(१)
जय हो बकरी माई
बकरी को प्रतीक बनाकर मानव के छद्म व्यक्तित्व और बाह्यआडम्बर को परिभाषित करती हुई एक हास्य व्ययांगात्म्क कविता।
सच कहता हूँ बात बराबर,सुन ले मेरे भाई,
तुझसे लाख टके है बेहतर तेरी बकरी माई।
तू मेरा दिमाग चबाये, और बकरी ये पत्ता,
तू बातों से मुझे पकाए बात बुरी पर सच्चा।
घर की बकरी से घर का भोजन चलता है सारा,
पर बकरी का दाना पानी घास पात हीं चारा।
जो तेरे सर हाथ फिराए सिंग नहीं पर मारे सिंग,
बकरी तो दे दूध बेचारी क्या रात हो क्या हो दिन।
तेरी शादी का क्या भैया पैसे का हीं खेल निराला,
जन्म की पतरी शुभ मुहूर्त छेंका गौना मेल हो सारा।
ना कोई पंडित के नखरे, ना कोई मुल्ला का झंझट,
ले आओ एक बकरा नन्हे बकरे आ जाते हैं झटपट।
ना हिन्दू मुस्लिम का लफड़ा ना कोई देश विदेश ,
बकरी जाने घास पात ना जाने जाति विशेष।
ये बकरी सोने की मुर्गी सोने जैसा दूध का अंडा,
ये धंधा है चोखम चोखा कभी नहीं होता है मंदा।
डेंगू वेन्गू मरदाना कमजोरी दूर भगाए बकरी,
इसीलिए तो गाँधीजी के साथ हमेशा होती बकरी।
इस बकरी को दुह दुह के गाँधी बाबा बन गए पठ्ठा ,
उम्र पचासा पार गए फिर भी तरुणी से करते ठठ्ठा।
इतनी छोटी सी बकरी पर ऐसी इसकी जात ,
पीकर गाँधी दूध इसी के खट्टे कर दिए दांत।
इसीलिए कहता हूँ सुन लो भैया और भौजाई,
बार बार दुहराते जाओ जय हो बकरी माई।
(२)
मिटटी में गाँव में
शहरीकरण के अंधाधुन दौड़ ने गाँव मे बीतती हुई बचपन के अल्हड़पन को लगभग विलुप्त सा कर दिया है। प्रस्तुत है ग्राम्य जीवन के उन्हीं विलुप्त हुई बचपन के स्वप्निल मधुर स्मृतियों को ताजा करती हुई कविता।
धुप में छाँव में , गली हर ठांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।
बासों की झुरमुट से , गौरैया लुक छिप के ,
चुर्र चूर्र के फुर्र फुर्र के, डालों पे रुक रुक के।
कोयल की कु कु और , कौए के काँव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।
फूलों की कलियाँ झुक , कहती थी मुझसे कुछ ,
अड़हुल वल्लरियाँ सुन , भौरें की रुन झुन गुन।
उड़ने को आतुर पर , रहते थे पांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।
वो सत्तू की लिट्टी और चोखे का स्वाद ,
आती है भुन्जे की चटनी की जब याद ।
तब दायें ना सूझे कुछ , भाए ना बाँव में ,
थकते कहाँ थे कदम मिटटी में गाँव में।
बारिश में अईठां और गरई पकड़ना ,
टेंगडा के काटे पे झट से उछलना ।
कि हड्डा से बिरनी से पड़ते गिराँव में ,
थकते कहाँ थे कदम मिटटी में गाँव में।
साईकिल को लंगड़ा कर कैंची चलाते ,
जामुन पर दोल्हा और पाती लगाते।
थक कर सुस्ताते फिर बरगद की छाँव में,
थकते कहाँ थे कदम मिटटी में गाँव में।
गर्मी में मकई की ऊँची मचाने थी,
जाड़े में घुर को तपती दलाने थीं।
चीका की कुश्ती , कबड्डी की दांव में,
थकते कहाँ थे कदम मिटटी में गाँव में।
सीसम के छाले से तरकुल मिलाकर ,
लाल होठ करते थे पान सा चबाकर ,
मस्ती क्या छाती थी कागज के नाँव में
थकते कहाँ थे कदम मिटटी में गाँव में।
बरगद की डाली पे जुगनू की टीम टीम वो,
मेढक की टर्र टर्र जब बारिश की रिमझिम हो।
रुन झुन आवाजें क्या झींगुर के झाव में,
थकते कहाँ थे कदम मिटटी में गाँव में।
धुप में छाँव में , गली हर ठांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।