गवाक्ष
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पॉंच-पॉंच वर्ष के अंतर में सत्यव्रत व स्वाति की फुलवारी में क्रमश: तीन पुष्प खिले। दो बड़े बेटे व अंत की एक बिटिया। बस--- यहीं फिर से सत्यव्रत के जीवन में अन्धकार छाने लगा। सत्यव्रत व स्वाति दोनों एक बिटिया की ललक से जुड़े थे । इस दुनिया से विदा लेते समय स्वाति व सत्यव्रत में कुछ पलों का वार्तालाप हुआ था । स्वाति समझ रही थी कि वह जा रही है। नन्ही सी बिटिया के गाल पर ममता का चुंबन लेकर स्वाति ने उसे सत्यव्रत की गोदी में दे दिया। सत्यव्रत ने बिटिया के माथे को स्नेह से चूम लिया और उसे पालने में लिटाकर पत्नी के पास आ बैठा।
स्वाति का रक्त-संचार बहुत अधिक रहने लगा था । उसके लिए ऎसी स्थिति में गर्भ धारण करना हितकर नहीं था । परन्तु जो होना है, वह सुनिश्चित है। बिटिया आई तो परन्तु उसके जन्म के समय रक्तचाप बहुत अधिक हो जाने के कारण स्वाति का स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह उसे छोड़कर चली गई । डॉक्टर यथासंभव प्रयत्न करके हाथ मलते रहे गए । सत्यव्रत को बहुत बड़ा धक्का लगा परन्तु स्वाति सत्यव्रत को जीवन की सार्थकता समझा, सिखा गई थी;
"जीवन चंद दिनों का है जिसमें मनुष्य के भीतर पलने वाला 'अहं' उसको कभी भी खोखला बना सकता है, कभी भी उसको समाप्त कर सकता है । अहं को छोड़कर यदि मनुष्य सरल, सहज रह सके, उस समाज के लिए कुछ कर सके जिसका वह अंग है तभी जीवन की सार्थकता है । अन्यथा सभी आते-जाते हैं लेकिन उनका ही दुनिया में आना सुकारथ होता है जो किसी की सहायता कर सकें, किसीको मानसिक व शारीरिक तुष्टि दे सकें, किसी की आँखों के आँसू पोंछकर उसके मुख पर मुस्कुराहट ला सकें । जीवन के बारे में कोई कुछ नहीं जानता, कुछ नहीं कह सकता। जीवन सत्य है परन्तु सार्वभौमिक व शाश्वत यह है कि मृत्यु वास्तविक सत्य है, जीवन का अंतिम पड़ाव ! यही जीवन-दर्शन है । " । स्वाति के दुर्बल हाथों को सहलाते हुए उसने डबडबाई आँखों से उसे देखा था --
"सत्य ! जन्म लेने के पश्चात मृत्यु सबके लिए सुनिश्चित है, कोई नहीं जानता उसके पास कितना समय है लेकिन एक बात निश्चित है कि जन्मने वाले को खेल पूरा करके वापिस लौटना है", और उसने जीवन, रिश्तों व मित्रों की गरिमा से उसे अवगत कराया, जीवन के मंच पर चरित्र के खेल की इस वास्तविकता की सशक्त अनुभूति कराई । वह जा रही थी, बोलते हुए उसनी श्वाँसें ऊपर-नीचे होने लगी थीं ।
"दुनिया में आने के बाद हम जो कुछ भी करते हैं, अपने -अपने चरित्र का निर्वाह करते हैं। जीवन रूपी नाटक का पटाक्षेप मृत्यु पर आकर होता है अत:जीवन का वास्तविक सत्य मृत्यु है, उसे हमें स्वीकारना चाहिए। हम अधिक तो कुछ नहीं जानते लेकिन इतना तो समझ सकते हैं कि जीवन के मंच पर अपने पात्र को ईमानदारी से खेल सकें। जन्म एक उत्सव तो मृत्यु सबसे बड़ा उत्सव ! अत:मेरी मृत्यु को एक उत्सव की भाँति मनाना । "
स्वाति की देह के विलीन होने के पश्चात सत्यव्रत की दुनिया बदल गई । उसने स्वाति की मृत्यु एक जश्न की भाँति मनाई । उसके लिए स्वाति की मृत्यु हुई नहीं थी, वह उसके भीतर जीवित थी । अब वह जो भी कार्य करता था स्वाति की सोच व चिंतन के अनुसार ही करता था ।
एक बार स्वाति ने सत्य से कहा था ------
“दुनिया के कारोबार के लिए सबको एक नाम की आवश्यकता होती है इसीलिए प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति के नाम रखे गए। नाम देह तक ही सीमित रह जाता है, आत्मा का कोई नाम ही नहीं है। जीवन का यह कितना बड़ा दर्शन है कि इस भौतिक संसार में जन्म लेकर हम सब स्वयं को वह 'नाम'समझने लगते हैं, यह भूल जाते हैं कि हमारा दुनियावी नाम केवल यहीं तक ही सीमित रहता है । जहाँ पाँच तत्वों में विलीन हुआ सब समाप्त । हमारे भौतिक शरीर के विलीन होने के पश्चात हमारे द्वारा किए हुए कर्मों से हमें जाना जाता है। जैसे कर्म, वैसा उनका परिणाम ! "
जीवन के पृष्ठ पलटते हुए मंत्री जी न जाने कितनी दूर निकल गए थे, उनके नेत्र पनीले थे किन्तु चेहरे पर सत्य, ईमानदारी, आत्मविश्वास की अलौकिक छटा विद्यमान थी।
“मेरी पत्नी स्वाति स्वयं संत का सा जीवन जीकर मुझे सिखा गई कि यदि मनुष्य चाहे तो इस दुनिया के सब कर्तव्यों को ईमानदारी से पूरा करके आसक्ति रहित जीवन जी सकता है । "
"ओह!" दूत के मुख से निकला, सत्यव्रत जी का ध्यान भंग हुआ । अपने जीवन की पुस्तक के पृष्ठों को पलटते हुए उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा था कि वे किसी अनजान को अपने जीवन के बारे में बता रहे थे। उन्होंने अपनी भीगी पलकों पर अपनी हथेलियाँ रखकर सामान्य दिखने का प्रयत्न किया।
क्रमश..