बीड़ी Anurag mandlik_मृत्युंजय द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बीड़ी

खेत पर गेंहू में पानी चल रहा था और मैं किनारे पर बैठकर जहां कल पाइप का मुंह रखा हुआ था वहां की भुरभुरी मिट्टी से खेल रहा था।उस समय मेरी उम्र लगभग आठ या नौ वर्ष की रही होगी। उस उम्र में हर चीज में एक नयापन और परत दर परत नए नए कौतूहल नजर आते थे। खेत के अंदर से फसलों को पानी देकर काका जैसे ही बाहर आए उन्होंने मेरे हाथ में दस रुपए देते हुए कहा कि...
"ये ले शाम को आए तो मेरे लिए बीड़ी लेते आना, आज रातभर यहीं रहकर सिंचाई करनी है, दो चार बीड़ी सुलगा लूंगा तो ठंड भी नहीं लगेगी और रात भी कट जाएगी।"
मैने पैसे लिए और दौड़ता हुआ खेत से घर ना जाकर सीधा गांव में दुकान पर पहुंच गया। जैसे ही बीड़ी लेने के लिए जेब में हाथ डाला तो रुपए गायब थे... मेरे मन में एक धक्का सा लगा, मैने तुरंत दूसरी जेब टटोली, फिर शर्ट की जेब में देखा.... मन पूरी तरह से निराश हो गया रुपए कहीं भी नहीं थे.... बहुत ही छोटी सी मजदूरी लेकर मेरे खेत पर काम करने वाले अंतरसिंह काका कैसे दस रुपए लाए होंगे? पांच रुपए की बीड़ी आ जाती और बाकी के पांच रुपए उनके किसी और काम में आते। आज ये कैसी गलती मुझसे हो गई...यही सब सोचते सोचते लगभग रूलाई फूट पड़ी। उदास सा मै थोड़ी देर वहीं खड़ा रह गया, फिर सोचा कि रास्ते में कहीं गिर गए होंगे ढूंढूंगा तो शायद मिल भी सकते हैं। मै तुरंत दौड़ता हुआ उसी रास्ते पर आया और बड़ी बारीकी से जगह जगह दौड़ दौड़कर देखने लगा, आधा रास्ता देख लिया था मगर रुपए कहीं नजर नहीं आए। शाम हो चली थी घर जाकर होमवर्क भी करना था और कल सुबह वापस स्कूल भी जाना था। मगर मै था कि काका के दस रूपए ढूंढे बगैर घर जाने का सोचता तो लगता कि कोई पाप कर रहा हूं। ढूंढ़ते ढूंढ़ते बहुत आगे निकल आया। यहां तक कि अब तो डेरे वालों के मोहल्ले में जहां काला कुत्ता बैठा होता था वह घर भी आ गया।मुझे आज उस कुत्ते का कोई डर नहीं लगा, बल्कि वह कुत्ता भी मुझे परेशान सा कुछ ढूंढ़ते हुए बड़ी बेचैनी से देख रहा था। मैने बहुत ढूंढा मगर कहीं रूपयों का नामोनिशान नहीं था । थक हारकर मैने घर का रास्ता पकड़ा। अब सोच रहा था कि काका को क्या जवाब दूंगा, बीड़ी के बिना इतनी कड़क ठंड में पानी कैसे देंगे? रात कैसे कटेगी उनकी? शाम को जब वो कहानी सुनाने आएंगे और जाते वक्त बीड़ी मांगेगे तो उनको क्या दूंगा?
दादी बड़ी देर से मुझे ही देख रही थी, चूल्हे के पास आग तापते हुए मै चुपचाप सा बैठा था साथ ही दादी और मम्मी भी बैठी थी, अचानक से दादी ने पूछा कि
"बेटा आज तू अनमना सा क्यों है, रोज स्कूल से आने के बाद तो तू खेलता है, आज खेलने नहीं गया, राहुल के घर टीवी देखने जाता है वहां भी नहीं गया... हुआ क्या है, स्कूल में मार पड़ी? की किसी से लड़ाई हुई?"
दादी ने सवालों की झड़ी लगा दी, और दिनभर से जो जमा हुआ दर्द था वो आत्मीयता भरी विश्वासपूर्ण बातें सुनकर आंसुओ के साथ पिघल गया... सारी बाते जो दिनभर में घटित हुई थी मै दादी और मम्मी के सामने सबकुछ कहता चला गया। कैसे मै खेत से दौड़ता हुआ आया और कैसे पैसे घूम गए, अब काका के आने का वक्त था इसलिए मै परेशान था।दादी ने कहा "तू चिंता मत कर, मैं तेरे काका से कह दूंगी। और उनके दस रुपए मैं दे दूंगी। मम्मी ने कहा..."
दादी की इस बात को सुनकर मुझे इतना अच्छा लगा जिसकी कल्पना आज भी हृदय को आनंद से भर देती है। काश ऐसी दादी सभी को मिले , मैने मन में सोचा।
काका आए घर में आते वो मुझे ही ढूंढ़ रहे थे । आते ही दादी ने सारा घटनाक्रम उनको सुनाया... काका ने भी मुझे गोद में उठाया और कहा कोई बात नहीं बेटा, इतनी सी बात पे इतने परेशान थोड़ी होते हैं। इन सबके प्रेम ने मेरा दिनभर का परेशान बालमन फिर से प्रफुल्लित कर दिया और मैं फिर अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए दौड़ पड़ा।।

अनुराग मांडलिक "मृत्युंजय"