गवाक्ष
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प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी चांडाल-चौकड़ी अपनी मस्ती में थी कि एक हादसे ने सत्यव्रत को झकझोर दिया, उसे जीवन की गति ने पाठ पढ़ा दिया। एक रात्रि जब वह मित्रों के साथ खा-पीकर अपनी विदेशी कार में घूमने निकला तब एक भयंकर दुर्घटना घटी। एक भैंस उसकी कार के सामने आ गई, भैंस के मालिक ने कई लठैतों के साथ मिलकर उसे मारने के लिए घेर लिया।
सारे मित्र दुर्घटना-स्थल से भाग निकले, वह कठिन परिस्थिति में फँस गया। उसको बुरी प्रकार पीटा गया, जेब से सारे पैसे निकाल लिए गए, हीरे की घड़ी, अँगूठियाँ सब छीन ली गईं, उसकी एक टाँग बुरी प्रकार कुचल दी गई थी।
“अरे! कहाँ मुसीबत मोल लेंगे, चलो भागो यहाँ से ---" घायल सैवी के कानों ने अपने तथाकथित मित्रों की खुसफुसाहट सुनी और फिर दूसरी गाड़ी के इंजन की आवाज़ सुनी जिसमें वे मित्र थे जो एक गाड़ी में समा नहीं पाए थे, आवाज़ क्रमश: दूर होती चली गई थी । कुछ पलों में वह निश्चेष्ट हो गया ---- ।
पूरी रात भर सत्यव्रतअन्धकार युक्त निर्जन मार्ग पर पड़ा कराहता रहा, उसके शरीर का बहुत रक्त निकल गया था। पुलिस के भय व बेकार की मुसीबत मोल लेने के भय से किसी ने पुलिस को ख़बर देने का भी कष्ट नहीं किया । सुबह चार बजे जब गाँव से शहर दूध लाने वाले उस मार्ग से गुजरकर शहर की ओर आने लगे तब कराहते हुए ज़ख्मी व्यक्ति पर उनकी दृष्टि पड़ी और उसे उठाकर लाया गया।
सत्यव्रत की माँ बेटे की दुर्घटना के बारे में जानकर अर्धविक्षिप्त सी हो गईं । उनके लिए जैसा भी था वह उनका एकमात्र पुत्र था, जिसका कुछ दिवस पूर्व ही विवाह हुआ था, उनकी दुनिया अपने इसी पुत्र के चारों ओर घूमती थी ।
"मैंने सोचा था मेरी पारस बहू फिर से इस सैवी को सत्यव्रत नाम का सोना बना देगी पर इसने -----" माँ ने अपना सिर दीवार से दे मारा था किन्तु स्वाति दृढ़ बनी रही । माँ को अपने बेटे व भाग्य पर क्रोध था और केवल एक ही सहारा दिखाई देता था। उनकी पुत्रवधू स्वाति!स्वाति उनके अंधकार युक्त जीवन में टिमटिमाती लौ सी आई थी जिसे बीहड़ जंगल में जुगनू की भाँति इस परिवार का मार्ग प्रशस्त करना था ।
सत्यव्रत का इस प्रकार दुर्घटनाग्रस्त होना माँ के लिए भयंकर पीड़ा बन गया। सत्यव्रत का बहुत रक्त जा चुका था, लोहे के रॉड से पीटने के कारण पूरे शरीर में इस प्रकार विष फ़ैल रहा था कि उसकी एक टाँग काट देनी पड़ी । छह माह वह अस्पताल में पड़ा रहा लेकिन उसके साथ मौज-मस्ती करने वालों की टोली में से एक मित्र भी उसके पास आकर नहीं झाँका । जीवन के 'एक पल' में विश्वास करने वाली स्वाति नेअपने एक-एक पल की उपयोगिता की व्यवस्थाकी । पति की प्रत्येक आवश्यकता के साथ वह अपनी विक्षिप्त सास व व्यवसाय को कुशलता से संभालती रही ।
दुर्घटना, माँ की विक्षिप्तता तथा व्यवसाय सबको स्वाति की सेवा व कुशल संचालन ने इतनी भली प्रकार सँभाला कि सब उसकी कार्य-कुशलता पर आश्चर्यचकित हो उठे । स्वाति की निःस्वार्थ सेवा ने सैवी को पुन:सत्यव्रत बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर दिखाया।
" बेटा ! मेरा विश्वास जीत गया, वह विश्वास जो मुझे तुम पर था किन्तु उसे अँधेरों ने अपने गुबार में छिपा लिया था ---"माँ ने पुत्रवधू पर अपनी ममता व स्नेह-आशीषों की वर्षा कर दी थी ।
रिश्तों की एक गरिमा होती है, रेशमी डोरी से बँधे रहते हैं रिश्ते!जिन्हें सँभालकर रखना होता है । इसीलिए जब रिश्ते टूटते हैं तब वे आँसुओं से रोते हैं, जो सूख तो जाते हैं लेकिन निशान छोड़ जाते हैं। कितने भी बेमौसमी रिश्ते हों, कितनी भी परेशानियाँ हों, संभालना सँवारना आता था उसे रिश्तों को । कितना भी कष्टसाध्य क्यों न हो स्वाति के मन पर 'सकारात्मक' मुहर चिपकी थी, कागज़ के रिश्तों में कागज़ी फूलों सा लुभावनापन तो होता है, सच्चे पुष्पों जैसी रिश्तों की सौंधी सुगंध नहीं । उसने माँ-बेटे को रिश्तों में भरकर उन्हें समीप ला दिया था और माँ व बेटे को रिश्तों की सुगंध से सराबोर कर दिया ।
जब सैवी बनावटी टाँग लगवाकर अस्पताल से घर वापिस आया तब वह पूरी तरह सत्यव्रत में बदल चुका था। ज़िंदगी का वास्तविक स्वरूप उसे बहुत शीघ्र ही अपनी छटा दिखा गया था। स्वाति ने माँ बनकर उसे सहलाया, मित्र बनकर हँसाया तथा जीवन की वास्तविकता को समझने में उसकी सहायता की। अब उसे महसूस हुआ कि जीवन वह था ही नहीं जिसमें अभी तक वह फँसा पड़ा था, उसकी अस्वस्थता के समय स्वाति उसकी वास्तविक मित्र बन गई थीऔर उसने उसे जीवन, रिश्तों व मित्रों की गरिमा सेअवगत कराया था । अब तक का उसका सारा जीवन एक दुखद स्वप्न की भाँति अतीत के पवन के झौंके में बिखर गया था और स्वाति ने अब 'स्वाति नक्षत्र' की अलौकिक बूँद बनकर चातक सत्यव्रत के जीवन की वास्तविक प्यास बुझाई थी । अब सत्यव्रत के ह्रदय की गहराइयों में स्वाति एक सीप की भाँति समा गई थी ।
स्वाति ने उसके समक्ष गांधी जी, स्वामी विवेकानंद, डॉ.राधकृष्णन आदि का दर्शन इतने मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया कि उसने वास्तविक आनंद को पहचानना शुरू किया, वह अब समझ गया था कि वास्तविक संबंध व मित्रता क्या होती है?दुर्घटना के पश्चात अब पत्नी उसके जीवन की धुरी बन गई थी। स्वस्थ होते ही स्वाति के साथ मिलकर सत्यव्रत ने अपने व्यवसाय को बहुत अच्छी प्रकार संभाल लिया । पुत्रवधु की सेवा से माँ भी ठीक हो चुकी थीं।
स्वाति की सेवा व लगन से माँ के जीवन में पसरा हुआ अन्धकार व एकाकीपन समाप्त हो गया था । विवाह के प्रथम दिवस से ही स्वाति प्रात: माँ के चरण -स्पर्श करती थी । एक दिन माँ से न रहा गया ;
"बेटी ! ये रोज़ पैर छूने की क्या ज़रुरत है ? तुमने जो इतनी सेवा की है और कर रही हो उससे तुम सदा आशीर्वाद पाओगी फिर यह परंपरा क्यों ? रहने दो अब ---"
"मैं जानती हूँ माँ आपका आशीष सदा मेरे साथ है, उसके बिना तो मैं कुछ भी नहीं कर सकती । मैं किसी परंपरा के वशीभूत आपके चरण-स्पर्श नहीं करती । हम दोनों एकसाथ रहते हैं, कभी आपको मेरे किसी आचरण से क्रोध आ सकता है तो कभी किसी नाज़ुक क्षण में मेरे मुह से कोई अपशब्द निकल सकते हैं । इससे मन को व्यर्थ ही क्लेश हो सकता है । यदि दुर्भाग्यवश कभी ऐसा हो तब भी आप मुझसे या मैं आपसे कितनी भी रुष्ट क्यों न हों प्रात:काल में आपके चरण स्पर्श करके बीते पलों की नाराज़गी समाप्त हो जाती है। " माँ ने उसे अपने सीने से लगा लिया लिया था ।
क्रमश..