तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 15 - पहली नौकरी Medha Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 15 - पहली नौकरी

दिल्ली

पढ़ाई पूरी हो चुकी थी मेरी। दिल्ली का चुनाव मैंने किया था क्योंकि मेरी मित्र थी वहां। ढेर सारे अरमान एवम् थोड़े से सामान के साथ दिल्ली पहुंची मैं। संयोगिता को पहले ही बता दिया था। स्टेशन आने वाली थी वो।

दिल्ली स्टेशन - देख कर लगा सालों पहले यहां मेरी तरह ही वर्षा वशिष्ठ आई होंगी ' मुझे चांद चाहिए ' वाली। स्टेशन पर संयोगिता के साथ दीपक एवं अन्य कोई परिचित थे। मैं ऑटो से जाना चाहती थी कि क्योंकि दो सामान थे मेरे पास और एक छोटा सा पीठ पर टंगा बैग।

दो बाइक लेकर आए थे वो। तो सलाह हुआ कि बाइक से ही जाया जाए। दीपक मेरा मित्र था, उसके साथ बैठने में आपत्ति नहीं थी मुझे दोनों तरफ पैर करके, पर किसी अपरिचित के साथ असहज थी मैं। मैंने देखा सीट ऊंची थी दोनों बाइक की। संयोगिता के कान में कहा धीरे से मैंने कि दीपक के साथ बैठूंगी मैं, पर तुम एक बार चढ़ कर दिखा दो कि बिना किसी सहायता के कैसे बैठें बाइक पर दोनों तरफ पैर डाल कर। उसने हामी भरी और कहा कि देखो और जब तक देखती मैं, दीपक ने बाइक स्टार्ट कर दी।

मेरे पास अब कोई विकल्प नहीं था। एक बैग और एक सामान था मेरे हाथ में। बाइक स्टार्ट हुआ और पीछे बैठी मैं दोनों पैर एक ही तरफ रख कर - हाथ में सामान लिए। और निकला ये बाइक भी स्टेशन से लक्ष्मीनगर की तरफ। मैं कस कर सामान , बैग और खुद को थामी थी।

अब हमलोग यमुना ओवरब्रिज पर थे । जून के महीने में भी तेज चलती बाइक पर आती हुई यमुना की ठंडी हवा बहुत सुकून दे रही थीं। काफी जाम था और अचानक बाइक रुकी और सामान सहित जोरों की गिरी मैं। बिना एक क्षण गवाएं तेजी से फिर आकर बैठ गई बाइक पर कि कोई देख ना ले मुझे। आश्चर्य आगे के सवार ने एक बार पूछा ही नहीं, वैसे भीड़ काफी थी और वो व्यस्त था जगह बना कर बाइक निकालने में।

अब फिर से बाइक रफ्तार पकड़ चुकी थी और दर्द से बिलबिला उठी मैं। जो ठंडी हवा कुछ देर पहले सुकून पहुंचा रही थी, अब बेंध रही थी मुझे। घुटने के पास बहुत दर्द हो रहा था। आंखों से आंसू बह रहे थे। सामान था पैरों पर रखा , तो दिख भी नहीं रहा था अपना घुटना। ईश्वर का नाम लेते लक्ष्मीनगर पहुंचे हमलोग। वो लोग पहले ही पहुंच चुके थे। बाइक खड़ी करके ये परिचित भी अंदर गए। अब मैंने देखा कि खूब खून बह रहा था और घुटने पर सलवार फट चुकी थी। इस तरह पहली बार सबके सामने जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। संयोगिता को पुकारा मैंने। वो आई और भौचक रह गई। अंदर ले गई बाथरूम और कपड़े बदल कर बाहर आई मैं।

अब दर्द और ज्यादा हो रहा था। जाकर मेडिकल स्टोर पर पट्टी करवाई गई। अब कुछ दिन तक कहीं जाने लायक नहीं थी मैं। दिल्ली ने उतरते ही जता दिया था , बहुत आसान जीवन नहीं होने जा रहा था मेरा यहां का।


महिपालपुर में ऑफिस था मेरा। जाने में करीब डेढ़ घंटे या दो घंटे लगते मुझे। १० दिन बाद नौकरी ज्वाइन किया मैंने। सुबह ८बजे निकलना होता मेरा और रात करीब ८:३० तक पहुंचती घर मैं। मेरे संस्थान के मित्रों ने संपर्क किया मुझसे। वो लोग मालवीय नगर में थे। मुझे लगा वह जगह ज्यादा बेहतर होगी मेरे लिए और अगले महीने वहीं शिफ्ट हो गई मैं।

मेरी छोटी सी पूरी सैलरी घर के किराए, बस और तीन समय के साधारण खाने में खत्म हो जाता। खाना हम सब लड़कियां घर में ही बनाते थे। मम्मी नौकरी में थी तो रात का खाना मैं और छुटकी बनाते थे - सब्जी वो बनाती थी और रोटी मैं , तो यहां भी वही भार लिया मैंने। सबकी स्थिति एक ही थी, तो अच्छा लगता था यहां। मोना सुबह सब्जी बनाकर आटा गूंथ देती थी। रात का खाना रश्मि और काकोली बनाते थे।

एमडी सर ने मेरा इंटरव्यू लिया था। पहले दिन ही उन्होंने कहा था - "आपके बिहार के लोग बहुत मेहनती और तेज होते हैं। आप भी अच्छा करेंगी और शीघ्र उन्नति करेंगी। "

मेरी पहली सीनियर बहुत अच्छी थी। बहुत अच्छे से काम समझाती। उनके ही साथ निकलती मैं, हालांकि हमारा रूट अलग था। पैसे जरा भी नहीं बचते थे। घर के सामान और अन्य छोटे - मोटे खर्चे में सब खत्म हो जाता। घर से मांगना अपने आत्म सम्मान के विरुद्ध लगता। वैसे भी अभी तीनों भाई - बहन पढ़ ही रहे थे। शाम तक भूख जोरों की लग जाती मुझे। उस दिन जब निकली तो सामने समोसे छन रहे थे। नहीं चाहते हुए भी मेरा ध्यान उस तरफ चला गया। तुरंत आंखें हटाई मैंने। मेरी सीनियर देख चुकी थी। बोली - " आओ, समोसा खाते हैं। "

बाद के अपने हरेक जॉब में मैंने ध्यान रखा अपने जूनियर्स के खाने - पीने का।

आज जो लड़कियां दिल्ली मेट्रो से सफर कर रहीं हैं उन्हें अंदाज भी नहीं होगा कि उससे पहले कितना भयावह था कुतुब के पास रात में बस के लिए खड़ा होना। मेरे ऑफिस की छुट्टी का समय ६ बजे शाम था। ऑफिस के एमडी मुझे बहुत स्नेह करने लगे थे पहले ही दिन से, और यही बात उनके भाई दूसरे डॉयरेक्टर को खटकती थी। जिस दिन एमडी नहीं होते वो किसी बहाने मुझे लेट करवाते। काम से मुझे कभी दिक्कत थी ही नहीं, पर अंधेरे में एकांत में कुतुब के सामने के बड़े पेड़ों के नीचे खड़े होकर बस का इंतज़ार करना अंदर से भयाक्रांत कर देता मुझे। बिल्कुल अंधेरा होता वहां। बस कहीं बगल से एक छोटी सी रौशनी आती रहती किसी चाय के दुकान से।

एक महीने कैसे भी काटे इस ऑफिस में। डायरेक्टर साहब आते - जाते मुझे सुनाते -" सुना है बहुत पढ़ी लिखी हैं आप। कुछ नहीं होता पढ़ने - लिखने से।" जानकारी मिली - उनके भाई एमडी बाहर से पढ़ कर आए थे, पर ये पूरा बिजनेस इन्होंने ही खड़ा किया था। इनको पढ़े - लिखे , चमचागिरी नहीं करने वाले लोगों से सख्त नफरत थी और उसकी चपेट में मैं आ रही थी बार - बार।

उस शाम फिर मुझे विलम्ब हो रहा था, ये मुझे कुछ कुछ काम पकड़ा रहे थे। मैंने अंततः कहा कि मुझे जाने दें। हंसते हुए इन्होंने कहा - " दिल्ली की अभी तो शाम ही हुई है।"

मैंने अनुरोध किया , पर वो जाने ही नहीं दे रहे थे। मैंने फाइनली कहा - " मैं निकल रही। " बार - बार कुतुब बस स्टैंड याद आ रहा था मुझे।

उनके कुछ बाहर से मित्र आए थे। मेरे हद की सीमा पार हो चुकी थी। उनकी आवाज आई - " ऐसी नौकरी नहीं चलेगी यहां। " मैं अब तैयार थी - " मैं खुद आपके जैसे के साथ काम करना पसंद नहीं करती। "

"क्या मतलब है तुम्हारा? कैसा हूं मैं? "

पूरे महीने का बदला आज ले लेना चाहती थी मैं। तय तो कर ही चुकी थी कि नहीं आना है कल से।

" जाहिल हैं आप। इसलिए समझ में नहीं आता कि समय के बाद बिना कारण लड़कियों को नहीं रोकना चाहिए। पब्लिक ट्रांसपोर्ट इस्तेमाल करती हूं मैं यहां। नहीं तो अपनी गाड़ी होती तो ९ बजे तक रुकी रहती। मेरे पापा के साथ भी लड़कियां काम करती हैं। वो उन्हें अंधेरा होने से पहले ही छोड़ देते हैं।"

पूरा ऑफिस मुझे देख रहा था। अधिकांश पुरुष सहकर्मी थे ही ऑफिस में। ऑफिस क्यूबिकल होने से बात सार्वजनिक ही हो रही थी। अब बिना किसी की तरफ देखे, भागी मैं बस पकड़ने।

महिपालपुर का हाई वे , एक दूसरा संकट लगता था मुझे। तेजी से भागते बस , कार और वैन - मेरा दिमाग एक क्षण के लिए काम करना बंद कर देता। आज भी खड़ी थी मैं इस तरफ। बस उस तरफ आती। हाथ दिया तो बस रुक गई। आगे बढ़ी मैं, सामने से दूसरी बस आ रही थी। फिर पीछे कर लिया पांव मैंने। दो बार ऐसा ही हुआ। सामने बस कंडक्टर देख रहा था। अगले क्षण वो मेरा हाथ पकड़ कर रोड पार करवाया और घर पहुंचीं मैं।

आज मेरा अंतिम दिन था इस डेढ़ महीने पूर्व ज्वाइन किए गए पहली नौकरी का।