका मतलब वे अभी छब्बीसवां पार कर सत्ताईसवें वर्ष में चल रही थीं। उन्होंने सारी साड़ियां उठाकर वापस बक्से में रख दीं और दूसरे बक्से से सलवार-सूट निकाल कर पहन लिया। उन्होंने शीशे में खुद को निहारा, वे बीस-बाईस वर्ष से ज्यादा की नहीं लग रही थीं। काली सलवार पर लाल कुर्ता और काली चुन्नी में वे खूबसूरत नजर आ रही थीं। उन्हें पता था तीन बहनों में वे सबसे सुंदर थीं और मां अकसर उनके कान के पीछे काला टीका लगा दिया करती थीं।

उन्हें स्कूल ढूंढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। गली नंबर तीन से सात तक वे पैदल ही चली गई। सात नंबर गली में घुसते ही उन्हें नवीन विद्यालय का बोर्ड नजर आ गया। उन्होंने घड़ी देखी, वे ठीक दस बजे स्कूल पहुंच गई थीं। थोड़े इंतजार के बाद उन्हें अरुणा जी ने अंदर बुला लिया।

“आइये, मिसेज़ उमा कौशिक। खड़ी क्यों हैं बैठ जाइये।“

वे हाथ जोड़कर कुर्सी पर बैठ गईं।

“सुदर्शन वकील साहब ने बताया था आपके बारे में। क्या क्वालिफिकेशन है आपकी?”

“जी बारहवीं क्लास सैकेंड डिवीजन में पास की है।“

“कोई बात नहीं, हमारा स्कूल तो पांचवीं क्लास तक ही है। आप दूसरी और तीसरी क्लास को हिंदी और गणित पढ़ा लेंगी?”

“जी हां, दोनों ही विषय मेरी रुचि के हैं। गणित में तो मैं ज्यादातर पूरे नंबर लाती रही हूं।“

“वैरी गुड, गणित के लिए ऐसी ही टीचर चाहिए हमें। कल से आ सकती हैं आप? लेकिन, मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं कि कुल चार क्लास लेनी होंगी आपको। दोनों कक्षाओं में एक-एक घंटा हिंदी और डेढ़ –डेढ़ घंटा गणित पढ़ानी होगी। हर दिन पांच घंटे पढ़ाने के हम आपको ढाई सौ रुपये महीना देंगे। चलेगा आपको?

“जी........ वो तो कोई बात.....।“

“देखिए, मैं साफ कर दूं. आप ट्रेंड टीचर नहीं है। ट्रेंड टीचर भी नहीं हैं आप। इससे ज्यादा तो हम नहीं दे पाएंगे। वकील साहब ने कहा है, इसलिए आपको कंसीडर कर रही हूं मैं।“

उमा जी ने गला साफ करते हुए कहा – “मैं आपसे यही कहने जा रही थी कि बात पैसे की इतनी नहीं है, मैं खुद को व्यस्त रखने के लिए पढ़ाना चाहती हूं।“

“ओह, फिर तो कल से आ ही जाइये आप। दोनों क्लासों के दोनों सब्जेक्टों की किताबें मैं आपको दिला देती हूं। पढ़ाना शुरू कीजिए आप। अच्छा पढ़ाएंगी तो फिर देखेंगे। ठीक है?”

“जी हां। मुझे कितने बजे आना है?”

“वही, दस बजे तक आ जाइये। साढ़े तीन बजे तक आपको घर जाने को मिलेगा। जाते समय मिसेज वर्मा से किताबें लेती जाएं।“

“ठीक है। मैं चलती हूं।“

“ओ.के.”

दूसरे दिन से उमा जी की ज़िंदगी ही बदल गई। प्रशांत और पतिदेव के जाने के बाद वे स्कूल जाने के लिए उत्साह से तैयार होतीं। बच्चों को पढ़ाने में कब समय निकल जाता पता ही नहीं चलता। लंच के आधे घंटे में ही वो दूसरे टीचरों से मिल पातीं। उस समय भी लंच खत्म करने और क्लास में जाने का समय होते जाने के कारण वे आपस में बहुत कम बातें कर पाते।

वे घर पहुंचतीं तब तक प्रशांत के आने का समय हो चुका होता। कुछ समय उसके साथ गुजर जाता फिर वह खेलने के लिए बाहर चला जाता। कॉलोनी के सभी बच्चे कंपाउंड के अंदर ही खेलते थे, इसलिए उन्हें प्रशांत की ज्यादा चिंता नहीं रहती थी।

उस दिन अरुणा जी ने उमा जी को बुलाया और कहा – “उमा जी, आप बहुत अच्छा पढ़ाती हैं। बच्चे खुश हैं और उनके मां-बाप भी बहुत खुश हैं। कह रहे थे कि आपके आने के बाद हिंदी और गणित दोनों ही विषयों में उनके बच्चे पहले से ज्यादा रुचि रखने लगे हैं और बेहतर करने लगे हैं।“

“जी, कोशिश तो कर रही हूं। सच कहूं तो मुझे बच्चों को पढ़ाने में आनंद भी आने लगा है।“

“हां, वो तो सामने है ही। मैंने आपको यह कहने के लिए बुलाया है कि आप इतना अच्छा पढ़ाती हैं तो अपनी क्वालिफिकेशन क्यों नहीं बढ़ातीं? बड़ी क्लासों को भी इसका फायदा मिल सकता है।“

“स्कूल-कॉलेज जाने की ना तो उम्र है मेरी और ना ही इतना समय है मेरे पास” – उमा जी ने कहा था।

“मालूम है मुझे। पर, आप प्राइवेट परीक्षाएं तो दे सकती हैं।“

“मुझे नहीं पता कैसे, कहां, क्या करना होता है।“

“मेरा बड़ा भाई प्राइवेट परीक्षाएं दिलाता है। अभी बीए के फार्म भरे जा रहे हैं। वही चर्चा चल रही थी तो आपका ध्यान आया मुझे।“

“मैडम, मैं भी आगे पढ़ना चाहती थी, पर अठारह वर्ष की उम्र में शादी हो जाने और फिर उन्नीस की उम्र में बेटा हो जाने के बाद सबकुछ पीछे छूट गया।“

अरुणा जी ने हंसते हुए कहा – “कौनसी आपकी उम्र निकल गई है। अभी तो आपने अपने कॅरियर की शुरूआत भी ठीक से नहीं की है।“

“आप की बात तो ठीक है मैडम, मैं जरा इनसे बात कर लूं, फिर कल आपको बताती हूं।“

“फार्म भरने में अभी तो समय है, घर में बात करके दो-तीन दिन में बता देना मुझे।“

उमा जी के पति को क्या ऐतराज होना था। उनसे बात करने के बाद उन्होंने बीए की प्राइवेट परीक्षा का फार्म भर दिया। उसके बाद वे और भी व्यस्त हो गईं। पहले जो समय काटे नहीं कटता था वह अब फुर्र से कहां उड़ जाता, पता ही नहीं चलता। परीक्षाएं हुईं और प्रथम श्रेणी में पास करके उन्होंने खुद को ही चौंका दिया।

अरुणा जी की सलाह और सहायता से उन्होंने बी.एड. की परीक्षा भी पास कर ली। उसके बाद उन्हें अरुणा जी ने नवीन शिक्षण संस्थान के हाईस्कूल में टीचर रखवा दिया। अब वे आठवीं से दसवीं तक की कक्षाओं को पढ़ाने लगीं। हाईस्कूल सरकार से मान्यताप्राप्त और सहायताप्राप्त था, इसलिए वहां सभी सरकारी नियम-कायदे लागू थे और टीचरों को तनख्वाह भी अच्छी मिलती थी।

उमा जी को हाईस्कूल में पढ़ाना बहुत अच्छा लग रहा था। वे अच्छी और कुशल टीचर तो थी हीं, मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने खुद को बेहतरीन टीचरों में शामिल कर लिया। उनके साथ पढ़ाने वाले अन्य अध्यापक और अध्यापिकाएं या तो उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते या फिर ईर्ष्या की दृष्टि से। लेकिन, उमा जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे बहुत कम बोलतीं और अपने काम से काम रखतीं, इसलिए लोग उनसे फालतू बात नहीं करते थे और एक दूरी बना कर रखते।

उमा जी ने स्वयं को व्यस्त रखने के लिए ही पढ़ाना शुरू किया था। उनका यह उद्देश्य पूरी तरह सफल रहा। वे इतना व्यस्त रहने लगीं कि खुद के लिए भी समय निकाल पाना कठिन हो जाता।

समय बहुत तेजी से गुजर रहा था। पढ़ाई में तेज प्रशांत ने बीई इलेक्ट्रॉनिक्स की परीक्षा में मैरिट में स्थान प्राप्त किया तो उमा जी और उनके पति की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। प्रशांत आगे पढ़ने के लिए यूएस जा रहा था। तभी यूएस की एक नामी कंपनी ने जॉब ऑफर किया तो उन्हें लगा उनके सारे सपने पूरे हो गए हैं।

प्रशांत यूएस चला गया। घर में उसकी कमी बहुत ज्यादा नहीं अखरी क्योंकि वैसे ही उमा जी अपने स्कूल में व्यस्त रहतीं और उनके पति अपने ऑफिस में। उनकी अपनी-अपनी व्यस्तताओं के बीच दो वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला। प्रशांत दो बार भारत आकर गया था। वह अपने जॉब से खुश था और जब भी भारत आया उमा जी के हाथ में डालरों की एक मोटी गड्डी रख गया। उमा जी की नौकरी से घर के हालात पहले ही संभल गए थे। प्रशांत के डालरों ने उन्हें बेहतर बना दिया। उन्होंने रेडियो ले लिया और घर में जिन छोटी-मोटी चीजों की कमी महसूस होती थी, उन्हें हासिल कर लिया। पिछली बार जब प्रशांत आया था तब उसने घर में टेलीफोन भी लगवा दिया। कहता था – “मां, आपसे और बाबूजी से बात करने का कभी मन होता है तो घर में फोन न होने की वजह से नहीं कर पाता। अब मेरा जब भी मन करेगा आपसे बात कर सकूंगा।“ बेटे की इस बात से दोनों निहाल हो गए।

अपनी व्यस्तता के कारण प्रशांत अपनी सुविधा के अनुसार कभी-कभी ही उन्हें फोन कर पाता। यूएस और भारत के समय में अंतर होने के कारण उसका फोन अकसर रात को ही आता। यह वक्त उमा जी और उनके पति के लिए भी ठीक था क्योंकि दिन में तो वे दोनों भी अपने-अपने कामों में बहुत व्यस्त रहते।

उस दिन जब प्रशांत का फोन आया तो उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि वह ऐसी बात कहेगा जिसके लिए उन्होंने न तो कभी सोचा था और न ही वे मानसिक रूप से तैयार थे। उन्हें फोन पर हुई वह बातचीत अभी भी याद है –

“हलो मां, कैसी हो?”

“मैं ठीक हूं, तू कैसा है?”

“अच्छा हूं, और बाबूजी?”

“वे भी ठीक हैं। ऑफिस से हमेशा की तरह देर से आए हैं और नहाने चले गए हैं। कहती हूं उन्हें जल्दी करें तेरा फोन आया है।“

“नहीं, नहीं उन्हें आराम से नहाने दो। मुझे आपसे जरूरी बात करनी है। आप ही उन्हें बता देना।“

“जरूरी बात? सबकुछ ठीक तो है ना वहां?”

“चिंता की कोई बात नहीं है मां।“

“तो फिर?”

“सुनो, मेरे साथ एक लड़की काम करती है। उसका नाम है फ्लोरा।“

“फ्लोरा? अमेरिकन है?”

“हां मां। वह मुझे अच्छी लगती है और वह भी मुझे पसंद करती है।“

“हूं, तू सीधी बात कर।“

“सीधी बात ही कर रहा हूं। हम दोनों शादी करना चाहते हैं। सोचा, आपको और बाबूजी को बता दूं और आपका आशीर्वाद भी ले लूं।“

“शर्म नहीं आ रही है तुझे। लड़की अमेरिकन है। यहां भारत में लड़कियों की कमी है क्या? शादी की इतनी ही जल्दी पड़ रही थी तो मुझे बताता, एक से एक अच्छी लड़की मिल जाती यहां।“

“मां, आप समझ नहीं रही हो। फ्लोरा और मैं एक-दूसरे से प्यार करते हैं।“

“ठीक है, उसी से शादी करनी है तो यहां भारत आकर कर। तेरी शादी को लेकर हमारे भी कुछ अरमान हैं।“

“समय नहीं है मां। फिर कभी उसे आपसे मिलाने ले आऊंगा।“

“समय क्यों नहीं है? मैं नहीं जानती, बस शादी तुझे यहीं आकर करनी पड़ेगी।“

“आप दोनों क्यों नहीं आ जाते यहां। मैं टिकट करा देता हूं। रजिस्ट्रार ने अगले हफ्ते की दस तारीख तय कर दी है।“

“सबकुछ तय ही कर लिया है तो हमें क्यों बता रहा है? शादी करने के बाद बताता। इतनी जल्दी हम नहीं आ पाएंगे। इनका ऑफिस है, मेरा स्कूल है। जो कुछ करना है, वह कर ले। सारे संस्कार तो भूल ही चुका है।“

“नहीं मां। ये तुम्हारे दिए संस्कार ही हैं जो हम शादी कर रहे हैं। मुझे मंजूर नहीं है उसके साथ रिलेशनशिप में रहना।“

“रिलेशनशिप?”

“हां, बिना शादी किए दोनों का साथ रहना।“

“क्या कह रहा है तू?’

“यहां तो आमबात है यह। फ्लोरा तैयार है इसके लिए, वह जोर भी दे रही है। पर, मेरे संस्कार ही हैं जो मैं उसकी बात स्वीकार नहीं कर पाया। मैंने उससे साफ-साफ कह दिया कि मैं बिना शादी साथ नहीं रहूंगा। वह मुझसे इतना प्यार करती है कि इसके लिए तुरंत तैयार हो गई और हम दोनों जाकर रजिस्ट्रार से डेट ले आए।“

उमा जी कुछ देर तक कुछ भी नहीं कह पाईं। उधर से प्रशांत की हलो, हलो उन्हें जवाब देने के लिए बाध्य कर रही थी। उन्होंने कहा था – “ठीक है प्रशांत। शादी के बाद दोनों के फोटो भेजना हमें और जल्दी से जल्दी यहां आने की कोशिश करना।“

“ये हुई ना बात मां। अब मैं बिना किसी गिल्ट के शादी कर पाउंगा। बाबू जी को भी बता देना।“

“हां, बता दूंगी”, कह कर उन्होंने फोन रख दिया था।

उन्होंने पतिदेव को जब यह सब बताया तो वे भी हतप्रभ होकर रह गए। उनके इकलौते बेटे प्रशांत की शादी हो रही थी, वह भी अमेरिकन लड़की से और उनकी उपस्थिति के बिना। उमा जी और उनके पति दोनों का मन इसे सिरे से स्वीकार नहीं कर पा रहा था, पर वे स्वीकार करने के अलावा और कर ही क्या सकते थे। कई दिन तक उनके मन में शून्य सा पसरा रहा। शादी वाले दिन वे दोनों चुपचाप बैठे रहे। फिर उमा जी ने ही कहा था – “ऐसे क्यों बैठे हैं हम, हमारे बेटे की शादी है आज। कुछ मीठा ले आओ बाजार से।“

बार-बार कहने के बाद वे उठे और बाजार से बर्फी ले आए। दोनों ने मुंह मीठा किया और भरे मन से प्रशांत और उसकी होने वाली बहू को उनके सुखी जीवन के लिए आशीर्वाद दिया।

प्रशांत ने रजिस्ट्रार के सामने विवाह के एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करते हुए दोनों के फोटो भेजे थे। फ्लोरा उन्हें सुंदर लगी और उन्होंने प्रशांत की शादी को लेकर सब्र कर लिया। करीब तीन-चार महीने बाद प्रशांत फ्लोरा को लेकर अचानक आ गया। दोनों लगभग दस दिन रुके। फ्लोरा सुंदर तो थी ही, उसके स्वभाव ने भी उमा जी और उनके पति को काफी प्रभावित किया। उनके मन में हमेशा ही जो एक खराश सी जमी रहती थी, वह अपने-आप तिरोहित हो गई।

वे दोनों चले गए तो उन्हें बहुत सूना-सूना लगा। फ्लोरा ने जाते समय कहा था – “अब आपको आना होगा यूएस हमारे पास।“

प्रशांत ने भी कहा था – “मां-बाबूजी, फ्लोरा सही कह रही है। हमारे लिए यहां के बार-बार चक्कर लगाना संभव नहीं होगा। आप इस बात को लेकर परेशान और नाराज मत होना। अब आपको आना है, हमारे पास।“

“ठीक है, तुम सुख से रहो। हम कोशिश करेंगे वहां आने की।“

कई बार उन्होंने सोचा कि वे यूएस का चक्कर लगा आएं, पर किसी न किसी कारण संभव नहीं हो पाया। जब भी मन करता वे उनसे फोन पर बात कर लेते। प्रशांत और फ्लोरा भी उन्हें फोन कर लेते।