पिछले भाग में आपने पढ़ा कि व्यापारी ने अपनी कथा में बताया कि अभियान सहायक ने किस तरह अपने अनुभवों की कथाओं द्वारा व्यापारी की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की। किंतु, कथा कहते-कहते व्यापारी ने देखा कि डाकू सो गये हैं। अब आगे...
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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-भाग-23
यात्रा अतीत की ओर
“तो फिर तुम्हारी शादी उस मत्स्यकन्या से हो गई न?” एक डाकू ने पूछा।
“क्यों तुम लोगों ने रात कथा पूरी सुनी नहीं क्या?” व्यापारी ने पूछा, “सो गये थे क्या?”
“नहीं नहीं, हम तो सुन रहे थे। सुनाते सुनाते तुम ही सो गये थे।” दूसरे डाकू ने अपने साथी की तरफ देखकर आंख मारते हुये कहा, “हमने तुम्हारी नींद खराब करना उचित नहीं समझा।”
व्यापारी मुस्कुराये बिना न रह सका।
वे दक्षिण दिशा की ओर चलते हुये लगातार पहाड़ से नीचे की ओर उतर रहे थे। उन दोनो के तीसरे साथी ने यही जगह बताई थी।
“उसके बाद क्या हुआ?”
“किसके बाद?” शरारत की भावना से व्यापारी ने पूछा।
“शादी के बाद?” उस डाकू ने कहा।
“सुहागरात।” व्यापारी ने शरारत के उद्देश्य से कहा।
“सुहागरात? तुमने सुहागरात भी मनाई।” उसी डाकू ने भी शरारत से पूछा।
“हाँ, रात को ही तो पूरा वर्णन किया था...। तुम लोग सो गये थे शायद।” व्यापारी ने उनके मुख से ही उनका सच उगलवाने की गरज से झूठ-मूठ कहा।
किंतु...
“मैं नहीं सोया था। मैंने तो पूरा सुना।” दूसरे डाकू ने कहा।
स्पष्ट था वे झूठ बोल रहे थे।
‘झूठ की भी कोई हद होती है।’ व्यापारी ने मन में कहा किंतु प्रत्यक्षतः यही कहा, “फिर तुम ही इसे सुना देना।”
“तुम्हारी कथा, तुम ही सुनाओ।” डाकू ने बचने के लिये बहाना किया।
“नहीं, मैं अब बार बार पिछली कथा ही नहीं दोहराता रहूंगा।”
“तो ठीक है। आगे की कथा सुना दो...”
“आगे की कथा?...” व्यापारी सोंच में पड़ गया। आगे कहां से प्रारम्भ करूं? यह तो स्पष्ट है कि रात वे लोग कथा के प्रारम्भ में ही सो चुके थे। यानि अब उन्हे शादी के बाद ही कहीं से कथा प्रारम्भ करनी होगी। लेकिन फिर कहानी की लय टूट जायेगी यह सोंचकर उसने कथा वहीं से प्रारम्भ की जहाँ से छोड़ी थी...
“अगली प्रातः मैं बिल्कुल खिन्न मन के साथ, पोत की छत पर खड़ा दूर क्षितिज को निहार रहा था। मेरा परम मित्र गेरिक मेरी इस अवस्था में मुझे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। वह यहाँ भी मुझे ढाढस बंधा रहा था।
“मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। लगता है मैं यहाँ से कहीं भाग जाऊँ।” मैंने बहुत लाचारी से कहा।
“मैं जानता हूँ मित्र! जीवन में कई बार हम ऐसे दौर से गुज़रते हैं। किंतु भागना किस समस्या का हल है?” उसने सहानुभूति पूर्वक मुझसे कहा।
“...इस समस्या का हल है। मुझे लगता है मैं गलत जगह आ फँसा हूँ।” मैंने कहा।
“मित्र, गलत जगह तो मैं भी फँसा हूँ; किंतु हम यहाँ अपनी इच्छा से तो नहीं है। देश काल कभी हमारे अनुकूल होता है कभी नहीं भी होता है। इसका चयन हमेंशा हमारे हाथ में नहीं होता। पर हमारे सामने दो विकल्प होते हैं, एक यह कि हम इसे अपने अनुकूल बना लें, दूसरा यह कि हम स्वयम् इसके अनुकूल हो जायें।” गेरिक हमेंशा बुद्धिमानी की बातें करता रहता है।
हम दूर क्षितिज की ओर देख रहे थे जहाँ शायद हमारे भविष्य की आशा की कोई किरण फूटने वाली हो। किंतु वहाँ कुछ नहीं था सिवाय धुंध के। धुंध... शायद यह भविष्य की ओर कोई इशारा हो। विचारों के भंवर मन मस्तिष्क में हलचल मचा रहे थे। मन की उदासी है कि जाने का नाम ही नहीं लेती। क्या आशा कि एक भी किरण नहीं थी। मैं जानता था कुछ बुरा कुछ खतरनाक नहीं होने वाला; हमारी यात्रा का लक्ष्य आशाओं की ओर ही है; किंतु उस षड्यंत्रकारी हत्या की स्मृति रह रह कर मुझे विचलित कर रही थी। गेरिक इस बात से इतना प्रभावित नहीं था। वह एक समय एक सैनिक रह चुका था और सेना का प्रशिक्षण ही आपके व्यक्तित्व को इतना ठोस बना देता है कि बहुत सी विचलित करने वाली बातें भी उन्हे प्रभावित नहीं करती। फिर भी मेरी भावनायें उसे प्रभावित करती हैं। मेरी चिंता उसे भी चिंतित कर देती है।
हम दोनो ही घूम घूम कर अपने चारों ओर स्थित अथाह जलराशि से पार क्षितिज के पार कुछ आशाजनक, कुछ उत्साह्जनक देखने की कोशिश कर रहे थे और वह हमें मिला भी।
“वाह!! उस ओर! उस ओर!” गेरिक उत्साह से चिल्लाया।
मैंने उस ओर देखा। हमारी दाहिनी ओर क्षितिज की सीमारेखा पर धुंध के बीच से शनैः शनैः एक आकृति उभर रही थी।
“अरे हमारा टापु उस ओर है।” वह उत्साह से चिल्लाया। हम दोनो खुशी से उछल पड़े और उत्साह से भरकर एक दूसरे को बाहों में भर लिया। फिर जैसे ही हमने एक दूसरे के चेहरे की ओर देखा, हमने पाया, हम दोनो की ही आंखें छलक आई थीं। हम उस निर्जन टापू से इतना प्रेम करने लगे थे, हमें इस बात का कभी आभास नहीं हुआ था।
हमारी चीख पुकार सुन कर और भी लोग वहाँ चले आये।
“किंतु वह तो इस दिशा में होना चाहिये था।” सेनापति महोदय ने संशय जताया।
“लगता है हम लोग उस रात शायद अपनी दिशा से कुछ विचलित हो गये थे और इसी लिये जलदस्युओं के क्षेत्र में पदार्पण कर गये थे।” गेरिक उतने ही उत्साह से बोलता रहा, “वह देखो वह पहाड़ मैं उस पहाड़ को पहचानने में कोई भूल नहीं कर सकता। वह हमारा ही टापू है।”
इसके पश्चात पोत को उस दिशा में मोड़ लिया गया।
इस प्रकार हमने अपने द्वीप का रुख किया। जैसे जैसे हमारा टापु निकट आ रहा था, हमारा मन प्रसन्नता से मचलता जाता था।
यह आशचर्य की बात है न कि कभी हमने इसी द्वीप को छोड़कर जाने के लिये अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी थी...
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हम बहुत प्रसन्न थे। आखिर हमने अपने आप को सही प्रमाणित कर दिया था। हमने अपने बारे में मत्स्यद्वीप के लोगों से और वहाँ के प्रशासन से जो कहा था वह सच प्रमाणित हो गया। अब हम कोई घुसपैठिये नहीं थे। अब हमारे ऊपर कोई संदेह नहीं करेगा बल्कि अब इस द्वीप के स्वामी कहो या राजा, महाराजा जो भी कहो हम थे और हमारे साथ आये सारे लोग हमारे साथ बिल्कुल वैसा ही व्यव्हार कर रहे थे जैसा उन्हे एक राजा के साथ करना चाहिये।
यह सब देख मुझे सेनापति के उस गुप्तचर की याद आ गई। आज वह जीवित होता तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होती? वह बेकार में ही षड्यंत्र का शिकार हुआ और अपने परिणाम को प्राप्त हुआ। यदि वह प्रेम में मेरा प्रतिद्वंदि न होता? लेकिन यह उसके हाथ में नहीं था और प्रतिद्वंदि होना कोई अपराध भी नहीं। किंतु यदि उसने उसने प्रेम को पाने के लिये और अपने प्रतिद्वंदि को हराने के लिये षड्यंत्र का सहारा न लिया होता। उसने केवल अपने निजि उद्देश्य के लिये दुस्साहसपूर्ण षड्यंत्र किया था। एक छोटे निजि उद्देश्य के लिये उसने एक समूचे देश को सैनिक विद्रोह के खतरे में डाल दिया था। शायद वह इसी परिणाम का अधिकारी था।
आज मेरे इस नतीजे पर पहुंचना मेरे अंदर उत्पन्न भारी परिवर्तन का परिणाम था।
मैंने अपने इस परिवर्तित सोंच और दृष्टिकोण से अभियान सहायक महोदय को आवगत करा दिया। वे पहले मुस्कुराये फिर बोले, “मैं जानता था आप ऐसा ही सोंचेंगे क्योंकि आपकी अवस्था ही आपके विचारों और निर्णयों को प्रभावित करती है। इसी कारण मैं कहता हूँ कि न्याय वही कर सकता है जो सारे संस्कारों, सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। जिसके लिये सारे मनुष्य एक समान हो। न कोई छोटा न कोई बड़ा। न कोई नीच न कोई ऊंच। न कोई धर्मात्मा न कोई पापात्मा। सिर्फ मनुष्य। यदि दोषी है तो दंड का अधिकारी अथवा क्षमा का और निर्दोष है तो सम्मान का; चाहे वह कोई भी हो।”
“मैं यह भी जानता था कि समय के साथ आपके अंदर प्रशासनिक गुण भी विकसित हो जायेंगे, क्योंकि समय अपनी आवश्यकतानुसार ही मनुष्य को ढाल ही लेता है। और जो नहीं ढलता उसे समय के कूड़ेदान में फेंक देता है।” कुछ ठहरकर यह बात और जोड़ दी।
इसके पश्चात उन्होने अपनी पुत्री से मेरे विवाह की घोषणा कर दी।
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अब हम यहीं बस गये। हमारे साथ जितने लोग इस अभियान में सम्मिलित थे उन्हें भी यह टापू इतना पसंद आया कि उनमें से अधिकांश ने हमारे निवेदन का सम्मान करते हुये अपने परिवार सहित यहाँ निवास करना स्वीकार किया। हमारा यह निर्जन टापू अब जीते जागते लोगों चहल पहल से खिल उठा। खेती बाड़ी और व्यापार होने लगा। जो जलदस्यू यानि समुद्री लुटेरे पकड़े गये थे उन्हें भी, कभी किसी भी अपराध में सम्मिलित नहीं होने की शर्त पर शरण दे दी गई। मत्स्यमानवों के परिवारों से उनमें से कुछ के रिश्ते भी जुड़ गये और वे सफल पारिवारिक जीवन जीने लगे। यह देख बाकी जलदस्युओं ने भी शरण मांगी और उनके अपने द्वीप पर भी लोगों को बसने के लिये आमंत्रित किया और इस प्रकार उस पूरे क्षेत्र में जलदस्यु समस्या का निराकरण हुआ और चारों ओर शांति छा गई। इससे अब व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ने लगी और बाहरी दुनिया से हमारे सम्बंध विकसित होने लगे।
जब सब ओर शांति हो, हमारे सामने कोई संकट न हो, भविष्य की चिंता न हो, तब हमारा मन अतीत की ओर भागता है। अतः अब मेरा मन अपने देश और अपने छूटे हुये परिवार अपने माता पिता और भाई बहनों के लिये मचलने लगा। तो मैंने गेरिक से बात की और सपत्निक अपनी जन्मभूमि की यात्रा की तैयारी में जुट गया। अब तक कई व्यापारी समूहों से हमारे सम्बंध प्रगाढ़ हो चुके थे अतः अपनी मातृभूमि तक की यात्रा अब हमारे लिये कोई समस्या नहीं थी। गेरिक स्वयम् एक बार अपने देश जाकर वापस आ चुका था।
तो हमने भी एक व्यापारी जहाज़ के साथ रवाना हो गये।
मेरी पत्नि जो शायद समस्त संसार में सबसे सुंदर स्त्री थी। मेरे साथ थी। मैं प्रसन्न था। सिर्फ इस कारण नहीं कि मेरी पत्नि विश्व की सबसे सुंदर स्त्री थी। या सिर्फ इस लिये भी नहीं कि वह मेरे साथ थी। इसका सबसे बड़ा कारण था कि मैं अपने अतीत की यात्रा पर था। वह यात्रा जो विश्व की सबसे रोमांचक यात्रा होती है...
क्योंकि जहाँ भविष्य अज्ञात होकर भी आकर्षण उत्पन्न नहीं करता, वहीं अतीत ज्ञात होकर भी आकर्षित करता है; चाहे वह कितना भी कष्टदायक रहा हो। अतीत कितना भी कष्टदायक हो मानव के लिये उसकी स्मृतियाँ सदैव सुखकर प्रतीत होती हैं।
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जारी...
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-भाग 24
हाँ भी और ना भी
(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)