ग़लत पते की चिट्ठियाँ- योगिता यादव राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ग़लत पते की चिट्ठियाँ- योगिता यादव

आज के इस अंतर्जालीय युग में जब कोई चिट्ठी पत्री की बात करे तो सहज ही मन में उत्सुकता सी जाग उठती है कि आज के इस व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर के ज़माने लिखी गयी इन चिट्ठियों में आखिर लिखा क्या गया होगा या इन्हें किसने..किसको और क्या सोच कर भेजा होगा? क्या सही समय पर...सही चिट्ठी अपने नियत तय स्थान या पते पर पहुँच गयी होगी अथवा बराए मेहरबानी डाक विभाग, अपनी मंज़िल से भटकती हुई , ग़लती से इधर की चिट्ठी उधर और उधर की चिट्ठी इधर तो नहीं पहुँच गयी होगी?

दोस्तों...इसी बात को अगर हम इस तरह से ले कर चलें कि....

"कहते हैं कि जोड़ियां ऊपर स्वर्ग में बनती हैं और ऊपरवाले की मर्ज़ी से ही ये सब तय होता है कि किसकी जोड़ी किसके साथ बनेगी।"

मगर यह भी तो सार्वभौमिक सत्य है ना कि सभी रिश्ते सफल नहीं हो पाते और किसी ना किसी कारणवश टूट जाते हैं या फिर कई बार ऐसे अवांछनीय रिश्तो को मजबूरीवश सालों तक बिना किसी उम्मीद के घसीटा, झेला या फिर ठेला जाता है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर यह प्रश्न उठना लाज़िमी हो जाता है कि क्या ऊपर वाले ने इस जोड़ी या इस रिश्ते को बना कर ग़लती की? या फिर उसने भी डाक विभाग की ही तरह भूल करते हुए त्रुटिवश ग़लत पते पर सही चिट्ठी भेज दी अथवा सही चिट्ठी को ग़लत पते पर बतौर लज़ीज़ व्यंजन परोस दिया?

दोस्तो....आज मैं बात कर रहा हूँ हमारे समय की विख्यात कहानीकार योगिता यादव जी के कहानी संग्रह "ग़लत पते की चिट्ठियां" की और उपरोक्त सभी बातें मैंने इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी को ले कर कही। रोचक एवं धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की छोटी छोटी कहानियों में एक खास बात नज़र आयी कि हर खुद कहानी पाठक को अपनी तरफ खींचते हुए मजबूर करती है कि वह उन्हें पढ़े और पढ़ता रहे।

उनके इस संकलन की किसी कहानी में प्रभावी पत्रकारिता के गुणों की विस्तार से चर्चा है जैसे कि...

• पत्रकारिता की हर पंक्ति में सूचना होनी चाहिए।
• तथ्यों के बिना सूचना मानों कीड़ा लगा गेहूं है।
• सूचना के साथ-साथ शोध और संदर्भ की गहरी अनिवार्यता है।

पत्रकारिता से जुड़ी इस कहानी में उनका शोध और तजुर्बा साफ दिखाई देता है। तो किसी कहानी में होनहार को भी पारिवारिक मजबूरियों के चलते थक टूट कर हार मानते हुए दिखाया गया है। उनकी किसी कहानी में शक की बिनाह पर पारिवारिक रिश्ता टूटने की कगार पर खड़ा है। तो कही किसी कहानी में चिड़ियों के माध्यम से हमारे देश में स्त्री की दुर्दशा का वर्णन है।

कोई कहानी अख़बारी दफ्तरों और उनकी तनाव भरी कार्यशैली का वर्णन करती है कि किस तरह काम के बेहद दबाव के बीच उन्हें अपने सभी दुख...सभी दर्द भूल कर हर हालत में समय पर अख़बार को निकालना होता है।

इस संकलन की किसी कहानी में जहाँ एक तरफ मासिक धर्म के जिक्र के बहाने खुद को आधुनिक कहने तथा मानने वाले तथाकथित पुरुषों की ओछी, दकियानूसी सोच एवं उनके दोहरे मापदंडों पर मज़बूती से सवाल उठाया गया है। वहीं दूसरी तरफ किसी कहानी में पुरानी यादों के ज़रिए तलाक के मुहाने पर बैठी युवती के आत्ममंथन और सुलह की अंतिम कोशिश या आस का जिक्र है।

किसी कहानी में निरंतर आगे बढ़ने, तरक्की करने की महत्त्वकांक्षा को ले कर आपाधापी में जी रहे एक नौकरीपेशा युवक और युवती की कहानी है जिसमें युवक बड़ी गाड़ी और अपने खुद के फ्लैट की चाहत के मद्देनज़र अभी बच्चा पैदा नहीं करना चाहता। ऐसे में जब चार सालों से अपनी मर्ज़ी से गर्भपात करा रही युवती जब पाँचवी बार माँ बनने का निर्णय लेती है तो क्या वो माँ बन पाती है?

इस संतुलन की कुछ कहानियां मुझे बेहद पसंद आई जिनके नाम इस प्रकार हैं।

• ग़लत पते की चिट्ठियाँ
• शहर सो गया था
• अश्वत्थामा पुन: पुनः
• पीड़ का पेड़
• यह गयी रात के किस्से हैं
• बन्नो बिगड़ गई
• काँच का जोड़ा
• ये दिन अभी तांबई है

इस संकलन में कहीं हल्के से स्त्री के सशक्तिकरण की तो कहीं बग़ावती सुर लिए स्त्री विमर्श की झलक भी दिखाई देती है। कुछ जगहों पर टाइपिंग की छोटी मोटी ग़लतियाँ दिखाई दी जैसे एक जगह कमोड(टॉयलेट सीट) की जगह ग़लती से कबोर्ड लिखा गया। किताब में भीतरी कागजों की क्वालिटी
ठीकठाक है लेकिन किताब का कवर कमज़ोर लगा। जिसे थोड़ा मोटा होना चाहिए था।

120 पृष्ठीय इस संग्रणीय कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹190/- जो कि किताब के कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभ कामनाएं।