होने से न होने तक - 47 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 47

होने से न होने तक

47.

सुबह जल्दी ही ऑख खुल गयी थी। कई दिन से कालेज जाने का मन ही नहीं करता। पर जाना तो है ही। वैसे कालेज तो दिनचर्या की तरह आदत का हिस्सा बन चुका है। तेइस साल हो गये हर दिन कालेज जाते हुये। इस विद्यालय की धरती पर सन् सतासी की जुलाई में पहली बार कदम रखा था। तब से कितनी बार इस विद्यालय के गेट को पार किया है उसकी कोई गिनती नहीं। पर न जाने कितने साल हो गये कि कालेज जाना भारी लगने लगा है। जबकि इतवार और छुट्ठियॉं भी तो कुछ ख़ास अच्छी नहीं लगतीं। एकदम ख़ाली ख़ाली सी। कभी कभी ऐसी कि काटें न कटें।

परीक्षॉए चल रही हैं। मेरी ड्यूटी कन्ट्रोल रूम में लगी है। वहॉ बैठे तो दिमाग और ख़राब होता रहता है। सारे समय आंखों के सामने दमयन्ती अरोरा और उनकी चमचागिरी करते हुए स्टाफ की बहुत सी टीचर्स। कक्षॉए चल रही होतीं हैं तो थोड़ा समय क्लासेज़ और विद्यार्थियों में उलझ कर ठीक से बीत जाता है। पर इम्तहान के दिन बहुत भारी लगने लगते हैं। ऊपर से कन्ट्रोल रूम की ड्यूटी। लगता है जैसे सब कुछ दिमाग में उलझने लग गया हो। कैसा था यह विद्यालय और कैसा हो गया। अब पूरे स्टाफ में एक मानसी ही तो हैं जिनसे बात की जा सकती है।...बाकी तो। उन पुराने लोगों में कौशल्या दी अब इस दुनिया में नहीं हैं। दीपा दी को रिटायरमैंण्ट लिए कई साल हो चुके। नीता विश्व विद्यालय चली गयीं। केतकी विदेश में है कहीं-कहॉ यह भी नही पता अब तो। उसके जाने के कई साल बाद किसी ने बताया था कि अपने पति को छोड़ कर किसी फिरंग के साथ रह रही है। बच्चे किसके पास हैं यह उन्हें पता नहीं था। वैसे भी अब तक तो बच्चे काफी बड़े हो चुके होंगे।

सोचती हॅू कि केतकी को ज़मी और आसमॉ में से क्या नहीं मिला था। उस फिरंग के साथ जा कर उसने क्या पाया-कितना पाया-कितना खोया? कुछ भी जान सकने का कोई भी ज़रिया नहीं है। क्या हुआ, कैसे हुआ,कुछ भी नही पता। उसने सही किया या ग़लत किया, यह सोच कर भी क्या करुॅगी। वैसे भी हम कौन होते हैं दूसरो को ले कर कुछ कहने या सोचने वाले। पर केतकी की बहुत याद आती है। पता नहीं कैसी होगी वह। अजब डर सा लगता है उसे ले कर। मीनाक्षी यहीं है...इसी शहर में। इतने पास कि हाथ बढ़ाऐ तो उसे छुआ जा सकता है। पर उसे तो अपना ही होश नहीं। उसका होना और न होना सब बराबर है। साथ वालों में और भी कुछ लोग हैं। पर उन सब के पास न सोचने के लिए दिमाग ही बचा है और न कुछ महसूस करने के लिये दिल ही। उन्हें तो पासबुक में बढ़ती धन की गिनती का हिसाब लगाने के अतिरिक्त कुछ लेना देना ही नहीं। बस उसी लिए तो कर रही हैं नौकरी। शायद उसी लिए जी भी रही हैं। कैसे बिखर गये हम सब। जो चले गये वे भी और जो हैं उनमे से भी अब मानसी के अलावा कोई साथ कहॉ हैं भला। पास होने का मतलब साथ होना तो नही होता न। मानसी भी अब पहले की तरह ज़िदादिल कहॉ रहीं। ज़िदादिली तो जैसे इस कालेज की हवाओं को अब रास ही नही आती। केतकी की बात याद आती है तो लगता है कि मेरे पास तो आसमॉ और ज़मी में से कुछ भी नही बचा। न सिर के ऊपर यश का साया है और न पैरों के नीचे की यह धरती यह कालेज ही मेरा है आज। उसी जगह ठहरे रहने से या उसी एक रिश्ते में बंधे रह जाने से वह अपना तो नही हो जाता न! जैसे किसी शून्य के सहारे सिर्फ जी रही हूं। किसी के होने का या अपने ही होने का क्या मतलब है जब तक वह होना हमको और हम उसको बिलॉग न करते हों। जब तक यह विश्वास मन में न हो कि दूसरे को भी हमारी ज़रूरत है या उस दूसरे को हमारा होना अच्छा लगता है। शरीर को ही नही मन को भी तो खाद पानी की ज़रूरत होती है। होने को तो कुर्सी मेज़ भी होते हैं। पर वह रक्त, मज्जा, दिल और दिमाग के साथ एक ज़िदा इंसान का होना तो नही है न। किसी मुर्दा की तरह, बिना किसी धड़कन एवं एक्टिव भागीदारी के उस जगह अपने होने का कोई मतलब नही होता। मतलब है भी तो वह बेहद पीड़ादायक स्थिति है।

हमेशा की तरह उस दिन भी मानसी जी ने नीचे से ही आवाज़ लगायी थी,‘‘अम्बिका घर पर ही हो ?’’

मैंने नीचे झांका था। मैं तो कालेज के बाद का समय घर पर ही रहती हूं। भला कहॉ जाऊॅगी। कभी मन बहुत उलझा भी तो मानसी के घर ही जाती हूं। नीता और मेरे क्लासेज़ का बिल्कुल ही अलग समय है। जब तक मैं फुर्सत पाती हूं तब तक नीता यूनिवर्सिटी जा चुकी होती हैं, सो उनके घर जाना कम ही होता है...वर्किंग डे पर तो कतई भी नहीं। बाज़ार भी कहॉ जाती हूॅ। इतने सालों में हज़रतगंज बदल गया है। लगता है जैसे अपना शहर ही नहीं यह तो। क्वालिटी और मेफेयर दोनो ही बंद हो चुके हैं। अपना रायल कैफे भी बंद हो गया। उसी नाम से किसी दूसरे ने उसे कहीं और खोल लिया है। पर नाम एक हो जाने से सब कुछ वही तो नहीं हो जाता। यश के साथ इन्ही जगहों पर तो जाती थी। न यश यहॉ हैं जिनके साथ कहीं जाऊॅ और न वे जगह ही रहीं जहॉ जाने का मन करे। कितना तो डॉटती हैं मानसी जी मुझे हर समय घर में घुसे रहने के लिए फिर भी वे हमेशा ही नीचे से ही पुकार कर पूछती हैं। यह बात अलग है कि जब तक मैं उत्तर देने के लिए बाहर आती हूं तब तक वे लगभग आधी सीढ़ियॉ चढ़ चुकी होती हैं। पहले मुझे नीचे से यूं नाम ले कर पुकारा जाना बड़ा अटपटा लगता था-उतनी ज़ोर से कि आस पास के चार घर और सुन लें। पर अब मेरी आदत पड़ गयी है। अब पहले की तरह उनकी उन आदतों पर मुझे झुंझलाहट भी नही होती और उस तरह से अटपटा भी नहीं लगता।

मैंने दरवाज़ा खोला था और हॅसते हुए वहीं खड़ी हो गयी थी। उन्होने वहीं बीच सीढ़ी से गर्दन उठा कर मेरी तरफ देखा था। एक हाथ में सब्जी से भरी टोकरी, दूसरे हाथ में छोटे बड़े दो तीन झोले-उस बोझ के साथ लपक झपक ऊपर चढ़ती वे,’’आटा है मढ़ा हुआ?’’उन्होने पूछा था,‘‘बहुत भूख लगी है। जल्दी से दो पराठे तो खिला दो यार।’’मानसी जी ने हॉफते हुये अपनी बात पूरी की थी।

मैं हॅसी थी,‘‘पहले ऊपर तो पहुंचिए मानसी जी। आटा नही होगा तो मढ़ जाएगा।’’

उन्होने ऊपर आकर अपने हाथों की टोकरी और थैले वहीं डाइनिंग टेबल पर रख दिए थे। मैं फ्रिज खोल कर खड़ी हो गयी थी। आटा तो मढ़ा रखा है पर कोई भी सब्जी नहीं। पक्की कच्ची कैसी भी नहीं। अण्डे तक नहीं। मैं मन ही मन परेशान होने लगी थी।

मानसी जी समझ गयी थीं,‘‘घर में कुछ नहीं? आज दुपहर में क्या खाया था?’’ उन्होंने पूछा था, जैसे पुलिस अफसर मुजरिम से पूछता है।

‘‘वह चाय और ब्रैड खा ली थी।’’ मैं ने जैसे सफाई दी थी।

‘‘आज रात में आप क्या खातीं? क्योंकि हमारी तरह सब्जी लेने के लिए जाने वालों में से तो आप हैं नहीं,’’ उन्होने फिर से डॉट कर पूछा था।

अब इस सवाल का मैं क्या जवाब दूं सो चुप ही रही थी। मानसी बड़बड़ायी थीं ‘‘कितनी बार समझाया अपने खाने का रुटीन रखा करो। खाना केवल पेट भरने के लिए थोड़ी होता है कि किसी तरह कुछ भी खा लिया। शरीर को सब कुछ चाहिए होता है-प्रोटीन,कैल्शियम,मिनरल-पूरी बैलैन्स्ड डायट-नहीं तो आधी उम्र में बूढ़ी हो जाओगी। सौ बीमारियॉ लग जाऐंगी। अभी से लटकी हुयी लगने लगी हो।’’ उन्होंने गुस्से से मेरी तरफ देखा था,‘‘लगोगी ही। सोचो सुबह से बस चाय टोस्ट...कोई साल्ट नहीं-मिनरल नही-कुछ इनर्जी फूड नही,’’ वे बड़बड़ाती रही थीं।

मैं चुपचाप गुनहगार की तरह मुह लटकाए खड़ी रही थी।

‘‘कभी कभी बहुत गुस्सा आता है।’’वे फिर बड़बडायी थीं। मैं नें हॅस कर उनकी तरफ देखा था,‘‘मानसी जी काफी तो आप डॉट चुकीं। जब से आयी हैं तब से डॉट ही रही हैं। अभी भी आपको गुस्सा आ रहा है।’’

उसी भृकुटी चढ़ी हुयी मुद्रा में उन्होने मेरी तरफ देखा था,‘‘तुम्हारे ऊपर नही।’’

‘‘तब?’’ मैंने आश्चर्य से उन की तरफ देखा था।

‘‘पता नहीं’’ वे बुदबुदायी थीं और अपनी टोकरी से सब्जियॉ निकालती रही थीं। उसी बीच वे फिर बहुत धीरे से बुदबुदायी थीं,‘‘यश पर।’’

मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा था। मन किया था कि पूछू यश पर क्यों? पर चुप रही थी। इधर तो न जाने कब से मुझ को लगता रहता है जैसे मन वैरागी हो गया है-क्रोध,हताशा,पछतावा-कुछ भी नहीं। शायद राग अनुराग भी नहीं।...पर पता नहीं। अपना मन अपने आप को समझ ही कहॉ पाता है। दिनों और हफ्तों के लिए मन एकदम शॉत हो जाता है-पूरी तरह से निर्विकार। तब कोई कमी नही खलती। किसी की याद भी नहीं आती। पर जब मन में संवेग उठते हैं तो उनके वेग को संभाल पाना कठिन लगने लगता है,कितनी याद, कितनी हताशा और अकेलापन। पर क्रोध जैसा तो यश ने कुछ किया भी नही था। यश ने मेरा चुनाव नही किया था-मेरी ज़िदगी ने ही मुझे यश के सामने ले जा कर फेंक दिया था। उस साथ का निर्वाह उन्होंने किया ही था। सच बात तो यह ही है कि यश ने मेरे साथ भला ही किया। उस कच्ची उम्र में यश मेरे साथ न होते तो ज़िदगी कैसे कटती। उतने के अलावा यश बेचारे क्या करते। फिर सहानुभूति और प्यार के बीच में कितना नन्हा सा तो फासला होता है कि समझ ही नहीं आता कि बीच में का ‘वह कुछ’ है क्या। जब मैं ही नहीं समझ पायी तो भला यश कैसे समझ पाते। अपनी मित्रों से कितनी बार यश की वकालत करने का मन करता है पर मैं चुप ही रहती हूं। वह इतनी लंबी और उलझी सी बात है कि समझ ही नहीं आता है कि कहॉ से शुरू करुं और रिश्ते की उस डोर को कैसे सुलझाऊॅ।

अभी कुछ साल पहले नीता किसी प्रोग्राम में सिंगापुर गयी थीं। वहॉ यश ने उसका काफी सत्कार किया था। उसके घूमने फिरने की व्यवस्था-लंच और डिनर पर बाहर आमंत्रित करना। वैसे भी नीता बहुत साल पहले यश से मेरे घर पर मिल चुकी थीं। अतः थोड़ी बहुत पहचान भी दोनों की थी ही। उन कुछ मुलाकातों में ही यश ने नीता से टुकड़ों टुकड़ों में मेरे बारे में बहुत सी बातें की थीं। देहरादून में हम दोनो का साथ बीता बचपन, हर साल लखनऊ में छुट्टियों का समय साथ बीतना,फिर लखनऊ में बिताये काफी लंबे बरस। उनके बीच के छोटे छोटे किस्से...कहानियों की तरह। उन्हीं बातों के बीच शायद यश नें यह भी कहा था कि‘‘कभी कभी सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी ज़िदगी के इतने बरस अम्बिका के बग़ैर बीत गये।’’उन्ही बिखरी टूटी बातों के बीच यह भी कहा था कि ‘‘मैं कभी कभी अपने आप को अम्बिका का अपराधी महसूस करता रहता हूं।’’

मैं सोचती हॅू कि चलो मेरे लिए इतना संतोष ही काफी है। उस संतोष को काफी होना चाहिए कि यश मुझे याद करते हैं। मुझे मिस करते हैं और आज भी मैं उनकी सोच का हिस्सा हॅू। आज भी जब कि उनके पत्नी है, परिवार है, एक भरा पुरा सा सफल जीवन है।

...पर...पर ज़िदगी बटोरे गए संतोष के सहारे तो नहीं कटती न। और वह रिश्ता? एक वायवीय सा अमूर्त एहसास-न पकड़ में आता है न समझ में ही आता है। आज सोचती हॅू उस कन्फ्सूस्ड...उलझे रिश्ते के बीच से यश ने अपनी एक सीधी सादी सुलझी हुयी दुनिया बसा ली। मैं ही क्यो उलझ गयी उस रिश्ते में? उन बातों में...वे छोटी छोटी बातें जिन्हें मन ने न जाने क्यों अपने पास सहेज कर रखा हुआ है। किसी वाक्य किसी एहसास का तो कोई अर्थ नहीं था। आज ही नहीं मैं तो हमेशा से जानती थी यह बात।

िसंगापुर से लौटने के बाद से नीता मुझसे जब भी मिलतीं हैं तब देर तक यश की बातें करतीं हैं। नीता के मन में अफसोस है कि यश से बात न करके मैंने ग़लती की। नीता को लगता है कि शायद उस समय यश अपने मन को ठीक से नही समझ पाए थे, ‘‘शायद यदि तुम स्वयं यश से बात करतीं तो तुम दोनो आमने सामने एक दूसरे की फीलिंग को समझ पाते। मुझसे ग़लती हो गयी अम्बिका कि मैंने ही तुम्हें बात न करने के लिए कह दिया।’’ नीता कें स्वर में माफीनामा होता है।

मैं हॅस देती हूं। वैसे भी क्या कहूं। हालॉकि मैं अच्छी तरह से जानती हॅू यह बात कि यश के बोले इन उखड़े टूटे वाक्यों का कोई भी गंभीर मतलब नही होता। उस समय यश को स्वयं नही पता होता कि वह क्या कह रहे हैं और वह क्या कहना चाहते हैं। यश तो बस अपने मन की बेचैनी को आवाज़ दे कर मेरे प्रति अपने दायित्व से निबट लेते हैं-पूरा का पूरा-वहीं का वहीं। मैं क्या यश को जानती नहीं।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com