पता, एक खोये हुए खज़ाने का - 13 harshad solanki द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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पता, एक खोये हुए खज़ाने का - 13

आखिर वे उस द्वीप के नजदीक पहुँच गए. अभी किनारा काफी अंतर पर था. दूर से देखा, द्वीप घने जंगलों से भरा पड़ा था. लगता था, यह द्वीप मानव पहुँच से दूर ही रहा है. बेट के चारों और पानी ही पानी था. नजदीक में कोई अन्य द्वीप के दर्शन नहीं हो रहे थे. इसका जोड़ी दार उत्तरी द्वीप भी दसियों मील दूर था.
राजू की टीम ने द्वीप पर पाँव रखने से पहले पूरे द्वीप की प्रदक्षिणा कर लेना और द्वीप का मुआइना कर हर तरह से जांच पड़ताल कर लेना उचित समझा. वे धीरे धीरे बेट के किनारों का निरीक्षण करते हुए आगे बढ़ रहे थे.
ज्यादातर किनारा दलदल और खड़ी चट्टानों से भरा पड़ा था. जहां से अगर वे घूसे और कोई संकट आ पड़ा. या किसी जंगली प्राणी का हमला हुआ और उन्हें भागने की जरूरत पड़ी, तो भाग नहीं पाएंगे. फँस कर रह जाते. एक दो जगहों पर बेट से ज़र्रे निकल कर समंदर में मिल रहे थे. पर वहां से घूसे तब भी फायदा मिलने की उम्मीद कम ही थी. क्यूंकि ज़र्रे बहुत संकरे और दलदली थे. और यहाँ से भी भाग निकलना आसान नहीं होता. पर कुछ जगहों पर पहाड़ी ढलान नुमा किनारा था. यूँ तो इस ढलान पर भी घनी झाड़ियाँ एवं पेड़ों का जंगल था. पर सब्जहारी प्राणियों ने बेल पत्तियों को आहार में ग्रहण कर कई जगह जमीन को साफ़ कर रखा था. और यहाँ उपलब्ध रास्तों में यही तो सबसे कम जोखिम वाला रास्ता था! इसलिए राजू की टीम ने यहीं से बेट पर पाँव रखने का फैसला किया.
वे आगे बढ़े. एक जगह पर खाड़ी जैसा स्थान नजर आया. उन्हें यह जगह अपनी याट को ठहराने के लिए उपयुक्त लगी. यहाँ याट को छिपाया भी जा सकता था और यह याट की सुरक्षा के लिए भी अच्छी जगह थी. पूरे द्वीप की प्रदक्षिणा करने के बाद उन्होंने याट को उस खाड़ी में मोड़ दिया.
साम ढल जाने की वजह से अब आगे कुछ किया नहीं जा सकता था. अतः, सभी ने भोजन ग्रहण किया. और पूरी टीम को तीन टुकड़ियों में बाँट कर बारी बारी से चौकी करने का फैसला कर सो गए.
चारों और गहरा सन्नाटा था. इस सन्नाटे में हलके हलके किनारे से समंदर की लहरों के टकराने की मधुर आवाज़ आ रही थी. पवन बेट से किनारे कि और बह रहा था. जो बहुत सुकून दे रहा था. ऐसे में जंगल से एक विचित्र सी आवाज़ आनी शुरू हुई. आवाज़ तो ऐसी थी जैसे बहुत से आदमी हूऊऊऊ... हूऊऊऊ... कर जोर जोर से चिल्ला रहे हो. हवा के जोंको के साथ आवाज़ घटती बढ़ती रही. पर यह आवाज कैसे और किसकी है, पता नहीं चल रहा था. देर रात होते यह आवाज़ आनी बंध हो गई. कभी कभार किसी प्राणी के चित्कारने की भी आवाज़ आती रहती थी.
*********
दूसरे दिन उजाला होने से बहुत पहले ही वे निकल पड़े. सूरज की किरण निकलने तक तो वे पहाड़ी की ढलान तक आ पहुँचे. सब से पहले उन्होंने अपनी लाइफ बोट को बेल पत्तियों से ढंक दिया. जिससे कि किसी की नजर न पड़े. फिर आरोहण आरम्भ किया. उन्होंने घुटनों तक के जूते एवं हेलमेट भी पहन रखे थे. हाथों में दस्ताने थे. इसलिए जंगली छोटे कीट मकोड़ों और साधारण जंगली प्राणी के हमलों से जोखिम नहीं के बराबर था. फिर भी बड़े जीव नुकसान पहुंचा सकते थे. इसलिए वे बड़े डंडों से झाड़ियों पौधों को टटोलते जा रहे थे. अगर वहां कोई बड़ा जीव छिपा हो तो पीछे हट जाए. छिपते छिपाते, इधर उधर नजर डालते वे धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे.
मेघनाथजी की बात उन्हें याद आ रही थी. यहाँ हजारों बरस पहले पाए जानेवाले प्राणी हो सकते थे. पर इस चढ़ाई के दौरान ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा था. हाँ, भिन्न भिन्न प्रकार के पक्षी, बिल्लियाँ, सर्प, जंगली भेड़, बन्दर, सूअर, इत्यादि नजर पड़ रहे थे. कुछ जगहों पर गीधड़ अपनी जमात लगाए मिज़बानी उड़ा रहे थे. कहीं कहीं छोटे छोटे तालाब और ज़र्रे भी नजर आ जा रहे थे. पर उन्हें ये कोई अजूबा नहीं लगा.
तो अब उन्हें ऐसा क्या देखने को मिलेगा कि उन्हें ऐसा लगे कि जैसे वे हजारों बरस पीछे की दुनियाँ में लौट गए हैं?
रास्ता आसान नहीं था. पर मुश्किल भी नहीं था. वे किनारे से घंटे भर के करीब आगे बढ़े होंगे, कि मार्ग में एक दस बारह फूट ऊँची खड़ी चट्टान आ गई. इस चट्टान को पार करना अपने बल संभव नहीं था. तुरंत भीमुचाचा का अनुभव काम आया. उसने जंगल में से बड़े और मजबूत तीन चार बांस काट लिए. और उसकी सीढ़ी बना ली. पर ये सीढ़ी भी दो तीन फूट कम पड़ गई. अब उन्हें तीन चार फूट सीढ़ियों से कूदकर चट्टान को पार करना था. सबसे पहले राजू सावधानी से चढ़ा. फिर बारी बारी से सभी सदस्यों ने एक दूसरे की सहायता से चट्टान को पार कर लिया. ऊपर चढ़ने के बाद वह सीढ़ी भी अपने साथ ले ली. अगर रास्ते में ऐसी अन्य चट्टान आ गई तो काम आ जाये.
पहाड़ी के शिखर तक पहुँचे, तब तक दोपहर होने को आई थी. अब आगे पहाड़ी की नीचे की और ढलान शुरू हो जाती थी. इसलिए आगे और ज्यादा आरोहण संभव नहीं था.
सब से पहले वे पूरे बेट का मुआइना करना चाहते थे. पर पहाड़ी की टॉच पर पहुंचकर भी ये काम मुश्किल लग रहा था. यूँ तो यहाँ की जमीन थोड़ी बहुत साफ़ थी, पर फिर भी पेड़ों की वजह से तलहटी में दूर तक देखना संभव नहीं हो पा रहा था. उन्होंने एक बड़ा पेड़ ढूंढा. राजू एवं पिंटू ऊपर चढ़ कर दूरबीन से चारों और नजर दौड़ाने लगे. यहाँ से बेट के एक बड़े हिस्से को देखा जा सकता था.
"अरे ये क्या!?" पिंटू दूर तलहटी में देखकर आश्चर्य से चौंकते हुए जोर से चीखा.
"क्या है?" राजू ने चोंक कर पूछा.
पिंटू: "देखो वहां!"
नीचे खड़े लोग भी दोनों की बातचीत सुन, क्या है, क्या है के सवाल करने लगे.
राजू: "वो तालाब!?"
पिंटू: "जी हाँ, वहीँ तालाब! उसमे देखो!! क्या है!"
राजू: "अरे ये क्या!? पानी में आग!?"
पिंटू: "पानी में आग नहीं! वो आग का प्रतिबीम है."
आग की बात सुन, संजय, दीपक, प्रताप और हिरेन भी अगल बगल वाले पेड़ पर चढ़ते हैं.
राजू: "हाँ, आग का प्रतिबीम ही है."
पिंटू: "तो फिर आग कहाँ होगी?"
राजू: "ये देखो. वहाँ पहाड़ी है, उसकी जरा दायिनी और तालाब पड़ता है. लगता है, पहाड़ी की दूसरी बाजू कहीं आग है! इसलिए हमें यहाँ से दिखाई नहीं दे रही."
पिंटू: "तो क्या जंगल में आग लगी होगी?"
राजू: "अगर जंगल की आग होती तो ये अब तक हमें दिखाई दी जाती. और ये देखो. कोई जंगली प्राणी पक्षी भी भागते दौड़ते दिखाई नहीं देते. अगर ऐसा होता तो अब तक जंगल में हुड़कम मच गया होता."
पिंटू: "हां. सच्ची बात है."
दूसरे पेड़ से दीपक: "तो ये क्या कुदरती जंगल की आग नहीं है?"
राजू: "ऐसा तो नहीं लगता."
प्रताप: "फिर ये आग किसने लगाई होगी?"
राजू: "यहीं तो मैं भी सोच रहा हूँ. ये नियंत्रित आग है. प्राकृतिक आग नहीं!"
नीचे से जेसिका चिल्ला उठती है: "नियंत्रित आग! देखो देखो, वहां कोई इंसान तो नहीं?"
पिंटू: "कोई नहीं दिखाई दे रहा."
तभी हिरेन की नजर पानी में हिलती हुई कोई परछाई पर पड़ती है. "देखो, देखो, वहां कुछ है!"
'ये तो कोई इंसानी साए जैसा लगता है!" पिंटू ने कहा.
राजू: "हाँ! लगता तो कुछ ऐसा ही है!"
दीपक: "तो क्या यहाँ कोई इंसान बसते होंगे?"
हिरेन: "हो सकता है!"
संजय: "पर ये कोई बन्दर भी तो हो सकते हैं?"
दीपक: "पर कोई बन्दर थोड़े ही आग जला सकते हैं!"
राजू: "पर मैंने कहीं पढ़ा हुआ है कि गोरिल्ला और अन्य एक दो किस्म के बन्दर को भी आग जलाते और मांस भुन कर खाते हुए देखा गया हैं. इसलिए हम तै नहीं कह सकते की ये लोग कोई इंसान ही होंगे."
हिरेन: "हा हा हा. मैंने एक वीडियो में एक बन्दर को सिगारेट पीते हुए भी देखा था!"
संजय: "और ये देखो! अब तो बहुत से साए आ गए."
राजू: "ये साए तो कहीं जा रहे हैं!"
पिंटू: "हाँ, ये तो चले!"
अब राजू और पिंटू थक चुके थे. दोनों बहुत देर से पेड़ पर खड़े थे. आगे ज्यादा कुछ मालूम भी नहीं पड़ रहा था. अतः दोनों नीचे उतर आते हैं. पर हिरेन, प्रताप, दीपक और संजय अभी भी ऊपर ही थे.
हिरेन: "ये देखो. जिन पहाड़ियों में हमें खोह की तलाश करनी है, वे इधर दक्षिण और पूर्व में फैली हैं."
संजय: "अरे हाँ! वहां देखो! तालाब के उस पार दूर वाली पहाड़ी की तलहटी दूसरी पहाड़ियों की तलहटी से कुछ अलग मालूम पड़ती है."
दीपक: "हाँ! इसका रंग कुछ अलग है."
सब आगे कुछ पता करने की कोशिश करते हैं, पर ज्यादा मालूमात न लगने पर थक कर नीचे उतर आते हैं. तब तक बहुत वक्त भी गुजर चूका होता है.
अब उन लोगों के सामने कुछ पहेलियाँ थी. क्या वे साए किसी इंसान के ही थे या फिर वे कोई बन्दर थे? और वे इंसान ही थे तो वो आग भी क्या उनकी ही लगाई हुई थी?
अब इन सवालों के उत्तर पाने का वक्त नहीं रहा था. इसलिए दूसरे दिन तालाब और उनके भेदों का पता लगायेंगे. इतना तै कर वे लौटे.
जब तक वे याट पर पहुँचे तब तक साम हो गई थी. उन्होंने अब तै किया कि अब वे पूरे साजो सामान के साथ चलेंगे और मेघनाथजी की बताई खोह की तलाश करेंगे. साथ ही साथ उन भेदी सायों, अलग दिखने वाली तलहटी और आग का रहस्य पता करने की भी कोशिश करेंगे. इस दौरान कुछ दिन जंगल में ही रहेंगे, तभी कोई काम बन सकता है. वर्ना यूँ ही आने जाने में वक्त बर्बाद होता रहेगा.
क्रमशः
अगले दिन जब वे धन की खोज में निकलेंगे तो क्या होगा? वे साए कौन थे? क्या वे साए उनके लिए कोई मुसीबत खड़ी करेंगे? अब कहानी अत्यंत रोचक दौर में प्रवेश करने वाली है. जानने के लिए पढ़ते रहे...
अगले हप्ते कहानी जारी रहेगी.